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नरेन्द्र सिंह नेगी की गीत यात्रा:व्यावसायिकता पर भारी जनसरोकार

(2018 के संगीत नाटक अकादमी सम्मान की घोषणा में उत्तराखंड की दो शख्सियतों के नाम भी हैं. ये नाम हैं लोकगायक,कवि,गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी और ख्यातिलब्ध नाट्य समीक्षक दीवान सिंह बजेली.

नरेन्द्र सिंह नेगी के समग्र रचनाकर्म को देखते हुए मेरी यह स्पष्ट धारण है कि बीते 45 सालों से अधिक अवधि की उनकी सृजन यात्रा है, वह उन्हें किसी भी पुरस्कार या सम्मान से ऊपर खड़ा करती है.
बहरहाल संगीत नाटक अकादमी सम्मान की घोषणा के मौके पर नरेन्द्र सिंह नेगी जी के रचना संसार पर 2012 में मासिक पत्रिका समयांतर के लिए लिखा यह आलेख पुनः प्रस्तुत है : इन्द्रेश मैखुरी )

नरेन्द्र सिंह नेगी गढ़वाली गीत-संगीत के अप्रतिम रचनाकार हैं. वे गायक हैं, गीतकार हैं, संगीतकार हैं और कवि भी हैं. पिछले चालीस वर्षों से निरंतर उत्तराखंडी गीत संगीत में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. वे एक व्यावसायिक कलाकार हैं पर उनकी व्यावसायिकता उनके जनसरोकारों पर हावी नहीं है. पहाड़ी जीवन का लगभग हर रंग उनके गीतों में दिखता है. पहाड़ में सुबह होने से लेकर शाम होने तक बारिश से लेकर बाघ के आतंक तक सब नेगी के गीतों में दर्ज है.

पहाड़ में सूर्योदय के दृश्य का वर्णन करता हुआ उनका गीत है :
चम्,चम् चम्,चम्,चम्,चमकी घाम कांठ्यों मां, हिंवाली कांठी चांदी की बणीगैनी,
ठंडो-मठू चढ़ी घाम फूलों की पाख्यों मा,लगी कुथ्ग्यली तौं कि नांगी काख्यों मा
खित्त हैन्सिनी फूल डाळ्यों मा,भौंरा-पोतला रंगमत्त बणीगैनी,
डांडी-कांठी बिजाली पौंछी घाम गौं मा,सुनिंद पोड़ीं छै बेटी-ब्वारी ड्यरों मा,
झम झौल लगी आन्ख्यों मा,मायादार आन्ख्यों का सुपिन्या उडी गैनी
(चम,चम,चम चमकी धूप पहाडियों पर, बर्फ से लकदक पहाडियां चांदी जैसी हो गयी,
धीरे-धीरे धूप फूलों से भरे पहाड़ी ढाल पर चढ़ी, फूलों के नंगे बदन पर धूप ने गुदगुदी की ,
फूल खिलखिला कर हंस पड़े और भौंरे-पतंगे उन्मत्त हो गए,
पहाड़ी चोटियों को जगा कर धूप पहुंची गांव में, बहू-बेटियाँ गहरी नींद में सोयी थी जहां घरों में,
धूप की आंच आँखों में पड़ी और उनकी प्रेम भरी आँखों के सपने उड़ गए.)
पहाड़ में शाम होने का नजारा नरेन्द्र सिंह नेगी के यहाँ ऐसा है :
डांडा-धारूं माँ घाम अछे गे, पोंछी कुजाणी कै दूर मुलुक
पोड़े रुमुक,
गोर-गौचरू का घर बौड़ा ह्वेनी, पंछी अगासू का घोलू पैटीनी,
ऊज्याला अड़ेथी आई अन्ध्यारु,चोर बिराली सी सूर-सुरुक
बौण लखड़वैनी-घसेनी रगर्यांदा,हे दीदी-हे भूली झट काटा-बांधा,
उनी दूध्या नौनियाल,सासू रिसाड़,जिकुड़ी माँ येड़ियों की धूक-धूक
पोड़े रुमुक
(पहाड़ी चोटियों और ढलानों पर ढली धूप, जाने वो किस दूर के मुल्क पहुँच गयी,
सांझ ढल गयी,
गौचरों में चरने गए पशु घर लौट रहे हैं, आकाश में उड़ते पंछी भी घोसलों में पहुँचने की तैयारी में हैं,
उजाले को धकेल कर अँधेरा दबे पाँव चोर बिल्ली की तरह आ पहुंचा है,
सांझ ढल गयी है,
जंगल में लकड़ी-घास लेने गयी महिलायें हड़बड़ी में हैं, अरी बहनों फ़टाफ़ट काटो और बांधो,
घर में दुधमुंहा बच्चा है और सास गुसैल, दिल में धुकधुकी लगी है
सांझ ढल गयी है.
