निराला राष्ट्रीय आंदोलन से गहरे सम्बद्ध थे। वे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की नीतियों पर टिप्पणी, आलोचना तो करते ही थे, साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं की शक्ति और सीमा पर बेबाक, निर्भीक विचार रखते थे।
इस क्रम में निराला गांधी पर अपने विचार कई टिप्पणियों में व्यक्त करते हैं। महात्मा गांधी के लिए निराला प्रायः ‘महात्मा’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं।
‘महात्मा’ पद रवींद्र नाथ टैगोर ने गांधी के लिए प्रयोग किया था। निराला भी इस शब्द को वहीं से लेते हैं। निराला के ऊपर बंगाल और उसके अग्रदूतों के प्रभाव पर अलग से चर्चा हो आयी है।
यहां दोहरा देना जरूरी है, कि निराला, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और रवीन्द्र नाथ टैगोर से गहरे प्रभावित थे। कहने का आशय यह, कि गांधी के लिए ‘महात्मा’ पद का प्रयोग निराला ने टैगोर से लिया। खैर
1939 ईस्वी में निराला ने एक स्फुट निबंध लिखा। इसका शीर्षक है ‘गांधी जी से बातचीत (इंटरव्यू द्वारा प्राप्त)’। यह उनके निबंध संकलन प्रबंध प्रतिमा में संकलित है। इसमें निराला, गांधी जी का परिचय इस तरह देते हैं,
“गुलामी को शिकस्त देने की आवाज देश में सबसे बुलंद गांधीजी की है। गांधीजी को उनके जीवन-काल में, बुद्ध और क्राइस्ट की समता उनके भक्तों ने दी है। गत दोनों आंदोलन जिन्होंने देखे हैं- दरकिनार रहे हुए भी- उनकी ताकत, उनके जादू का प्रभाव उन लोगों पर पड़ा है। गांधीजी का जीवन केवल बाहरी स्वतंत्रता की लड़ाई का जीवन है।”
आजादी की लड़ाई में गांधी जी का योगदान बड़ा है। यह निराला भी मानते हैं। गांधी जी के भक्त उन्हें बुद्ध और क्राइस्ट की समता देते हैं। निराला ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि वे तर्क और विवेक से चलते हैं। जबकि, भक्त आस्था से चलता है। फिर, निराला लिखते हैं, गांधी जी का जीवन केवल बाहरी स्वतंत्रता की लड़ाई का जीवन है। बाहरी स्वतंत्रता अर्थात, राजनीतिक स्वतंत्रता। यह निराला की निरीक्षण दृष्टि है। इस एक पंक्ति से समझ में आ जाता है, कि निराला ने गांधी जी के कार्यक्रमों, निर्णयों और विचारों को सतत ढंग से नजर में रखा है।
निराला के इस निर्णय को कोई जांच सकता है, जब वह गांधी जी के सापेक्ष भगत सिंह और उनके साथियों के कार्यक्रम, डॉ. भीमराव अंबेडकर के कार्यक्रम तथा अवध एवं बिहार के किसान आंदोलन को रखेगा।
इसके अलावा 1930-31 के अपने उपन्यास ‘गबन’ में प्रेमचंद जब जान की जगह गोविंद के सत्ता में आ जाने को आजादी नहीं मानते। भगत सिंह गोरे शासक की जगह काले शासक के आ जाने को आजादी नहीं मानते, तो यह गांधी की आजादी की संकल्पना का प्रति-विचार ही है।
निराला के लिए आजादी या स्वतंत्रता का विचार मनुष्य के संपूर्ण वजूद से जुड़ा है। इसीलिए निराला लिखते हैं, कि गुलामी को शिकस्त देने वाली सबसे बुलंद आवाज गांधीजी की है, लेकिन फिर यह भी लिखते हैं, कि गांधीजी का जीवन बाहरी स्वतंत्रता की लड़ाई का जीवन है। मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता की बात होगी, तो उसकी बाहरी और भीतरी दोनों स्वतंत्रता उसमें शामिल होगी।
उसमें जाति-वर्ण की गुलामी, धर्म की नैतिकता से स्वतंत्रता की बात आएगी। निराला का पूरा रचनात्मक संघर्ष तो यही है। अर्थात, पूर्ण स्वाधीन मनुष्य। निराला का संघर्ष इसीलिए तो भीषण है। जो यह नहीं जानेगा, उसे निराला की कुछ बातें हेठी लगेंगी, दम्भपूर्ण लगेंगी। ‘नेहरू जी से बातचीत’ लेख को लेकर कुछ विद्वान निराला को इस तरह देखते हैं।
जबकि, निराला इन नेताओं से उन सभी प्रश्नों और चिंताओं के अंतर्गत मुखातिब होते हैं, जिसका संबंध स्वाधीनता के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वत्व के निर्माण, हिंदी जातीयता के निर्माण, सामाजिक मुक्ति के प्रयास से जुड़ा है।
आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील चेतना के स्तर पर रवींद्र नाथ टैगोर जैसे साहित्यकार राष्ट्रीय नेताओं से कहीं ज्यादा उन्नत थे। वहीं, हिंदी के साहित्यकारों में प्रेमचंद, निराला ऐसे ही रचनाकार हैं, जो अपने बोध और चेतना में राष्ट्रीय नेताओं से अधिक उन्नत हैं। वह चाहे गांधी और नेहरू ही क्यों न हों!
