( एक लम्बे समय से भारतीय चित्रकला में जो कुछ हुआ वह ‘कथाओं’ के ‘चित्रण’ या इलस्ट्रेशन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था.इसलिए यहाँ ‘सृजन’ से ज्यादा कौशल को महत्व दिया जाता रहा . इसमें कोई संदेह नहीं कि एक ओर जहाँ कला में ‘कौशल’ या ‘नैपुण्य’ का महत्व सामंतवादी व्यवस्था में बढ़ता है वहीं दूसरी ओर कला में ‘कथा’ के महत्व को सर्वोपरि बनाये रखना , धर्मसत्ता की एक बुनियादी जरूरत होती है. अब तक के ‘तस्वीरनामा’ में हर सप्ताह हम आप किसी चित्र-विशेष के बारे में जानते आये है. इस सप्ताह से शुरू होने वाली ‘तस्वीरनामा ‘ की श्रृंखला में पाँच लेखों के जरिये अशोक भौमिक ‘भारतीय’ चित्र कला पर कुछ जरूरी सवाल उठा रहें है जिस पर हम, पाठकों से उनकी राय और एक सार्थक बहस की भी उम्मीद करेंगे. यहाँ भारतीय चित्र कला में ‘ कथा’ का तीसरा लेख प्रस्तुत है. सं. )
भारतीय चित्रकला में ‘कथा’ से हमारा क्या तात्पर्य है, उसे हम कैसे समझते हैं और इस तरह की अधिकांश कथाओं का हमारी कला और हमारे सामाजिक जीवन पर क्या असर पड़ता है ? चित्रों में क्यों ‘ कथाएँ ‘ कही जाती हैं , इससे लाभ किसका होता है ? ऐसे तमाम प्रश्न हैं जो हमें चित्रकला के साथ जुड़े ‘भारतीयता’, ‘ प्रादेशिकता’ या प्रांतीयता के जैसी अस्मिताओं को समझने में भी मदद करते हैं।
‘कथा’ का सन्दर्भ भारतीय होने से चित्र में ‘भारतीयता’ नहीं आ जाती और न ही ‘भारतीय’ शब्द से विश्व चित्रकला के क्षेत्र में हम किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा जैसी बात को ही ला सकते है हालाँकि हममें से कई चित्रकला के साथ ‘भारतीय’ शब्द को, श्रेष्ठता का पर्याय मानने में आत्मसुख का अनुभव करते हैं । क्या भीमबेटका हो या मोहनजोदरो , अजंता हो या मुग़ल कला के चित्र , क्या उनका महत्व इस बात पर है कि हमने उन पर ‘भारतीयता’ की मुहर लगा दी है ?
चित्रकला का इतिहास सीमाओं को तोड़ने का और व्यापक पारस्परिक विनिमयों का इतिहास रहा है । हम जानते है कि इस दुनिया के भौगोलिक मानचित्र में देश की सीमायें निरंतर बदलती रही हैं और आगे भी बदलती रहेंगी। उदाहरण के लिए हम 1947 के विभाजन को देख सकते है। विभाजन के बाद अपनी नयी अस्मिता की तलाश में ‘पाकिस्तानी चित्रकला’ का अस्तित्व सामने आया जिसने एक ‘इस्लामिक चित्रकला ‘ को प्रोत्साहन दिया।
पश्चिमी पकिस्तान में सादेकैन, अब्दुर रहमान चुग़ताई आदि चित्रकारों के माध्यम से, मूलतः कैलीग्राफी और उमर खैय्याम , ग़ालिब, इक़बाल आदि की कविताओं को चित्रणों के जरिये ‘ पकिस्तान की चित्रकला ‘ को स्थापित करने की कोशिश की . वहीं कला के इस सतही अर्थ से पूर्वी पाकिस्तान ( वर्तमान का बांग्लादेश ) के चित्रकार अपरिचित थे। वहाँ जैनुल आबेदीन , कमरुल हसन, एस एम सुलतान आदि चित्रकार जिस कला से जुड़े रहे वह पूरी तरह से पाकिस्तान की ‘इस्लामिक कला’ की समझ के विपरीत था।
हम जानते हैं कि पहले पूर्वी पकिस्तान में (ढाका में) कला विद्यालय खोलने , फिर उसमें मूर्तिकला विभाग शुरू करने और अन्ततः लड़कियों के लिए कला शिक्षा को संभव बनाने के लिए जैनुल आबेदीन को , पाकिस्तानी शासकों की अनुमति प्राप्त करने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी। यहाँ ‘राष्ट्रवाद’ या ‘देशप्रेम’ दिखाने का एक दबाव ही था जिसके कारण जैनुल आबेदीन जैसे धर्म-निरपेक्ष और मानवतावादी चित्रकार को पकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान देना पड़ा था, ताकि उन्हें ‘पाकिस्तानी चित्रकार’ के रूप में पाकिस्तान में और दुनिया के समक्ष पेश किया जा सके।