पहाड़ में भेड़-बकरी चराने वाले की भेड-बकरियां गुम होने के किस्से को बकरी वाला बड़ी मसूमियात के साथ बयां करता है जिससे कुछ हास्य भी पैदा होता है:
ढेबरा हर्ची गैनी, मेरी बखरा हर्ची गैनी मेरा,
हे भुल्यों,हे घसैन्यु,हे दीद्यूं-हे पंधेन्यू,हे कका तिल देखीनी,हे चुचों कख फूकेनी
खाडू नर्सिंगा का नौ को छौ सिरायुं धर्मा कोंको,नागराजा खुज्यौ त्वी,तेरो लागोठ्या लीगी क्वी
पटवरी जी की पुजै भोल,बुगठ्या दिख्यो ह्वेगे गोल
(भेड़ें  गुुम हो गयी मेरी बकरियां लापता,
हे भुल्यों(छोटी बहनों)-घसियारिनो, हे दीदियों-पनिहारिनो,अरे काका तूने देखी,अरे लोगो कहाँ मर गयी
नरसिंह देवता की नाम का खाडू(भेड़) रखवाया था धर्मा ने, नागराजा तू ही खोज तेरी बलि के लिए रखे हुए को ले गया कौन ,
पटवारी जी की पूजा कल और बकरा हो गया गोल)
ये पहाड़ की विडंबना है कि कठिन और विकट जीवन स्थितियों में पहाड़ी गीतों में दुःख भी हास्य के रूप में फूटता है.इसलिए पहाड़ में कहावत है कि बड़े दुःख की बड़ी हंसी.

एयर कंडीशन कमरों में बैठ कर भले ही बाघ बचाने की बड़ी-बड़ी चिंताएं हों लेकिन पहाड़ में तो बाघ आतंक का ही पर्याय है, जो आये दिन पालतू पशुओं से लेकर मनुष्यों पर हमलावर है. ऐसे ही एक गीत में नरेन्द्र सिंह नेगी सुमा नाम की लड़की की कहानी सुनाते हैं जिसकी मंगनी होने वाली है और वो बाघ का निवाला बन गयी है :

सुमा हे निहोंण्यां सुमा डांडा ना जा,सुमा हे खड्यौंणा सुमा डांडा ना जा ,
लाडा की ब्यटूली सुमा डांडा ना जा ,यखुली-यखुली सुमा डांडा ना जा,
दोबदो-दोबदो बाघ डांडा ना जा,तेरी घांटी बिलकी सुमा डांडा ना जा
तेरी चिरीं लती-कपडी डांडा ना जा,घसेन्यून पछ्याणी सुमा डांडा ना जा
अध्खायीं तेरी लास देखि सैरा गौं का रवेनि सुमा डांडा ना जा
(सुमा अरी ओ नादान सुमा पहाड़ पे मत जा,
सुमा ओ लाडली सुमा पहाड़ पे मत जा,अकेली-अकेली सुमा पहाड़ पे मत जा
दबे पांव आया बाघ और तुझ पे झपट गया,पहाड़ पे मत जा,
तेरे चीथड़े हो चुके कपडे घस्यारिनों ने पहचाने,पहाड़ पे मत जा
तेरी आधी खायी लाश देख कर सारे गाँव वाले रोये,पहाड़ पे मत जा )
(नोट:इस गीत में बाघ का निवाला बन चुकी सुमा को संबोधित करते हुए बाघ द्वारा उसे मारे जाने की कथा बयान की गयी है.अनुवाद करने के लिहाज से टेक के रूप में प्रयुक्त पंक्तियाँ हटा दी गयी हैं.)

