(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर निर्देशक कुमार शाहनी की माया दर्पण । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की छठीं क़िस्त.-सं)
माया दर्पण कुमार शाहनी की पहली फ़िल्म है। हालांकि इससे पूर्व वे कई शार्ट फिल्में बना चुके थे। फ़िल्म सुप्रसिद्ध कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित है। संवाद भी फ़िल्म में निर्मल वर्मा ने खुद ही लिखे हैं। पटकथा लेखन कुमार शाहनी का है । कुमार शाहनी ने एफटीआईआई से पढ़ाई की थी और भारत में न्यू वेब सिनेमा की नींव डालने वाले फिल्मकारों में से एक ऋत्विक घटक के शिष्य थे । रोचक तथ्य यह है कि वे महान वामपंथी इतिहासकार डी डी कोसंबी के भी शिष्य रहे हैं ।
माया दर्पण को हिंदी सिनेमा की पहली फॉर्मलिस्ट फ़िल्म माना जाता है। फॉर्मलिस्ट का हिंदी प्रतिशब्द साहित्य जगत में रूपवाद स्वीकृत है। साहित्य के संदर्भ में रूपवादी दृष्टि रचना की स्वायत्तता पर बल देते हुए भाषा को विश्लेषण का सर्वप्रमुख घटक मानती है। फ़िल्म के संदर्भ में यही महत्व दृश्य को प्राप्त है। इन बातों को स्पष्ट करने का उद्देश्य यह है कि दृश्यों के जरिए इस फ़िल्म की संवेदना को पकड़ने की जिम्मेदारी अंततः दर्शक की कल्पना शक्ति पर ही आती है। प्रयोगधर्मी निर्देशक कुमार शाहनी फ़िल्म के कथ्य को सम्प्रेषित करने वाले बहुत से उपकरणों में कहानी को बस एक उपकरण मानते हैं और उसे केंद्रीय महत्त्व नहीं प्रदान करते। यहाँ यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि निर्मल वर्मा जिस नई कहानी आंदोलन के अगुआ लेखकों में रहे हैं, उसमें भी कहानी के तत्वों में कथा की भूमिका सर्वप्रमुख नहीं मानी गई थी और वातावरण जैसे तत्व को अपूर्व महत्त्व दिया गया था । मेरे विचार में उपरोक्त बातें फ़िल्म के मूल सौंदर्य तक पहुंचने में दर्शक को मदद पहुंचा सकती हैं।
फ़िल्म की कहानी तरन (अदिति) और उसके परिवार की है जिसमें उसके पिता दीवान साहब (अनिल पंड्या) और बुआ (कांता व्यास) हैं। बुआ बाल विधवा हैं। उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंचकर भी उनका अपने भाई से डर खत्म नहीं हुआ है। तरन की स्वर्गवासी मां भी आजीवन दीवान साहब से डरती रही थीं। दीवान साहब की स्मृति में अँग्रेजी हुकूमत के समय का सामंती वैभव गहराई से बसा है। उनको समाज में आ रहे उन परिवर्तनों से चिढ़ होती है जिनसे बड़े और छोटे का अंतर समाप्त होता जा रहा है ।इंजीनियर बाबू के द्वारा शाम को चलाया जाने वाला मजदूर साक्षरता कार्यक्रम उनको नापसंद है। वे मजदूरों के चल रहे आंदोलन के पीछे इसे वजह मानते हैं।
तरन और इंजीनियर के बीच अनबोला सा प्रेम पनप रहा है जिसे कवित्वपूर्ण ढंग से दिखाया गया है। गीत और कविता के जरिए नायक-नायिका के अकेलेपन को फ़िल्म बहुत शाइस्तगी से धीमे-धीमे कहती है। दीवान साहब तरन का रिश्ता ऊंचे खानदान में चाहते हैं। तरन का भाई पहले ही पिता से झगड़ा कर आसाम जा चुका है।
