समकालीन जनमत
इतिहास

भारत में भूमि-व्यवस्था, औपनिवेशिक शासन और खेत मजदूर

(यह आलेख मुख्य शीर्षक से सम्बंधित  एक प्रस्तावना जैसा है। कोई अंतिम बात नहीं। इसे इसी रूप में पढ़ा जाय, कोई बहस निकल आये तो, वह ज्यादा सार्थक होगी।-लेखक) 

जब से मानव सभ्यता का इतिहास मिलता है, तभी से भूमि या जमीन के महत्त्व का भी पता चलता है। जब इंसान घुमन्तू या चरवाहा जीवन जीते थे, तब भी उनको चारागाहों को सुरक्षित रखना पड़ता था और इसके लिए वे दूसरे कबीलों से संघर्ष भी करते थे। खेती की शुरुआत के बाद तो जमीन धीरे-धीरे सोना हो गयी। इस पर कब्जे के लिए शुरू हुआ संघर्ष राज्यों के निर्माण तक पहुँचा और फिर समस्त भूमि देवता द्वारा पठाये राजा की होने लगी।

पहला मजबूत टिकाऊ राज्य मौर्यों के समय में बनता है। मौर्यों के समय वर्ण व्यवस्था से बाहर पड़ने वाली बहुत सी घुमन्तू और जंगली, सीमान्त मानव समूहों/जातियों को खेती में लगाया गया। चाणक्य की रचना कहे जाने वाले अर्थशास्त्र में इस बात पर बल दिया गया है और उसकी मुख्य चिन्ता यही है, कि कृषि क्षेत्र का विस्तार कैसे हो तथा राजकीय अधिकार में अधिक से अधिक भूमि कैसे आये! ऐसी भूमि को ‘सीता’ कहा जाता था जिसकी देख-रेख के लिए अलग से एक अधिकारी सीताध्यक्ष की नियुक्ति होती थी।

कबीले से राज्य निर्माण की इस प्रक्रिया में भूमि को लेकर संघर्ष और तनाव का स्वरूप भी बदला और कबीले की जगह राज्यों के बीच संघर्ष ने लिया। बड़ी संख्या में युद्धबंदियों को कृषि-कार्यों में लगाया गया, बहुत-सी बनैली, घुमन्ती समुदायों को भी इसमें लगाया गया। बाद में चलकर जबकि गुप्तकाल में वेतन के रूप में भूमि का हिस्सा दिया जाने लगा, तब से कृषि-समाज में विभेदीकरण की प्रक्रिया स्पष्टत: दिखाई देनी प्रारम्भ हुुई और खेतिहर जातियों का निर्माण शुरू हुआ।
भूमि को लेकर ‘ब्रह्मदेय’ और ‘अग्रहार’ पाने वालों और उसके अन्तर्गत आने वाले कृषिकर्ताओं के बीच तनाव का संकेत भी इसी दौरान देखने को मिलता है। यह तनाव विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के आपसी संघर्ष में भी व्यक्त होता है। सभी सम्प्रदाय प्रायः भूमि आधारित उत्पादन सम्बन्धों से सीधे जुड़े थे। गुप्त काल में यह तनाव और संघर्ष सबसे अधिक है ।  क्योंकि इन गुप्त शासकों ने ही व्यापार में गिरावट और मुद्रा की कमी के चलते वेतन के रूप में भूमि देना शुरू किया, इसके माध्यम से एक अनुपस्थिति एवं गैर-उत्पादक वर्ग खेतिहर समूहों या जातियों पर थोप दिया गया, जहाँ एक मध्यस्थ वर्ग के अधिकारों का जन्म होता है। यही वर्ग मजबूत होता हुआ और केन्द्रीकृत राज्यों के कमजोर होने से राजपूत राज्यों के निर्माण का एक कारक बनता है।