निराला के लिए स्वाधीनता बहुमुखी है। साथ ही, वह खुद निराला के व्यक्तित्व में, क्रियाकलाप में शामिल है। निराला लिखते हैं,
“इस मन से जांच करने पर महात्माजी की कुल क्रियाएं एक सापेक्षता लिए हुए हैं वे जैसे स्वतंत्रता के लिए लागू होती हैं, वैसे ही महात्मा गांधी के व्यक्तित्व निर्माण के लिए। उदाहरण में हिंदी को लें।”
गौरतलब है, कि निराला हिंदी की एक जातीय अस्मिता को बनता हुआ देखना चाहते थे। ठीक उस तरह से जैसे उन्होंने बंगाल में रहते हुए बांग्ला जातीयता या राष्ट्रीयता को देखा था।
निराला भी उन्हीं गुणों और तत्वों को हिंदी में देखना चाहते हैं। इसीलिए हिंदी या हिंदुस्तानी को लेकर निराला संवेदनशील हैं, सचेत हैं। आगे वे लिखते हैं,
“हिंदी राष्ट्रभाषा है, यह आवाज गांधीजी की बुलंद की हुई है।…उनके इस आवाज उठाने के साथ तमाम हिंदीभाषी उनके साथ हो गये- नेता को यही चाहिए। गांधीजी हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति एक इसी आवाज के बल पर हुए थे- इंदौर में- पहले। नेता को कुछ काम भी करना पड़ता है, सहानुभूति पाने के लिए या लोकप्रियता के लिए। मद्रास में महात्माजी ने हिंदी का प्रचार शुरू किया। उस समय अगर उर्दू या हिंदुस्तानी का ध्यान महात्माजी को होता तो इस ज़ोर से मद्रास में हिंदी का प्रचार न कराते- जहां बगल में ही, हैदराबाद में ही उर्दू की प्रतिष्ठित सत्ता है। यह एक तरह हिंदी-उर्दू का टग-ऑफ-वार, रस्साकशी हुआ। उर्दू के और भविष्य की हिंदुस्तानी के पक्षपाती, या कुछ नहीं केवल अपने नेतृत्व के पक्षपाती, गांधी द्वारा हुआ।”
यहां बहुत ही महत्वपूर्ण बात निराला कह रहे हैं। इसका संबंध राष्ट्रीय एकीकरण से है, राष्ट्र निर्माण की बुनियाद से है।
भाषा का सवाल किसी भी राष्ट्र निर्माण में सबसे प्रमुख होता है। यूरोपीय देशों का निर्माण हो, रूसी, चीनी क्रांति और उसके बाद राष्ट्र निर्माण हो, सब में भाषा प्रमुख तत्व रहा है। सबको यह प्रश्न हल करना पड़ा है।
लेनिन और माओ ने राष्ट्रीयता और भाषा के सवाल को जनवादी लोकतांत्रिकता के साथ हल किया। किसी भी आधुनिक राष्ट्र निर्माण में छोटी-बड़ी भाषाई राष्ट्रीयताओं को सम्मान देना होता है। लेनिन और माओ ने ऐसा किया। लेकिन, भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान, इस प्रश्न को राष्ट्रीय नेताओं ने महत्व नहीं दिया, या जो समाधान दिया उसने इस प्रश्न को और उलझाया, और जटिल किया। आज तक यह प्रश्न उलझा हुआ है। ऐसे में निराला कितनी महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं, कि बगल के हैदराबाद में उर्दू या हिंदुस्तानी मान्य और स्थापित भाषा है और मद्रास में गांधीजी हिंदी का प्रचार कर रहे हैं।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए, तो उर्दू या हिंदुस्तानी भाषा हिंदी का ही दक्षिणी रूप है। दक्कन के मुस्लिम राज्यों द्वारा, तुगलक द्वारा तुगलकाबाद को दक्षिण में राजधानी बनाने की प्रक्रिया में यह भाषा बनी। अर्थात, दक्षिण में उर्दू या हिंदुस्तानी का प्रचार होता तो दक्षिण के राज्य हिंदी के विरोध में न खड़े हो जाते।
राष्ट्र निर्माण के बहुत बुनियादी सवाल को गांधी जैसे बड़े नेता समझ नहीं सके। उसकी ऐतिहासिक स्थिति को किनारे रखा। समाधान की बजाय टग-ऑफ-वार, रस्साकशी को जन्म दिया। एक ही भाषा के दो रूपों को एक दूसरे से भिन्न और विरोध में खड़ा कर दिया।
आगे चलकर हिंदूवादी सांप्रदायिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने इसे धार्मिक, सांप्रदायिक विभाजन का आधार बनाया और पूरे दक्षिण भारत में प्रचलित भाषा को, हिंदी के ही एक रूप को, मुसलमान की भाषा तक सीमित कर दिया। इस सांप्रदायिक भाषाई राजनीति की जड़ निःसंदेह आजादी की लड़ाई के भीतर थी।
निराला लिखते हैं,
“खैर, हमारा मतलब महान गांधीजी की भाषा संबंधी राजनीति से है।” वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष ढंग से देखने पर कोई भी इस राजनीति को दोषपूर्ण पायेगा। निराला ने भी पाया। वह आगे लिखते हैं,
“मैंने भी वस्तु और विषय की स्वतंत्रता की तरफ ध्यान रखा है, एक साहित्यिक की तरह, एक कवि की तरह, एक दार्शनिक की तरह। मेरा उद्देश्य था और है, स्वतंत्रता बहुमुखी है और साहित्य का मतलब है- वह सबको साथ लिए रहे। इसी दृष्टि से दूसरे जाग्रत राष्ट्रों और उन्नतशील साहित्यों के नमूने देखते हुए, अपने गत और वर्तमान राजनीति और साहित्य को समझते हुए, देश के विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, प्रांतीय भाषाओं, लोगों के अचार-विचारों के भीतरी रूप जानते हुए, बाहरी संसार से उनके सहयोग का रूप देखते हुए जो साहित्य का निर्माण करते हैं, वे साथ-साथ जाति और राष्ट्र का भी निर्माण करते हैं।”
निराला ‘स्वान्तः सुखाय’ लिखने वाले रचनाकार नहीं थे। निराला दायित्वपूर्ण और सामाजिक-राजनीतिक सरोकार के साथ लिखने वाले रचनाकार थे। ऐसा लेखन जो साहित्य के साथ जाति और राष्ट्र का निर्माण करता है। ऐसा लेखक भाषा जैसे अहम सवाल पर गांधी जी की सीमाओं को दिखाता है, तो वह ध्यान देने वाली बात है।
स्वयं निराला के पास भाषा का जो समाधान है, वह महत्वपूर्ण है। राजनीतिक नेतृत्व इसे समझने में विफल रहा। नतीजा, आज भी भारत उसका खामियाजा भुगत रहा है।
महात्मा गांधी 1935 ईस्वी में हिंदी साहित्य सम्मेलन, इंदौर के सभापति चुने गए थे। इस दौरान उन्होंने जो भाषण दिया और बाद में उस भाषण पर जो क्रिया-प्रतिक्रिया हुई, निराला ने उस पर ‘सुधा’ में एक टिप्पणी ‘सम्मेलन और महात्माजी’ शीर्षक से लिखी। यह टिप्पणी जून, 1935 ईस्वी में छपी। इसमें निराला ने लिखा,
“महात्माजी ने जिन लोगों के नाम गिनाकर अपने भाषण में महत्व दिया है, वे महात्माजी के भक्त हो सकते हैं, पर हिंदी-साहित्य में उनका कोई उल्लेख-योग्य स्थान नहीं। इससे हिंदी साहित्यिकों की दृष्टि में महात्माजी का सम्मान वाला स्थान कुछ घट गया है। महात्माजी ने पं. बनारसीदासजी चतुर्वेदी की सहायता से रामानंद बाबू के ‘विशाल भारत’ निकालकर हिंदी के प्रचार का जो उल्लेख किया है, वह महात्माजी की महत्ता का परिचायक तो है, पर दूरदर्शिता का नहीं।…चतुर्वेदीजी कुछ दिन श्री रवींद्र नाथ ठाकुर के यहां भी रह चुके हैं। ‘विशाल भारत’ या वृहत्तर भारत की कल्पना वहीं की है। पर, ‘विशाल भारत’ के ज्ञान और विवेचन के संबंध में यदि बहस हो तो पं. बनारसीदासजी चतुर्वेदी वहां मौन रहने के सिवा कुछ बोल भी सकते हैं, हमें ऐसा विश्वास नहीं, उन्होंने अब तक अपने इस ज्ञान का प्रदर्शन भी नहीं किया।”
हिंदी भाषा और साहित्य पर गौर करें, तो उस दौर में तब तक प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद आदि रचनात्मक लेखन के साथ साहित्यिक पत्रकारिता में भी हस्तक्षेपकारी कार्य कर चुके थे।
इसके पहले ‘सरस्वती’ पत्रिका ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ विचार-विमर्श में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान कर दिया था।
‘चांद’, ‘हंस’, ‘माधुरी’, ‘सुधा’ आदि पत्रिकाएं साहित्य के साथ राष्ट्रीय जागरण, नवीन चेतना को लेकर उठे नये विचार-विमर्श को जगह दे रहे थे।
ऐसे में निराला, गांधी जी की दूरदर्शिता पर ठीक ही प्रश्न उठाते हैं। निराला अपनी टिप्पणी में आगे लिखते हैं,
“महात्माजी ने हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति के आसान से भाषण करते हुए हिंदी को तीसरा या इससे भी घटकर स्थान दिया है। यह असत्य होने के कारण श्रेष्ठ का अपमान है।”
1935 ई. की ही एक टिप्पणी ‘साहित्य का प्रचार’ में निराला लिखते हैं,
“जो साहित्य उन्नत दशा में हो और बहुत तीव्र गति से और भी समुन्नत हो रहा हो, उसकी पठित जनता को ऐसा न होना चाहिए, उसे अपने साहित्य और साहित्यिकों का गर्व होना चाहिए। उसे दूसरे साहित्यिकों से बातचीत में कदापि नतमस्तक न होना चाहिए।”
यह टिप्पणी महात्मा गांधी के इस कथन पर निराला ने की है, जिसमें उन्होंने हिंदी में अश्लीलता के प्रचार का उल्लेख किया है। यह कथन स्वयं में अगंभीर और गैर जिम्मेदारी से भरा, सुनी-सुनाई बातों के आधार पर किया गया है।
महात्मा गांधी कई अन्य बातों में प्रयोग और परीक्षण करते रहते थे, फिर हिंदी साहित्य पर उन्होंने ऐसी टिप्पणी अपने इर्द-गिर्द साहित्य के स्वघोषित अगुआ बने लोगों के आधार पर की। निराला इसमें बनारसी दास चतुर्वेदी का नाम भी लेते हैं। हिंदी साहित्य में यह जितने लोग थे, अपने मूल्य और नैतिकता में पिछड़े हुए थे। उनमें आधुनिक बोध का अति अभाव था। ऐसे में निराला की इनसे टकराहट होनी ही थी।
निराला आधुनिक बोध से लैश ही नहीं, बल्कि उसे जीने वाले और उसके लिए संघर्ष करने वाले रचनाकार थे। उनके लिए यह सिर्फ साहित्य का मूल्य नहीं था, बल्कि राष्ट्र निर्माण का भी मूल्य था, जीवन का भी मूल्य था।
निराला ‘चेतन’ के हमीदार थे। वे ‘जड़’ को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं करते थे। अपनी इसी कसौटी पर वे राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को भी कसते हैं। महात्मा गांधी भी उसमें आते हैं।
