समकालीन जनमत
साभार : न्यूज क्लिक
दुनिया

म्यांमार में लोकतांत्रिक संकट , ‘ हीरो ’ नवलनी और आन्दोलनजीवी जनता

अतुल 

 

 

सन 1972 में तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति झाऊ एन लाई से सवाल पूछा गया कि फ्रांसीसी क्रांति की आज के दौर में प्रासंगिकता पर आपका क्या कहना है. झाऊ एन लाई का जवाब इतिहास की बेहतरीन समझदारी लिए हुए था. उन्होंने कहा कि, ‘ इसपर कुछ भी कहना अभी जल्दबाजी होगी.’ मुझे लगता है कि दक्षिण और दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों में ‘उदारवादी लोकतंत्र की सफलता’ जैसे विषय पर अगर आज कोई सवाल पूछा जाए तो उसका जवाब भी यही होगा. यहां लोकतंत्र आ तो गया लेकिन कितना आया और किन अर्थों में आया, यह बहसतलब मुद्दा है. इन देशों में अभी भी ‘लोक’ का सच्चे अर्थों में लोकतंत्रीकरण नहीं हुआ है. इसीलिए इन देशों में लोकतंत्र कितना सफल हुआ है और कितना नहीं, यह कह पाना बेहद मुश्किल है. इन क्षेत्रों में उदारवादी लोकतंत्र को वहीं की गैर लोकतांत्रिक शक्तियों के द्वारा लगातार चुनौतियां मिलती रही हैं. इस क्षेत्र के ज्यादातर देशों का इतिहास अगर देखा जाय तो इस बात के और भी पुख्ता तर्क निकाले जा सकते हैं.

हालिया घटना म्यांमार की है. बीती 1 फरवरी को नागरिक सरकार को अपदस्थ करके सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली. उसके बाद पूरी दुनिया में शोर मच गया कि म्यांमार में तख्तापलट हो गया! वे लोग जो म्यांमार के इतिहास पर नज़र नहीं डाल पाए, इस घटना को बड़े विस्मय से देश रहे थे. यह म्यांमार और उसके नज़दीकी थाईलैंड जैसे देशों के लिए कोई नई घटना नहीं थी. इसकी जड़ें और इसकी कारक शक्तियां इन देशों के इतिहास में ही मौजूद हैं.

म्यांमार एक अंग्रेज़ी उपनिवेश रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जब उपनिवेशों की आज़ादी का सिलसिला शुरू हुआ तभी 1948 में म्यांमार भी औपनिवेशिक दासता से मुक्त हुआ. लेकिन म्यांमार की आज़ादी विरोधाभासी थी. आज़ादी के आंदोलन को शुरू करने वाले नेता आंग सान की उनके घनिष्ट सहयोगियों के साथ आज़ादी मिलने से पहले ही हत्या कर दी गयी. उसके बाद 1962 आते-आते ‘Burmese Way to Socialism’ के नाम पर देश में सेना का शासन लागू हो गया. इस दौरान बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में ‘इकोनॉमिक आइसोलेशन’ की नीति का पालन हुआ था. इसके बाद देश भर में 1974 से लेकर 1977 तक छात्रों के बड़े बड़े आंदोलन हुए जिन्हें सरकार ने बेरहमी से कुचल दिया. लेकिन 1988 का विद्रोह काम कर गया और सरकार को अपदस्थ होना पड़ा. लेकिन यह सत्ता परिवर्तन भी ‘लोकतंत्र’ की बहाली करवा पाने में विफल रहा बल्कि उल्टे सैन्य जुंटा ने शासन की कमान संभाल ली.

