समकालीन जनमत
ख़बरज़ेर-ए-बहस

10 लाख से अधिक वनवासियों को जंगलों से बेदखल करने का आदेश

कागजों पर लिखी इबारत कितनी मारक हो सकती है, इसको उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से समझा जा सकता है, जिसमें 10 लाख से अधिक वनवासियों को जंगलों से बेदखल करने का आदेश विभिन्न राज्यों की सरकारों को दिया गया है.

हालांकि 9 पन्नों का यह फैसला 13 फरवरी 2019 को कर दिया गया था,परंतु न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति इंदिरा बैनर्जी की खंडपीठ का यह फैसला समाचार माध्यमों की सुर्खी 20 फरवरी को ही बन सका.
अपने उक्त फैसले में तीनों न्यायमूर्तियों ने विभिन्न राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश दिया कि मामले की अगली सुनवाई की तारीख यानि 27 जुलाई 2019 से पहले वे वनों पर अवैध तरीके से काबिज लोगों को वनों से बेदखल करें.
यह समझने से पहले कि बेदखल होने वालों की इतनी बड़ी संख्या की गणना पर कैसे पहुंचा गया,पहले जान लेते हैं कि यह मामला है क्या.29 दिसम्बर 2006 को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद एक कानून बना,जिसका नाम है-अनूसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006. इसे प्रचलित तौर पर वनाधिकार कानून के नाम से जाना जाता है.

इसी वनाधिकार कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए वर्ष 2008 में वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, नेचर कनसर्वेशन सोसायटी और टाइगर रिसर्च व कनसर्वेशन ट्रस्ट आदि ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की.याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय में यह भी कहा कि वनाधिकार कानून के तहत जिनके दावे खारिज हो चुके हैं, उन्हें भी वनों से नहीं निकाला जा रहा है.
इस पर 29 जनवरी 2016 को न्यायमूर्ति जे.चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे और न्यायमूर्ति अमिताव रॉय की खंडपीठ ने सभी राज्यों को कहा कि वे यह शपथ पत्र प्रस्तुत करें कि कितनी जमीन पर दावा किया गया और खारिज किये गए दावों की संख्या कितनी है.
13 फरवरी 2019 को दिए गए उच्चतम न्यायालय के फैसले में वनाधिकार कानून के अंतर्गत राज्यवार किये गए कुल दावों और खारिज किये दावों का ब्यौरा है.लाइव लॉ पोर्टल ने उच्चतम न्यायालय के फैसले में दावों को क्रमवार प्रस्तुत किया है.राज्यवार खारिज किये गए दावों के ब्यौरा निम्नवत है :

आंध्र प्रदेश : 66,351 दावे खारिज
असम : जनजातियों के 22,3891 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 5136 दावे खारिज
बिहार: 2666 अनूसूचित जनजाति और 1688 अन्य परंपरागत वन वासियों के दावे खारिज
छत्तीसगढ़ : 20,095 दावे खारिज
गोआ: अनुसूचित जनजाति के 6094 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 4036 दावों पर निर्णय होना शेष है.
गुजरात : अनुसूचित जनजाति के 1,68,899 और अन्यय परंपरागत वन वासियों के 13,970 दावों पर निर्णय किया जाना शेष है.
हिमाचल प्रदेश : अनुसूचित जनजाति के 2131 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 92 दावों पर निर्णय किया जाना शेष है.
झारखंड: अनुसूचित जनजाति के 27,809 दावे और अन्य परंपरागत वन वासियों के 298 दावे खारिज किये गए.
कर्नाटक : अनुसूचित जनजातियों के 35, 521 दावे और अन्य परंपरागत वन वासियों के 1,41,019 दावे खारिज किये गए.
केरल : अनुसूचित जनजातियों के 894 दावे खारिज किये गए.
मध्य प्रदेश : अनुसूचित जनजातियों के 2,04,123 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 1,50,664 दावे खारिज किये गए.
महाराष्ट्र : अनुसूचित जनजातियों के 13,712 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 8797 दावे खारिज किये गए.
ओडिशा: अनुसूचित जनजातियों के 1,22,250 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 26,620 दावे खारिज किये गए.
राजस्थान : अनुसूचित जनजातियों के 36,492 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 577 दावे खारिज किये गए.
तमिलनाडु : अनुसूचित जनजातियों के 7148 तथा अन्य परंपरागत वन वासियों के 1811 दावे खारिज किये गए.
तेलंगाना : 82,075 दावे खारिज किये गए.
त्रिपुरा: अनुसूचित जनजातियों के 34,483 अन्य परंपरागत वन वासियों के 33,774 दावे खारिज किये गए.
उत्तराखंड: अनुसूचित जनजातियों के 35 तथा अन्य परंपरागत वन वासियों के 16 दावे खारिज किये गए.
उत्तर प्रदेश: अनुसूचित जनजातियों के 20,494 तथा अन्य परंपरागत वन वासियों के 38,167 दावे खारिज किये गए.
पश्चिम बंगाल : अनुसूचित जनजातियों के 50, 288 और अन्य परंपरागत वन वासियों के 35,586 दावे खारिज किये गए.