इस प्रकार जैनुल आबेदिन एक कलाकार के रूप में , अपनी जमीन से विस्थापित हुए बगैर 1947 तक ‘भारतीय कला’ का प्रतिनिधित्व कर रहें थें , आज़ादी और देश विभाजन के बाद रातों रात वह ‘पाकिस्तानी कला’ का प्रतिनिधि बन गए । यही नहीं 1972 में उसी जैनुल आबेदिन को ‘ बांग्लादेश की चित्रकला’ का जनक माना जाने लगा। यह एक उदाहरण हमें निश्चय ही यह बताता है कि दरअसल चित्रकला में ‘राष्ट्रीयता’ ‘ प्रांतीयता’ जैसी संकीर्णता की कोई गुंजाईश नहीं होती। ऐसे शब्दों को प्रायः राजनैतिक स्वार्थों के लिए ही चित्रकला के साथ चिपका दिया जाता हैं ।
इस सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस कथन पर हमें गौर करना चाहिए। उनका मानना था (भावानुवाद) कि ‘ जब मैं कविता लिखता हूँ तो शब्द और विचार मेरे पास बांग्ला में आते हैं क्योंकि बांग्ला मेरी मातृ भाषा है , पर जब मैं चित्र बनता हूँ तो मेरे विचार बांग्ला या किसी भाषा में नहीं आते इसलिए मैं उतना ही विदेशी चित्रकार हूँ , जितना विदेशों में जन्में और काम कर रहें चित्रकार हैं !’ मानवतावाद के पक्ष में और राष्ट्रवाद के विरोधी रहे रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इस कला दृष्टि पर हमें सोचने की नई दिशा अवश्य देती है।
चित्रकला में ‘कथा’ के मकसद को समझने के लिए हम यहाँ दो प्रसिद्ध कला कृतियों को देखेंगें।
चित्रकला इतिहास में कई चित्र अपने कलात्मक गुणों के कारण शायद उतना नहीं पर अपनी ‘कथा’ के लिए महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं। ऐसा ही एक चित्र है. ‘ पूरब अपनी सम्पदा बर्तानिया को अर्पित कर रहा है ‘ (चित्र-1) जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1778 में अपने लन्दन स्थित, ईस्ट इंडिया हाउस के राजस्व समिति कक्ष के लिए बनवाया था।
किसी भी देश और काल के शासकों द्वारा बनवाये गए चित्र, स्वाभाविक रूप से ही उनके शौर्य और महानता की ‘कथाओं ‘ (या गाथाओं ) के चित्रण होते हैं । अनेक अवसरों पर शासकों द्वारा एक झूठ को सच के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से और अपने मन मुताबिक इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने के लिए भी चित्रों का इस्तेमाल किया जाता रहा है।
‘ पूरब अपनी सम्पदा बर्तानिया को अर्पित कर रहा है ‘ चित्र को भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्वार्थों को ध्यान में रख कर बनवाया गया था। इस चित्र का निर्माण का समय (1778) महत्वपूर्ण है, क्योंकि ब्रिटिश शासन की गिरफ्त से अमरीका (1776) आज़ाद हो चुका था और ऐसे वक़्त अपने साम्राज्यवादी स्वार्थों के लिए ‘भारत’ ब्रिटिश शासकों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया था। अंग्रेज़, भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से जिस व्यापक अन्याय, अत्याचार और लूट को अंजाम दे रहे थे उसे एक बेहतर चेहरा देने के उद्देश्य से ही यह चित्र न केवल बनवाया ही गया बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी के राजस्व समिति के कक्ष की छत पर इसे लगवाया भी गया। यहाँ ‘शोषण’ और ‘लूट’ को ‘राजस्व’ का नाम देने की साजिश को हम समझ सकते हैं !