उसके बाद बहुत उठापटक हुई, मानवाधिकार समूहों की गतिविधियां हुईं, संयुक्त राष्ट्र संघ में बहस चली, आंग सान की बेटी और लोकतंत्र की बहाली की पैरोकार आंग सान सू की को नज़रबंद किया गया. इस नज़रबन्दी और लोकतंत्र की बहाली के लिए उनके संघर्ष के लिए ही उन्हें 1990 का नोबेल शांति पुरस्कार भी मिला. फिर 2010 में ही जाकर यह सैन्य शासन खत्म हो पाया और एक, नाममात्र की ही सही, नागरिक सरकार की स्थापना हुई. 7 वर्ष लगातार और कुल मिलाकर लगभग 21 वर्ष नज़रबंद रहने के बाद सू की को 2010 में आज़ाद किया गया. उसके बाद 2015 के चुनावों में आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी को शानदार जीत मिली और लोकतंत्र की बहाली की आकांक्षा को बल मिला.

लेकिन सू की की राह भी आसान नहीं थी. उनकी सरकार द्वारा जातीय अल्पसंख्यक समूहों के साथ किये जा रहे व्यवहार की लगातार आलोचना होती रही. इसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति अभी हाल के वर्षों में रोहिंग्या मुस्लिमों के उत्पीड़न के रूप में देखने को मिली. देश की सरकार ने रोहिंग्या मुस्लिमों को अपनी मौत मरने को छोड़ दिया. यह कितना विरोधाभासी तथ्य है कि जो व्यक्ति लोकतंत्र की दुहाई देकर सत्ता में आया वही सत्ता पाने के बाद अपने ही देश के अल्पसंख्यक समुदायों के साथ निहायत अलोकतांत्रिक व्यवहार बरतने लगता है! शायद यही वह विरोधाभास हैं जिनकी रौशनी में 1 फरवरी 2021 के तख्तापलट को देखा और समझा जाना चाहिए.

सिर्फ म्यांमार ही नहीं इस क्षेत्र के कई अन्य देशों ने भी इसी तरह के संकटों को देखा और झेला है. पाकिस्तान इससे अछूता नहीं है, बांग्लादेश इससे अछूता नहीं है, थाईलैंड भी इससे अछूता नहीं है, नेपाल इसे अछूता नहीं है. सिर्फ भारत को छोड़कर अन्य बाकी देशों में इस तरह की अनिश्चितता लगातार देखी गयी. भारत में भी भारतीय राज्य के खिलाफ कई विद्रोह हुए, हालांकि बड़ा भौगोलिक क्षेत्र होने के नाते उतने बड़े परिवर्तन लाने में वे असफल रहे. लेकिन अगर ‘लोकतंत्र’ की बात करें तो ये सभी देश एक तरह की विरोधाभासी स्थिति में ही रहे हैं और अभी भी हैं. इन विरोधाभासों को पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक चश्मे से समझना मुमकिन नहीं होगा. इन्हें समझने के लिए एक ‘नई’ लोकतांत्रिक समझदारी की ज़रूरत है. साथ ही इन देशों के विशेष सन्दर्भ में ‘लोकतंत्र’ की पूरी अवधारणा को ही दोबारा परिभाषित करने की भी ज़रूरत है.

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रूस की राजनीति में एक नए शख्स की चर्चा आजकल ज़ोरों पर है. शख्स का नाम है एलेक्सेई नवलनी. नवलनी के बारे में कई तरह के विचार सुनने को मिल रहे हैं. कुछ लोग उन्हें रूस में लोकतंत्र की लड़ाई का नायक बता रहे हैं. कुछ उन्हें उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीति का एक मोहरा भर मान रहे हैं. और कुछ लोग उनपर रूस में अव्यवस्था फैलाने का आरोप भी मढ़ रहे हैं. आइए उनके राजनीतिक जीवन और इतिहास पर एक नज़र डालें.