खारिज किये दावों की संख्या से स्पष्ट होता है कि सैकड़ों सालों से वनों में रहने वालों को अधिकार दिलाने के नाम पर बने वनाधिकार कानून के तहत अधिकार दिए जाने से अधिक सरकारी तंत्र का जोर दावे खारिज किये जाने पर ही रहा.इसे दाखिल किए गए दावों और खारिज किये गए दावों की संख्या की तुलना करके भी समझा जा सकता है. उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के 426185 दावे प्रस्तुत हुए,जिनमें से 204123 दावे खारिज कर दिए गए.यानि कि लगभग आधे दावे खारिज कर दिए गए अन्य परंपरागत वन वासियों के 153306 दावे प्रस्तुत हुए,जिनमें से 150064 खारिज कर दिए गए.इस तरह देखें तो अन्य परंपरागत वन वासियों के लो लगभग सारे ही दावे खारिज कर दिए गए.

एक लाख से अधिक दावों में से केवल 3242 दावों में स्वीकृति से अधिक अस्वीकृति का भाव है. कमोबेश यही तस्वीर अन्य राज्यों की भी है, जहां दावों की अस्वीकृति का आंकड़ा, दावों की स्वीकृति के आंकड़े को मात देता दिखाई देता है.यह आंकड़ा तो वनाधिकार कानून के दस्तावेज में लिखित बात के एकदम विपरीत है.वनाधिकार कानून 2006 की भूमिका में कहा गया है कि वनों में रहने वालों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दुरुस्त करने के लिए यह कानून है. जब वनाधिकार के अधिकतम दावे खारिज हो गए तो ऐतिहासिक अन्याय दुरुस्त नहीं हुआ बल्कि वह तो सरकारी तंत्र द्वारा और अधिक बढ़ा दिया गया.
उच्चतम न्यायालय ने अपने नौ पृष्ठों के फैसले में राज्यवार प्रस्तुत दावों और खारिज किये दावों के आंकड़ों को लिख दिया. इस आंकड़े को लिखने के बाद विद्वान न्यायाधीशों ने राज्यों से कहा कि जिनके दावे खारिज हो गए,उन्हें अभी तक जंगलों से निकाला क्यों नहीं गया है ?होना तो यह चाहिए था कि खारिज किये दावों की भारी-भरकम संख्या पर राज्यों से पूछा जाना चाहिए था कि क्या वे तय करके बैठे थे कि कानून कुछ भी कहे पर वनवासियों को अधिकार तो वे किसी सूरत में नहीं देंगे? जब लगभग सारे ही दावे खारिज हो गए तो वनाधिकार मिला किसे?


उच्चतम न्यायालय ने हर राज्य के खारिज दावों के आंकड़े के नीचे लिख दिया कि सुनवाई की अगली तारीख यानि 27 जुलाई 2019 तक, यदि इन्हें बेदखल न किया गया तो अदालत इस बात को बड़ी गंभीरता से लेगी.
आश्चर्यजनक यह है कि केंद्र की जो सरकार,मुट्ठी भर बड़े पूंजीपतियों के हितों को सुरक्षित रखने की खातिर किसी भी हद तक जाने को तैयार है, लाखों की आबादी को उजाड़ने के इस फैसले पर उस सरकार के मुंह से दो बोल भी न फूटे.कहा तो यह भी जा रहा है कि वनवासियों को उजाड़ने का यह फैसला जब लिया जा रहा था तो केंद्र का कोई वकील, अदालत में नहीं था.
सवाल यह है कि लालफीताशाही वाले सरकारी तंत्र द्वारा खारिज किये गए दावे भर से क्या यह प्रमाणित हो जाता है कि परंपरागत रूप से वनों में रहने वाले लोग अवैध रूप से रह रहे हैं?सैकड़ों सालों से वनों में रहने वाले ये लोग, यदि वनों से खदेड़ दिए जाएंगे तो ये जाएंगे कहाँ?शहरों में से तो गरीबों को उजाड़ने का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है, अब जंगलों से भी वे खदेड़े जाएंगे तो इस देश में उनके लिए जगह है, कहाँ?ये वन यदि आज हैं तो वनों में रहने वाले और वनों पर आश्रित समुदायों की वजह से हैं.कुछ अभिजात्य किस्म के पर्यावरण वादी हैं, जिन्हें प्रकृति में जानवर,पहाड़,पेड़,पौधे सब कुछ चाहिए, सिर्फ गरीब मनुष्य नहीं चाहिए ! क्या सैकड़ों वर्षों से वनों में रहने वाले,वनों को संरक्षित करने वाले वनवासियों को सिर्फ इसलिए खदेड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि इसी से यह अभिजात्य सनक तुष्ट होगी?

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion