उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के ख़िलाफ़ यह ज़ुर्रत ?
ख़ैर, यह जो अभी-अभी
कैथरकला में छोटा-सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमें
ग़रीब मर्दों के कंधे से कंधा
मिलाकर
लड़ी थीं कैथरकला की औरतें
इसे याद रखें
वे जो इतिहास बदलना चाहते हैं
और वे भी,
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हैं !
ये कविता गोरख पांडेय ने लिखी थी जिसमें कैथरकला गाँव की स्त्रियाँ कविता में नायिकायें हैं जो एक दिन पुलिस के अत्याचार के खिलाफ लड़ गयीं थीं। ये वो ग्रामीण स्त्रियाँ थीं जो पुलिस को देखकर एकदम से डर जाती थीं लेकिन एक दिन वो गरीब मजदूर स्त्रियाँ अपने मजदूर साथियों के साथ पुलिस से भिड़ जाती हैं और इस तरह कैथर कला गाँव की स्त्रियाँ इतिहास बन जाती हैं।
आज अन्याय के लिए यही जज्बा और लड़ने का यही हौसला जब आप आजमगढ़ आंदोलन से जुड़ी स्त्रियों को देखेगें तो दिख जायेगा । कैसे एकदम खांटी गवई स्त्रियाँ सीधे पूरी व्यवस्था से सवाल कर रही हैं। और उनके सवाल इतने जमीनी हैं कि जवाब के लिए राज्य के पास कुछ नहीं है। वो पूछती हैं कि क्या गेहूँ और चावल देश का प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री उगाते हैं ! खेती किसानी कौन करता है ! जवाब खुद ही देती हैं कि हम करते हैं। जब श्रम तब अनाज पैदा होता है। हमारी मेहनत से ही सब कारोबार चल रहा है और आज हमें हमारी जमीन से बेदखल किया जा रहा है।
कितने दिनों से जो ग्रामीण महिलाएं शराब पर रोक लगाने की मांग कर रही थीं , कारखाने खोलने की मांग कर रही थीं स्वास्थ्य और शिक्षा की माँग कर रही थीं सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और अब भूमि अधिग्रहण करके उनके बचे सपने को भी छीनने की तैयारियां शुरू कर दी गई हैं।
जब जमीन से अपने हक अधिकार के लिए सामूहिक आवाज उठती है तो आंदोलन बनता है। इन दिनों उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ आंदोलन को देखकर गोरख की कैथर कला की स्त्रियाँ याद आती हैं क्योंकि आंदोलन में बैठी वो सारी स्त्रियाँ ठेठ गवई स्त्रियाँ हैं और अन्याय से लड़ने का वही जज्बा दिखता है जो कैथर कला की स्त्रियों में था। आजमगढ़ आंदोलन के चार महीने बीत गए हैं लेकिन आंदोलन करती स्त्रियाँ डटी हुई हैं। ठंड ,बारिश , धूप में भी वो आंदोलन को संचालित करती जा रही हैं।
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में लगभग नौ गाँवों को उजाड़ कर सरकार एयरपोर्ट का विस्तारीकरण करना चाहती है। इस परियोजना से लगभग 27 हजार लोग विस्थापित हो जाएंगे।
सरकार मंदुरी एयरपोर्ट को अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाने के लिए लगभग 670 एकड़ जमीन को ग्रामीणों से छीन रही है। 2022 के मध्य से ही जिले के प्रशासनिक अधिकारियों ने इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया होगा लेकिन जब 13 अक्टूबर को बगैर किसी पूर्व सूचना के प्रशासनिक महकमा भारी पुलिस फोर्स के साथ गांवों में सर्वे के लिए पहुंच गया, तो नौ गांवों के लोगों ने सरकार के इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया।