इस चित्र में सीमित रंगों का प्रयोग है जहाँ पृष्टभूमि में आकाश, समुद्र और युद्ध पोत दिख रहे है। चित्र में बायीं ओर जहाँ सफ़ेद कपड़ों में स्त्री, ब्रटिश शासन की प्रतीक है वहीं काली स्त्री भारत का प्रतीक है (डिटेल चित्र 2)।
दर्शकों के लिए यह इस सच को स्थापित करने की कोशिश है कि ‘ भारत , अपने हीरे जवाहरात ,सम्पदा आदि स्वेच्छा से बर्तानिया को सौप रहा है’। चित्र का शीर्षक भी, इसी के अनुरूप इतिहास के सच को झुठलाने की कोशिश में रखा गया है। यहाँ रोमन देवता बुध ग्रह (mercury) को हाथों में दंड लिए दिखाया गया है। वास्तव में रोमन में बुध या मर्करी को वाणिज्य के देवता के रूप में माना जाता है। इस चित्र में बुध की उपस्थिति इस बात को रेखांकित करने के लिए किया गया है कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक कार्यकलापों के लिए ब्रिटिश शासन को दैवी स्वीकृति प्राप्त है।
चित्र में सभी बातें न केवल मनगढंत ही हैं, बल्कि इतिहास को अपने ढंग से पेश करने की कोशिश भी है। चित्र में चीनी व्यक्ति को भी उपहार के रूप में मिंग फूलदान लिये दिखाया गया है, जबकि 1778 में चीन में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विस्तार नहीं हुआ था ( पर वे इसके लिए पूरी कोशिश में लगे हुए थे ) ।
इस प्रकार यह चित्र केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने स्वार्थ में चित्रकला का किस तरह से उपयोग कर सकती हैं , यह चित्र उसका एक सार्थक उदाहरण है।
यहाँ यह सवाल जरूर उठता है कि 250 वर्षों बाद इस चित्र को देखने वाला दर्शक, जो इतिहास की सच्चाई से अपरिचित होगा , उसे यह चित्र कैसा लगेगा यह पूरी तरह से उसकी कला रूचि पर निर्भर करेगा। पर इंग्लॅण्ड में जो दर्शक इस चित्र की चित्रित ‘कथा’ से परिचित होगा, उसे निश्चय ही यह चित्र अच्छा लगेगा क्योंकि उसे अपने पुरखों पर गर्व होगा जिनकी महानता की स्वीकृति स्वरुप , ‘पूरब’ ने स्वतः अपनी सम्पदा उन्हें सौप दी थी। इसके ठीक विपरीत यह चित्र , हम हिन्दुस्तानियों के लिए कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा क्योंकि औपनिवेशवादी अंग्रेज़ों द्वारा हमारे देश की सम्पदा की लूट के बारे में हम जानते हैं। इस चित्र को प्रख्यात कला समीक्षक जॉन बर्जर ने ‘ न्यायसंगत लूट ‘ (लूट जस्टिफाइड)’ कहा है । इस पूरे प्रसंग में मूल समस्या चित्र की ‘कथा’ और उसके पाठ को लेकर है , जबकि यह किसी चित्र के मूल्यांकन का सही तरीका नहीं हो सकता ।
वह ‘कथा’ जिसे हम किसी चित्र में चित्रित पाते है , वास्तव में उस कथा से हमारा परिचय चित्र के माध्यम से नहीं बल्कि साहित्य (लिखित या वाचिक) के माध्यम से होता है , चित्र में हम केवल उस व्याख्या के अनुरूप उपस्थितियों को पहचान ही पाते हैं। किसी महापुरुष या देवता की कथा का चित्र में ‘चित्रण’ को हम इसलिए महान मान लेते हैं, क्योंकि हम उस चित्र में उस महापुरुष को उसके रंग , वेशभूषा , अलंकार , मुकुट और उनकी क्रियाओं / ‘लीलाओं’ से पहचान लेते हैं । महज चित्र में किसी परिचित कथा या नायक को किसी स्थापित कथा के अनुरूप पहचान लेना लेना, कभी भी चित्र देखने का तरीका नहीं हो सकता।
इस बात को विस्तार से समझने के लिए हम यहाँ 1775 से 1780 के बीच में बने काँगड़ा शैली के चित्र को देखेंगे (चित्र 3) । इस चित्र में काँगड़ा शैली के चित्रों की सभी विशेषताएँ शामिल हैं जिसे किसी व्याख्या के बगैर भी हम देख सकते हैं। यह चित्र प्राथमिक रूप से एक दृश्य चित्र है , जहाँ एक असमतल जमीन पर बनी एक सुन्दर सा कुटिया है। इस कुटिया के सामने छोटा सा बागीचा है और दूर क्षितिज के पास कुछ टीलें दिख रहे है। आसमान हलके नीले रंग का है, जिस पर सफ़ेद बादल दिख रहे हैं।
