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‘रंजना के नवगीत और ग़ज़लें सृजन की धरती पर एक विराट संवेदना बो रहे हैं’

कल्पना मनोरमा


वर्तमान के खुरदरे जीवन व्यापारों के यथार्थ से जूझती एक अकेली स्त्री का गरिमा पूर्ण आत्म परिचय इन पंक्तियों से बेहतर क्या होगा?  डा० रंजना गुप्ता के शब्दों में —

‘मैं नियति की /क्रूर लहरों पर/सदा से ही पली हूँ /जेठ का हर ताप सहकर/ बूँद बरखा की चखी है/टूट कर हर बार जुड़ती/ वेदना मेरी सखी है |

रंजना जी का जीवन दर्शन उन्हें विभिन्न सामाजिक सरोकारों से जुड़ कर व्यक्तिगत स्तर पर भी हर व्यक्ति को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध नज़र आता है संघर्ष की चुनौतियों का साहस से सामना करना भी इसी न्यायिकता की एक कड़ी है | इन पंक्तियों में इस बात की पुष्टि होती-सी नजर आ रही है |

जब तक अपने स्वप्न रहेंगे /स्वप्नों के संघर्ष रहेंगे /इंद्रधनुष की डोर थाम कर/ सच के पर्वत पर चढ़ना है/पथरीले रस्तों से आगे /नीले अम्बर तक बढ़ना है/नयनों में युग धर्म लिए हम/ शुभ के अनहद अर्थ कहेंगे।

अनुभूतियों की ताज़गी, मौलिकता और बहुश्रुत प्रतीकों के माध्यम से कथ्य का संप्रेषण साथ ही राग़ात्मक अंतश्चेतना से उपजी यथार्थ मार्मिकता डा०रंजना गुप्ता की करुणा का विस्तार करती है उनकी रचनाओं में वायलिन का दर्द भरा सुर है या प्रिय को टेरती हुई वंशी की धुन |

जिसे हम समझ तो नहीं पाते पर मन के भीतर एक टीस सी जग जाती है | शालीन और सौम्य मुद्राओं वाले इनके नवगीत सृजन की धरती पर एक विराट संवेदना और अकथनीय उम्मीद की फ़सल बोते-से नज़र आते हैं
तुलसी दास जी ने कहा है ‘संतन कहा सीकरी सो काम’ स्पष्ट है कि रंजना जी भी किसी भीड़ का हिस्सा न बनते हुए समय के यथार्थ और अपने दर्शन से दुनिया को परख कर अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करना चाहती हैं |

 

डा०रंजना गुप्ता के कुछ नवगीत-

पुकार…
———
चले जो पग थके नहीं ..
थके जो पग चले नहीं….

पुकारती हैं आँधियाँ
पुकारता है झँझवात ….

स्याहियों से लड़ रहा है
रौशनी का जलप्रपात ….

प्रलय भले ही मोड़ पर
खड़ा हो राह रोक कर…

न रुक चरण कोई
कुचल गये हज़ार सर …

सहस्त्र अग्नि पुंज में
ढला दलित का अश्रुपात..

बढ़ रहा है चीरने को
ऊँच नीच पक्षपात ….

धरा के पुत्र मर रहे हैं
खेतियाँ सुलग रही ..

हैं भूखमरी में बैल हल
खड़ी फ़सल धधक रही..

न अब सहेंगे रक्त पात
काल का कराल घात ..

अस्थियों को चूर कर
चुका भले हो बज़्रपात …

क्यों न हम तने रहें.. ?
क्यों झुके रुके रहें ..?

नसों नसों में है भँवर
उबल रहा है मौन ज्वर ..

सुबह के नर्म स्वेद से
मिटे निशा का अंधकार …

दमन का चक्र तोड़ कर
निकल रहा है नव प्रभात ..

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खिड़की…

रौशनी आये जरा सी
बन्द खिड़की
खोल देते…
जो शिला सा जम गया है
उस अहम् को
तोड़ देते…

पारखी है
ओस के नन्हें परिंदे
घूप के लिपटे हुए
दो चार फंदे…..

गुलमोहर के
स्वर्ण पाँखी है खिले
बस किवाड़ों  का जरा
रुख मोड़ देते ……

छाँव पर छेनी
चलाती हैं हवाएँ
कस रही है तंज
शाखों पर दिशाएँ …

उड़ सके नन्हें परों से
फिर गगन में
कैद से इन तितलियों को
छोड़ देते…

शिष्टता कब तक
ये बरती जायेगी ?
धुंध धुंधले काँच
पर जम जायेगी…

जी सके आगे
तुम्हारी पीढ़ियाँ
सोंच कर कुछ तो
धरा पर छोड़ देते….

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हवा की सरहदें..

हवा की सरहदों पे तुम हो..
दीप की कतार से…
या फैसले के हक में तनी हो
कलम की धार से…

है तेवरों में तल्खियाँ
जूनून है खुमार है..
गलत है या सही
यहाँ गुबार ही गुबार है..
जो तख्तियों पे लिख गए है
वक़्त के विचार से…

कदम कदम चले तो
कोई मंजिलें भी तय करें..
सफर के दर्द को
किसी से बाँट करके कम करे…
मगर न कोई साथ दे..
तो क्या उमर गुजार दे…?

कहा सुनी बहुत हई
मिला न रास्ता कभी…
अगर न चल सको
हमारे साथ साथ तुम अभी….
कोई वजह नहीँ मगर
की हम तुम्हें बिसार दें..

चमक रहा नहीं
गगन में सूर्य कोई भी नया..
उम्मीद का सिरा
उलझ के उलझनों में  रह गया…
है रिक्तियों में रंग भी
गरीब के उधार से….

 

आशा

प्राचीरों के भग्नावशेष
मीनारों के ढहते खण्डहर

संध्या विराग की बेला से
उषा अनुराग माँग लाती
तम की अंधी गहराई में
आशा विहाग राग गाती

आश्वासन की थपकी देती
वेदना हुयी जब जब गहरी
जीवन की कठिन परीक्षा में
पलकों में मोती सी ठहरी

दीपक सी मौन जला करती
ढ़रक़ाती हो उज्जवल निर्झर

पल्लवित हरित मुकुलित कर दो
ह्रदय  की यह सूखी  डाली
आशा इस सूने आँचल में
कुमकुम श्री की भर दो लाली

शीतलता के पावस सरसो
अन्तस् की इन ज्वालाओं में
झंकृत हो नुपुर के स्वर सी
मन  की इन नीरवताओं में

नूतन रचना की पृष्ठभूमि
झरते पत्ते पीले पतझर

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नयी लकीरें

कुछ नयी लकीरें हाथों में
खींचो फिर से तक़दीर बने
आँसू पोंछो कमज़ोरों के
शायद फिर कोई गीत बने

परतें उखड़ी दीवारों की
दरवाज़े की है क्या हस्ती..?
रोता है कोई छुप करके
बेज़ार परिंदो की बस्ती

है शोर बहुत इन सड़कों पर
क्यों नहीं मसीहा कोई भी
मुर्दाघर की है घुटन भरी
शायद हो कोई ज़िंदा भी

स्वच्छ हवायें आने दो
फिर क्यों कोई ज़ंजीर चुने ?
मनहूसी के सन्नाटे को
तोड़ो कोई संगीत सुने

मोड़ो मोड़ो इस धारा को
क़ुदरत को नयी नज़ीर मिले
कोई तो एक करिश्मा हो
तुलसी या कोई कबीर मिले

प्यारी रातें भूखें है दिन
अनकही उदासी बैचैनी
शब्दों से भारी है चुप्पी
है उमर उजाले की बौनी

कुछ ऐसी अलख जगाओ तुम
टकराने की रणनीति बने
इतिहास बुलाता है तुमको
तुम चलो कि कोई रीति बने

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संघर्ष….

जब तक अपने
स्वप्न रहेंगे…
स्वप्नों के
संघर्ष रहेंगे…..

इंद्र्धनुष की
डोर थाम कर
सच के पर्वत
पर चढ़ना है …
पथरीले रस्तों
से आगे
नीले अम्बर
तक बढ़ना है …

सिद्ध कभी
संकल्प रहेंगे..
कभी दृश्य
दुर्घर्ष रहेंगे…

पर्वत से प्रश्नों
के तेवर
उत्तर के
गोमुख होंगे…
गाँठ गाँठ
खुलते जाने से
शिखर विजय
के सुख होंगे..

देह बोध के
दंश विषैले..
मन के खुले
विमर्श रहेंगे..

कर्म अकर्मों
के मथने से ..
विष  अमृत
दोनों होंगे…
दृष्टि हंस की
नीर क्षीर की
सच मिथ्या
के न्यारे होंगे…

नयनों में
युग धर्म लिए हम..
शुभ के अनहद
अर्थ कहेंगे…

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कंदील..

तन्द्रिल तन्द्रिल
स्वप्निल स्वप्निल
कंदीलों की
झिल मिल …

मुँडेरों पर दीवारों पर
छज्जों के
ग़झिन किनारों पर …
कुछ देहरी और
दीवारों पर ..
कुछ मंदिर और मीनारों पर….

