डॉ. मनोज कुमार मौर्य
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि “ जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेंगे, तब तक कोई प्रगति नहीं होगी। आप समाज को रक्षा या अपराध के लिए प्रेरित कर सकते हैं लेकिन जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर सकते, आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते। जाति-व्यवस्था की नींव पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जायेगा और कभी भी पूरा नहीं होगा|” (बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय, पृष्ठ 89)
ऐसे में भारत के सन्दर्भ में कोई कितना भी ‘ हिन्दू राष्ट्र ’ और ‘ विश्वगुरु ’ की चिल्ल-पों मचाये, जब तक उपर्युक्त बातों पर अमल नहीं होगा तब तक एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण नहीं हो सकता। कई बार मन में यह सवाल आता है कि भारत में ही जाति व्यवस्था क्यों पनपी और आगे चलकर मजबूत क्यों हुई? कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘सनातनी परम्परा’ को सुरक्षित रखने के लिए जाति व्यवथा को बनाया गया है, जो अब ‘ हिन्दू धर्म ’ व हिंदू राष्ट्र के रूप में अपने पाँव पसार रहा है।
जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में कुछ वर्ष पहले पश्चिम बंगाल में नदिया जिले के कल्याणी विश्वविद्यालय (प. बंगाल) की ओर से हुए एक आनुवांशिक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि भारत में कठोर जाति प्रथा का सूत्रपात कोई 1,575 साल पहले हुआ। गुप्त साम्राज्य ने लोगों पर कठोर सामाजिक प्रतिबंध लगाए थे। उससे पहले लोग निरंकुश तरीके से आपस में घुलते-मिलते और शादी-ब्याह करते थे।
यह अध्ययन कल्याणी विश्वविद्यालय के ‘ नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जेनोमिक्स ’ के वैज्ञानिकों ने किया है. इससे साफ हुआ कि देश में मौजूदा दौर में जाति प्रथा का शोर भले ज्यादा हो, इसके बीज कोई सत्तर पीढ़ियों पहले ही पड़े थे. इससे पहले भारतीय व अमेरिकी वैज्ञानिकों की ओर से किए गए अध्ययनों से इस बात के संकेत मिले थे कि जाति प्रथा शुरू होने के दो हजार साल पहले से ही लोग बिना किसी वर्ग, जाति या सामाजिक बंधन के आपस में घुलते-मिलते व संबंध बनाते थे।
हमारे यहाँ जातिदंश का विद्रूप चेहरा आये दिन देखने को मिलता रहता है। एनडीटीवी समाचार चैनल के 28 जुलाई 2020 की खबर के अनुसार आगरा से तीस किलोमीटर दूर एक गांव में अनुसूचित जाति की एक महिला का शव चिता से उतार लिया गया वो इसलिए क्योंकि जिस शमशान घाट में ये अंतिम संस्कार होना था वो ऊंची जाति का था। गांव के सवर्णों को ऐतराज था कि उनके शमशान घाट में अनुसूचित जाति की महिला का अंतिम संस्कार कैसे हो सकता है ? इस शव को वहां से चार किलोमीटर दूर ले जाना पड़ा।
आये दिन विचलित करने वाली ऐसी घटनाएँ समाज में घटित होती रहती हैं। महिलाओं के सन्दर्भ में बलात्कार, हत्या, छेड़खानी, मारपीट जैसी घटनाएँ आम बात हो गयी हैं| जाति और लिंग के आधार पर बलात्कार और हत्या की ज्यादातर घटनाएँ बहुजन समाज की महिलाओं के साथ होती हैं| जब तक समाजिक व्यवस्था के सनातनी ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होगा तब तक ऐसी घटनाएँ आये दिन होती रहेंगी।
एक आँकड़े के अनुसार भारत में हर पन्द्रह मिनट में एक लड़की का बलात्कार होता है, और उत्तर प्रदेश में दलित समाज की लड़कियों के बलात्कार और उसके बाद हत्या की घटनाएँ आये दिन देखने को मिल रहीं हैं। कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश के ललितपुर में एक दलित लड़की का बलात्कार करने के बाद उसको जीवित जला दिया गया था। जिसका केस कोर्ट में सीमा समृद्धि कुशवाहा (दिल्ली के निर्भया की वकील) लड़ रहीं हैं| हमारे समाज में लड़की के बलात्कार और हत्या की कितनी घटनाएँ तो समाज के डर और पुलिस-प्रशासन की शिशिलता के कारण बाहर ही नहीं आ पाती|
