डॉ.दीना नाथ मौर्य
स्कूल केवल सूचना ही नहीं देते हैं बल्कि सोचना भी सिखाते हैं और इसी रूप में नजरिये का निर्माण भी करते हैं. स्कूली शिक्षा हमारे जेहन में अवधारणों की पूरी श्रृंखला तैयार करती है जो कमोवेश ताउम्र हमारे साथ बनी रहती है. लड़के और लकड़ियों के प्रति होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार परिवार से चलकर स्कूल आते हैं.स्कूल की यह जिम्मेदारी बनती है कि उन्हें दूर कर एक लोकतान्त्रिक और समतामूलक समाज के निर्माण में सहायक बनें. स्कूली शिक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय फोकस समूह द्वारा भारतीय भाषाओं के शिक्षण का आधार पत्र भाषिक नजरिये से स्कूल की समूची पाठ्यचर्या को निर्देशित करते हुए यह प्रस्ताव करता है कि ‘पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के बारे में बनी-बनाई धारणाएँ व्यवहार के स्तर पर पुनर्निर्मित तो होती ही हैं और कई बार शायद अनजाने ही हमारी पाठ्यपुस्तकों द्वारा भी संचरित होती रही हैं. दरअसल ज्ञान के क्षेत्र में लैंगिक ज्ञान के संरचना के स्तर पर भेदभाव के कारण हानि अब तेजी से स्पष्ट होती जा रही है.भाषा, अन्य व्याखाएं और दृश्य-विज्ञापन इस तरह के ज्ञान के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका निभाते हैं. इसलिए भाषा में इस पक्ष को अति गंभीरतापूर्वक लेने की जरूरत है. आधार पत्र इस बात पर बहुत जोर देता है कि ‘यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण हो गयी है कि पाठ्यपुस्तक लेखक और शिक्षक इस तथ्य को स्वीकार करें कि निष्क्रिय व हेय समझी जाने वाली भूमिकाएं, जिनसे स्त्रियों को स्वभावतः जोड़कर देखा जाता रहा है, सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से निर्मित हैं और इन्हें जितनी जल्दी हो नष्ट करने की जरूरत है. स्त्रियों की आवाज को पूरी गरिमा के साथ हमारी पाठ्यपुस्तकों व- शिक्षण पद्धति में जगह दी जाय.”
विभिन्न राज्यों में स्कूली शिक्षा के लिए निर्धारित हिंदी भाषा की पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन से यह बात कही जा सकती है कि किताबों में विद्यार्थियों के लिए दिए गये निर्देशों में विद्यार्थियों का जिक्र न करके कहीं-कहीं केवल छात्रों के संबोधन भर हुआ करते हैं. यह बात सामान्य तो लग सकती है पर अपने प्रभाव में यह छात्राओं पर बुनियादी रूप में नकारात्मक हो जाती है जहाँ उन्हें संबोधन के कर्म में ही उपेक्षित कर दिया जाता है. श्रम का विभाजन देखने में और सुनने में बड़ा ही लोकतांत्रिक लग सकता है पर असमानता की बुनियाद पर निर्मित श्रम विभाजन से तमाम तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक अंतर्विरोधी स्थितियां पैदा होती हैं, श्रम विभाजन से पैदा होने वाली हैरारिकी ने ऐतिहासिक रूप से सभ्यता में बहुत सारी लोकतांत्रिक संभावनाओं को खत्म किया है. घर और स्कूल में लैंगिक आधार पर कार्य का