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सिनेमा

‘कंतारा’ जमीन की लड़ाई और हिस्सेदारी की एक मिथ कथा         

   जनार्दन 

कंतारा कन्नड़ भाषा की फिल्म है, जो 30 सितंबर 2022 को देश और विदेश में रिलीज हुई। कन्नड़ भाषा के अलावा यह फिल्म हिन्दी, तेलुगु और तमिल में भी डब करके दिखाई जा रही है। इन पंक्तियों के लेखक ने इसे हिन्दी में देखा। सिने क्रिटिक इसे एक्शन थ्रिलर जॉनर की फ़िल्म बता रहे हैं। सिनेमा के अर्थशास्त्र पर नज़र रखने वालों को यह एक बेहद कामयाब फिल्म लग रही है। सोलह करोड़ की लागत में बनी फिल्म अब तक एक सौ अट्ठासी करोड़ का व्यवसाय कर चुकी है। और फिल्म लगातार चल रही है।

फिल्म में न कोई बड़ा स्टार है, न ख्यातिनाम नायिका (सप्तमी गौड़ा की पहली फिल्म यही है)। हॉ दूसरे कलाकार ज़रूर मझे-मझाए कलाकार हैं, मगर वह भी स्टार और सुपरस्टार के दायरे में नहींआते। लुंगी-शर्ट पहना सॉवला, मोटा दढ़ियल नायक और बिना मेकअप की सॉवली नायिका सिनेमा के बने-बनाए रूपक में नहीं अटती। उनका अल्हण प्रेम अलग किस्म के सिनेमाई व्याकरण का प्रेम है। फिल्म में गोटूल (आदिवासी युवा गृह, जहॉ गॉव भर के युवक-युवती साथ-साथ रहते हैं) की छवि दिखाई गई है। ऐसे दृश्य सिने-वैभव (Cinematic splendor) को बढ़ा देते हैं। न कोई आइटम डांस, न मुख्यधारा टाइप का गीत-संगीत, फिर भी इतनी बड़ी हिट फ़िल्म! आखिर इस फिल्म की सफलता का रहस्य क्या है, जो हिन्दी में प्रदर्शित फिल्मों (स्टारों-सुपरस्टारों की फिल्म) को पछाड़कर आगे निकलती जा रही है?

फ़िल्म कंतारा की सफलता लौकिक-अलौकिक कथा, सिने-भाषा और प्रस्तुति में नयापन और सामूहिक-जनवादी संघर्ष में अंतर्निहित है। पर्दे का नायक हाशिये पर खड़े आदमी सा लगता है। वह वैसे ही प्रेम करता है, वैसे ही नफ़रत करता है और वैसे ही लूटा जाता है व तबाह होता है, जैसे संघर्ष करता, मजदूर, खेती करता किसान और जंगल से लकड़ी लाती आदिवासी औरत। साथ ही साथ जंगल और भूत कथा भी दर्शक को बॉधे रखती है। नायक इन सबसे जुदा भी है – वह अन्याय नहीं सह पाता और हक के लिए लिए मरना-मारना जानता है। वह मासूम है। वह खतरनाक है।

इस फिल्म पर दो तरह से बात हो सकती है। पहला है कहानी और दूसरा है वह रूपक जिससे नवीन सिने व्याकरण का रचाव-बसाव और तनाव साया हो पाया है।

सबसे पहले कहानी। लेकिन कहानी पर बात करने से पहले फिल्म के नाम ‘कंतारा’ पर विचार कर लेना ज़रूरी है। कंतारा का अर्थ है – ‘मिथकीय जंगल’। अर्थात ऐसा जंगल जो जीवन देने और लेने वाला, दोनों है। जंगल निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष शक्ति है। जंगल के बदौलत ही फिल्म में भूत कथा (भूत कोला), पुरानी आस्था, रीति-रिवाज और घृणा व लालच का समावेश हो पाया है। जंगल लौकिक और अलौकिक, दोनो है। जंगल प्रकाश है। जंगल अंधकार है। फिल्म में जंगल की खामोशी बोलती है और भय पैदा करती है। कथा की शुरूआत एक राजा से होती है। राजा दयालु है। सब सुखी है, मगर उसे सुख नहीं है। शांति की तलाश है उसे। ऐसा लगता है, जैसे उसके पूरखे उसे बुला रहे हैं। कुछ कहना चाहते हैं। वह राजा सन 1847 में पैदा हुआ था। फिल्म की शुरूआत भी इसी सन में शासन कर रहे इसी राजा, जो असीम सुख की तलाश कर रहा है, से होती है।

