भारतीय समाज में दुर्व्यवहार एवं उत्पीड़न आम हो चुका है। लोग इसे गंभीरता से तभी लेते हैं जब हमला वीभत्स हो जाय। लेकिन यह ठीक वैसा ही है जैसे हम कुश्ती लड़ते हैं। हार चाहे एक पॉइंट से हो या दस पॉइंट से, हार तो हार ही होती है। हमला चाहे छोटा हो या बड़ा, हमला तो हमला ही होता है। वह होता है अनचाहा ही। —-विनेश फोगाट (जुलाई 2024, स्पोर्ट्स राइट्स अलाइन्स में)
9 अगस्त 2024 को देश को एक बार फिर एक भयानक सदमे से गुजरना पड़ा जब कोलकाता के एक अस्पताल में एक महिला डॉक्टर के नृशंस बलात्कार और हत्या की खबर अखबारों की सुर्खियां बन गई।
जैसे ही इस अपराध की वीभत्सता और डॉक्टरों के काम के हालात की खबरों की तफ़सीलात मीडिया में आयीं, वैसे ही पूरे देश के नागरिकों और डॉक्टरों में प्रतिरोध फूट पड़ा।
वे एकदम ठीक कर रहे थे। उनके सहकर्मी, एक नागरिक, के साथ दुर्व्यवहार हुआ था और उसकी बर्बर तरीके से हत्या कर दी गई थी।
संदेह के आधार पर तुरंत एक सिविक पुलिस वॉलंटियर को गिरफ्तार कर लिया गया था।
पिछले कई सालों से डॉक्टर अस्पतालों में बेहतर सुरक्षा साधनों की मांग कर रहे हैं, क्योंकि अपने काम के दौरान वे प्रायः हिंसक हमलों के शिकार हो जाते हैं।
लेकिन 9 अगस्त 2024 को जो कुछ हुआ उसी पल उनके धैर्य का बांध अचानक पूरी तरह ध्वस्त हो गया। अब और भी अधिक रेजीडेंट डॉक्टर रोजाना के अपमानजनक माहौल, जिसमें अपने ही सहकर्मियों, वरिष्ठों, प्रोफेसरों और रोगियों के रिश्तेदारों द्वारा की जानेवाली रैगिंग, बुलीइंग और उत्पीड़न आम बात हो गई है, के खिलाफ और ज्यादा मुखर हो रहे हैं।
लब्बोलुवाब यह कि आज का यह मुद्दा केवल काम के खराब हालात तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि पूरे देश में महिलाओं और बच्चों के प्रति संरचनागत दुर्व्यवहार की निरंतरता तक फैल चुका है।
इसी तरह कोलकाता की घटना के एक हफ्ते के अंदर ही बर्बर यौन दुर्व्यवहार के दो और दलित बच्चों की हत्या का एक मामला भी प्रकाश में आया है।
कथित रूप से बिहार के मुजफ्फरपुर में एक मध्यवय मुख्य आरोपी द्वारा एक 14 साल की दलित बच्ची का अपहरण किया गया और बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गई, कारण यह बताया गया है कि पीड़िता के परिजनों ने उस बच्ची से उसके विवाह का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में कृषि विभाग के एक सहायक विकास अधिकारी ने एक 10 साल की दलित बच्ची से उसके घर में ही बलात्कार कर दिया।
इसी प्रकार महाराष्ट्र के बदलापुर में दो बच्चों के साथ उनके विद्यालय परिसर में ही हुए यौन दुर्व्यवहार के विरोध में उनके माता-पिता द्वारा गलियों में किए जाने प्रदर्शनों के बारे में लिखते-पढ़ते हुए भी हम गहरे सदमे से गुजरते हैं।
अस्पताल, पास-पड़ोस, स्कूल या घर, माना जाता है कि ये सभी ऐसी जगहें हैं जहां हमारे ‘जाने-पहचाने लोग’ हमारी परवाह करते हैं, हमें महफ़ूज़ रखते हैं और हमारे विकास में सहायक होते हैं। पर इस तरह की घटनाओं के प्रति विभिन्न संस्थाओं और सरकारों का फौरी कदम यह होता है कि एक तयशुदा काल में और तयशुदा जगहों पर महिलाओं का आवागमन प्रतिबंधित कर दिया जाय। और, पितृसत्ताक संस्कृतियों और स्थापित मान्यताओं के प्रति लैंगिक विभेद से परे संवेदनाओं का विषय एक पाद-टिप्पणी बन कर रह जाता है।
सच तो यह है कि लैंगिक संवेदनाओं के प्रयास व्यक्तिगत स्तर पर जरूर किए जाते हैं लेकिन उन्हें निरंतर सरकार, संस्थाओं और सामाजिक हस्तक्षेप के माध्यम से व्यापक समर्थन की आवश्यकता है ताकि लैंगिक-संवेदनात्मक शिक्षा एवं संस्कृति मुख्यधारा में आ जाएँ और महज़ एक वर्कशॉप या मुहिम तक सीमित हो कर न रह जाएँ।
हमने अपनी सुविधानुसार इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण बहस से किनारा कर लिया है कि ऐसी घटनाएँ होती ही क्यूँ हैं और इन्हें रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं।
कैसे किसी प्रभावशाली व्यक्ति के महिला-विरोधी हिंसा एवं शोषण का अभियुक्त होने पर उसे किसी भी दंड से परे होने की संस्कृति चुनिन्दा हिंसा के लिए बल देती है और उसके प्रति पूरी खामोशी इख्तियार कर ली जाती है?