अब अगर इस चित्र में मानव उपस्थितियों को देखें तो हम कुल नौ जनों को देख पाते हैं। इन नौ जनों में दो सफ़ेद दाढ़ियों वाले साधु जैसे लोग हैं और चार युवक हैं, जिनमें दो अश्वेत वर्ण के हैं तो दो श्वेत हैं । इसके अतिरिक्त लाल वस्त्र में तीन और लोग भी हैं , जिनके हाथों में वीणा है और इनमें से एक आसमान पर पक्षी की तरह से उड़ रहा है। चित्र अपनी संरचना में न केवल एक आदर्श दृश्य चित्र ही हैं बल्कि अपनी संरचना में एक अद्भुत कसाव लिए हुए है। चित्र में सभी जीवन्त उपास्थियों को हम एक दूसरे से एक कतार में जुड़े पाते हैं, जिसके चलते चित्र में दिशा और गति को हम एक काल्पनिक रेखा के माध्यम से समझ सकते हैं (देखें चित्र 4) । हम इस चित्र को जितनी तन्मयता से देखेंगे , यह चित्र अपने नायाब चित्र गुणों की तहें क्रमश हमारे सामने खुलती रहती है। एक सफल या अच्छे चित्र की यह एक जरूरी शर्त होती है।
पर , इस चित्र के रचे जाने का उद्देश्य कुछ और ही है , जिसकी व्याख्या को हम इस प्रकार एक ‘कथा’ के रूप में पाते हैं । इस चित्र में –
1 . अपनी वीणा को साथ लिये , आकाश में विचरण करते हुए नारद पृथ्वी पर वाल्मीकि मुनि के आश्रम देख कर मुनि से मिलने उनकी कुटिया के आहाते उतर पड़ते हैं ( डिटेल चित्र 5)।
2.वाल्मीकि मुनि , नारद के स्वागत के लिए अपने शिष्यों के साथ नारद के चरण वंदना करते हैं ( डिटेल चित्र 6)।
3 . इसके पश्चात शेर की खाल पर बैठे वाल्मीकि , नारद से ज्ञान ग्रहण करते हैं। जिसे पास बैठे दोनों शिष्य सुनते हैं (डिटेल चित्र7) ।
इस प्रकार उपरोक्त तीन स्तरों में घटित ‘कथा’ के क्रम को चित्रकार ने एक साथ चित्रित करने की कोशिश की हैं , जिसमे असफल होना स्वाभाविक था। कथा में एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाते समय पहला दृश्य उपस्थित नहीं रहता , अर्थात एक दृश्य को , दूसरे दृश्य द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है तभी कथा में वर्णन या गति संभव हो पाता है। चित्र मूलतः किसी भी एक घटना के मात्र एक ‘अणुपल’ का ठहरा हुआ रूप है जिसमें कभी भी किसी ‘कथा’ का चित्रण संभव ही नहीं है। साथ ही यह भी सच है कि चित्र को हम अपने अपने ढंग से विभिन्न स्तरों पर अनुभव करते हैं , उसे ‘पढ़ते’ या ‘समझते’ नहीं है। जब चित्रकार किसी ‘कथा’ के दबाव में इतना यांत्रिक हो जाता है , जैसा कि हमने वाल्मीकि नारद प्रसंग के चित्रण में देखा , चित्र में अनावश्यक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है।
एक समाज में ‘कथा’ के दबाव में, चित्रकार यदि लम्बे समय तक कथावाचक की भूमिका निभाने की कोशिश करता रहे और लोग अगर उसे देश की ‘चित्रकला परंपरा’ मान कर आह्लादित होते रहे तो स्थिति को बेहद गंभीरता से लेने की जरूरत है। क्योंकि कला के बारे में ऐसी अवधारणायें धर्म और राज सत्ता को नए नए कथाओं को गढ़ने की सुविधा देता रहेगा और उनके लिए चित्रों के माध्यम से करोड़ो निरक्षर और अशिक्षित जनों का शोषण जारी रखना संभव बना रहेगा।
चित्रों के माध्यम से जनता का शोषण , आखिर युगों से आजमाया हुआ एक कारगर उपाय है, जिसने धर्म और राज तंत्र के इतिहास को एक निरंतरता दी है। इसलिए यह कतई नहीं मान लेना चाहिए की ‘चित्र’ केवल मात्र चित्रकार की एक कृति ही होती है। दुनिया भर में , इतिहास को शासकों द्वारा अपने ढंग से रचने का एक बेहद असरदार राजनैतिक हथियार के रूप में, चित्रकला की एक बेहद असरदार भूमिका रही है।
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