( उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर का यह लेख ‘ द वायर ‘ में 5 जुलाई को प्रकाशित हुआ है। मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का दिनेश आस्थाना ने हिन्दी अनुवाद कर समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है )
यह सम्पूर्ण घटनाक्रम अपने पीछे एक ऐसा एहसास छोड़ जाता है कि जैसे वास्तव में स्टेन स्वामी को बिना किसी आरोपपत्र के, बिना कोई मुकदमा चलाये ही सजाये-मौत दे दी गयी हो.
झनझना दिए उसने अपनी उँगलियों से
मेरे ज़ख्मों के तार
मेरी ही ज़िन्दगी का गीत गाते हुए
उतार दिए उसने अपने गीतों के खंज़र मेरे सीने में
आहिस्ता- आहिस्ता
बखानते हुए मेरा ही किरदार अपने लफ़्ज़ों में
उतार दिए उसने अपने गीतों के खंज़र मेरे सीने में
आहिस्ता- आहिस्ता
पिछले एक साल में फादर स्टेन स्वामी के साथ जो कुछ भी हुआ उससे 1970 के दशक का यह मशहूर गीत “किलिंग मी सॉफ्टली विद हिज सॉंग” अपना अमली जामा पा गया.
1 जनवरी, 2018 को भीमा-कोरेगांव में कुछ घटनाएँ घटीं जिसके चलते भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत राजद्रोह समेत अनेक आपराधिक धाराओं में प्राथमिकी दर्ज करायी गयी. पूछ-ताछ के बाद गैर कानूनी गतिविधियाँ निवारण कानून (यू०ए०पी०ए०) भी इसमें जोड़ दिया गया. 15 नवम्बर 2018 को कुछ आरोपियों के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल किये गए और 21 फरवरी 2019 को कुछ दूसरे आरोपियों के विरुद्ध पूरक आरोपपत्र दाखिल किये गये.
इस बीच मामले की जांच कर रही महाराष्ट्र पुलिस ने 28 अगस्त 2018 को रांची में स्टेन स्वामी के घर और दफ्तर पर छापा मारा. स्पष्ट है कि उनके खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया गया और शायद इसी कारण नवम्बर 2018 और फरवरी 2019 में दाखिल किये गए आरोपपत्रों में उन पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सका. उसके बाद शायद इस उद्देश्य से कि स्टेन स्वामी के खिलाफ कोई ठोस सबूत होना ही चाहिए, 12 जून 2019 को उनके रांची के दफ्तर और घर दोनों की एक बार फिर तलाशी ली गयी, लेकिन ऐसा लगता है कि एक बार फिर कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया गया. 24 जनवरी 2020 को प्रकरण के महाराष्ट्र पुलिस द्वारा राष्ट्रीय जांच अधिकरण (एन०आई०ए०) को सौंपे जाने तक सब-कुछ ठीक-ठाक था.
स्टेन स्वामी के अनुसार 25 जुलाई और 7 अगस्त 2020 के बीच एन०आई०ए० ने उनसे लगभग 15 घंटे तक पूछताछ की थी. 30 सितम्बर 2020 को उन्हें एक समन दिया गया जिसके अनुसार उन्हें एन०आई०ए० के मुंबई दफ्तर में 5 अक्टूबर को हाज़िर होने के लिए कहा गया था, पर अपनी आयु (83 वर्ष) का हवाला देते हुए इतनी अल्पावधि की नोटिस पर और साथ ही महामारी के कारण भी उन्होंने वहां जाने से इंकार कर दिया. लगता है कि इसका एन०आई०ए० के अफसरों पर कोई असर नहीं हुआ और 8 अक्तूबर 2020 को रांची जाकर उन्हें भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार करके मुंबई के पास तलोजा जेल में डाल दिया. अगले दिन यू०ए०पी०ए० के अंतर्गत अपराध बताते हुए उनके (और कुछ दूसरे लोगों के) खिलाफ आरोपपत्र दाखिल कर दिया.
डी०के० बसु (1996) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि गिरफ्तार किये गए हर व्यक्ति की चिकित्सा जांच ज़रूरी है. उच्चतम न्यायालय की मंशा केवल आँखों से देखकर या सरसरी तौर पर जांच करने की नहीं बल्कि विस्तृत जांच करने की थी. स्टेन स्वामी को गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को चाहिए था कि किसी सक्षम चिकित्सा-धिकारी से उनकी जांच कराते जो अपनी रिपोर्ट में उनकी आयु और उनके पार्किन्संस रोग से ग्रसित होने का भी जिक्र करता.