भारत कथाओं और लोक स्मृतियों का देश है। फिल्म की शुरूआत ही लोक स्मृति से होती है। राजा प्रजा वत्सल है। वह असीम सुख चाहता है। और प्राप्ति की कोशिश करता है। सब कुछ के होने के बाद भी जब राजा की बेचैनी नहीं थमती, तो वह तमाम गुणवना लोगों को बुलाता है। गुणवान लोग जो कहते हैं, राजा वह सब कुछ करता है। मगर राहत नहीं मिलती। तब आता है एक और गुणवान व्यक्ति जो कहता है – “राजा तुमको यात्रा करनी होगी। देश देखना होगा। लौकिक-अलौकिक आत्माओं की पुकार सुनना होगा। ऐसी किसी पुकार से तुम्हें असीम शांति मिल सकेगी।” गुणवान व्यक्ति की यह संदेश उस चन्ना की याद दिला देता है, जो असीम सुख में रहने वाले बुद्ध को जिंदगी की अंतिम परिणति (मौत) का दर्शन कराकर बुद्ध को बेचैन कर देता है। यात्रा करने का यह संदेश (कुछ हद तक आदेश भी) जनतंत्र से मिलने वाला चरैवेति चरैवेति भाव का संदेश है। फिल्म की शुरूआत ही बुद्ध के दुखवाद से होती है।

राजा (विनय विदप्पा) शांति की तलाश में निकल पड़ता है। वह अपनी रियासत का कोना-कोना छान मारता है। वह पीर-फकीर, साधू-संत, मठ और दरगाह, सभी जगह जाता और सबसे मिलता है। सबका आशीर्वाद हासिल करता है। गॉव-शहर, नदी-नाला और जंगल-पहाड़ की यात्रा करता है परंतु कहीं राहत नहीं मिलती। खूब भटकने के बाद वह एक जंगल में पहुँचता है। जंगल में भी खूब अंदर जाने पर एक पत्थर दिखाई पड़ता है उसे। पत्थर से एक आवाज़ आ रही होती है। आवाज़ में भय नहीं,सम्मोहन है। राजा को वह आवाज़ उसकी मॉ –पिता और पूर्वजों की पुकार सी जान पड़ती है। आवाज़ में असीम शांति है- वही शांति, जिसे राजा अब तक तलाश रहा था। राजा खींचे-खींचे आवाज़ तक पहुँचता है। उसके हाथ खुद-ब-खुद प्रार्थना में जुड़ जाते हैं। ऑखें तरल हो जाती हैं। ऑखें करुणा से भर उठती हैं। राजा का चेहरा करुणा से लबरेज़ नज़र आता है। तलवार नीचे गिर जाती है। राजा को उस आहट सी आवाज़ से प्रेम हो जाता है। विरान और घना जंगल उसे अपना सा लगने लगता है। थोड़ी देर बाद वह पीछे देखता है। पीछे पूरा गॉव का इकट्ठा है।

राजा अब राजा नहीं रहा। वह करुणा पुरुष बन चुका है। वह प्रजा के सामने हॉथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। प्रजा से वह कहने लगता है – “करुणा और प्रेम पैदा करने वाली यह आवाज़ मेरी मॉ की पुकार जान पड़ती है। मेरे पिता की चिंता घुली हुई है इस आवाज़ में। मेरे पुरखों का आशीर्वाद और प्रजा का असीम स्नेह इस आवाज़ में घुली हुई है। मैं इस पत्थर को ले जाना चाहता हूँ।”

प्रजा किंकर्तव्यविमूढ़ होकर इस राजा को एकटक देखने लगती है। थोड़ी देर बाद गॉव और जंगल के पुजारी में पत्थर की आत्मा आ जाती है और बोलने लगती है – “पत्थर जंगल का दिल है। दिल ले जाओगे तो जंगल मर जाएगा। तुम पुजारी को ले जाओ। मेरी आवाज़ पुजारी की आवाज़ में घुल जाएगी। तुम हमेशा मुझे सुन पाओगे। मगर उसके लिए तुझे यह जंगल और आसपास के गॉव की जमीन गॉव वालों को सौंप देनी होगी। सौंपी जमीन पर तेरा और तेरे वंशजों का कोई हक नहीं होगा।”

