जोशीमठ, सनातन धर्म के प्रणेता, शंकर भाष्य के रचयिता आदि शंकराचार्य की तपस्थली और हिंदू समुदाय के प्रसिद्ध पवित्र बद्रीनाथ धाम, सिख समुदाय के पवित्र स्थल हेमकुंड साहिब, प्रकृति की अनोखी संपदा धारण किए फूलों की घाटी, स्कीईंग के लिए प्रसिद्ध औली, देश की सीमा के अंतिम गांव माना और सुंदर नीति घाटी, जहां भी जाना हो उसके लिए जोशीमठ ही प्रवेश द्वार है.
पौराणिक कथाओं में 515 ईसवी पूर्व में से इसका जिक्र मिलता है. इतिहास के अब तक मिले प्रमाणों के अनुसार भी यह सातवीं सदी से बसा हुआ नगर है.
पांडुकेश्वर में पाए गए कत्यूरी राजा ललितशूर के ताम्रपत्र के अनुसार यह कत्यूरी वंश के शासकों की राजधानी था जिसकी स्थापना सेनापति कंटूरा वासुदेव ने की थी. कत्यूरी वंश ने कुमाऊं गढ़वाल पर सातवीं से लेकर 11 वीं सदी तक शासन किया.
दि हिमालयन गजेटियर वॉल्यूम 3 भाग-1 के अनुसार भी यह महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था.जहां नीति और माना के भोटिया लोग व्यापार के लिए आते थे.
इस पुराने ऐतिहासिक- पौराणिक शहर को किसकी नजर लग गई कि यह कुछ दिनों तक देश के मीडिया चैनलों पर टूटते- फूटते- गुम होते एक शहर की तरह दिखाई पड़ा. और बस कुछ दिनों तक क्योंकि उसके बाद उससे अधिक इस शहर की पीड़ा को दिखाने का हुक्म नहीं है. किसकी नजर लगी है उस पर ज्यादा बात करने का हुक्म नहीं है. इसीलिए तुरंत ही इन चैनलों पर पीठाधीश्वर धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री 24 × 7 चलने लगते हैं.
अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर बसे कर्णप्रयाग से ही यदि आप देखना चाहें तो आपको इस विनाश के कारणों का पता लगने लगता है. उसे किसी दूरबीन या भूगर्भीय यंत्र के बगैर भी देखा जा सकता है. बशर्ते आंखें खुली हों.
कर्णप्रयाग से ऋषिकेश तक 125 किलोमीटर की दूरी के लिए रेल लाइन परियोजना का काम चल रहा है. जिसमें 105 किलोमीटर रेल यात्रा को 17 सुरंगों के भीतर से होकर गुजरना है.इसमें कुल 213 किलोमीटर सुरंग बननी है.जिसमें 116.59 किलोमीटर मुख्य लाइन के अलावा 84.5 किलोमीटर की निकास लाइन भी शामिल है.और यह पहाड़ों के सीने में विस्फोट करके निकाली जा रही है. हालांकि सरकार विस्फोटों से इंकार करती है.
कर्ण प्रयाग से जब मैं जोशीमठ के रास्ते पर बढ़ता हूं तो 5- 6 किलोमीटर पर कालेश्वर है.यहां ऑल वेदर रोड यानि चार धाम मार्ग का काम हुआ है.जगह जगह जेसीबी मशीनों ने पहाड़ों को काटा है, घरों को आधा-पूरा कटा आप देख सकते हैं.
मैं वहां दीपक डिमरी के घर पर रुकता हूं. नल पर कपड़े धो रही महिला से रेल लाइन के बाबत पूछता हूं. वह कहती हैं कि रात तो रात कभी-कभी दिन में भी ऐसे धमाके होते हैं कि हमारा घर थरथरा जाता है.और यह लगातार हो रहा है जबकि दशकों से भूवैज्ञानिक और पर्यावरणविद कच्चे, युवा और बनते हुए हिमालय में विस्फोट और मशीनों से पहाड़ काटने पर तबाही की चेतावनी देते आ रहे हैं.
दीपक डिमरी से रेल लाइन के बारे में पूछता हूं तो पहले कहते हैं कि बननी ही चाहिए, आराम हो जाएगा लोगों को. मैं इस पर चुप रहता हूं और धमाकों के बारे में बात करता हूं तो बात करते करते उनका दुख छलक आता है. वे कहते हैं कि रेल लाइन से पहले इस सड़क को देखो. इसको क्यों बनाया? हमने तो नहीं मांगी थी. हमारे घरों को काट दिया, मुआवजा तक पूरा नहीं दिया.
