मोदी सरकार दूसरी बार सत्तासीन हुई है। पिछली बार की तुलना में उसका मत प्रतिशत बढ़ा है। उसकी सीटों में भी इजाफा हुआ है। यह नरेन्द्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की सफलता है या एक कट्टरवादी, आक्रामक, बहुसंख्यकवादी, मर्दवादी हो रहे समाज के पक्ष में जनादेश है ? संघ परिवार का संजाल, मीडिया का गोदी मीडिया में बदलता जाना, सोशल मीडिया का विस्तार, सोशल इंजीयिनियरिंग, विपक्ष का नकारापन व बिखराव आदि की भूमिका इस प्रचण्ड बहुमत को तैयार करने में कितनी है ? जबकि जीवन की आधारभूत समस्याएं बनी हुई हैं, वे विकराल हुई हैं। अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। ऐसे में यह कैसी सफलता ? ऐसा कैसे हुआ कि जरूरी मुद्दे गैरजरूरी हो गये ? इसी की पड़ताल करती प्रखर वामपंथी बुद्धिजीवी व लेखक सुभाष गाताडे की किताब है ‘मोदीनामा’।
यहां मोदी – 1 के शासनकाल का मूल्यांकन है, तो भविष्य का संकेत भी। साथ ही भारत के सत्तर साला लोकतंत्र के लिए चेतावनी भी है। आज जिस ‘न्यू इंडिया’ का प्रचार है, वह धर्मनिरपेक्ष अतीत और साम्प्रदायिक भविष्य के बीच फंसा है। यानी, भारत बदल रहा है। इस बदलते भारत को ‘न्यू इंडिया’ कहा जा रहा है तथा ‘ हिन्दुत्व का उन्माद ’ जिसकी खासियत है। सुभाष गताडे इसके विविध रूपों, प्रवृतियों पर चर्चा करते हैं।
‘ मोदीनामा ’ का आरम्भ अंतोनियो ग्राम्सी के जेल नोटबुक के इस विचार से होता है जिसमें वे कहते हैं ‘असल में संकट ये है कि पुराना मर रहा है और नया पैदा नहीं हो सकता। इस बीच के खाली जगह में लगातार अलग-अलग तरह की बीमारियों के लक्षण पनप रहे हैं। ’ अर्थात मरणासन्न प्राचीन और जरूरी नवीन के न उदय होने से इतिहास व्याधिग्रस्त होता है। भारत इतिहास के ऐसे ही दौर में है। सुभाष गाताडे की नजर में यह राजनीतिक विकृति है जिसकी अभिव्यक्ति बहुसंख्यकवाद के रूप में हो रही है। यदि भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय का कोई प्रतिनिधि संसद में सत्तासीन पार्टी से नहीं निर्वाचित होता है तो यह सामान्य घटना नहीं है। यह भारतीय राजनीति के बदलते चरित्र का भी प्रतीक है। दक्षिण एशिया की यह विशेष परिघटना है। सुभाष गताडे ने उदाहरण देकर बताया है कि आधुनिक राज्य जिसकी बुनियाद सेकुलर रही है, उसका स्वरूप धर्म आधारित हुआ है, वह भी बहुसंख्यकवादी। इसे भारत, पाकिस्तान और बांगला देश में देखा जा सकता है। इन देशों में असहमति के विचार और तर्कवादी अपराधी है। वे हिंसा के शिकार बनाये गये। उन पर हमले हुए। देशद्रोह, अवमानना, मौतें, हमले, सेंसरशिप, धमकियां आम बात हो गयी है। अब सत्ता को अपना विरोध बर्दाश्त नहीं। उसे अंधानुकरण करने वाले भक्त चाहिए। हिंसा, हमला, अपराध आदि को अंजाम देने वाली भीड़ व टोली चाहिए।
‘मोदीनामा’ में प्रस्तावना और ‘विचार ही अपराध’ शीर्षक से भूमिका के अतिरिक्त पांच अध्याय हैं। पहला अध्याय है ‘पवित्र किताब की छाया में’। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में प्रवेश करते समय इसे ‘जनतंत्र का मन्दिर’ और संविधान को ‘पवित्र ग्रन्थ’ की संज्ञा दी। अपने इस कथन को उन्होंने कई अवसरों पर दोहराया। जबकि उनके सामाजिक जीवन का आरम्भ और वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे असमावेशी और हिन्दूत्ववादी संगठन से हुई जिसकी संविधान की जगह ‘मनुस्मृति’ में आस्था थी। यह ऐतिहासिक तथ्य है। सुभाष गाताडे यह बताते हैं कि संसद न तो मंदिर है और संविधान न तो कोई पवित्र किताब है। यह आस्था या दैवी प्रेरणा भी नही है। इसके इतर यह राष्ट्र की जरूरत और उसकी लम्बी प्रक्रिया की देन है जो स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व पर जोर देता है। इसे किसी धार्मिक ग्रन्थ के रूप में देखना उसे जीवन व्यवहार से दूर कर मात्र पूजा की वस्तु बना देना है। यह इतिहास के पहिए को पीछे की ओर घुमाना है।