बाघ का आतंक इतना भारी है पहाड़ पर कि जब नब्बे के दशक में उत्तराखंडी मूल के निशानेबाज जसपाल राणा की ख्याति हुई तो उनसे भी नेगी उत्तराखंड के लोगों की तरफ से बाघ पर निशाना लगाने का ही आग्रह करते हैं :
बन्दुक्या जसपाल राणा सिस्त साधी दे,निसणु साधी दे
उत्तराखंड मा बाघ लग्युं,बाघ मारी दे,मनस्वाग मारी दे
नथूल्यों गले कि तोई सोना का मेडल द्युन्ला
बच्यां रौन्ला जब तलक,राणा तेरो नाम ल्युन्ला
आतंकबादी ये बाघे भी सेक्की झाड दे
(बंदूकधारी जसपाल राणा निशाना साध ले,
उत्तराखंड में बाघ लगा हुआ है, बाघ मार दे, आदमखोर को मार दे,
नथें गला कर तुझे हम सोने के मेडल देंगे,
जब तक ज़िंदा रहेंगे, राणा तेरा गुणगान करेंगे,
आतंकवादी इस बाघ की हेकड़ी उतार दे)
नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में नए-नए हुए विवाह के बाद पति-पत्नी की चुहलबाजी दिखती है :
स्त्री :हे जी कैबै ना करा,मठू-मठू जौंला,नयु-नयु ब्यो च मिठी-मिठी छ्वीं लगोंला,
पुरुष:हिट ले दी घमाघमी,सरासरी जौंला,फुक तौं लोळी छुयुं डेरै मा लागौला
(स्त्री:ऐ जी अकबक मत करो, हौले-हौले चलेंगे, नयी-नयी शादी है, मीठी-मीठी बातें करेंगे,
पुरुष :लंबे-लंबे डग भर, फ़टाफ़ट जायेंगे, रहने दे उन कमबख्त बातों को घर में ही करेंगे )
लेकिन उसी पहाड़ी स्त्री का पति जब नौकरी के लिए पहाड़ से पलायन कर, सालों तक घर नहीं लौटता है तो उसकी पीड़ा भी नेगी के गीतों में दिखती है:
देवर: नारंगी की दाणी हो, क्यान सूखी होलो बौजी मुखडी को पाणी हो
भाभी: खोळी को गणेशा हो,जुग बीती गैनी द्यूरा स्वामी परदेसा हो
देवर:धीरज चएंदा हो,खैरी का ये दिन बौजी सदानि नी रएंदा हो
भाभी: त्वे मा क्या लगौण हो,दिन बौडी ऐ भी जाला ज्वनी क्खे ल्योंण हो
(देवर:क्यूँ सूख गया भाभी तुम्हारे चेहरे का पानी
भाभी :वर्षों बीत गए देवर स्वामी परदेस ही हैं.
और गीत के अंत में जब देवर भाभी को सांत्वना देते हुए कहता है कि
धीरज रखना चाहिए भाभी, दुःख के दिन हमेशा नहीं रहेंगे
तो पहाड़ की तकलीफों से टकराते-टकराते अपना सब कुछ पहाड़ में ये दफ़न करने वाली स्त्री की पीड़ा भी उभरती है जब वो कहती है कि
दिन तो बहुर भी जायेंगे पर जो युवावस्था कष्टों को झेलते-झेलते बीत गयी वो कहाँ से लौटेगी )
(नोट:अनुवाद में टेक के रूप में इस्तेमाल पंक्तियों का अनुवाद नहीं किया गया है.)
प्रेम पर तो नेगी जी ने कई गीत रचे हैं और हर बार वो नये बिम्बों, नए रूपकों के साथ प्रेम गीत गढते हैं, जिनमें फ़िल्मी छिछोरापन नहीं है बल्कि प्रेम की शालीनता और गरिमा उभरती है.