राजा शांति और करुणा का भूखा था। वह बात मान जाता है। जंगल और आसपास के गॉव, जिनका संबंध जंगल से था, और जो जिनके पुरखों की आत्मा और माटी जंगल में मिल गई थीं, उन्हें जंगल और वहॉ की सारी जमीन सौंप दी गई। राजा पुजारी को लेकर राजमहल लौट गया। उसने अपने राजत्व के थोड़े से हिस्से का त्याग करके अहिंसा का दामन थाम लिया। राजा ने जंगल की भूतात्मा (भूतकोला – कासरगोड़ा के जंगल में रहने वाली आदिवासी किसानों का स्थानीय देवता, जिसकी कृपा से जंगल हरे-भरे रहते हैं। बादल पानी से भरे रहते हैं। धान की बाली पोढ़ रहती है। खेत जोतने वाले भैंसे बलशाली रहते हैं। आदिवासी औरत किसानों का उमंग बना रहता है) से शांति हासिल करने के लिए समझौता कर लिया। प्रजा और उसका जीवन सुखमय हो गया। इस प्रसंग राजा और प्रजा दोनों दाता और दोनों ग्राही हैं। यह कथा राजा और प्रजा के सम पर समाप्त होती है।

फिल्म कंतारा की पहली कथा जादू सा कर देती है। अब शुरू होती है दूसरी कहानी। और समय है सन । राजा के वंशज का उत्तराधिकारी शिने शेट्टी भूतकोला के अवसर पर जंगल वाले एक गॉव में आता है। भूतकोला के उपलक्ष्य में आसपास के गॉव के सभी लोग एक जगह एकट्ठा हैं, चहल-पहल का माहौल है और भूतकोला नृत्य होने वाला है। नर्तक पुजारी पूरे साल की भविष्यवाणी करने वाला है। शिने शेट्ठी शंकालु और लालची है। भूतकोला पर उसे विश्वास नहीं

फिल्म की पहली कहानी यहीं समाप्त होती है। यह सबसे महत्वपूर्ण है। अब इसका विलय दूसरी कहानी में होता है। दूसरी और तीसरी कहानी हिंसा, लालच, घृणा के विस्तार और उसके अंजाम की कहानी है।

दूसरी कहानी का समय भारत की आजादी के दो दशक बाद अर्थात सन 1950 का समय है। फिल्म में दिखाया तो नहीं गया है, लेकिन प्रबुद्ध दर्शक समझ जाता है कि सांकेतिक रूप से ही सही, प्रजातंत्र में राजा पहले सा राजा नहीं रह गया है। जमींदारी चले जाने से उसके पॉव के नीचे की जमीन खिसक गई है। संपत्ति के अभाव और मौजमस्ती के अतिशय प्रभाव से उसकी स्थिति विडंबनात्मक हो गई है। वह राजा नहीं रह गया है, मगर राजा सा रहना चाहता है। इसके लिए वह गॉव आता है और अपने महापुरखे द्वारा दी जमीन को लेना चाहता है। राजा का वंशज (शिने शेट्ठी) एकबार फिर प्रजा (जो अब नागरिक बन चुकी है) के पास आता है। मगर इसबार तेवर बदला हुआ है। पहला राजा शांति के बदले त्याग करने आया था। राजा का यह वंशज लोभ के लिए पुरखों द्वारा दी गई जमीन हथियाने आया है। इस कहानी में जमीन की लड़ाई खुलकर सामने आ जाती है।

भूतकोला के अवसर पर सारे गॉव वाले इकट्ठा हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि मातहत के साथ राजा का वंशज भी समारोह स्थल पर आया हुआ है। पंजुरली (महापुजारी श्रृंगार) कर रहा है। दीव्य भूतात्मा का आवाह्न होने वाला है। महापुजारी की पत्नी और उसका बेटा, जो बाद में फिल्म का नायक बनता है, अभी बच्चा है और अपनी सखी से नैन मटक्का कर रहा होता है। गॉव के लोग खुशी में हैं मगर राजा का वंशज क्रोध में है, उसे पुरखे द्वारा दी गई जमीन वापस चाहिए। वह गॉव वालों को अपशब्द कहता है। उन्हें लालची और बेईमान कहता है, जिसे श्रृंगार करता पंजुरली सुन लेता है। पंजुरली का श्रृंगार गौर करने लायक है। भूतकोला अर्थात रहमदिल भूत को बुलाने के लिए वह धानी रंग का अंगरखा पहनता है। धान के पुआल और घास से बना घाघरा पहनता है। दरअसल यह रूप स्वयं धरती का रूप है। यह नृत्य खेती में अनुराग रखने वाले भूत की आत्मा का नृत्य है। भूत घरती का पुलिंग सा है। यह खेती अथवा जमीन का देवता जान पड़ता है, जिससे अहसास होता है कि भूतकोला किसानों का पेट भरने वाला भूत है, जिसकी आत्मा आज खेती-किसानी का भविष्य बताएगी।