अभी उत्तर प्रदेश के हाथरस की घटना हर किसी के भी हृदय को कंपा देने वाली हैं| इसमें पुलिस और प्रशासन की असंवेदनशीलता और उनका विद्रूप चेहरा भी देखा गया, जो मीडिया के कुछेक पत्रकारों की सच्ची पत्रकारिकता से सामने आया। समाचार चैनलों के मार्फ़त देखा गया कि किस प्रकार से डी.एम. से लेकर नीचे तक के अधिकारी हाथरस की बिटिया के बलात्कार वाली घटना में लीपापोती करते नजर आये। यह लीपापोती सरकार में बैठे नेताओं की शह पर ही हुआ होगा।
बताया गया है कि पीड़िता दलित परिवार से आती है जबकि अपराध करने वाले ठाकुर जाति के हैं और दोनों परिवारों की पुरानी रंजिश थी| उस गाँव में पीड़िता की जाति के लगभग 15 परिवार हैं और अपराध में संलिप्त सवर्णों की जाति के सैकड़ों परिवार हैं। वहां के सर्वणों के द्वारा अपराधियों के पक्ष में नारेबाजी भी की गयी और इस घटना के समर्थन में हाथरस का पूरा सवर्ण समाज लामबंध हो चुका है| तो ऐसे में अधिकारियों द्वारा घटना में लीपापोती करना, नेताओं के लिए यह वोटबैंक का भी मामला होगा।
यह सवाल जायज है कि इतने बड़े-बड़े अधिकारी इस तरह के घृणित अपराधों में भी आखिर कैसे अपनी न्यूनतम मानवीयता को ताक पर रख कर नेताओं के राजनीतिक हितों के लिये मामलों की लीपापोती करते हैं। आखिरकार उनकी प्रतिबद्धता संविधान और क़ानून के प्रति है या सरकार में बैठे नेताओं के लिए ? सत्तासीन राजनेताओं की चापलूसी के बहुत सारे व्यक्तिगत फायदे हो सकते हैं। लेकिन, इससे दिनोदिन सामाजिक खाई और भी चौड़ी होती जाएगी।
इस घटना में पुलिस और प्रशासन की लापरवाही शुरू से ही दिख रही है| बलात्कार पीड़िता मनीषा बाल्मीकि का समय से न तो मेडिकल कराया गया, न ही बलात्कार की एफ.आई.आर.दर्ज हुई और न ही ठीक से अस्पताल में इलाज हुआ| जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गयी। अन्तत: यह एक हत्या ही थी| मनीषा के परिजनों की सख्त आपत्ति के बावजूद पुलिस-प्रशासन द्वारा उसका दाह संस्कार देर रात दो बजे कर दिया गया। फिर, कोई बड़ा अधिकारी बयान दे रहा है कि रेप नहीं हुआ, कोई अधिकारी कह रहा है कि जीभ नहीं काटी गई। अब जब शव का दाह संस्कार ही हो गया तो बहुत सारे सबूत भी खत्म हो गए, जिसकी गिरफ्त में बड़े-बड़े सुरमा आ सकते थे। रेप हुआ या नहीं, जीभ काटी गई या नहीं, यह जांच का विषय हो सकता है, लेकिन उसके साथ ऐसी हैवानियत तो की गई कि जिससे अंततः उसकी मार्मिक मौत हो गई। क्या कारण हो सकता है उसकी हत्या के पीछे ? कारण जो भी हो लेकिन सबसे बड़ा सच यह है कि वह एक लड़की थी और वह भी दलित जाति की|
प्रसिद्ध नारीवादी चिंतक जर्मेन ग्रीयर ने 2006 ई. में ‘ बलात्कार ’ नाम से एक लेख लिखा था जिसमें उनका कहना था कि ‘ बलात्कार की धारणा अपने आप में समस्याग्रस्त है, इसे एक जघन्य अपराध के रूप में पुरुषों ने स्थापित किया है, स्त्रियों ने नहीं| बलात्कार के प्रति राज्य और कानून का पूरा रवैया पितृसत्तात्मक है और बलात्कार के लिए जितने ही अधिक दंड की मांग की जाएगी सबूत पेश करने की बाध्यता और आरोप सिद्ध करने की प्रक्रिया उतनी ही मुश्किल होती जाएगी और दोषी को संदेह का लाभ मिलने की सम्भावना उतनी ही अधिक बढ़ जाएगी। बलात्कार का अपराध पीड़ित के खिलाफ़ नहीं बल्कि राज्य के खिलाफ़ होता है|’
( लेखक त्रिपुरा विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं। संपर्क-ईमेल : mauryahcu@gmail.com)