सल्तनत काल में राजा, राव, राय, राऊत, खुत, मुकद्दम, चौधरी के रूप में यह वर्ग मौजूद रहता है। प्रारम्भिक सुल्तान जितने हुए उन सभी को यह जरूरत महसूस हुई कि अधिकांश कृषि-भूमि को राजकीय भूमि में शामिल किया जाये और शासक तथा किसान के बीच सीधा रिश्ता कायम किया जाये। यह शासकों और किसानों दोनों के लिए अच्छी स्थिति होती। लेकिन इन सुल्तानों को इसमें काफी मुश्किलें पेश हुई। भूमि की उपज पर काबिज यह मध्यस्थ वर्ग काफी शक्तिशाली वर्ग था क्योंकि इनके पास इनकी अपनी सेनाएँ होती थीं और ये हमेशा शासकों के सामने विद्रोह की स्थिति पैदा किये रहते थे। अलाउद्दीन खिलजी को छोड़कर अन्य शासक इनकी शक्ति को कमजोर नहीं कर पाये। अलाउद्दीन खिलजी ने ही इन पर कुछ नियन्त्रण स्थापित किया लेकिन बाद के शासक इसे टिकाकर रखने में असफल रहे।

मुगल शासकोें ने इस शक्ति के साथ एक व्यावहारिक तालमेल कायम किया और सीधे इन पर नियन्त्रण न रखकर इन्हें शासन-प्रक्रिया का हिस्सा बना दिया। मनसबदार, जागीरदार और जमींदार जैसे मध्यस्थ वर्ग अब शासक वर्ग के हिस्से थे। फलत: किसानों के बीच असन्तोष शासको के खिलाफ सीधे अभिव्यक्त हुआ, जिसे इस्तेमाल कर कई राज्यों का उदय हुआ जिसमें मराठा राज्य, जाट राज्य, बुन्देला राज्य, सतनामी एवं सिख राज्य आदि। ध्यान रहे कि इनमें से प्रायः सभी राज्य किसान असंतोष से उपजे और वर्ण व्यवस्था में ये वैश्य और शूद्र श्रेणियों में आते थे।खैर

इन सबके बावजूद लेकिन, ऐसा कभी नहीं हुआ कि इन मध्यस्थ वर्गों को जमीन का वास्तविक स्वामी मान लिया गया हो। यह पहली बार औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत होता है, जब इन्हें भूमि का वास्तविक स्वामी मान लिया जाता है और किसानों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया जाता है। भारत में अभी भी जो  भूमि-समस्या मौजूद है, असल में इसी औपनिवेशिक शासन की देन थी, जिसने भारतीय समाज पर गहरा असर डाला।

इससे पहले तक जमीन को जोतने वाला जमीन का मालिक भी था। जमीन की मिल्कियत पर राजाओं और उनके जागीरदारों का कोई दावा नहीं था। वे एक एजेण्ट की हैसियत रखते थे और कुल उपज का एक प्रतिशत पाते थे। मुगल काल में यह हिस्सा बढ़कर एक तिहाई तक हो गया। इससे पहले यह 12वें से छठें हिस्से तक घटता-बढ़ता रहता था।

अनेक संहिताओं में लिखा है कि जमीन का असली स्वामी राजा था। फिर भी एक बार जोतने के लिए जमीन तैयार कर लेने के बाद यह मिल्कियत किसान के हाथ में चली गयी। राजा के अधिराज्य और किसान के स्वामित्व के बीच कोई विवाद नहीं था।  कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है, कि भूमि पर समस्त अधिकार राजा में निहित है। जिस जमीन को वह जोतने के लिए तैयार करता है, उसे कृष्य भूमि कहते हैं। इस ग्रन्थ में जमीन की उपज से रैयत को आजन्म लाभ उठाने का अधिकार है, जिस पर वह खेती करता है। इसमें यह भी माना गया है, कि खेती के अयोग्य सभी भूमि पर रैयत का पुश्तैनी हक है।  बंगाल में यह एक प्रथा की तरह था। अन्य प्रान्तों में भूमि सम्बन्धी अधिकार समग्र रूप से परिवार की इकाई में निहित थे। वंशानुक्रम सम्बन्धी अपने विख्यात सिद्धान्त में विज्ञानेश्वर ने इसका उल्लेख किया था।