नवलनी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत सन 2000 में होती है जब वे ‘लिबरल पार्टी’ से जुड़ते हैं. उस वक़्त नवलनी विशुद्ध रूप से नवउदारवादी थे और इसी कारण निजीकरण एवं ‘व्यापार को पूर्ण स्वतंत्रता’ जैसी नीतियों के हिमायती थे. लेकिन समय बीतने के साथ उन्हें यह महसूस होने लगा कि नवउदारवादी राजनीति की अपनी सीमाएं हैं एवं रूसी मध्यवर्ग को ज्यादा समय तक इस विचार से जोड़े रख पाना सम्भव नहीं है. इसके बाद उन्होंने खुद को इक्कसवीं सदी की शुरुआत में राष्ट्रवादी घोषित कर दिया. इस विचार को उन्होंने ‘गैरक़ानूनी अप्रवासियों’ के खिलाफ बाकायदा अभियान छेड़कर स्थापित भी किया. लेकिन खुद को दक्षिणपंथी दिखाने से बचने के लिए उन्होंने एक नई तरकीब ढूंढी जो असल में रूसी शहरी मध्यवर्ग को प्रभावित कर सके. उन्होंने भ्र्ष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाकर मध्यवर्ग को प्रभावित करने का तरीका अपनाया, जोकि खूब काम भी आया. भ्र्ष्टाचार के खिलाफ उनके इस आंदोलन ने नवलनी को एक हीरो के बतौर स्थापित किया. लेकिन नवलनी सिर्फ शहरी मध्यवर्ग और उच्चमध्यवर्ग के ही नेता थे यह बात उस वक़्त साबित हो गयी जब 2011-13 के सरकार विरोधी प्रदर्शनों, जिनमें बड़ी संख्या में रूसी जनता शामिल थी, को लीड करने में वे नाकाम रहे थे. गांवों में बसने वाली और मेहनतकश रूसी जनता ने उन्हें अपना नेता नहीं माना.

नवलनी ने लगातार खुद को वामपंथ से भी दूर रखा. उनके विचारों में कितना ‘लोकतंत्र’ है यह उस वक़्त उजागर हो गया था जब वामपंथियों को पुतिन की सरकार के सर्वसत्तावादी रवैये के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए जेल भेज दिया गया था. उस वक़्त नवलनी ने वामपंथी नेताओं को जेल भेजने के रूसी सरकार के कृत्य की कोई आलोचना नहीं की. इस तरह की ‘स्ट्रेटेजी’ का इस्तेमाल भी नवलनी पर कुछ सवाल खड़े करता है. वर्तमान रूसी राजनीति में नवलनी की अहमियत दो बातों में निहित है. नम्बर एक तो यह कि पुतिन के खिलाफ उठ रही आवाज़ों के एक हिस्से पर उनका प्रभाव है. दूसरा यह कि चूंकि पुतिन को चुनावी राजनीति में हरा पाना लगभग नामुमकिन सा हो गया है, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी भी इस बात को मानती है, ऐसे में जितनी बड़ी संख्या में रूस की जनता पुतिन के खिलाफ सड़कों पर है तब तख्तापलट की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. और अगर इस तरह का तख्तापलट होता है, चाहे वो किसी भी रूप में हो, चाहे उसके परिणाम जो भी हों, लेकिन निर्विवाद रूप से नवलनी उसके एक चेहरे के रूप में रहेंगे. हालांकि बहुत हद तक यह सम्भव है कि यह रूपांतरण सिर्फ ‘ट्रांसफर ऑफ पॉवर’ हो, मूल रूप में कोई परिवर्तन न हो, लेकिन फिर भी इसका आगामी भविष्य में बहुत महत्व रहेगा. अगर ऐसा कोई तख्तापलट नहीं भी होता है फिर भी यह विरोध की आवाज़ें समेकित होकर पुतिन के खिलाफ एक माहौल खड़ा करेंगीं और वैश्विक राजनीति को भी प्रभावित करेंगीं. अभी बीती 25 जनवरी को रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की विस्तृत बैठक (प्लेनम) भी सम्पन्न हुई है, उसपर भी निगाह रखने की ज़रूरत है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक और जुमला उछाल दिया है; आन्दोलनजीवी ! लेकिन उन्हें शायद यह जानकारी नहीं है कि दुनिया के लगभग हर हिस्से में जनता आंदोलनरत है. भारत में तो यह सिलसिला पिछले 3-4 वर्षों में तेज़ी से शुरू हुआ है. जब-जब दुनिया के किसी भी हिस्से में तानाशाह प्रवृत्ति वाले शासक हुए हैं तब-तब जनता ने अपनी आन्दोलनजीविता के दम पर उन शासकों को उखाड़ फेंका है, यही इतिहास रहा है.