श्रृंगार पूरा करके पंजुरी नाचने लगता है। उस पर भूत की आत्मा आ जाती है। सारे लोग उसे प्रणाम करते हैं। मगर राजा का वंशज उसे उपेक्षा से देखता है। उमंग से झूमते हुए पंजुरी गॉव का भविष्य बताने लगता है। गॉव, जंगल, पहाड़ और स्थानीय नदी का कण-कण अमंग में रवॉ हो जाता है। उमंग के सागर में होते हुए भी राजा के वंशज की आत्मा जलती रहती है। उसकी ऑखों में हिंसा और तिरष्कार दिखाई पड़ता है। जब भूतकोला की आत्मा सबको इच्छा पूरी होने का आशीर्वाद दे रही होती है, तब राजा का वंशज सवाल करता है – क्या तुम मेरी कामना पूरी कर सकोगे ?

हॉ, नाचते हुए पंजुरी में आई भूतकोला की आत्मा हॉमी भरती है।

मेरी जमीन लौटा सकते हो? राजा का वंशज सवाल करता है।

जमीन गॉव वालों का पेट है। किसी का पेट नहीं दिया जा सकता। पंजुरी के शरीर में आई आत्मा जवाब देती है।

राजा का वंशज बुरा मान जाता है और पंजुरी पर आरोप लगाता है – तुम पर कोई आत्मा-वात्मा नहीं। तुम ढोंगी और लालची हो। मेरे पुरखों की जमीन नहीं छोड़ना चाहते इसलिए भूतकोला की आत्मा का बहाना बनाकर जमीन हड़पना चाहते हो, मगर अदालत से अपनी जमीन लेकर रहूँगा। मैं भूतकोला को नहीं मानता।

राजा की वंशज की बात सुनकर पंजुरी आवेश में आ जाता है। जंगल में रोशनी दिखाई पड़ने लगती है। मशाल लेकर वह जंगल की ओर चला पड़ता है। गॉव वाले भी उसके पीछे हो लेते हैं, मगर तब तक वह उस जंगह पहुँच जाता है, जहॉ भूतकोला का थाना (जगह) है। वहॉ पहले एक सुअर दिखाई पड़ता है, फिर  कोई दूसरा पंजुरी (अतीत में हुआ पंजुरी) नाचता हुआ दिखता है। दोनों पंजुरी नाचते-नाचते एक में मिल जाते हैं – दो आत्माएं एकरूपा हो उठती हैं। जंगल रोशनी से नहा उठता है। गॉव वालों के आने तक पंजुरी भूतकोला में सदा-सदा के लिए समाहित हो चुका होता है। जमीन के बदले पंजुरी अपनी आत्मा भूतकोला को अर्पित करके जमीन बचा लेता है। अगले ही दृश्य में न्यायालय की सीढ़ी पर राजा का वंशज मरा दिखाई पड़ता है। जमीन का रहस्य सुलझने की जगह अलझ जाता है। दूसरी पीढ़ी की कथा यहीं समाप्त होती है।

तीसरी कथा 1977 से शुरू होती है (भू-दान आंदोलन के बाद की कथा)। पंजुरी और राजा के वंशज का एकलौता बेटा देवेंद्र सुतुरु (अच्युत कुमार) बड़ा हो चुका है। राज घराने का रूतबा अब किसी बड़े घराने से अधिक की नहीं रह गई है। मगर राजा का यह औलाद अतीत के मोह से मुक्त नहीं है। राजा न होकर भी वह राजा जैसा रहना और दिखना चाहता है। इसीलिए अतिरिक्त पूँजी की अनैतिकताओं को प्रशय देता है और उसमें लिप्त भी रहता है – जंगल की कटाई, बेगारी करवाना, जमीन और औरत की हवस।  राज घराना अब सरकार की दलाली और स्थानीय राजनीति का हिस्सा बन चुका है। अर्थात तीसरी कथा पतन और लालच के चरम की कथा है।

देवेंद्र सुतुरु अपने पिता की तुलना में अधिक शातिर है। वह सरकार और गॉव के आदिवासियों को गुमराह करने में कामयाब रहता है। वह शिवा को बेटे की तरह मानने का ढोंग करता है और उसी की प्रेयसी पर गंदी नज़र रखता है। बहुत ही चालाकी से वह गॉव वालों की जमीन अपने नाम करा लेता है। और शिवा तथा उसके साथियों को मर्डर के मामले में फँसा देता है। अच्युत कुमार ने घिनौने जमींदार के किरदार जान डाल दिया है। उसका बेटा दिव्यांग और मंद बुद्धि का है। पर्दे पर पराजित होते जमींदार और भविष्यहीन पिता की बेवशी देखते बनती है। सब कुछ को जानते हुए और सारी अमानीवयता से असहमत होते हुए भी चालाक, घिनौने पति और दिव्यांग व मंदबुद्धि बच्चे की मॉ की खामोशी हिन्दी भारतीय सिनेमा के खामोश क्लासिक किरदारों में से एक है। अमक्का के इस किरदार में शुकन्या शुकन्या होना किसी उपलब्धि से कम नहीं।

