प्रगतिशील-जनवादी साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों ने ‘ मीडिया की संस्कृति और वर्तमान परिदृश्य ’ पर संगोष्ठी आयोजित की
कठुआ गैंगरेप के खिलाफ लिखी गई कविताओं की पुस्तिका का लोकार्पण भी हुआ
पटना. ‘‘ पत्रकारिता की संस्कृति का सवाल लोकतंत्र की संस्कृति से जुड़ा हुआ है। समाज को बेहतर बनाने के बजाय बर्बरता की ओर ले जाने और लोगों को विवेकहीन बनाने की जो कोशिश की जा रही है, उसके प्रति पत्रकारिता की क्या भूमिका है, यह गंभीरता से सोचना होगा। पत्रकारों को यह तय करना ही होगा कि जो खबर वे छाप रहे हैं, वे समाज के लिए लाभदायक हैं या विध्वंसक ? ’’
आज प्रलेस, जलेस, जसम, जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, हिरावल, कथांतर और जुटान की ओर से बीआईए सभागार में आयोजित संगोष्ठी ‘ पत्रकारिता की संस्कृति और वर्तमान परिदृश्य ’ पर बोलते हुए ‘ समयांतर ’ पत्रिका के संपादक और कथाकार पंकज बिष्ट ने ये बातें कहीं।
पंकज बिष्ट ने कहा कि अमेरिका में आज भी ऐसे अखबार हैं, जो ट्रम्प की नीतियों की खुलकर आलोचना करते हैं, पर भारत में यह प्रवृत्ति खत्म होती जा रही है। भारत में एक पूंजीपति घराना दृश्य और प्रिंट मीडिया के बड़े हिस्से पर काबिज हो गया है, जो चिंतनीय है। उन्होंने कहा कि अब समाचार को मैनिपुलेट किया जाने लगा है, जो पूरी तरह पत्रकारिता के मानदंड के खिलाफ है। बड़े पूंजीपति किस तरह पत्रकारिता पर दबाव डालते हैं और संपादकों तक को संस्थानों से बाहर कर देते हैं, इसके भी कई उदाहरण उन्होंने दिए। उन्होंने पत्रकारों के पेशेवर प्रतिबद्धता और उनकी सुरक्षा के सवाल भी उठाए।
पंकज बिष्ट ने कहा कि बेशक पत्रकारों की हत्याएं हुई हैं, पर हम डरेंगे नहीं, अपनी बात कहेंगे और अपने अधिकार को लेके रहेंगे। अपनी अभिव्यक्ति के लिए और लोकतंत्र के लिए लड़ना है, तो पत्रकारों को संगठित होना ही होगा और जो लोग भी लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं उनके साथ एकजुट होना होगा। अशोक कुमार सिन्हा, इंजीनियर शशिकांत और घमंडी राम ने मुख्य वक्ता पंकज बिष्ट के वक्तव्य पर विचारोत्तेजक बहस की।
इस मौके पर निवेदिता ने कहा कि कलम की ताकत है और रहेगी। इप्टा के तनवीर अख्तर ने मीडिया के वर्तमान परिदृश्य को समाज की बेहतरी के लिए निराशाजनक बताया।
शायर संजय कुमार कुंदन ने कहा- तुम्हारी कत्लोगारत से से न दब पाएंगी आवाजें/ लहू जितना बहाओगे कलम उतना ही बोलेगा।
जलेस के राज्य सचिव विनीताभ ने पत्रकारों पर संस्थानों के अंकुश को लेकर सवाल उठाया और कहा कि निजी चैनलों की तादाद बढ़ने के बाद स्थिति ज्यादा खराब हुई।
‘कथांतर’ पत्रिका के संपादक राणा प्रताप ने कहा कि पूरी दुनिया में पत्रकारों-बुद्धिजीवियों पर हमले बढ़े हैं। आज लड़ाई सिर्फ बुद्धिजीवी और पत्रकारों की ही नहीं है, बल्कि उन्हें अपनी लड़ाई जनता की लड़ाइयों के साथ मिलकर लड़नी होगी।
प्रलेस के गजेंद्र कांत ने अंतिम आदमी के पक्ष की पत्रकारिता को विकसित करने पर जोर दिया।
जसम के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने कहा कि पिछले दो-तीन दशक में पत्रकारों और अखबार-चैनलों के कार्यालयों पर हमले करने वालों की शिनाख्त की जाए, तो पता चल जाएगा कि वह कौन सी राजनीति और विचारधारा है, जो मीडिया को अपने आतंक के बल पर चलाना चाहती है। आज सत्ता के इशारे पर मीडिया सांप्रदायिक फासीवादी उन्माद के एजेंडे के प्रचार में लगी हुई है। इस संभावित खतरे की ओर भगतसिंह ने 1928 में अपने एक लेख में संकेत करते हुए चिंता जाहिर की थी कि भारत का क्या होगा? आज हमारा समाज उसी प्रश्न के सामने खड़ा है।
संगोष्ठी से पूर्व कवि रंजीत वर्मा ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि पत्रकारों के लिए यह सामान्य समय नहीं है। अध्यक्षता शिवमंगल सिद्धांतकर और वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा ने की। संचालन रंगकर्मी हसन इमाम ने किया।
इस मौके पर शिवमंगल सिद्धांतकर, आलोक धन्वा, राणा प्रताप, रंजीत वर्मा और निवेदिता ने कठुआ गैंगरेप के खिलाफ लिखी गई कविताओं की पुस्तिका का लोकार्पण किया।
अध्यक्षता करते हुए शिवमंगल सिद्धांतकर ने यह सवाल उठाया कि जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि वह लोकतंत्र किसका और किसके लिए है। फासीवादी समय में पटना के लेखकों की एकजुटता उम्मीद बंधाती है।
आलोक धन्वा ने फासीवाद के खिलाफ लेखकों और पत्रकारों के संघर्षों को याद करते हुए आज के दौर में उस लड़ाई को नए सिरे से लड़े जाने की जरूरत पर जोर दिया।