मुआवजे की बात हो रही है लेकिन ग्रामीण अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहते क्योंकि अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट की उनको कोई उपयोगिता नहीं दिख रही है। वे बार -बार ये दुहराते हैं कि हमें एयरपोर्ट नहीं चाहिए। हमें रोजगार , अस्पताल , स्कूल चाहिए। हमें खेत के लिए खाद, बीज और सिंचाई की व्यवस्था चाहिए। सरकार हमें वो चीज क्यों दे रही है जिसे हम नहीं चाहते, जिसकी हमें कोई जरूरत नहीं है।
इस तरह ग्रामीणों ने जब इस भूमि अधिग्रहण का विरोध किया तो उनको मारा पीटा गया। स्त्रियों के साथ पुलिस ने बदसलूकी की। इस दमन और अधिग्रहण के विरोध में लगभग नौ गांवों के लोगों ने ‘खिरिया के बाग’ में इस प्रोजेक्ट के खिलाफ धरने की शुरूआत कर दी। पूरे आंदोलन को गाँव की स्त्रियाँ लीड कर रही हैं। इन ग्रामीण स्त्रियों का आंदोलन को संचालित करना अन्याय के लिए ही नहीं स्त्री अस्मिता के लिए भी बेहद खास बात है। ये एक गैरबराबरी के स्वप्न को देखते देश की तस्वीर बन रही है जिसमें समाज के वे लोग शामिल हैं जिन्हें हमेशा हाशिये पर रखा गया।
ये पूरा आंदोलन इस बात के लिए भी बहुत विशेष है कि इसे ग्रामीण स्त्रियाँ संचालित कर रही हैं। वे स्त्रियाँ जिनके लिए एक शब्द ज़हालत के अर्थ में बरता जाता है ‘ गँवार’। इन्हीं गँवार स्त्रियों ने अपने हक के लिए एक आंदोलन खड़ा कर दिया है अद्भुत उर्जा से वो भरी हुई हैं। उन्हें देखकर , उनकी सोच ,उनका हौसला ,उनकी बातें सुनकर भूली हुई गोरख की कैथर कला की स्त्रियाँ जीवित दिखती हैं । इस आंदोलन को देखकर इस बात पर भी ध्यान जाता है कि आंदोलन का यही असर होता है कि जमीन के वे मनुष्य जो अपने हक अधिकार को उस तरह नहीं देखते-समझते जो यथार्थ में उनका होता है उसे आंदोलन के जरिये लोगों तक पहुँचाना उनको उनके सच तक ले जाना हासिल बनता है। और जब आंदोलन में इस तरह के स्वर तरंगित होकर अनुगूँज बनते हैं तब खिरिया बाग ,शाहीन बाग, किसान आंदोल और जाने कितने आंदोलन उठते हैं। 14 अक्टूबर से लगातार चलने वाले इस धरने में महिलाओं की भागीदारी और भूमिका देखकर लगता है कि आजमगढ़ का ‘खिरिया बाग’ दिल्ली का ‘शाहीनबाग’ बन रहा है ।
कुछ समय पहले तक एक बात जो हमें निराश करती थी कि अंततः किसान आंदोलन की जमीन पर जुल्म करने वाले चुनाव जीत गये तब ये भी सवाल उठता कि क्या आंदोलन का समाज पर असर नहीं पड़ा ? ये जल्दबाज़ी में सोची गयी बात है क्योंकि आज आजमगढ़ का खिरिया बाग ही नहीं इस तरह के कई जनांदोलन उठ खड़े हुए हैं और ये असर किसान आंदोलन की बहुत बड़ी सफलता है। शाहीन बाग और किसान आंदोलन दोनों की प्रेरणा और असर धरने पर बैठे लोगों में वहाँ दिए जाने वाले भाषणों में साफ झलकती है।