एक नमूना देखिये :
बंडी दिनों मा दिखे आज,दिन आजा को जुगराज,
फल्यान-फूल्याँ वो पाखा,वो पैंडा,हैरा-भैरा रयाँ पुन्ग्ड़यूँ का मेंडा
जौं सारयूं बीच हिटी की तू ऐई,तौं सारयूं खारयूं हो नाज
(प्रेमिका के मिलने पर प्रेमी कह रहा है:
बहुत दिनों में दिखी आज, आज का दिन दीर्घजीवी हो,
फलें-फूलें वो पहाड़ी ढालें, हरे-भरे रहें वो खेतों की मेंडें
जिन खेतों से चल के तू आई, उन में हो मनों अनाज )
प्रेमिका के मिलन पर ऐसी उत्पादक कामना अद्भुत ही नहीं है बल्कि दुर्लभ भी है.
शुरुआत गीतों में देखें तो गढ़वाल की वंदना, गढ़वाल की प्रकृति की सुंदरता की प्रशंसा नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में खूब दिखती है. लेकिन धीरे-धीरे पहाड़ की समस्यायें उनके गीतों में उभर कर सामने आने लगी :
कख लगाण छवीं,कैमा लगाण छवीं,
ये पहाड़ की, कुमौं-गढ़वाल की,
रीता कूड़ों की,तीसा भांडों की,
बगदा मनख्यूं की,रड़दा डांडों की
(कहाँ कहें बात,किससे कहें बात,
इस पहाड़ की,कुमाऊँ-गढ़वाल की
खाली मकानों की,प्यासे बर्तनों की,
बहते मनुष्यों की,लुढकते पहाड़ों की )
ये पहाड़ से लगातार पलायन की पीड़ा है, लेकिन चूँकि नीति-नियंताओं को इस पलायन और खाली होते पहाड़ के गाँवों से कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए आम पहाड़ी आदमी की पीड़ा भी इसमें है कि कहाँ कहें और किस से कहें.
जनविरोधी विकास या विकास के नाम पर हो रहे विनाश की ओर भी नरेन्द्र सिंह नेगी आम आदमी का ध्यान खींचते हैं :
नौ फरें विकास का,विनाश कैन कैरी यूँ पहाड़ों को,
खोजा वे सणी,पछ्याणा,वे सणी
(विकास के नाम पर विनाश किसने किया इन पहाड़ों का,
खोजो उसे,पहचानो उसे )
उत्तराखंड आंदोलन के दौर में तो आंदोलन के गीतों का एक पूरा कैसेट ही नेगी जी ने निकाला.1994 के प्रचंड जनांदोलन में उत्तराखंडियों को जागने का सन्देश देते हुए उन्होंने लिखा:
उठा जागा उत्तराखंडियों,सौं उठाणो बक्त ऐगे,
उत्तराखंड का मान सम्मान बचाणो बक्त ऐगे,
भोळ तेरा भला दिनों का खातिर जौं कु ल्वे सड़क्यँ मा बौगी,
ऊं शहीदों कू कर्ज त्वे पर अब चुकाणो बगत ऐगे
(उठो,जागो,उत्तराखंडियो शपथ लेने का वक्त आ गया है,
उत्तराखंड का मान सम्मान बचाने का वक्त आ गया है
कल तेरे उज्जवल भविष्य के लिए,जिनका लहू सड़कों पर बहा
उन शहीदों का कर्ज चुकाने का वक्त आ गया)
2 अक्टूबर 1994 को दिल्ली में प्रदर्शन करने जा रहे आंदोलनकारियों पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव और मायावती की गठबंधन सरकार ने मुजफ्फरनगर में बर्बर दमन ढाया.गुंडों की तरह नौजवानों की हत्याएं और महिलाओं के साथ दुराचार मुलायम सिंह यादव की पुलिस ने किया.इस बर्बर और शर्मनाक दमन के खिलाफ नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपने गीत में प्रतिरोध दर्ज किया :
तेरा जुल्म कू हिसाब चुकौला एक दिन,लाठी-गोली को जवाब द्यौला एक दिन,
वो दिन-बार औंण,विकास का रतब्योंण तक ,
अलख जगीं राली ये उत्तराखंड मा,लड़ै लगीं राली ये उत्तराखंड मा
(तेरे जुल्म का हिसाब चुकायेंगे एक दिन,लाठी-गोली का जवाब देंगे एक दिन
वो दिन-वो वक्त आने तक,विकास का उजाला होने तक
अलख जगी रहेगी इस उत्तराखंड में, लड़ाई जारी रहेगी इस उत्तराखंड में)
9 नवम्बर 2000 को अलग उत्तराखंड राज्य बना, लेकिन ये जनता के सपनों का राज्य नहीं था. लूट और झूठ की कांग्रेसी-भाजपाई राजनीति का उत्तराखंड था, ठेकेदार और माफियाओं का उत्तराखंड था.