इस तरह पूरा परिवार एकाकी और उदास जीवन जी रहा है। इस वातावरण को पर्दे पर उतारने के लिए अनेक बिंब सृजित किये गए। एक बहुत बड़े मकान का खालीपन निरंतर पात्रों के भीतरी खालीपन को जाहिर करता रहता है। मकान के बाहर पड़ी बेंत की चार खाली कुर्सियाँ बार बार दिखाई गईं। कई बार उनको अस्त-व्यस्त दिखाया गया। इसी तरह रेल, रेल की पटरियों और पार्श्व से आती रेल की ध्वनियों के जरिए इस परिवार की गतिहीनता और दुनिया की गतिशीलता का कन्ट्रास्ट पैदा किया गया है। सबसे महत्वपूर्ण है तरन का अपने पिता के समक्ष पड़ते ही पांव के पंजों को सिकोड़ने लगना। इससे उसके पांव पड़ी अदृश्य बेड़ियों का पता चलता है। खास बात यह है कि वातावरण निर्माण के लिए रचे गए इन बिम्बों को कहानी से अलग नहीं किया जा सकता। यह वातावरण ही कहानी कहता है। संवाद आदि इसमें सहयोग करते हैं। किन्तु कहीं-कहीं संवाद बेहद सांकेतिक और अर्थपूर्ण हैं। एक जगह नायिका अपने पिता से कहती है-“आजकल शाम बहुत खूबसूरत हो गई है, घर आने को जी नहीं करता। ” यह उसकी प्राकृतिक यौनिकता की सांकेतिक अभिव्यक्ति है। सामंती परिवेश में जहाँ लड़कियों के आत्माभिव्यक्ति की गुंजाइश बहुत सीमित होती है, वहाँ भाषा में इस्तेमाल होने वाले रूपकों का महत्त्व होता है।
फ़िल्म का क्लाइमेक्स सुचिंतित पटकथा लेखन के चलते बहुत प्रभावशाली बन गया है। नाटकीय मोड़ तब आता है जब इंजीनियर तरन से कहता है कि “अपनी जरूरत को पहचानना ही आजादी है।” जब तरन पूछती है कि जरूरत क्या है, कैसे पता चले तो वह कहता है-खुद से बाहर निकलो। इस संवाद के बाद तरन घर आकर सहज आत्मविश्वास से अपने पिता के कमरे में पहुंचती है। इससे पहले के एक दृश्य में तरन पिता के कमरे में घुस पाने का साहस तीसरे प्रयास में कर पाई थी। साफ है कि क्लाइमेक्स के सीन की पृष्ठभूमि बनाई जा चुकी थी। तरन को देख दीवान साहब पूछते हैं-“तुम यहाँ क्यों आई हो? क्या कुछ काम है?” तरन उत्तर देती है-“नहीं, लेकिन अब आप लेट जाइए।” दीवान चुपचाप सोफे से उठकर लेट जाते हैं। यह समझना दर्शक की कल्पना पर है कि बेटे के वियोग में घुट रहे बूढ़े बाप को उसकी बेटी वापस मिल चुकी है। जो बेटी होने के अधिकार से उनका खयाल रख सकती है। बिना काम के भी उनके पास जा सकती है ।
इस तरह फ़िल्म दीवान साहब के चरित्र को बहुआयामी ढंग से प्रस्तुत करती है। जमींदार साहब के अंतर्विरोधों में उनका अपने किस्म का नैतिकता बोध है। समस्या पीढ़ी अंतराल के चलते मूल्यों में आ गये फर्क का है।
तरन के व्यक्तित्व अर्जित कर लेने के बाद उसका भी जीवन बदलना ही था। वह इंजीनियर बाबू के पास जाती है। उनका हाथ अपने वक्ष पे रख देती है। तदंतर नायक उसका गाल सहलाता है जो शारीरिक सम्बंध के मूल में प्रेम और स्नेह को दर्शाता है। इसी दृश्य में लिया गया दो जोड़ी चप्पलों का क्लोज शॉट दो लोगों के साथ-साथ रुकने और चलने को दर्शाता है। इस तरह फ़िल्म सामंती परिवेश के साथ आधुनिकता के मूल्यों की टकराहट को बहुत मार्मिकता के साथ सामने लाती है ।