सुभाष गाताडे नरेन्द्र मोदी के मानस की पड़ताल करते है। औपनिवेशिक शासन के तहत दो सौ वर्षों की गुलामी की बात होती रही है। सदन में दिए अपने पहले भाषण में ही मोदी ने भारतीय इतिहास की नई व्याख्या पेश की जहां उन्होंने गुलामी को ‘बारह सौ सालों की गुलाम मानसिकता’ तक बढ़ा दिया है। यही तो आरएसएस का नजरिया है ‘जो कहता है कि मुसलमान इस देश के लिए पराये और अजनबी हैं और हम पर हजार साल तक हुकूमत किया हैं।’ ‘मोदीनामा’ इन प्रश्नों से रू ब रू है – संविधान की असली परीक्षा क्या है ? वे कौन से कारक हैं जो संविधान को कमजोर कर रहे हैं ? क्यों खतरे में है जनतंत्र और नागरिकता के विचार ? एक तरफ डा अम्बेडकर के अधिग्रहण की कोशिश और दूसरी ओर गुजरात सरकार द्वारा उनकी जीवनी की लाखों प्रतियों का नष्ट कर दिया जाना क्यों ? सुभाष गाताडे का निष्कर्ष है कि यह जनतंत्र के संकुचित किये जाने के लक्षण है। वे इसे ‘पवित्र किताब की छाया में एक किस्म के पागलपन’ की संज्ञा देते हैं।
‘लिंचिंग यानी बिना वैध निर्णय के मार डालना – यह शब्द अमेरिकी इतिहास के स्याह दौर की यादें ताजा करता है। 1877 से 1950 के दरमियान श्वेत वर्चस्ववादी गिरोहों ने लगभग चार हजार अफ्रीकी अमेरिकियों की इसी तरह हत्या की जबकि सरकार और पुलिस ने ऐसी घटनाओं की पूरी तरह अनदेखी की।’ क्या यही हालत मोदी शासन की हकीकत नहीं है जहां गाय के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या की जा रही है। ‘मोदीनाम’ के अध्याय ‘लिंचिंस्तान’ में दिये गये उदाहरण मर्माहत कर देने वाले हैं जहां सत्ता संरक्षित संगठनों द्वारा साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर खास समुदाय के लोगों को अपने हमले का शिकार बनाया गया और बनाया जा रहा है। जहां सरहद पार ‘ईश निन्दा’ के नाम पर भीड़ द्वारा हिंसा का बहाना है, वहीं भारत में ‘गोरक्षा’ के नाम पर। दोनों राज्यों द्वारा इस संबंध में कानून बनाकर इस तरह की हिंसा को वैधता प्रदान की जा रही है।
सुभाष गाताडे ने तथ्यों से इस बात को रेखांकित किया है कि कानून का राज भीड़ हिंसा के राज में तब्दील होता दिख रहा है। सुभाष गाताडे अखलाक व जुनेद से लेकर इन्स्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की भीड़ द्वारा की गयी निर्मम हत्या को संदर्भित करते हैं और बताते हैं कि किस तरह यह भीषण अपराध सामान्य बात होती जा रही है। वहीं, शंभुलाल रैगर जैसे कातिलों को ‘धर्मयोद्धाओं’ की तरह सम्मानति किया जा रहा है। इन्हें नायक बनाया जा रहा है। इनका महिमामंडन हो रहा है। सुभाष गाताडे पाकिस्तान की मशहूर कवयित्री फहमीदा रियाज़ की उस नज्म को याद करते हैं जो उन्होंने बाबरी मस्ज्दि ध्वंस की पृष्ठभूमि में भारत में बढ़ते साम्प्रदायिक विभाजन पर लिखी थी और कहा था ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छुपे थे भाई/वो मूरखता वो घमड़पन/जिसमें हमने सदी गंवाई/आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे/अरे बधाई बहुत बधाई’।
भारत के लिंचिंस्तान बनने के बरक्स सुभाष गताडे की चिन्ता में इसके सेकुलर व जनतांत्रिक स्वरूप का सवाल है, इसके लगातार क्षतिग्रस्त होते जाने का सवाल है। इस संबंध में वे उन आंदोलनों को गति देने पर जोर देते हैं जो देश को लिंचिंस्तान बनने से बचा सकता है।
‘पवित्र गायें’, ‘जाति उत्पीड़न पर मौन’ तथा ‘मनु का सम्मोहन’ – तीन अन्य अध्याय हैं। हिन्दुत्व के उन्माद के लिए जरूरी है ऐसे भावनात्मक मुद्दे जिससे इसे हवा दी जा सके। मोदी के शासनकाल में गाय को सियासत से जोड़ा गया और उसकी ‘पवित्रता’ को प्रतिष्ष्ठित किया गया। भाजपा सरकार ने अपने को गाय-प्रेमी के रूप में खूब प्रचारित किया। गो रक्षा के कानून बनाये। कांग्रेस अन्य सरकारों पर नरेन्द्र मोदी का आरोप रहा कि वे पिंक क्रान्ति चाहती हैं अर्थात बीफ क्रान्ति।