नेगी जी के भीतर के गीतकार और गायक ने इस छलावे को जल्दी ही पहचान लिया. जहां राज्य बनने से पूर्व के गीतों में वे विकास के नाम पर विनाश करने वालों को खोजने और पहचानने को कहते हैं, वहीं राज्य बनने के बाद के गीतों में वे लूट की ताकतों और उनके शिखर पुरुषों की ना केवल शिनाख्त करते हैं बल्कि खुल कर उनपर ऊँगली उठाते हैं,उनका नाम लेते हैं.उनके कारनामों को गीतों के जरिये जनता के सामने लाते हैं.

कांग्रेसी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को केंद्र करके नेगी जी द्वारा लिखा और गाया गीत-नौछम्मी नारैण(बहुरुपिया नारायण) ऐसा ही गीत है,जो नारायण दत्त तिवारी द्वारा सरकारी खजाने की लूट पर तीखा हमला बोलता है.वे यहीं नहीं रुकते भाजपा की सरकार बनने के बाद वे मुख्यमंत्री निशंक पर निशाना साधते हुए गीत लिखते हैं-अब कथ्गा खैल्यो(अब कितना खायेगा).जिस समय निशंक के भ्रष्टाचार का दौर चरम पर था, नेगी जी का ये गीत जैसे सीधा मुख्यमंत्री से सवाल कर रहा था कि भाई बता अब और कितना खायेगा. जहां ‘नौछम्मी नारैण’ में नेगी ने राज्य की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के निकम्मेपन पर भी व्यंग्य किया वहीँ ‘अब कथ्गा खैल्यो’ में वे घोटालों की सरताज केंद्र की कांग्रेस सरकार पर भी प्रहार करते हैं, राष्ट्रमंडल खेल,टू-जी घोटाला,काले धन जैसे मसलों को भी इस गीत में उन्होंने छुआ है.
चुनाव में कांग्रेस-भाजपा जैसी पार्टियों द्वारा अपनाए जा रहे हथकंडों पर नरेन्द्र सिंह नेगी का गीत देखिये:
हातन हुस्की पिलाई फूलन पिलायो राम,
छोटा दली-निरदली दिदोंन कच्ची मा टरकायाँ हम,
ऐंसु चुनौ मा मजा ही मजा,दारु भी रुप्या भी ठमठम
सुबेर पैग पे घडी दगडी,दिन का पैग सैकिल मा चढ़ी,
ब्याखुनी कुर्सी मा लम्तम पड़ी,राती को हाती मा बैठी की तड़ी
ऐंसू चुनौ मा ठाठ ही ठाठ,प्रत्याशी पैदल अर,घोड़ा मा हम .
(हाथ(कांग्रेस) ने व्हिस्की पिलाई,फूल(भाजपा) ने पिलाया रम,
छोटे दलों,निर्दलीय भाईयों ने कच्ची में टरकाये हम,
इस चुनाव में तो मजा ही मजा,दारु भी और नोट भी खटाखट,
सुबह का पैग घड़ी(एन.सी.पी.) के साथ,दिन का पैग साइकिल(सपा) में चढ़ा,
शाम को कुर्सी(उत्तराखंड क्रांति दल-यू.के.डी.) में लम्बलेट हुए
रात को हाथी (बसपा) में बैठ के तड़ी
इस चुनाव में तो ठाठ ही ठाठ हैं ,प्रत्याशी पैदल और घोड़े में हम हैं)
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले इस देश में चुनाव अब तो पैसा बांटने और शराब पिलाने की प्रतियोगिता ही तो बन गए हैं.