हमारा ध्यान एक बार फिर केवल मरी हुई मछलियों पर ही केन्द्रित हो जाएगा जबकि पूरा तालाब ही जहरीला हो चुका है और इसे उलीच कर साफ करने की जरूरत है।
“नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो की सालाना रिपोर्ट, क्राइम इन इंडिया 2022: स्टेटिस्टिक्स वॉल्यूम 1” के अनुसार पिछले साल के मुक़ाबले वर्ष 2022 में महिलाओं के प्रति पंजीकृत अपराधों में 4% की वृद्धि दर्ज़ की गई थी।
वास्तविक अंकों में कहें तो वर्ष 2022 में महिलाओं के प्रति पंजीकृत अपराधों की कुल संख्या 4,45,256 थी। इनमें से 31.4% “पति या संबंधियों द्वारा की गई क्रूरता” शीर्ष के अंतर्गत दर्ज़ थीं, 19.2% मामले “महिलाओं को फुसला कर भगाने या अपहरण” के थे, 18.7% मामले “शील-भंग की नीयत से महिलाओं पर हमले” के थे और 7% मामले “बलात्कार” के थे।
इसी प्रकार 2022 में बच्चों के प्रति अपराधों में 8.7% की उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ की गई, कुल 1,62,449 मामले पंजीकृत हुए थे। इनमें से 45.7% मामले “फुसलाकर भगाने या अपहरण” के थे और 39.7% मामले “प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड फ़्रोम सेक्सुअल ओफ़ेंसेस एक्ट 2012” के अंतर्गत पंजीकृत किए गए थे।
इनमें से महानगरों में पंजीकृत मामले अपेक्षाकृत अधिक थे। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि, जैसा कि यह रिपोर्ट भी इंगित करती है, ये आंकड़े केवल पुलिस में पंजीकृत मामलों के हैं। घटित एवं पंजीकृत अपराधों की संख्या में बड़ा अंतर होना भी संभव है।
इस कठोर सत्य का सामना करने और समाज में भरोसे की भावना पैदा करने के लिए मूलभूत आवश्यकता है समय-बद्ध न्याय और संवेदनशील न्यायपालिका की।
न्यायिक सुधारों के लिए नागरिक समाज और विधिक समुदाय के प्रयासों के बावजूद जमीनी हक़ीक़त सिफर ही है और मीडिया में तो इसकी रिपोर्ट आती ही नहीं।
“स्टेट ऑफ द जुडीशियरी: ए रिपोर्ट ऑन इनफ्रास्ट्रक्चर, बजटिंग, ह्यूमन रिसौर्सेस अँड आईसीटी(2023)” शीर्षक से आए उच्चतम न्यायालय के एक अध्ययन के अनुसार भारत में उच्चतम न्यायालय, विभिन्न उच्च न्यायालयों और ज़िला न्यायालयों में कुल मिला कर पाँच करोड़ से अधिक मामलों को निपटाने के लिए केवल 20,580 न्यायाधीश हैं।
इसी रिपोर्ट के अनुसार 42.9% न्यायालय-भवन पिछले तीन सालों से निर्माणाधीन हैं। मूलभूत इनफ्रास्ट्रक्चर की बात करें तो न्यायपालिका को मुंह चिढ़ाते हुए ढेर सारे मुद्दे हैं।
इनमें से कुछ हैं न्यायिक सहायकों की संख्या में भयानक कमी, न्यायिक अधिकारियों के खाली पद, नियुक्तियों की तय समय सीमा का पालन न किया जाना, अत्यधिक विलंब किया जाना, न्यायालय-भवनों, शौचालयों की अपर्याप्तता, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व, सीमित डिजिटाइजेशन, ई-फाइलिंग सुविधाएं और विडियो कॉन्फ्रेंसिंग और बहुत कुछ।
एक मजबूत और स्वस्थ न्यायपालिका केवल “कठोर दंड” या “कठोर कानून” ही नहीं होती बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की सम्पूर्ण मशीनरी होती है। इसके अलावा हुजूम, मीडिया ट्रायल और राजनीतिक दबावों के भय से मुक्त फैसले देने की चुनौतियाँ भी हैं।
