गीतेश सिंह
कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में
बहुत अहले सुखन उट्ठे, बहुत अहले -कलाम आए ।
“मुझे इंसानी हाथ बड़े खूबसूरत मालूम होते हैं । उनकी जुंबिश में तरन्नुम है और खामोशी में शायरी ।”
हाथों की हिम्मत, अमन व मोहब्बत के शायर अली सरदार जाफरी की ‘लखनऊ की पांच रातें’ यात्राओं, दोस्तियों और देश-विदेश में फैले जाने-अनजाने व्यक्तियों के बारे में लिखी किताब है । यह यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण, आत्म -स्मरण और रेखाचित्र-सबों का मिलाजुला रूप है लेकिन इसमें जबरदस्त पठनीयता है ।’
किताब के शुरुआती हिस्से ‘मेरी बंदगी कुबूल करने के लिए कोई खुदा नहीं उठता’ में लेखक ने अपने बचपन, खानदान, इल्म, अदब और बहुत से सवालों से पैदा हुई बेचैनियों का जिक्र किया है । ‘खानदान में बड़ा इत्मीनान था । बलरामपुर से बाहर की दुनिया हमारे लिए कोई मायने नहीं रखती थी । यहीं बच्चे पैदा होते थे, जवान होते थे, बलरामपुर के स्कूल के बाद अलीगढ़ में तालीम हासिल करते थे और फिर शादी हो जाती थी और रियासत में मुलाज़मत मिल जाती थी ।’.….लेकिन ‘इस जमाने में चंद सवालात ने मुझे बेचैन किया और चंद सवालात ने मेरी जिंदगी में बहुत बड़ा इंकलाब पैदा कर दिया । मुझे इस सवाल ने बेचैन रखा कि यह दुनिया ऐसी क्यों है और इसकी इब्तदा मेरे बचपन में ही हो गई थी ।’
किसी शहर को जानने के लिए उसके इतिहास और जुगराफिया के साथ-साथ उसके अदब को जानना भी उतना ही जरूरी है । उस वक्त का लखनऊ मजाज़, अंसार हारवानी, अनवर जमाल किदवाई, सिब्ते हसन, फरहत उल्लाह अंसारी, अली ज़वाद, यशपाल, डॉक्टर रशीद (जिन्हें प्यार से सब रशीद आपा कहते थे) का लखनऊ था ।
लखनऊ की पांच रातों के किस्सों में पहला किस्सा अली सरदार जाफरी, मजाज़ और सिब्ते हसन की बदमाशियों से बावस्ता है, जिसमें इनके कश्मीरी दोस्त और एक टॉमी के बीच घूंसेबाजी हो गई और मजाज़ इस घूंसेबाजी के बीच लहक- लहक कर अपने एक गीत के मिसरे गाते रहे-
बोल अरी ओ धरती बोल
राज सिंहासन डांवाडोल
दूसरी रात फाकाकशी की नौबत वाली रात थी , जिसमें जाफरी साहब अपने दोस्तों के साथ ‘नया अदब’ की प्रतियां बेचने और मेंबर बनाने निकले थे । हर एक दर पर मिल रही मायूसियों के बावजूद मजाज़ लगातार गुनगुनाते-
रात हँस-हँस के ये कहती है कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज़े-लाला-रुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ए गमे-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं ।
वह जंगे-आजादी का दौर था और लखनऊ के नौजवान भी उस लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे । इन्हीं हलचलों के बीच अली सरदार जाफरी की पहली गिरफ्तारी हुई । इस गिरफ्तारी में शायर को जिस बात का सबसे ज्यादा रंज था वह यह कि उनकी अपनी निजी दुनिया में बेवजह की घुसपैठ की गई, जिसका सियासी मामलों से कोई लेना-देना न था । ‘मुकामी थाने में मेरी तलाशी ली गई तो मेरी जेबों से सियासी दस्तावेजों की बजाय चंद तस्वीरें बुतां, चंद हसीनों के खुतूत की किस्म की ही चीजें बाहर निकलीं । मेरे इसरार और एहतजाज के बावजूद पुलिस इंस्पेक्टर ने किसी लड़की के हाथ का लिखा हुआ मुहब्बतनामा और उसकी तस्वीर वापस करने से इंकार कर दिया । गिरफ्तारी की मुझे कोई परवाह नहीं थी, लेकिन वह खत और वह तस्वीर ।’
अली सरदार जाफरी की रातों में जोश मलीहाबादी हैं, सज्जाद जहीर, रजिया जहीर, प्रोफेसर डी. पी. मुखर्जी, गौहर सुल्तान, सोमनाथ चिब, मजाज़, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, जज्बी, मखदूम मोहिउद्दीन, जांनिसार अख्तर हैं, कृश्न चंदर हैं, यानी कि हिंदुस्तानी अदब व शायरी की एक भरी-पूरी खूबसूरत और इंकलाबी दुनिया है ।
और फिर उस रात का जिक्र जिसका गम सदियां भी कम नहीं कर सकतीं । उर्दू शायरी में बगावत और आजादी का ऐलान करने वाली नज़्म ‘आवारा’ के शायर मजाज़ की आखिरी रात का किस्सा । मजाज़ कहते हैं कि-
वह गुदाजे-दिले-मरहूम कहां लाऊं,
अब मैं वह जज़्ब-ए-मासूम कहां से लाऊं ।
‘और जिस दिन जज़्बे की मासूमियत खत्म हो जाती है, उस दिन शायर और शायरी दोनों का जनाज़ा निकल जाता है । उसके बाद मिट्टी में दफन होना और शराब में गर्क होना बराबर है ।’
चेहरू मांझी के हवाले से लेखक ने जंग के दौरान औरत के हालात पर होने वाले असर का असली खाका खींचा है । और ऐसे हालात में भी हार न मान, अपने वजूद की लड़ाई लड़ती चेहरू मांझी इस बदसूरत समाजी रवायत के सामने खड़ी है ।
और फिर दुनिया भर के इंकलाबी शायरों की आवाजाही के बीच नाजिम हिकमत का इलाज कर रही डॉक्टर गलीना की कहानी-सोवियत समाज के तामीर और दुनिया भर के सियासी जद्दोजहद की कहानी ।
‘रूसी डॉक्टरनी गेलेना से लेकर कॉक्स बाज़ार की चेहरू मांझी जैसी बेमिसाल स्त्रियों को भुलाना मुश्किल है ।’
यह किताब इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए कि हममें अपनी गंगा-जमुनी तहजीब को समझने की तमीज़ पैदा हो, अपने माज़ी की खूबसूरत सच्चाइयों को जानने की राह मालूम हो और नफरत के खिलाफ अम्न और मोहब्बत की विरासत को आगे बढ़ाने का हौसला पैदा हो सके।
किताब राजकमल पेपरबैक्स से प्रकाशित हुई है, जिसका अनुवाद कामना प्रसाद ने किया है । अनुवाद के बावजूद उर्दू ज़ुबान से शुरुआती परिचय इस किताब को समझने के लिए जरूरी है ।
ललित कला अकादमी नई दिल्ली के राष्ट्रीय पुरस्कार, मध्य प्रदेश सरकार के कालिदास सम्मान तथा भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार, लेखक ग़ुलाम मोहम्मद शेख ने इस किताब का खूबसूरत आवरण चित्र तैयार किया है ।
(गीतेश सिंह लखनऊ के एक केन्द्रीय विद्यालय में उप-प्राचार्य हैं । उनसे geetesh82@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है ।)