टिहरी बाँध ने तकरीबन दस हज़ार परिवारों को विस्थापित कर दिया,टिहरी शहर और कई गाँव डूब गए.टिहरी बाँध पर अस्सी के दशक में लिखे अपने गीत की भूमिका में नेगी कहते हैं कि विकास के इतिहास में इनका त्याग अमर रहेगा.इस गीत में एक बूढा बाप, अपनी मिटटी से हमेशा के लिए बिछड़ने का दर्द अपने बेटे को चिट्ठी में लिखते हुए कहता है:
अबारी दां तू लंबी छूटी लेके ऐई,ऐगे बगत आखीर,
टीरी डूबण लग्युं चा बेटा डाम का खातीर
(इस बार तू लंबी छुट्टी लेके आना,आख़िरी समय आ गया है,
टिहरी डूब रहा है बेटा,बाँध की खातिर)
लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद यहाँ सैकड़ों के तादाद में निर्मित, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं को देख कर नेगी भी समझते हैं कि ये विकास का नहीं संसाधनों की लूट का मामला है.

इसलिए वो कहते हैं:
देवभूमि को नौ बदली,बिजली भूमि कैरयाली जी,
उत्तराखंड की धरती योंन डामून डाम्याली जी,
हमरी कूड़ी,पुन्गड़ी, बणों मा बिजलीघर बणाली जी,
जनता बेघरबार होली,सरकार रुप्या कमाली जी.
(देवभूमि का नाम बदल कर,बिजलीभूमि कर दिया जी,
उत्तराखंड की धरती को इन्होने बांधों से लहुलुहान कर दिया जी,
हमारे मकान,खेतों,वनों में बिजलीघर बनाएगी,
जनता बेघरबार होगी,सरकार तिजोरियां भरेगी जी.)
उत्तराखंड राज्य की मांग के साथ ही राजधानी का सवाल महत्वपूर्ण रूप से जुड़ा रहा है.जनता की मांग रही है कि गैरसैण राजधानी बने.देहरादून में अस्थायी राजधानी के नाम पर सरकार के जमने के खिलाफ लिखे गए गढ़वाली कवि वीरेंद्र पंवार के गीत को नेगी जी ने स्वर दिया :
सब्बी धाणी देरादूण,हूणी-खाणी देरादूण
परजा पिते धार-खाल,राजा राणी देरादूण
सबन बोली गैरसैण,तौंन सूणी देरादूण
(सभी काम देहरादून,विकास के काम देहरादून,
प्रजा खटती रही पहाड़ों पर,राजा-रानी देहरादून,
सबने कहा गैरसैण,उन्होंने सुना देहरादून)
जब उत्तराखंड में स्थायी राजधानी के चयन के लिए बने वीरेंद्र दीक्षित आयोग ने नौ साल में ग्यारह विस्तार पाने और तकरीबन पैंसठ लाख रुपये खर्चने के बाद देहरादून को ही राजधानी बनाने की संस्तुति की तो नरेन्द्र सिंह नेगी ने दीक्षित आयोग के साथ ही कांग्रेस –भाजपा और उत्तराखंड क्रांति दल को गैरसैण का मामला लटकाने के लिए कठघरे में खडा किया,साथ ही गैरसैण के लिए लड़ाई जारी रखने का आह्वान भी किया :
तुम भी सूणा,मिन सूण्याली, गढ़वाल ना कूमौं जाली
उत्तराखंडे राजधानी बल देरादूणी मा राली,दीक्षित आयोगन बोल्याली,
ऊन बोलण छौ ,बोल्याली, हमन् सूणन् छौ,सूण्याली
या भी लड़ै लगीं राली
नौ सालम से कि जागी,धन्य हो पन्ड्डा जी पैलागी,
पैंसठ लाख रूप्या खर्ची की,देरादूण अब खोज साकी,
जनता का पैंसों की छरव्ळी
या भी ………………..