ए०के० रॉय बनाम भारत संघ ( 1981) मामले में उच्चतम न्यायालय ने निवारक नज़रबंदी कानून पर अपनी राय देते हुए कहा कि निवारक नज़रबंदी कानून के अनुसार किसी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाये या आरोपपत्र दाखिल किये ही नज़रबंद किया जा सकता है. यह व्यवस्था दी गयी कि “ऐसी दशा में उस व्यक्ति को उस स्थान पर रखा जाना चाहिए जो उसके सामान्य निवास के करीब हो. यदि कोई व्यक्ति आमतौर पर दिल्ली में रहता हो तो उसे मद्रास या कलकत्ते में रखा जाना अपने आप में दंडात्मक कार्यवाही है, इसे निवारक नज़रबंदी के मामले में किसी प्रकार से प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए. इसके अलावा, किसी व्यक्ति को उसके सामान्य निवास से इतर रखे जाने पर उसका अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलना-जुलना असंभव हो जाता है……” इसके पालन में चूक होना दंडात्मक प्रविधि होगी.
निवारक नज़रबंदी कानून के अंतर्गत गिरफ़्तारी और आपराधिक मामले में विचाराधीन कैदी के बीच बेशक एक गुणात्मक अंतर है, परन्तु यदि किसी कैदी के जीवन और स्वतंत्रता पर संवेदनात्मक एवं मानवीय ढंग से व्यापक सन्दर्भों में विचार किया जाय तो दोनों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं है. इसलिए जेल सुधारों में इसे भी शामिल किया जाना चाहिए कि विचाराधीन आरोपी को यदि जेल में रखना है तो उसे उसके अपने आवास के पास ही रखना चाहिए ताकि उसकी आहिस्ता-आहिस्ता हत्या न की जा सके.
अभी हाल में ही गौतम नवलखा बनाम एन०आइ०ए० (2021) मामले में उच्चतम न्यायालय ने हिरासत के लिए जेल के बजाय घर में ही नज़रबंद किये जाने को प्रोत्साहित किया. इसके कारणों का उल्लेख करते हुए उच्चतम न्यायालय ने जेल में बढती भीड़ का ज़िक्र किया, हम सभी जानते हैं कि महामारी ने कुछ जेलों में जीवन की परिस्थितियों को संकटमय बना दिया है. उच्चतम न्यायालय ने पाया कि “इससे अधिकांश मामलों में न्यायालयों के लिए हिरासती को घर में नज़रबंद किये जाने का विकल्प मिल जायेगा. इसे (भारतीय दंड संहिता की धरा 167) के लागू करने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत किये बिना हम कुछ मानदंडों की ओर संकेत कर सकते हैं जैसे आयु, स्वास्थ्य और आरोपी का चाल-चलन, अपराध की प्रकृति, किसी दूसरी तरह की हिरासत की ज़रुरत और घर में नज़रबंदी के नियमों के अनुपालन की योग्यता.”
तलोजा जेल में भीड़ अप्रैल 2020 में भी थी और अभी हाल में ही बॉम्बे उच्चन्यायालय ने कहा है कि वहां केवल ३ आयुर्वेदिक डॉक्टर हैं, दुर्भाग्य यह कि वहां संवेदना और एक हद तक मानवता का भी अभाव है और स्टेन स्वामी को रांची से मुंबई ले आया गया और विचाराधीन कैदी के रूप में अपने माहौल और आम रिहाइश से दूर रखकर उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता मार डाला गया.”