यूरोप की जनता भी अपने शासकों से सख्त नाराज़ और आंदोलनरत है. 21 शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक को यूरोपीय इतिहास में इसलिए भी अधिक महत्ता दी जाएगी क्योंकि इसी दशक में सबसे ज्यादा सामाजिक-राजनीतिक उठापटक और जनांदोलन हुए हैं, हो रहे हैं. कई मुल्कों में व्यापक जनउभार देखने के बाद अब तो लगता है कि बड़े-बड़े जनांदोलन यूरोपीय जनता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल हो गए हैं. इसी कड़ी में पिछले महीने पोलैंड और ग्रीस चर्चा में रहे.

पोलैंड में महिलाओं ने सरकार द्वारा लाए गए गर्भपात को रोकने वाले कानून के खिलाफ सड़कें भर दीं. पोलैंड की सरकार कई बार इस कानून को लागू करने की कोशिश कर चुकी है. इससे पहले भी नवम्बर में व्यापक विरोध झेलने के बाद सरकार को अपना निर्णय स्थगित करना पड़ा था. 29 जनवरी को लगातार तीन दिन तक चले आंदोलन की वजह से वर्साय समेत कई मुख्य पोलिश शहरों की सड़कें महिलाओं की भीड़ से भरी रहीं. महिला आंदोनकारियों का कहना था कि ये उनके चयन के अधिकार को रोकने वाला कानून है. ‘abortion is ok’ जैसे ही कई और नारे सड़कों पर गूंज रहे थे.

पोलैंड की महिलाओं की एक प्रेरणा अर्जेंटीना में हुई महिला आंदोलन की हालिया जीत भी है. अर्जेंटीना में आंदोलन के दम पर ही ऐसे कानूनों पर न सिर्फ रोक लगी थी बल्कि गर्भपात को कानूनी रूप देने के लिए भी कानून पास हुआ. इस आंदोलन को तमाम रूढ़िवादी परम्पराओं के खिलाफ महिलाओं की आज़ादी के संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए. महिलाओं का कहना है कि पोलैंड की सरकार कट्टर कैथोलिक मूल्यों को महिलाओं पर आरोपित करके अपने ‘धर्म’ का संरक्षण करने की योजना बना रहा है. इस तरह के संघर्ष ही आगामी दिनों में नारीवादी-आंदोलन की दिशा-दशा तय करेंगे.

ग्रीस में छात्रों, शिक्षकों और नागरिक समाज का आंदोलन आजकल चर्चा में है. ग्रीस की सरकार के पुलिस बल पर होने वाले खर्च को बढाने में फैसले के विरोध में वहां के छात्र, शिक्षक एवं नागरिक समाज के लोग सड़कों पर उतर पड़े. अभी बहुत दिन नहीं बीते हैं जब 2018 में ग्रीस वैश्विक कर्ज़े से मुक्त हुआ था. ऐसे में बुनियादी सुविधाओं को बढाने के बजाय जब पुलिस पर खर्च बढ़ेगा तो जनता रोष जायज़ ही है. छात्रों और शिक्षकों ने यह मांग की कि शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए, शिक्षकों की भर्तियां की जाएं तथा बुनयादी सुविधाओं (इंफ्रास्ट्रक्चर) बढ़ाया जाए.

ऐसे में अगर हम अपने प्रधानमंत्री से शब्द उधार लेकर कहें तो यूरोप की अधिकांश जनता ‘आन्दोलनजीवी’ हो चुकी है. भारतीय किसान तो पिछले 74 दिनों से अपने आन्दोलनजीवी होने का सबूत दे ही रहा है. और ऐसे आन्दोलनजीवी समय में नरेंद्र जी को जुमलाजीवी बनकर अपना समय बर्बाद करने के बजाय किसानों की बात मानकर तीनों कृषि कानून वापस ले लेने चाहिए.

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