कांग्रेस-भाजपा नी रैनी कभी गैरसैण का हक्क मा,
सड़कूं मा भी सत्ता मा भी ,यू.के.डी. जकबक मा
(तुम भी सुनो,मैंने सुन लिया,गढ़वाल ना कुमाऊं जायेगी,
उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में ही रहेगी,दीक्षित साहब ने कह दिया है ,
उन्होंने कहना था कह लिया,हमने सुनना था सुन लिया,
ये लड़ाई भी जारी रहेगी
ना साल में सो के जागे,पंडित जी (दीक्षित) तुम्हें प्रणाम,
पैंसठ लाख रुपये खर्च करके,देहरादून अब खोज सके
जनता के पैसे की ये खुलमखुल्ला लूट,
ये भी लड़ाई………………
कांग्रेस,भाजपा नहीं रहे कभी गैरसैण के हक में
सडकों में रहें कि सत्ता के साथ यू.के.डी.संशय में)
नरेन्द्र सिंह नेगी सत्ता की लूट पर सीधी चोट करते हैं.अपने एक गीत में वो कहते हैं :
बिना पाणी का घूळी गैनी,यों मा कनि सार च,यूँ को क्वी दोस नी यों कि सरकार च
(बिना पानी का हजम कर गए,इनको कैसा अभ्यास है,
इनका कोई दोष नहीं है,इनकी सरकार है.)
इस तरह देखें तो पहाड़ का हर रंग,हर शेड नरेन्द्र सिंह नेगी के गीतों में है.पीले फ्योंली के फूल हों या लाल बुरांस(बुरुंश), बर्फ से लकदक चोटियों से लेकर गहरी घाटियों तक का सुन्दर वर्णन नेगी के गीतों में है.प्रकृति की सुरम्यता के साथ ही पहाड़ के भोले-भाले लोगों और उनके पहाड़ जैसे ही कष्टों का अंदाजा भी नेगी के गीतों से होता है.पहाड़ की प्राकृतिक सुरम्यता,प्रेम और सौंदर्य का ये गायक,गीतकार मजबूती से ना केवल जनता के पक्ष के गीत रचता और गाता है बल्कि आन्दोलनों में हिस्सेदार भी बनता है. “नौछम्मी नारैण” लिखते समय नरेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखंड सरकार की सेवा में थे,लेकिन एन.डी.तिवारी के भ्रष्ट राज के खिलाफ ये गीत गाने के लिए उन्होंने सरकारी सेवा से वी.आर.एस.ले लिया,ऐसा दुसरा उदाहरण शायद ही कोई दूसरा हो कि एक गीत गाने के लिए किसी गायक ने सरकारी नौकरी को अलविदा कह दिया.
जैसा कि जनता के पक्ष में खड़ी कला और कलाकार एक बेहतर दुनिया के सपने के साथ हमेशा खड़े होते हैं,वैसा ही नरेन्द्र सिंह नेगी भी अपने गीत में कहते हैं:
द्वी दिनै की हौर छिन ई खैरी,मुठ बोटी कि रख
तेरी हिकमत आजमाणू बैरी,मुठ बोटी कि रख,
ईं घणा डाळौं बीच छिर्की आलो घाम ये रौला मा भी
सेक्की पाळै द्वी घडी हौर छिन,मुठ बोटी कि रखा
(दो दिनों का और है ये कष्ट,मुट्ठी ताने रख,
तेरी हिम्मत आजमा रहा है बैरी,मुट्ठी ताने रख,
इन घने पेड़ों के अँधेरे को चीर कर भी आएगा उजाला,
पाले की हेकड़ी दो वक्त की और है,मुट्ठी ताने रख)
निश्चित ही लूट-झूठ के राज को मिटाने के लिए तो लड़ना पडेगा,खपना पडेगा और इस लड़ाई में हमारी मुट्ठी तनी रहे,इस के लिए नरेन्द्र सिंह नेगी अपने गीतों के साथ खड़े रहेंगे,डटे रहेंगे,यही कामना है.

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