आजमगढ़ जिले के खिरिया बाग में आज जो आंदोलन चल रहा है, ध्यान से उन स्त्रियों की बातें सुनें तो आपको अचरज हो सकता कि वे स्त्रियाँ जो कुछ समय पहले ये बात एक अनुग्रहीत की तरह कहती थीं कि राशन तो हमें सरकार ही दे रही है , सिलेंडर और गैस चूल्हा दिया है आज वही स्त्रियाँ राज्य के इन लॉलीपॉप की तरह बरती जा रही योजनाओं को ख़ारिज करते हुए जितनी तर्कशीलता और समझदारी से ये बात कहती हैं कि -” राशन कहाँ से आता है ” , ” खेती – किसानी कौन करता है ” , हमारा हक है वो जो हमें मिल रहा है , ” सरकार अपने घर से नहीं दे रही है ” । और भी इसी तरह की जमीन से जुड़ी बातें वे लगातार बोल रही हैं। उनका कहना है कि सिलेंडर और चूल्हा आज हमारे किसी काम का नहीं है क्योंकि सरकार ने गैस का दाम इतना महंगा कर दिया है कि हम उसे खरीद नहीं सकते। जो गैस सिलेंडर पहले तीन सौ रुपये में मिलता था वही गैस सिलेंडर इस सरकार ने बारह सौ रुपये का कर दिया है ।
यह सवाल ही किसी देश के नागरिक को जागरूक और विचार शील बनाते हैं।
धरने पर बैठी जमुआ गाँव की केवलपत्ती देवी से एक पत्रकार पूछती है कि कब तक आप ये आंदोलन चलायेगीं तो वे अपनी ठेठ बोली में कहती हैं जब तक प्रधानमंत्री हमारी जमीन हमें वापस करने का आदेश लिखकर नहीं दे देते तब तक हम धरने पर बैठे रहेगें। ये इन्टरनेशनल हवाई अड्डा सरकार क्यों बनाना चाहती है , इसका सटीक जबाब स्त्रियाँ देती हैं कि ‘क्या आपको पता नहीं है कि सरकार हवाई अड्डों को अडानी, अंबानी को दे रही है, लखनऊ और कई जगह का बेच नहीं दी है? उन्हीं के लिए बनवा रही है सरकार ये हवाई अड्डा।
इसी तरह जमुआ गाँव की ही स्त्री सुनीता देवी अपनों से छिटकने की पीड़ा की बात करती हैं कि सदियों से हम जिनके साथ रहते आये हैं जो हमारे दुःख सुख के साथी रहें हैं उन लोगों से बिछड़कर हम कैसे जिएंगे ,क्या करेंगे ? किसी गाँव जवार के मनुष्य के लिए जो खेती -बारी करते हैं ,मेहनत मजदूरी करते हैं उनका अपना संग साथ होता है जिसके सहारे वो अपने संघर्ष के कठिन दिन पार करते हैं। उनसे उनका वो संग-साथ छीन लेना उनके लिए बहुत बड़ी पीड़ा है। अपनों से बिछड़ने और विस्थापन की पीड़ा में अब तक बारह लोगों की गांवों में असमय मौत हो गई है। ये मौतें चिंता का कारण हैं। कितने बुजुर्ग विस्थापन की बात करते हुए फफक कर रो पड़ते हैं।
इस आंदोलन में बच्चे भी खूब बढ़चढ़ कर भाग ले रहे हैं। पत्रकारों के ही पूछे गये सवाल पर एक गाँव की एक बच्ची हर्षिता उपाध्याय कह रही है कि अगर सरकार हमारा विकास ही करना चाहती है तो हमें इलाज और शिक्षा की सुविधा क्यों नहीं दे रही है ? हमारा विकास करना हो तो हमें अच्छे स्कूल और हॉस्पिटल दे जिसके लिए हमें इतनी दूर शहर जाना पड़ता है।
ये एक लड़ाई है जो कमजोरों और ताकतवरों के बीच ठन गयी है। ग्रामीण स्त्रियाँ साफ कह रही हैं कि हम पीछे नहीं हटेंगे चाहे जो हो जाये। इधर विकास का भ्रम देती सरकार भी भूमि अधिग्रहण से पीछे हटती नहीं दिख रही है। राज्य के पास तमाम ताकतें हैं। इन ग्रामीणों के पास बस इनकी हिम्मत और हौसला , अपनी जमीन के लिए अब यह जीने मरने का सवाल है और ग्रामीण महिलाएं इस आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे आंदोलन को जीवन की रोज घटती क्रियाओं की तरह मान कर चल रही हैं। सुबह ही सब घर के काम निपटा कर वे धरने में आ जाती हैं। लगातार आंदोलन में लोग आ रहे हैं और इस लड़ाई से जुड़ते जा रहें हैं।