फिर वह अपने घर में पड़ी दरारें दिखाने अंदर ले जाते हैं.पूरे घर में दरारें पड़ी है, जिसे पुट्टी से भरा गया है. कहते हैं सड़क बनाने वालों ने हमारा प्राकृतिक जल स्त्रोत चिनाई करके बंद कर दिया है. सड़क की ढाल ऐसी कर दी है कि सारा पानी जाकर हमारे खेतों में भर जाता है.फसल और जमीन खराब हो रही है.भविष्य में हम क्या करेंगे, कहां जाएंगे, क्या खाएंगे पता नहीं. उनका गला भर उठाता है.हम उन्हें ढाढस बंटाते, आगे बढ़ जाते हैं.
कर्णप्रयाग से तकरीबन 30- 35 किलोमीटर के बाद चमोली से पहले सोनल आता है. यहां से छोटी गाड़ी बदलकर एक दूसरी गाड़ी में बैठता हूं. रास्ते में बातचीत के दौरान गाड़ी ड्राइवर संदीप बताते हैं कि धमाके उनके गांव में भी सुनाई पड़ते हैं. एक दिन बाद रात में चमोली से पहले उसी गांव के पास रात में खुद मैंने भी यह धमाके सुने, लगा जैसे किसी आदमी के गले से घुटी हुई चीखें निकल रही हों. विस्फोटों से छलनी हो रहे हिमालय का आर्तनाद जिन्हें नहीं सुनाई पड़ता, उन्हें त्रिशूल पर उछाले गए बच्चों की चीखें भी नहीं सुनाई पड़ी थीं.
इस रास्ते पर ज्यों- ज्यों हम आगे बढ़ते हैं हमें इस आपदा के कारण और साफ होते जाते हैं. चमोली से 10- 15 किलोमीटर आगे बढ़ते ही हिमालय के सीने में बड़े-बड़े छेद नजर आते हैं. पूछने पर पता लगता है कि यह सुरंगे एनटीपीसी और टीएसटीडीसी की बिजली परियोजना के लिए बनाई गई हैं. जोशीमठ से 15- 17 किलोमीटर ऊपर तपोवन से लेकर बिष्णुगाड़ होते हुए पीपलकोटी तक. यानी लगभग 50 किलोमीटर( यह मैं सड़क की दूरी बता रहा सुरंगों की नहीं) के एरिया में हिमालय के सीने में विस्फोटों और मशीनों से छेद ही छेद कर दिए गए हैं. इन्हीं सुरंगों में एक पूरी नदी अलकनंदा को दो जगहों पर डाल दिया गया है.
क्या नदियां केवल मनुष्यों के उपभोग (पढ़ें सत्ता और पूंजी के मुनाफे के लिए) के लिए हैं ? क्या उस नदी में जो जलचर हैं, उस नदी के पास जीने वाले पशु- पक्षी हैं, जो वनस्पतियां हैं, उनका उस नदी पर कोई हक नहीं है ? क्या नदी को अपना स्वतंत्र जीवन जीने, अपने रास्ते पर चलने का कोई अधिकार नहीं है. आपके पास बल है तो आप नदियां सोख जाएंगे, अपनी लालच और सुविधा के लिए नदी- जंगल- पहाड़- जलचर- नभचर सबसे उसका हक छीन लेंगे.
हां कहा गया है ‘वीर भोग्या वसुंधरा’. शर्मनाक है यह. लेकिन कहा है ना कबीर ने कि ‘ मुई खाल की सांस सो सार भसम हो जाए ‘. तो ! नहीं मानेगी नदी तुम्हारा आदेश, पहाड़ आर्तनाद करते-करते चिग्घाड़ उठेंगे, जंगल जल उठेंगे. और यह हुआ लगातार हुआ.
एनटीपीसी की खुदाई की मशीन टीबीएम पर वर्ष 2009 में पहाड़ से टूटकर बोल्डर गिरा और टीबीएम मशीन फंस गई. वह सुरंग में ही फंसी है आज तक. फिर बाईपास सुरंग बनाई गई. डेढ़ साल पहले अलकनंदा तुम्हारे अत्याचार से कराह उठी और सुरंगों को अपने जल प्रवाह से भर दिया. हां जरूर मरे इसमें गरीब लोग, मजदूर लोग लेकिन तुम्हारी परियोजना पर उसने हमला किया. फिर भी पहाड़ों, नदियों, और जोशीमठ के लोगों की आवाज को नहीं सुना गया.