बंटवारा हमारे भावी जीवन पर गहराई से अपना प्रभाव डालता है. याद है बचपन में जब हिंदी बाल पोथी में हमने किताब के साथ पढ़ना सीखने की शुरुआत की थी तो उन छोटे-छोटे वाक्यों के सहारे हम केवल वर्तनी से ही परिचित नहीं हो रहे थे बल्कि उनके जरिये हमारे जेहन में जेंडर के साथ कार्यभेद की अवधारणाओं का निर्माण भी हो रहा था. जिसमें अक्सर यह कहा जाता था कि राम उठ किताब ला. सोहन स्कूल जा .सीमा गागर ला पानी भर. लड़का और लड़की के बारे में समाज की निर्मिति में हम सीमोन की इस बात से सहमत हो सकते हैं कि ‘लड़की पैदा नहीं होती बना दी जाती है’ बल्कि इसे और भी आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि ‘लड़के भी पैदा नहीं होते बल्कि बना दिए जाते हैं’.जेंडर सेंसिटिविटी’ तथा लड़की और लड़कों के अलग-अलग कार्यों की अघोषित ट्रेनिंग परिवार और समाज के जरिये बचपन में ही दी जानी शुरू हो जाती है. इसका बहुत ही नकारात्मक प्रभाव बच्चों के भावी जीवन पर पड़ता है.शिक्षा और खेल समेत तमाम गतिविधियों में बच्चों को बगैर किसी लैंगिक भेदभाव के समान अवसर तो देना ही चाहिये, साथ ही साथ अपने व्यवहार में उनकी शारीरिक संरचना की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए बचपन को किसी भी तरह के भाषिक-सांस्कृतिक विभेदकारी कार्यों से बचाना चाहिए.
आज भी कम पढ़े-लिखे परिवारों में ही नहीं बल्कि तथाकथित रूप से शिक्षित परिवारों में भी लड़कियों और लड़कों की परवरिश में होने वाले अंतर को कमोवेश देखा जा सकता है. बराबरी के नाम पर कुछ लोग बेटी को बेटा बुलाते हैं. घर परिवार से लेकर स्कूल तक में बेटी को बेटा बुला देने मात्र से समानता नहीं होती बल्कि यह तो नकारात्मक रूप से इस बात की गुंजाइश भी छोड़ता है कि बेटा होना बेटी होने से कहीं बेहतर है.
शिक्षा में समानता के नाम पर लड़के-लड़कियों को समान शिक्षा देते हैं पर लड़कियों को सरकारी स्कूल में और लड़कों को अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूल में दाखिला दिलाने की प्रवृत्ति भी साफ़ तौर पर दिखायी पड़ जाती है. लड़के और लडकियों के घरेलू कार्यों का बंटवारा स्कूल तक पहुँचता है और पूरी शिक्षा की प्रणाली कुछ इस तरह विकसित होती है कि वह उन्हें ‘हाउस वाइफ’ के उस खांचे में फिट होने के लिए की जाने वाली तैयारी जान पड़ती है.जबकि लड़कों के लिए इस तरह की तमाम सहूलियतें बचपन से मिली होती हैं कि उसकी व्यस्तता घर के बाहर के कार्यों के साथ ज्यादा जुड़ी हुयी होती है.’लड़कियों की तरह क्या रो रहे हो?, या लड़कों की तरह उछलना ठीक नहीं अब बड़ी हो गयी हो? घर में सुने जाने वाले यह वाक्य स्कूल तक में बच्चों की सामाजिक पहचान को रूप देते हैं. कोई शिक्षक या शिक्षिका जब सहशिक्षा स्कूल में अपने संबोधन में केवल छात्रों या केवल छात्राओं का संबोधन करता है तो इस संबोधन से बाहर रह गये समूह में खुद को ढूढने के लिए बगलें झांकना पड़ता है.