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने इस आंदोलन में आकर कहा कि -हमारा संविधान गैरबराबरी के खिलाफ है और हम भी गैरबराबरी के खिलाफ हैं ,हमारे ऊपर जो ये गैरबराबरी का विकास थोपा जा रहा है उसका विरोध वही करता है जिनकी आजीविका जिनका आधार जिनकी संस्कृति ,प्रकृति सब खतरे में आती है।
इस आंदोलन के विरोध में सत्ता द्वारा ये प्रचार किया जा रहा है कि जिनकी जमीन हैं वो नहीं हैं इस लड़ाई में , बल्कि वो इस आंदोलन को चला रहे हैं जो भूमिहीन हैं। किसी लड़ाई और उस जमीन की कितनी उपयोगिता है ये बात ध्यान देने वाली है। आखिर उस भूमि के लिए वे क्यों लड़ रहे हैं जिनकी वो भूमि नहीं है, इसका जवाब भी वहीं मिलता है क्योंकि उन्हीं जमीनों पर काम करके उनका गुजारा होता है उसी पर खेती किसानी करते हैं ये लोग। वहीं रहते हैं और अपनी आजीविका उसी जमीन से चलाते हैं । और जिनकी जमीनें हैं उनको जमीन मिलेगी लेकिन जिनके पास बस यही आजीविका का साधन हैं उनको विस्थापन में सरकार क्या देगी ? ग्रामीण कहते हैं कि जितने में हवाई अड्डा बना है इसमें तीन कारखाने बन सकते थे। हमें रोजगार मिल सकता था लेकिन सरकार के पास हमारे रोजगार के लिए पैसे नहीं हैं ।
आज जब पूँजी और सत्ता दोनों एक साथ मिलकर अपनी ताकत से जनता को चूस लेना चाहती हैं तो आजमगढ़ आंदोलन से उठी आवाज इस अंधेरे समय में मशाल की तरह दिखती है। उनकी हिम्मत और धैर्य से ही ये आंदोलन चल रहा है क्योंकि आंदोलन में बैठे ज्यादातर ग्रामीण खेतिहर मजदूर हैं, दिहाड़ी मजदूर हैं, उनकी आर्थिक स्थिति आंदोलन चलाने के आड़े आयेगी। ग्रामीण स्त्रियाँ सुबह घर के सब काम करके ,पशुओं को चारा ,सानी पानी देकर धरने पर आती हैं लेकिन उनके खेत उनकी मजदूरी का हर दिन नुकसान होता है। अवधी में एक कहावत है कि गरीबी किसी का मान नहीं रखती , और ये आंदोलन उन ग्रामीणों का मान ही है उनके अस्तित्व की लड़ाई है । इस निरंकुश तंत्र के सामने आर्थिक रूप से इतने कमजोर लोग बस अपने हौसले और जज़्बे से लड़ रहे हैं ,लेकिन सवाल तो मन में उठता है कितने दिन तक क्योंकि सरकार आज इतने दिनों से पीछे नहीं हटी उसे इन गरीब मजदूर लोगों का दुःख नहीं दिख रहा है। लड़ाई बहुत लम्बी हो सकती है लेकिन अर्थ इसको प्रभावित कर सकता है। अगर हम किसान आंदोलन को देखें तो दोनों आंदोलनों में आर्थिक अंतर दिखता है क्योंकि उस आंदोलन को लीड करने वाले बड़े किसान थे और खिरिया बाग के इस आंदोलन को भूमिहीन मजदूर , बटाई और छोटी खेती किसानी करते मजदूर संचालित कर रहे हैं। ख़ैर इन महिलाओं का अपने हक के लिए लड़ना , गैरबराबरी और अन्याय के ख़िलाफ़ तनी मुठ्ठी में बहुत ताकत दिख रही है।
आलोक धन्वा की कविता ब्रूनो की बेटियाँ की ये पंक्ति –
पागल तलवारें नहीं थी उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं
रानियाँ मिट गयीं जंग लगे टीन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही औरतें
इन ग्रामीण श्रमिशील स्त्रियों के संघर्ष को देखकर साकार होती दिख रही है। दिख रहा है लड़ाई का वो इतिहास जब श्रम करने वाले हाथ संघर्ष की मुठ्ठी को तानते हैं तब सत्ताओं को पीछे हटना ही पड़ता है।
( लेखिका रूपम मिश्र कवयित्री हैं और हाल में उनकी किताब ‘ एक जीवन अलग से ‘ प्रकाशित हुई है )