‘मोदीनामा’ इस गोभक्ति की असलियत को सामने लाती है। इस बारे में डा अम्बेडकर, विवेकानन्द आदि के विचार दिये गये हैं। सुभाष गाताडे ने डा अम्बेडकर के लेख ‘ क्या हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया ? ’ के अंश को उद्धृत किया है। इस संबंध में दामोदर विनायक सावरकर के विचार भी उद्धृत हैं जिसमें वे गाय को पूज्य नहीं मानते। सुभाष गाताडे इस तथ्य को सामने लाते हैं कि भाजपा सरकार के लिए गाय का मुद्दा मात्र सियासी है, हिन्दुत्व का उन्माद फैलाने वाला है। उनके अनुसार आवारा गायों की संख्या पचास लाख है। गोशालाएं किसी बूचड़खाने से कम नहीं है। आमतौर पर भुखमरी, निर्जलीकरण और उपेक्षा गायों की मौत के कारण हैं। गोशालाओं में मरने वाली गायों के आंकड़े से मादीराज के गो प्रेम को बखूबी समझा जा सकता है। राजधानी दिल्ली की गोशाला में हर रोज बीस गायें मरती हैं। कानपुर की गोशाला में 540 गायें थीं, उनमें 152 मर गयीं। भाजपा राज्य सरकारों की ऐसी कई गोशालाओं के आंकड़े ‘मोदीनामा’ में दिये गये हैं। सुभाष गाताडे ने मोदीराज के उस पांखण्ड को भी उजागर किया है जहां सियासी फायदे के लिए वह मध्य भारत के इलाके में बीफ खाने का विरोध करती है, वहीं उत्तर पूर्व में इसके प्रति उसका विचार भिन्न है।
जहां ‘गायें मनुष्य से अधिक पवित्र होती हैं’, वहां भेदभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का पक्षपोषण है। डा अम्बेडकर का इस व्यवस्था के बारे में कहना है कि यह श्रमिकों का विभाजन करती है। सवर्ण हिन्दुओं के सम्मानजनक कार्य तो अछूतों के लिए गंदे और अपमानित कार्य की जिम्मेदारी दी जाती है। मोदी सरकार ने इस सच्चाई पर परदा डालने के लिए जाति व्यवस्था के लिए मुगलों और अंग्रेजों को जिम्मेदार ठहराया। इसके पीछे मकसद मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं की एकता स्थापित करना है। यह एकता जाति और वर्ण व्यवस्था के ढांचे बनाये रखते हुए कायम करना है। इसीलिए वह संविधान की जगह मनुस्मृति को स्थापित करने की वकालत करता है। मोदी सरकार एक तरफ स्वच्छता अभियान चलाये हुए है, वहीं आबादी का अछूत हिस्सा कचरा उठाने और गन्दगी साफ करने को अभिशप्त है। सैनिटेशन के काम में लगे लोगों की मौत के जो आंकड़े सुभाष गाताडे ने दिये हैं, वे सीमा पर और आतंकवाद से लड़ते हुए जवानों के शहीद होने की संख्या से कई गुना है। हर साल बाईस हजार कामगार गटर और सीवर साफ करते हुए मारे जाते हैं।
जब देश आजाद हुआ उस वक्त पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि मुल्क ‘जिन्दगी और आजादी’ के लिए उठ खड़ा हुआ है। एक नये युग का आगाज हुआ है। भारत के संविधान के ऐलान के साथ डाॅ अम्बेडकर ने कहा था कि इसने ‘मनु के शासन की समाप्ति की है’। आज 70 साल बाद सबको उल्टा जा रहा हैं संविधान, जनतंत्र, साझी विरासत सब निशाने पर है। साझापन और बहुलता की जगह नफरत, अलगाव और हिंसा मूल्य बन रहा है। संघ की हिन्दू राष्ट्र की जो संकल्पना रही है, दिशा उसी ओर है। एक सुपरमैन गढ़ा जा रहा है। नीत्शे की यह संकल्पना हिटलर को बहुत पसन्द थी। डा अम्बेडकर का कहना था कि यह अवधारणा मनुस्मृति से निकली थी। मोदीराज के रूप में जो ‘न्यू इंडिया’ है, उसका स्रोत यही है। इसकी बुनियाद फासीवाद और ब्राहम्णवाद है। ‘मोदीनामा’ का मतलब उसी दिशा की ओर देश को ले जाना है।
- पुस्तक : मोदीनामा – हिन्दुत्व का उन्माद (हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओ में उपलब्ध)
- लेखक – सुभाष गाताडे
- प्रकाशक – लेफ्टवर्ड बुक्स, नई दिल्ली
- कीमत – रुपये 195/-
- मो – 8400208031