निराला सामाजिक संस्थागत प्रश्नों पर भी आधुनिक और प्रगतिशील बोध से, नवीन चेतना के अंतर्गत विचार करते हैं।
जाति-वर्ण, धर्म से लेकर विवाह, खान-पान आदि पर निराला इसी कसौटी से विचार करते हैं। निराला इन प्रश्नों को राष्ट्र निर्माण से जोड़ते हैं। इसीलिए वह इस पर राष्ट्रीय नेतृत्व पर भी, इसके अनुकूल न होने पर टिप्पणी करते हैं। उनकी आलोचना करते हैं। उनके कथनी और करनी या सिद्धांत और व्यवहार के अंतर्विरोध को पकड़ते हैं।
निराला किसी व्यक्तित्व की महानता से उसे नहीं जानते, उसके गुण-दोष को राष्ट्रीय हित के सापेक्ष देखते हैं, विचार करते हैं। महात्मा गांधी को भी वह इसी तरह की कसौटी पर रखते हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन में निराला गांधी को सबसे प्रबल आवाज मानते हैं, लेकिन उनके अंतर्विरोधों को चिन्हित भी करते हैं। स्वाधीनता और भाषा को लेकर, राष्ट्रीय एकीकरण को लेकर पीछे बात हो आयी है।
जाति-वर्ण, विवाह, खान-पान आदि को लेकर निराला महात्मा गांधी के अंतर्विरोध चिन्हित करते हैं।
अपने लेख ‘वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति’ में यथा प्रसंग निराला लिखते हैं,
“यदि महात्माजी की तरह विवाह का एक सूत्र निकाल दिया जाएगा, कि एक अछूत एक ब्राह्मण-कन्या से विवाह कर सकता है, तो उत्तर में यह कहने वाले बहुत हैं, कि एक ब्राह्मण-कन्या का किसी मुसलमान के साथ यूरोप जाना महात्माजी ने ही रोका था और उसका विवाह एक दूसरे (शायद) ब्राह्मण से ही करवाया था। …मुसलमानों से सप्रेम रोटी-बेटी का संबंध जोड़ लेने से कौन राष्ट्रीयता की नाक कटी जा रही है? इस तरह तो स्वराज के हासिल करने में और शीघ्रता होगी। …इसी तरह शूद्रों और अछूतों के प्रति भी महात्माजी की सहानुभूति मौखिक ही न होगी, इसका क्या प्रमाण, जब उनके यहां के विवाह अंत्यजों से न होकर, जहां तक मुझे ज्ञान है, आज तक उन्हीं की श्रेणी में हुए हैं? महात्माजी का विकास जिस तरफ से हुआ है, उसी तरफ के लिए उनके शब्द महान और सप्रमाण हैं।”
‘हिंदुओं का जातीय संगठन’ शीर्षक टिप्पणी में निराला लिखते हैं,
“महात्माजी लोक-रुचि के बड़े जबरदस्त परीक्षक हैं। उन्होंने समाज को एक ही सीढ़ी चढ़ने की राय दी। उन्होंने कहा, खान-पान संसार में किसी के साथ किया जा सकता है। रोटी वाला सवाल हल होना ही ठीक है। बेटी वाले पर अभी वह कोई राय नहीं देते। …जिस समाज की प्रगति से मुक्ति या स्वातंत्र्य मिलता है, हमारा वह समाज कितना पीछे है।” निराला की यह टिप्पणी 1932 ई. की है।
जाहिर है, कि निराला आजादी की लड़ाई को नेतृत्व देने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों के विचारों को राष्ट्र निर्माण के प्रश्न या सवाल के सापेक्ष रखकर जांचते हैं।
निराला स्वाधीनता को बहुमुखी मानते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता के साथ सामाजिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता को निराला बराबर महत्व देते हैं। इसे ध्यान में रखकर देखने पर निराला हिंदी बौद्धिकों के रवींद्र नाथ टैगोर लगते हैं!