उल्लेखनीय बात यह थी, कि कोई व्यक्ति किसी भूमि के उत्पादन का ही लाभ उठा सकता था। जहाँ तक जमीन का मामला है, इसे अन्य वस्तुओं की तरह बेचा या खरीदा नहीं जा सकता था। अपनी निम्न अर्थव्यवस्था और जमीन की सामूहिक मिल्कियत वाले ग्रामीण परिवेश में भू-स्वामी-बटाईदार सम्बन्धों अथवा भू-स्वामी-खेतिहर मजदूर सम्बन्धों जैसा अंतर्वर्गीय गतिविज्ञान विकसित नहीं हो सका।  मुगल शासन-काल में भी ऐसा कोई अभिजात वर्ग नहीं था जो भूमि के स्वामित्व पर आधारित हो, बतौर टैक्स एजेंट भले ही वह अमीर-उमरा वर्ग का हिस्सा था।  जमीन की मिल्कियत राज्य अथवा जमींदारों के हाथ में नहीं जाती थी। खेत को जोतने और अनाज पैदा करने वाले अभी भी पहले की ही तरह इन खेतों के मालिक थे। उन दिनों में जिन्हें जमीदार के नाम से जाना जाता था वे दरअसल कर वसूल करने वाले एजेण्ट थे।  लेकिन अंग्रेज शासकों ने एलान किया कि जमीदार, गुमास्ता और गाँव के मुखिया के रूप में पुकारा जाने वाला वर्ग ही जमीन का असली मालिक है। मुगल शासकों की शब्दावली में ‘जमीदार’ का अर्थ एजेण्ट था। अब यह अर्थ हमेशा के लिए दफना दिया गया। जमीदारों ने अब किसानों से अपनी ताकत भर वसूलना शुरू किया। साथ ही उन्होंने तीन अन्य हथियारों का इस्तेमाल किया—जमीन की बिक्री, जमीन का वितरण और गिरवी के रूप में जमीन रखना। इन तरीकों से दमन करने वाले नये वर्गों का जन्म हुआ—गाँटीदार, पट्टनीदार, दरपट्टनीदार, और ताल्लुकेदार।  उन्होंने अंग्रेजों द्वारा शुरू की गयी प्रणाली को किसानों के सूखे हलक के नीचे ठेल दिया।फलस्वरूप किसानों को जमीन पर से अपना पुश्तैनी हक सदा के लिए छोड़ना पड़ा।  भारतीय रंगमंच पर नये वर्ग सामने आ रहे थे। एक ओर जमीदार और सूदखोर जमीदार थे और दूसरी ओर भूमिहीन किसानों और तबाह दस्तकारों के दल थे, जिन्हें मजबूर होकर शिकमी काश्तकार, बटाईदार और खेतिहर मजदूरों की तरह काम करना पड़ रहा था।

स्थाई बन्दोबस्त या इस्तमरारी बन्दोबस्त ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भयानक परिवर्तन किया। हाउस ऑफ लार्ड्स की पाँचवी रिपोर्ट (1821) में कहा गया—बंगाल में इस्तमरारी बन्दोबस्त की वजह से जितनी गरीबी फैली है, और भूमि अधिकारों में जितना बड़ा परिवर्तन हुआ है, उतना उसी समय में, महज कानून के जोर से, और किसी देश में या और किसी युग में शायद नहीं हुआ होगा।  महाश्वेता देवी लिखती हैं —इस कदम के जरिए कर वसूलने वाले को भू-स्वामी बनाने का घातक काम किया गया। इससे पहले रैयत ही जमीन के स्वामी थे और उनसे कर की वसूली का काम कम्पनी के एजेण्ट करते थे। अब स्थिति उलटी हो गयी थी। नये भू-स्वामियों को उन किसानों से कर वसूलने का अधिकार दिया गया जो अब तक स्वतन्त्र थे और अब इन भू-स्वामियों की प्रजा बना दिये गये थे।