तीसरी कथा पूरी फिल्म की केंद्रीय कथा है। इस कथा में केरादी (कोस्टल कर्नाटक) का जीवन और उसका संकट जिंदा रूख धारण कर लिया है। कथा में बहुत स्पष्ट तरीके से जल-जंगल-जमीन और जीवन को मजबूत तरीके तीनों कथा की पृष्ठभूमि में रखा गया है। जल-जंगल-जमीन की लड़ाई और लालच में जमींदार और सरकार दोनों फँसे हुए हैं। वन संरक्षण अधिनियम के लागू होने से जंगल-पहाड़ के आदिवासी अपने गॉव में ही शरणार्थी बना दिए गए हैं। उनकी आस्थाएं कानून के घेरे में आ जाती हैं। गॉव के आदिवासियों के सामने सरकार और जमींदार दोनों से लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मगर उत्सवधर्मी आदिवासी रेत जैसी निचाट परिस्थितयों में प्रेम करते हैं, लड़ते हैं और मरते हैं। पर्दे की यह दुनियॉ दर्शकों को मोहती है। आम सिनेमा से हटकर सॉवली नायिका लीला (सप्तमी गौड़ा) का प्रेम सहज लगता है। कृषि महोत्सव, जंगल का रोमांस-रोमांच और विकल्पहीन शोषण की यातनाएं फिल्म की सफलता को मजबूत आधार देती हैं।

पहली कथा से लेकर तीसरी कथा तक लालच, अनैतिकता और हिंसा में लगातार बढ़ोत्तरी होती है। पहली कथा में पंजुरी और भूतकोला का दर्शन होते ही राजा के हॉथ से तलवार गिर जाता है। यह लालच और हिंसा पर संतोष और अहिंसा के विजय का प्रतीक है। इस दृश्य में फिल्म बुद्धगामी होती प्रतीत होती है। मगर पहले राजा के बाद इंसानी नफ़रत और लालच फिर आकार लेने लगता है, जिसके कारण सैकड़ों जिंदगियॉ तबाह होती हैं। और अंत भूतकोला की आत्मा पंजुरी बने शिवा के शरीर में आती है और वही तलवार देवेंद्र सुतुरु को मौत के घाट उतारने के काम आती है। जमींदार की मृत्यु के बाद पंजुरी भूतकोला नृत्य करते हुए सभी विरोधियों का हॉथ अपने सीने पर रखकर विह्वल होकर नाचते है। और फिर जंगल में जाकर भूतकोला  में विलिन हो जाता है।

सच में क्या राजा प्रजा वत्सल हो सकता है? सुख एक अनुबंध है। राजा और प्रजा के बीच कुछ समझौते होते हैं, जिसमें जंगल और भूतकोला की रजामंदी है।  जल-जंगल और जमीन के लालच की कथा। जंगल के अफसर का हाथ मिलाकर नाचना अर्थपूर्ण है – एक साथ मिलकर जिया जा सकता है। सरकार को राजा की तरह अहिसंक और सर्वसमावेशी होना होगा। लालच को मिटाकर शांति को पाया जा सकता है।

फिल्म की कथा चक्रीय है – अहिंसा और शांति के बाद हिंसा और अशांति। हिंसा और अशांति के बाद एकबार फिर अहिंसा और शांति की स्थापना होती है। हालॉकि फिल्म हैप्पी इंडिंग वाली नहीं है। जैसाकि ऊपर कहा गया है कि अहिंसा और शांति की कामना में शिवा की आत्मा भूतकोला की आत्मा में समाहित हो जाती है। बुद्ध की अहिंसा के साथ-साथ यह जमीन की सामाजिकता और सामूहिकता को सामने लाती है। फिल्म को देखकर लगता है नहीं कि यह गैर-फिल्मी व्यक्ति द्वारा बनाई गई उसकी पहली फिल्म है। गीत-संगीत और कथा-दृश्यों का संयोजन कहानी को विस्तार देते हुए सिनेमा के प्रशस्त व्याकरण की रचना करते हैं।

( लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं )

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