पिछले दशक या उसके कुछ पहले से ही सामाजिक न्याय, सामाजिक-आर्थिक और मानवाधिकार के मुद्दों पर बहस मुख्यधारा की मीडिया से गायब हो चुके हैं।
आज किसी भी मुद्दे पर की गई आलोचना को “धर्म-विरोधी”, “राष्ट्र-विरोधी” या “व्यवस्था-विरोधी” माना जाता है। महिला सशक्तीकरण को लेकर सरकार का पूरा ध्यान विभिन्न योजनाओं जैसे ‘कैश ट्रान्सफर’ या ‘पोषण कार्यक्रम’ आदि पर है और ये यद्यपि महत्वपूर्ण हैं पर यही परिवर्तन के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विमर्श में छाये हुए हैं। और, इसीलिए जब बिलकीस बानो के मामले में आरोपित बलात्कारियों की रिहाई होती है, मणिपुर में जारी हिंसा के बीच बड़ी संख्या में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है और भारतीय कुश्ती संघ के पूर्व-प्रमुख के खिलाफ महिला पहलवान उठ खड़ी होती हैं, तो मीडिया-जनित ‘गुड गवर्नेंस’ और ‘जहरीली सकारात्मकता’ का गुब्बारा फट जाता है।
विभाजनकारी मीडिया द्वारा एक लंबे समय से खींचा जा रहा छवि-प्रबंधन का वैगन पटरी से उतर जाता है।
जैसा कि कोलकाता और बदलापुर में देखा गया, हताश जनभावना के उद्गार के लिए मीडिया द्वारा पैदा किए गए इस इको-चैंबर को तत्काल खारिज किए जाने की जरूरत है।
लोगों को पता है कि वह उनकी वास्तविकता, उनके अनुभवों और सबसे बुरा तो यह कि उनके भय का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता।
भयमुक्त नागरिकों का जीवन जीने के लिए सुरक्षा और स्वतन्त्रता एक सामूहिक प्रयास है; इससे किसी को भी अलग नहीं किया जा सकता।
इसे केवल एक ही तरह से आकार दिया जा सकता है, भारत में जड़ें जमाये पितृसत्ता और ऊँच-नीच या मालिक-मजदूर, हर प्रकार के हिंसक विचारों के विरुद्ध वृहद दार्शनिक प्रतिबद्धता अपना कर।
इसके लिए आवश्यकता है एक मानवीय दृष्टिकोण और सक्रियता की न कि उस बहुलतावादी आवेग की जो कमजोरों और हाशिये के लोगों पर धौंस जमाते हैं और उन्हें खामोश कर देते हैं।
जब राजनीति गैर-जरूरी मुद्दों, लोक-लुभावने नारों, भड़काऊ भाषणों द्वारा भावनाओं को उभारने और भारी खर्चों तक सिमट कर रह जाए तो नतीजे में नागरिकों को बदहाल ज़िंदगी ही नसीब होती है। विकास की वास्तविक प्रगतिशील राजनीति में असमानता और दमन की सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए कठिन परिश्रम की आवश्यकता होती है।
पर, इस काम की गति बहुत धीमी है, फौरी तौर पर ऐसा कुछ नज़र ही नहीं आ रहा है और बातों के जरिये कुछ कहने-सुनने के अलावा इसपर कोई गरमागरम बहस भी नहीं हो रही है; बहुत ही धीमी गति से जागरूकता बढ़ाने के अतिरिक्त इसका न तो कोई प्रकल्पित प्रभाव है और न ही कुछ दृष्टि-गम्य है।
जब कि, यह एक न्यायसंगत, लोकतान्त्रिक समाज की रचना के लिए नाटकीय लक्ष्य और तर्कशील समर्पण द्वारा समृद्ध, प्रतिदिन का कार्य है।
ईपीडब्लू दिनांक 23 अगस्त, 2024 से साभार
अनुवाद: दिनेश अस्थाना
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