इस प्रकार भारत में अंग्रेजी सरकार के अधिकार और जोर से भारत के पूर्वी हिस्सों के लाखों किसानों की जमीनें उनसे छीन ली गयी और उन्हें सदा के लिए जमीदारों को सौंप दिया गया ताकि वे उनका फायदा उठाये। बहुत से लोगों को बहुत थोड़े समय में इसलिए तबाह कर दिया गया ताकि चंद आदमी फलें-फूले और शासन करें। पुराने जमाने से लेकर आज तक, मानवता के समूचे इतिहास में, आम जनता की बर्बादी की ऐसी मिसाल दूसरी नहीं मिलेगी।

जैसा कि कुछ विद्वानों का मानना है कि अंग्रेज हिन्दुस्तान की भूमि-व्यवस्था से वाकिफ नहीं थे लेकिन ऐसी न जाने कितनी मिसाले दी जा सकती हैं, जिनसे यह जाहिर होता है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों को यह अच्छी तरह मालूम था कि भारत में जमीन जमीदारों की मिल्कियत नहीं थी। सन् 1773 में पटना की काउंसिल ने यह सुझाव दिया कि जमीनें जमीदारों को सौंप दी जायें ताकि मालगुजारी की वसूली सहूलियत के साथ की जा सके। लेकिन, बोर्ड ऑफ रेवेन्यू ने इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया कि ‘‘यह नया प्रयोग करना बहुत खतरनाक होगा।’’

सन् 1776 में इस समस्या की छानबीन करने के लिए एंडर्सन, बोगले और क्रोफ्ट्रस को लेकर एक कमीशन बैठाया गया। ये ईस्ट इण्डिया कम्पनी के योग्यतम अधिकारियों में से थे। 28 मार्च, 1778 में कमीशन ने रिपोर्ट पेश की। ‘‘भारत का कैम्ब्रिज इतिहास’’ इस रिपोर्ट पर विचार करते हुए लिखता है : ‘‘जहाँ तक माल के महकमे का सवाल है, यह कम्पनी के आरम्भिक शासन-काल में बंगाल के इतिहास की शायद सबसे कीमती, समकालीन दस्तावेज है।’’ इस रिपोर्ट में एक बड़े पैमाने पर किये गये स्थानीय जाँच-पड़ताल के और फारसी, बंगाली तथा उड़िया भाषाओं में उपलब्ध सामग्री के आधार पर जो प्रमाण दिये गये थे, उनसे यह साबित हो गया कि जमीन किसानों की थी और जमीदारों का काम सिर्फ मालगुजारी वसूल करना था।

यह बात तो साफ है कि इस्तमरारी बन्दोबस्त कुछ ईमानदार और नासमझ लेकिन निर्दोष अफसरों की गलती नहीं थी। बहुत समझ-बूझ कर जमीदारों के रूप में एक मित्र और सहायक वर्ग कायम करने की कोशिश का यह नतीजा था।  साम्राज्यवादी शासक एक नया मित्र-वर्ग कायम कर अपने डावाँडोल शासन को जमाना और मजबूत करना चाहते थे। लेकिन ऐसा करके, साथ-ही-साथ, वे सख्ती और बेरहमी के साथ जमीन से बेदखल किये गये, किसानों की एक बड़ी तादाद को अपने दुश्मनों के रूप में तैयार कर रहे थे। इन्हीं किसानों ने आगे चलकर जमीदारी व्यवस्था को खत्म करने की अपनी आम माँग को लेकर बहादुराना लड़ाइयाँ लड़ीं।  महाश्वेता देवी भी लिखती हैं, ‘‘यह ‘कुलीन जमींदारों’ का एक नया वर्ग था जिसे स्थायी बन्दोस्त में जान-बूझकर तैयार किया था।’’