है समर तमस से दिए का
उर्मिल उर्मिल
वर्तुल वर्तुल……

कुछ पंक्तिबद्ध से उजियारे
जिनसे नभ के
तारे हारे..
इस दीप सिपाही
के आगे
थक गये रात के बंज़ारे…

फ़िर शुभ का
स्वस्ति सिंधु उजला…
फेनिल फेनिल
उज्जवल उज्जवल…

गढ़ लेती है परिभाषाएँ
पढ़ लेती मन
की भाषायें …
उन्मीलित दीप शिखा
जल जल ..
क़ीलित करती हर बाधाएँ…

दीपो भव
‘अप्प भवो दीपो’
हर पल हर पल
निर्मल निर्मल…,

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डा०रंजना गुप्ता की तीन ग़ज़लें

जमीन…

जमीन देखेंगे और आसमान देखेंगे
रहे जहाँ में तो तेरा ये जहान देखेंगे…

अभी तो किश्तियों के डूबने का मंजर है
सुबह सैलाब में बहता मकान देखेंगे…

वक्त ने कब यहाँ पर किसी को बक्शा है..?
तुम्हारे सब्र का भी वो इम्तिहान देखेंगे..

फँसें कर्जो की तरह दर्द में फँसें लम्हे
गमों के ये उम्र भर गहरे निशान देखेंगे…

बड़ा ही बेरहम तहजीब का शहर निकला
न कोई मेहमान है न मेजबान देखेंगे..

किसी ने जुगनुओं को कैद कर लिया शायद
अब कहाँ रौशनी का खान दान देखेंगे..?

ये मौसम बादलों की गरज का मौसम है
हुयी बारिश तो फिर ऊँचा मचान देंखेंगे…

तुम्हारी कोशिशों ने रंग भर दिया इसमें
तो हम एक नये दौर का हिंदुस्तान देखेंगे….
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ख़्वाब ….

मुद्दतों से कोई भी ख्वाब न देखा हमने
रेत के पार कोई दोआब न देखा हमने….

रफ्ता रफ्ता ही सही कट गयी उमर लेकिन
जिंदगी भर  कोई महताब न देखा  हमने…

कही मंजिल तो कहीं रास्ते ठगते रहे मुझे
लबों को देते कोई जवाब न देखा  हमने …

दिल के हर्फो को ही पढ़ते रहे सदा दिल से
खोल बाजार की वो किताब न देखा हमने….

भूल और ग़लतियों का सिलसिला न थम पाया
गुजरे लम्हों का  कुछ हिसाब न देखा  हमने…

बह गयी आँसुओं  में वक्त की कई गजलें
ऐसा उमड़ा हुआ सैलाब न देखा  हमने…..

कहीं लपट है धुँआ है कहीं जलन बाकी
तेरे कश्मीर में कोई चिनाब न देखा हमने ….

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ज़िंदगी..

ज़िंदगी तुझसे कभी फ़ुरसत में मिलना है मुझे
दर्द के उठते बगूलों से निकलना है मुझे ….

हर तरफ़ रेत के उठते हुए बवंडर है
बन के पानी किसी चिनाब का बहना है मुझे …

आग है या तपिश है नफरतों के शोलों की
ओस की बूँद सा दिन रात बरसना है मुझे…

ख़रीदी बेच डाली रोज ये दुनिया तुमने
यक़ीन कर लो मगर कुछ नहीं कहना है मुझे..

कभी तो चैन कहीं ख़्वाब में ही मिल जाए
दुआ करो कि ये हालात बदलना है मुझे…

रेंगते है मेरी रगों में जो गुज़रे लम्हें
ये वही ताज महल हैं जहाँ रहना है मुझे…

(उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में जन्मी कवियत्री कहानीकार का प्रथम नवगीत संग्रह ‘सलीबें’ 2019 में बोधि प्रकाशन से आया है । अपने निजी व्यवसाय में संलग्न डा. रंजना गुप्ता हिंदी साहित्य की कई विधाओं -गीत ग़ज़ल नवगीत कहानी संस्मरण समीक्षा आलेख लघु कथा आदि में हस्तक्षेप रखती हैं । इनके प्रकाशित संग्रहों में दार्शनिक शोध पर ग्रंथ ‘रसभावाद्वैत‘ प्रमुख है एक कहानी संग्रह ‘स्वयं सिद्धा’ और दो काव्य संग्रह ‘परिंदे’ और ‘रजनीगंधा’ है )

सम्पर्क–
ईमेल -ranajanaguptadr@ gmail.com

टिप्पणीकार कल्पना मनोरमा अपनी पहली काव्यकृति ‘कब तक सूरजमुखी बनें हम’ के माध्यम से अपनी रचनात्मक एवं संवेदनात्मक समझ के साथ साहित्यिक धरातल पर मज़बूती से पाँव जमा चुकीं समर्थ रचनाकर हैं ।
कल्पना के गीत -नवगीत हों उनकी गज़लें हों या मुक्तछंद कविताएँ , सभी लोक चेतना की पड़ताल करती हुईं आम आदमी की भावनाओं को अभिव्यक्ति देती हुई दिखाई देती हैं । पेशे से शिक्षकीय कार्य में संलग्न कल्पना मनोरमा वर्तमान में दिल्ली में रहती हैं)

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