हम जोशीमठ पहुंचते हैं. जिसके उपर तपोवन से एनटीपीसी का 520 मेगा वाट का हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट जो 2006 में शुरू हुआ और 2013 में उसे पूरा होना था, इसका काम अभी भी अधूरा है. इसका बजट 2978.5 करोड़ से बढ़कर 7103 करोड़ रुपए हो गया है. अभी भी सत्ताधारी सरकार और कंपनी का लालच मान नहीं रहा है. वह दंभ से भरा है. और उसने जो नई बाईपास सुरंग बनाई है वह ऐन जोशीमठ के नीचे से गुजर रही है.
ढाल और कमजोर पहाड़ों पर बसे जोशीमठ के नीचे से जा रही है सुरंग जोशीमठ के लिए जानलेवा है. जोशीमठ में वर्तमान दरारें और आपदा का मुख्य कारण भी यही है, जिसे न सरकार मान रही है और ना ही कंपनी मानने को तैयार है. जबकि इसके पहले वहां की नागरिक संघर्ष समिति के आंदोलन के दबाव के कारण उसे यह सच्चाई स्वीकार करनी पड़ी थी कि सुरंगों ने जोशीमठ के जलस्रोत लील लिए हैं. उसके लिए उसने क्षतिपूर्ति भी दी थी और दरारें पड़ने पर बीमा का लिखित आश्वासन भी.
अब जोशीमठ पर खतरा है.जोशीमठ पहुंचते ही भयावह तस्वीर दिखती है हमें गाड़ी छोड़कर पैदल चलना है क्योंकि बाजार के मुख्य रास्ते पर होटल, मकान, दुकान ढहाए जा रहे हैं जेसीबी से और मैनुअल भी. सड़कों पर बड़ी-बड़ी दरारें हैं. हम पैदल ऊपर के कच्चे रास्तों से मकानों के बीच से होते हुए दूसरी तरफ निकलने का रास्ता ढूंढ रहे थे. स्थानीय लोगों ने रास्ता दिखाया और हम लाल निशान लगे एक मकान की सीढ़ियों से मुख्य बाजार में पहुंच सके. हर दुकान घर पर एनटीपीसी गो बैक के पर्चे चिपके हुए थे.
जोशीमठ में एक दिन पहले 20 तारीख को पड़ी बर्फ जमी हुई थी. यहां रोज 11 बजे से 3-4 बजे तक लोगों का धरना प्रदर्शन जारी है. नागरिक संघर्ष समिति की बैठक शंकराचार्य के मंदिर में हो रही थी. वहीं जोशीमठ बचाने के लिए संघर्षरत नागरिक समिति के साथियों से मुलाकात हुई. जिन्हें धमकाने- बांटने- खरीदने की सारी कोशिशें सत्ता ने कर ली, कंपनी ने कर ली और नाकाम हुए. इन्हीं लोगों के कारण हम इस आपदा के कारणों को पहचान पा रहे हैं. उनका आंदोलन जिंदा है, उनका हौसला जिंदा है. उनका अपने पहाड़ों, जंगलों, नदियों से मानवीय उष्मा से भरा रिश्ता जिंदा है. वह अतुल सती, कमल रतूड़ी, शैलेंद्र पंवार जैसे संवेदनशील नेतृत्वकारी कार्यकर्ता हों या नवीन जुयाल, एसपी सती जैसे जियोलॉजिस्ट.
कोई ढूंढता रहे ‘आपदा में अवसर’ लेकिन यह तमाम साथी और जोशीमठ के नागरिक इस आपदा में भी हमें नदियों- पहाड़ों- वनस्पतियों के साथ, पशु- पक्षियों के साथ या कहें पृथ्वी पर उतरी समूची सृष्टि के साथ जीने का जो साहचर्य का रास्ता दिखा रहे हैं क्या हम उससे कोई सबक लेंगे या जानलेवा लुटेरे विकास का चश्मा जो स्क्रीनों ने हमारी आंखों को पहना दिया है वही लगाए विकास- विकास चिल्लाते हुए मारे जाएंगे.
(सभी चित्र के के पांडेय और रघु के हैं )