ऐसा नहीं था कि सिर्फ स्थाई बन्दोस्त ने ही ऐसा किया। रैयतवाड़ी और महलवारी व्यवस्था ने भी ऐसा ही किया। कहने को तो रैयतवाड़ी प्रणाली के तहत किसानों को जमीन के मालिक के रूप में स्वीकार किया जाता था। जमीदार वर्ग की रचना का कोई प्रयास नहीं किया गया। तो भी यथार्थ में होता यह था कि कोरफाबिली प्रणाली के जरिए सूदखोरों को जमीन की मिल्कियत मिलने लगी और रैयतवाड़ी प्रणाली के अन्तर्गत पड़ने वाले क्षेत्रों में जमींदारों की तादाद तेजी से बढ़ने लगी। आँकड़ों से पता चलता है कि 1901 ई० से 1912 ई० के बीच मद्रास में ऐसे भू-स्वामियों की संख्या, जो किसान नहीं थे, प्रति हजार भू-स्वामी पर 19 से बढ़कर 49 हो गयी।  अन्य सूबों के बारे में भी ऐसी ही तस्वीर उभरती है। पंजाब में भूमिकरों पर निर्भर रहने वालों की संख्या 1911 ई० में 6,25,000 थी जो 1921 में बढ़कर 10,08,000 हो गयी। संयुक्त प्रान्त में 1819 से 1921 ई० के बीच इस तरह की आबादी में 46 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी।

खेत मजदूर

स्थाई बन्दोबस्त, रैयतवाड़ी और महलवारी ही वे तीन हथियार थे जिनसे अंग्रेज शासकों ने भारत की एक-एक इंच जमीन को हड़पना शुरू किया। उन्होंने जमीन से किसानों को हटाकर जमीदारों को बसाया। सूदखोर महाजन किसानों की पीठ पर सवार हो गये जिनके पास कुछ भी नहीं था। कोरफाबिली प्रणाली ने उन्हें ऐसे लोगों की प्रजा बना दिया जो खुद भी प्रजा थे। अब जमीन उनकी नहीं थी।  जमीन खोकर अब वे भूमिहीन खेतिहर मजदूर बन गये थे। और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी। 1882 ई० की जनगणना में इनकी संख्या 70,20,00 थी। 1921 ई० की जनगणना में यह संख्या बढ़कर 2,10,00,000 हो गयी। 1931 ई० में इनकी संख्या 3,30,00,000 तक पहुँच गयी। इन आँकड़ों की व्याख्या से अर्थ लगाया गया कि उन दिनों किसानों का एक तिहाई हिस्सा खेतिहर मजदूर था। 1941 ई० में वे कुल आबादी का 50 प्रतिशत थे।

उन दिनों एक किसान को अपने परिवार का दैनिक खर्च चलाने के लिए 5 एकड़ या 15 बीघा जमीन तथा अपने खुद के हल-बैल की जरूरत पड़ती थी। फ्लाउड कमीशन की रिपोर्ट में बताया गया था कि खेती में लगे परिवारों में से तीन-चौथाई के पास 15 बीघा से कम जमीन थी। लगभग 57.2 प्रतिशत परिवारों के पास 9 बीघा से भी कम जमीन थी। दकन के गाँव में मौका-मुआयना करने से पता चलता कि जिस वर्ष फसल अच्छी होती थी उस वर्ष भी 81 प्रतिशत किसानों के पास पर्याप्त खाद्य नहीं होता था। वे सूदखोर महाजनों से अपने जीवनयापन के लिए सूद पर पैसे लेते थे। दिन-ब-दिन कर्ज का बोझ बढ़ता गया। एक दिन उन्होंने पाया कि वे अपनी जमीन खो चुके हैं और भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में आ गये हैं।  महाश्वेता देवी लिखती हैं—‘‘हर बार इस कथा का अन्त कर्ज चुकता करने के लिए हताश होकर जमीन बेचने और स्वतंत्र किसानों के बटाईदार अथवा खेतिहर मजदूर बनने में होता था। इस प्रकार गाँव के महाजन छोटे-मोटे पूँजीपति और किसान उनके मजदूर बन गये।’’  इस प्रकार किसानों की जमीनों पर उन लोगों की मिल्कियत हो गयी जो खेती नहीं करते थे। भावात्मक सम्बन्ध समाप्त हो गया। वर्ग-विभेद और भी खुलकर सामने आ गया तथा खेती-बाड़ी के काम में कमी आयी।