स्ट्रॉ और सिपर के बिना दो महीने
अपनी गिरफ़्तारी के तुरंत बाद और अपने स्वास्थ्य के हालात (पार्किन्सन और आयु) के चलते स्टेन स्वामी ने स्वास्थ्य के आधार पर अंतरिम ज़मानत दिए जाने का अनुरोध किया था. दुर्भाग्यवश उनके प्रार्थनापत्र को 22 अक्टूबर 2020 को निरस्त कर दिया गया. इसके तुरंत बाद, चूँकि स्टेन स्वामी पार्किन्सन के रोगी थे, उन्हें पीने के लिए किसी द्रव या पानी पीने के लिए भी सिपर या स्ट्रॉ की आवश्यकता थी, तो उन्होंने एक प्रार्थनापत्र प्रेषित किया कि उन्हें सिपर और स्ट्रॉ मुहैया कराया जाय. इस प्रार्थनापत्र को बहुत ही अधिक असंवेदनशील तरीके से निपटाया गया. पहले तो अभियोजन पक्ष ने उत्तर दाखिल करने के लिये मोहलत मांगी. क्या यह जरूरी था ? उसके बाद भी और आश्चर्य की बात थी कि विद्वान न्यायाधीश ने अभियोजन पक्ष को जवाब दाखिल करने के लिए 20 दिन की मोहलत दे दी.
यह आश्चर्यजनक था. साफ कहें तो यदि जेल का विधान संवेदनशील और मानवीय होता तो स्टेन स्वामी को स्ट्रॉ जैसी मामूली चीज के लिए परीक्षण न्यायालय जाने की ज़रुरत ही न पड़ती. अंत में बड़े एहसान के तौर पर प्रशासन द्वारा उन्हें एक सिपर देने की अनुमति प्रदान कर दी गयी. छोटी सी कृपा ! अपनी उँगलियों से ज़ख्मों के तार झनझनाने का शास्त्रीय प्रकरण.
जमानत पर फैसला लेने के लिए जज को चार महीने चाहिए
26 नवम्बर 2020 या उसी के आसपास स्टेन स्वामी ने अपनी सेहत और दूसरी वजहों के आधार पर नियमित ज़मानत की गुहार लगाई. ऐसा लगता है कि एन०आइ०ए० उनकी और कोई जांच नहीं कराना चाहती थी, वह उन्हें कुछ दूसरे मामलों में दण्डित करना चाहती थी- उसकी बिना मुकदमा चलाये उन्हें सजा देने की मंशा थी. इसलिए एन०आइ०ए० ने ज़मानत की अर्जी की ज़ोरदार मुखालफ़त की और अंततः लगभग चार महीने बाद जज डी०ई० कोथालिकर के परिक्षण न्यायालय से उसे खारिज़ करा लिया, और ज़ाहिर है कि इस दौरान स्टेन स्वामी हिरासत में ही रहे. यह पूछा जाना ज़रूरी हो जाता है कि एक ज़मानत की अर्जी की सुनवाई में इतने महीने क्यों लग जाते हैं. क्या ज़मानत मांगने वाले व्यक्ति के न्यायिक हिरासत में होने और न्यायिक हिरासत के जारी रहने का दायित्व न्यायालय पर ही होने को ध्यान में रखते हुए इस पूरी कार्यवाही को तेज किया जाना संभव नहीं है ? क्या सारे विचाराधीन कैदी आहिस्ता-आहिस्ता क़त्ल कर दिए जाने के लिए ही अभिशप्त होते हैं ?
सेहत के आधार पर अपनी नियमित ज़मानत और अंतरिम ज़मानत की अर्जियों के खारिज़ हो जाने से दुखी स्टेन स्वामी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में अपील दाखिल किया. नियमित ज़मानत की उनकी अपील को 4 मई 2021 को विचारार्थ प्रस्तुत किया गया पर वह बार-बार डॉक्टरों की टीम से डाक्टरी रिपोर्ट मंगाने और दूसरी वजहों से तारीख दर तारीख टलती रही. यह सही है कि माननीय न्यायाधीशगण डॉक्टर नहीं थे फिर भी रिपोर्टों को देखने से लगा कि यह ठीक है कि स्टेन स्वामी किसी नौजवान की तरह पूर्ण स्वस्थ नहीं थे पर उनमें कई ऐसी बीमारियाँ थीं जो ८० साल से उपर के बुजुर्गों में अमूमन होती ही हैं.