14 जनवरी 2020 को ‘प्रथम’ संस्था द्वारा जारी की गयी देश भर के विभिन्न राज्यों में प्राथमिक स्तर पर विद्यार्थियों का नामांकन एवं उनकी सीखने की क्षमताओं का जिला स्तरीय आंकड़ा वार्षिक रूप से प्रकाशित करने वाली शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट प्रारंभिक वर्ष’ [Annual Status of Education Report (ASER) Early Years], 2019 रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करती है कि शिक्षा में प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के प्रति हमारा नजरिया किस तरह समाज में लैंगिक विभेद को बढ़ावा देता है. रिपोर्ट के निष्कर्ष हैं कि 4-8 वर्ष आयु वर्ग के लड़के और लड़कियों के नामांकन पैटर्न में अंतर देखने को मिला. ज़्यादातर लड़के निजी शिक्षण संस्थानों, जबकि लड़कियाँ सरकारी शिक्षण संस्थानों में नामांकित हैं तथा सर्वे में उम्र बढ़ने के साथ-साथ इस अंतर को भी बढ़ते हुए देखा गया है.
4-5 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों में 56.8%लड़कियाँ और 50% लड़के सरकारी विद्यालयों में नामांकित हैं. साथ ही 43.2%लड़कियाँ और 49.6% लड़के निजी विद्यालयों में नामांकित हैं.आँकड़ों के अनुसार, 6-8 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों में 61.1% लड़कियाँ और 52.1% लड़के सरकारी विद्यालयों में नामांकित हैं। असर की रिपोर्ट प्राथमिक स्तर पर स्कूली शिक्षा में व्याप्त कई अंतर्विरोधों को सामने लाती है. यह अंतर्विरोध केवल स्कूलों में दाखिले के लैंगिक असमानता का ही नहीं है बल्कि समूची स्कूली पाठ्यचर्या तक इसकी व्याप्ति हमें व्यावहारिक रूप में दिखाई देती है.
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि समानता कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है जिसे देखा न सके या समझा न जा सके. यह बात दूसरी है कि अपने सामाजिक और निजी जीवन में हम व्यावहारिक रूप इसे से अमूर्त बना देते हैं. बालिकाओं की शिक्षा और उनके स्कूली परिवेश के सन्दर्भ में हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि उनके लिए हम केवल किसी विशेष अवसरों पर कुछ पुरस्कार और सम्मान भर ही न दें बल्कि स्कूल की पूरी पाठ्यचर्या को इस तरह से निर्मित करें कि उनके भीतर मानवीय गरिमाबोध और आत्मविश्वास की भावना मजबूती के साथ पैदा हो सके. वे खुलकर जी सकें अपनी बात कह सकें और उनके भीतर यह भाव भर सकें कि वे कभी भी अपने को सामाजिक दायरे में कमतर न आंकें. विद्यार्थियों के जेहन में यह बातें तब बैठती हैं जब स्कूली पाठ्यचर्या के विविध आयामों में यह समानता व्यावहारिक रूप से दिखायी देती है .खेल के मैदान से लेकर कक्षा में बैठने के नियोजन और शिक्षक के संबोधन से लेकर पाठ्यपुस्तकों के विषयों तक में. स्कूल के अपने शुरूआती दिनों में पाठ्यपुस्तकों के विषयों में आने वाले चित्रों, उनमें विद्यार्थियों के लिए दिए गये संबोधनों और फिर कक्षा के भीतर अध्यापक और विद्यार्थियों के आपसी संवाद की भाषा जितनी लोकतांत्रिक और समानतापूर्ण होगी स्कूल और स्कूल के बाहर व्यापक समाज में होने वाले लैंगिक भेदभाव को कम करने वाली होगी. हमें यह समझना होगा कि समानता के लिए उठने वाले आंदोलनों की बुनियादी मांग इस बात को लेकर होती है कि बतौर इंसान सबको बराबरी का हक़ मिले. समतामूलक व्यवहार और सभी के साथ न्यायपूर्ण नजरिया तभी निर्मित हो पता है जब हम असमानता के लिए उत्तरदायी कारकों पर बुनियादी रूप से विचार और उन्हें दूर करने का व्यावहारिक प्रयास करते हैं.
(लेखक एन.सी.ई.आर.टी. में प्रोजेक्ट फेलो रह चुके हैं, वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं, संपर्क – 9999108490, dnathjnu@gmail.com )
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