संयुक्त प्रान्त में करों का भुगतान न करने के फलस्वरूप 71,430 किसानों को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा।  1943 के अकाल ने लगभग 75 प्रतिशत किसानों की कमर तोड़ दी।  अकाल के शिकार सबसे पहले गरीब किसान हुए और फिर छोटे किसानों की बारी आयी। इन सबको अपनी जोतों से हाथ धोना पड़ा।  अकाल के दौरान 7,10,000 एकड़ जमीन पर मिल्कियत की फेरबदल हुई। इसमें से 4,20,000 एकड़ ऐसे लोगों के हाथ में पहुँची जो खेती नहीं करते थे।  अनुमान के अनुसार 1943 में कृषि में लगे लगभग 43 प्रतिशत परिवार कर्ज में डूबे हुए थे। 1944 में यह संख्या 66 प्रतिशत तक पहुँच गयी। इससे पहले भूमिहीन खेतिहार मजदूरों की इतनी बड़ी तादाद देश में कभी नहीं देखने में आयी थी।  खेतिहर मजदूरों में से अधिकांश लोग आदिवासियों और हरिजनों के बीच से आये थे।

1931 में खेतिहर मजदूरों की संख्या खेती-बाड़ी में लगी आबादी का 70 प्रतिशत थी। जो आदिवासी नहीं थे वे मुख्यतया अनुसूचित जाति के तथा गरीब मुसलमान थे।

इस प्रकार यह एक स्पष्ट तथ्य है कि भारत में भूमि समस्या अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की देन थी। जमीन को लेकर जो असमानता और शोषण का स्वरूप भारत के समाजों में शामिल हुआ, खेतिहर मजदूरों एवं बंधुआ मजदूरों का शोषित, अपमानित तबका अस्तित्व में आया वह बहुत कुछ औपनिवेशिक शासन एवं नीति की ही देन थी।

बँधुआ मजदूर

भारत में बँधुआ मजदूर की परिभाषा भले ही योरोपीय समाज से कुछ भिन्न की जाती हो लेकिन जहाँ तक उनकी जिन्दगी का सवाल है, वह बेहद अमानवीय, जलालत एवं अन्याय से भरा था और उससे भी अपमानजनक है उसके कुछेक रूपों का, आजादी के 62 सालों बाद और बँधुआ मजदूरी निवारण कानून के पास होने के लगभग 30-35 सालों बाद भी, मौजूद होना। तब तो और भी जब हम एक लोकतान्त्रिक समाज होने का दम्भ, दुनिया भर में दे रहे हों।

बँधुआ मजदूर किसे कहते हैं? जब कोई गरीब आदमी महाजन, बनिया या जमींदार से कर्जा लेकर खुद को उसके पास बन्धक के रूप में रख देता है, तो उसे बँधुआ मजदूर कहते हैं।  यह एक प्रकार की गुलामी है। बँधुआ मजदूर एक प्रकार का दास होता है—जैसा कि प्राचीन जमाने में दास हुआ करते थे। जब तक वह महाजन या जमींदार का कर्जा चुका नहीं देता, तब तक वह उस महाजन या जमींदार को छोड़कर कहीं जा नहीं सकता।  असल में जब कोई बँधुआ मजदूर बन जाता है तो होता यह है कि उसकी पत्नी और उसके लड़के-लड़कियाँ और उसकी पतोहू वगैरह भी एक तरह से उसी महाजन या जमींदार की गुलामी में खटने के लिए मजबूर होती हैं।  बिहार के अन्य कई जिलों सहित शोषण की यह घृणित प्रणाली आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान इत्यादि विभिन्न प्रान्तों में अपने सबसे घिनौने रूपों में पायी गयी है।