इन डाक्टरी रिपोर्टों के बावजूद माननीय जजों ने स्टेन स्वामी से बात करना तय किया और लिखा “ हमने पाया कि उन्हें सुनने में बहुत दिक्कत होती है और वह शरीर से बहुत कमज़ोर हो गए हैं. किसी तरह से हमने उनके पास बैठे एक व्यक्ति की सहायता से उनसे बातें की. यद्यपि न्यायालय और अपीलकर्ता के विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता ने याची से जानना चाहा कि क्या वह जेजे अस्पताल या होली फॅमिली अस्पताल समेत अपने किसी मनचाहे अस्पताल में अपना इलाज करवाना चाहेंगे, तो उन्होंने इसे सिरे से नकारते हुए कहा कि किसी अस्पताल में भर्ती होने की अपेक्षा वह जेल में ही मरना पसंद करेंगे. उन्होंने न्यायालय को बता रखा है कि तलोजा जेल में आने के बाद उनकी सेहत पूरी तरह चौपट हो गयी है और ‘इस जेल से मेरा नाता जुड़ गया है’. इसलिए उनका सारा जोर अंतरिम ज़मानत पर है.” स्टेन स्वामी को उनका सारा जीवन उनके ही लफ़्ज़ों में सुनाया जा चुका है और हमारी आपराधिक न्याय व्यवस्था अपने गीतों से आहिस्ता-आहिस्ता उनका क़त्ल कर रही है.
लाइव लॉ.इन का एक पत्रकार इस पूरे विडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के दौरान वहां मौजूद था और यह बताया गया कि स्टेन स्वामी ने उच्च न्यायालय से कहा कि जब उन्हें तलोजा जेल लाया गया उस समय उनके शरीर के महत्वपूर्ण अंग क्रियाशील थे. “ परन्तु धीरे-धीरे उनके शरीर के मुख्य कार्यों में नियमित रूप से ह्रास होने लगा. मैं अपने आप चल सकता था, मैं अपने आप नहा सकता था, मैं लिख भी सकता था. लेकिन इन कार्यों में धीरे-धीरे कमी आने लगी. जहाँ तक खाने का प्रश्न है, मैं ठीक से खा नहीं पाता था. कल जब मुझे जेजे अस्पताल ले जाया गया तो मुझे यह बताने का मौका मिल गया कि मुझे क्या दिया जाना चाहिए. जो छोटी-छोटी गोलियां मुझे दी जाती हैं, मेरे ह्रास की शक्ति उनसे कहीं ज्यादे है.”
न्यायालय : क्या तलोजा जेल में आपके साथ ठीक व्यवहार हो रहा है ? सामान्य व्यवहार ? क्या तलोजा जेल के ख़िलाफ़ आपको कोई शिकायत है ? क्या आप जेजे अस्पताल में भर्ती होना चाहते हैं ?
स्टेन स्वामी : नहीं, मैं नहीं चाहता. मैं तीन बार वहां रहा हूँ. मुझे उनकी व्यवस्था की जानकारी है. मैं वहां भर्ती नहीं होना चाहता. मैं मर जाऊंगा. इससे तो मैं यहीं रहना पसंद करूँगा.
बताया जाता है कि उन्होंने आगे कहा कि वह अपनों के साथ रहना पसंद करेंगे. हांलाकि अगले दिन उन्हें अपने ही खर्चे पर जेजे अस्पताल में भर्ती होने के लिए तैयार कर लिया गया.
क्या स्टेन स्वामी को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था? क्या यू०ए०पी०ए० के प्रावधान भारत के संविधान के प्रावधानों, खासतौर पर अनुच्छेद 21 के प्रावधानों से अधिक महत्वपूर्ण हैं ? हमारे देश के सत्तासीन लोगों के लिए क्या यह संभव नहीं है कि वे और भी अधिक संवेदनशील, मानवीय, दयालु और गरिमामय बन सकें, या सभी लोग सत्ता द्वारा अपमानित और कलंकित होने के लिए अभिशप्त हैं ?
यह सम्पूर्ण घटनाक्रम अपने पीछे एक ऐसा एहसास छोड़ जाता है कि जैसे वास्तव में स्टेन स्वामी को बिना किसी आरोपपत्र के, बिना कोई मुकदमा चलाये ही सजाये-मौत दे दी गयी हो. यदि उनकी आत्मा को शांति मिल जाये तो मुझे ताज्जुब ही होगा, पर मैं उम्मीद करता हूँ कि ऐसा हो जायेगा. मैं समझता हूँ कि यदि कुछ कहा जा सकता है तो बस यही कि “ फादर, इन्हें माफ़ कर देना क्योंकि इन्हें नहीं मालूम कि ये क्या कर रहे हैं.”