कुछ लोगों ने बँधुआ मजदूरी को एक प्रथा कहा है। वास्तव में यह एक प्रथा नहीं है। यह भी सामन्ती शोषण की एक प्रणाली है, शोषण का एक तरीका है। बँधुआ मजदूर वर्ग देहातों की सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्विरोध का नतीजा है।  दरअसल बँधुआ मजदूर भी औपनिवेशिक भूमि-व्यवस्था और परम्परागत हिन्दू समाज-व्यवस्था की ही देन है। औपनिवेशिक व्यवस्था ने बड़ी संख्या में खेतिहर मजदूरों को जन्म दिया। जमीन की खरीद-बिक्री और कर्ज ने किसानों और खेतिहर मजदूरों को सूदखोरों, महाजनों और जमींदारों के जाल में फँसने के लिए विवश किया और इसी से बँधुआ मजदूर भी उत्पन्न हुए।

खेतिहर मजदूर का काम मौसमी होता है। अधिकांश स्थानों में खेत बोने और काटने का काम वर्ष में एक बार होता था। मजदूरों के पास कर्ज लेने के अलावा और कोई चारा नहीं था। लाखों लोग केवल कर्ज के बल पर अपनी गाड़ी चलाते थे। कर्ज के साथ-साथ उनकी जिन्दगी में अपमान ने भी प्रवेश किया। स्वतंत्र मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा बँधुआ मजदूर बन गया।  कर्ज देकर गुलाम बनाने की नीति आदिवासियों के मामले में काफी पहले शुरू हो गयी थी। 1855-1856 में जो संथाल विद्रोह यानी ‘हूल’ हुआ था उसका मुख्य कारण यह था कि जमींदारों और सूदखोर महाजनों ने संथालों को बँधुआ मजदूर बनाने की कोशिश की थी।

‘साइमन कमीशन रिपोर्ट’ का कहना है कि किसानों का अधिकांश हिस्सा महाजनों और जमीन इस्तेमाल करने वालों के कर्ज से बँधा था। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि गाँवों में गरीबी का कारण कर्ज का यह बोझ ही है।  अंग्रेजी राज से पहले गाँव का समाज किसी को इस बात की इजाजत नहीं देता था कि कर्ज चुकता न होने पर उसकी जमीन हड़प ली जाये। अंग्रेजोें ने इन सारे नियमों को बदल दिया और सूदखोर महाजन गाँवों के मालिक बन बैठे। 1931 ई० में भारत में 30 लाख बँधुआ मजदूर थे। खेती-बाड़ी से सम्बन्धित कुल आबादी का यह 3 प्रतिशत हिस्सा था।  इस प्रकार एक राज्य से दूसरे राज्य तक बँधुआ मजदूरों की संख्या बढ़ते जाने का कारण साम्राज्यवादी भूमि-बन्दोबस्त प्रणाली थी।

(यह आलेख भारत में भूमि व्यवस्था पर केन्द्रित शोध पत्र का हिस्सा है। पोर्टल पर पढ़ने के प्रवाह को ध्यान में रखते हुए इसे आलेख बनाया गया है। स्रोत के रूप में भारत में बँधुआ मजदूर- महाश्वेता देवी, निर्मल घोष, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली। भारत के किसान विद्रोह- एल नटराजन, स्वर्णजयंती, दिल्ली। झारखंड के आदिवासियों के बीच- वीर भारत तलवार, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली का उपयोग किया गया है।)

इस विषय की निरंतरता में नीचे दिए गए लिंक पर जाकर पढ़ें डॉ. आर राम का लेख: 

मजदूरों की यातना का समाधान है-भूमि सुधार !

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