( वसुंधरा श्रीनेत द्रेनन का यह लेख “द हिन्दू” में 30 दिसंबर 2021 को प्रकाशित हुआ है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए दिनेश अस्थाना ने इस लेख का हिंदी अनुवाद किया है)
17 से 19 दिसम्बर, 2021 के बीच उत्तराखंड के हरिद्वार में एक आक्रामक हिन्दू धर्म संसद का आयोजन किया गया जिसमें वक्ताओं ने एक समूह को लक्ष्य बनाकर ज़ोरशोर से नफरती संदेश प्रसारित किये। डासना देवी मंदिर के मुख्य पुजारी और जूना अखाड़े के उच्च पदाधिकारी यति नरसिंहानन्द सरस्वती द्वारा आयोजित इस धर्म संसद में अनेक वक्ताओं ने भारत और हिंदुओं के लिए इस्लामी खतरे का का वितंडावाद खड़ा किया।
नफरत का जश्न
एक दक्षिणपंथी संगठन, हिन्दू रक्षा सेना के अध्यक्ष स्वामी प्रबोधानन्द ने कहा, “आपने इसे दिल्ली सीमा पर देखा है, उन्होने हिंदुओं की हत्या करके उन्हें लटका दिया। अब समय नहीं बचा है, अब तो मामला कुछ ऐसा है कि या तो आप मरने के लिए तैयार हो जाइए या उन्हें मारने का इंतेज़ाम कर लीजिये, दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा है। यही वजह है कि म्यांमार की तरह यहाँ की पुलिस, यहाँ के राजनेता, सेना और प्रत्येक हिन्दू को हथियार उठा लेना चाहिए और हमें यह सफाई अभियान चलाना होगा। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।“ बार-बार नफरती भाषण देनेवाले यती नरसिंहानन्द ने उस व्यक्ति को 1 करोड़ रुपये इनाम में देने की घोषणा भी कर दी जो हिन्दू “प्रभाकरन” (संदर्भ: लिट्टे नेता) बनेगा। यह स्पष्ट रूप से हिंसक व्यवहार के लिए उकसाना है। हिन्दू दक्षिण के एक प्रबल समर्थक स्वामी दर्शन भारती ने उत्तराखंड में मुसलमानों के ज़मीन खरीदने पर रोक लगाने की मांग की है।
हरिद्वार के उस मेले में कहे गए नफरती शब्दों को मैं दुहराना नहीं चाहता। उसकी जगह मैं उन विचारों के प्रक्षेप पथ पर प्रकाश डालना चाहूँगी। इन घटनाओं और उनकी कार्यविधि पर हमें किस तरह सोचना चाहिए?
सबको बिना सोचे-समझे मान लेने के लिए तैयार करना
सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि आज भारतीय समाज में एक प्रकार की उन्मादी तर्कहीनता के बीज बोये जा रहे हैं और यह भी कि नफरती अल्फाज़ का असर सबके अधिकारों और सबकी सेहत पर पड़ता है। इस प्रक्रिया में हिन्दुत्व के विचारकों द्वारा अल्पसंख्यक समूहों के खिलाफ लगातार नफरत और खौफ भरे भाषण दिये जाते हैं, नतीजतन समूहिक रूप से हिंदुओं में बिना सोचे-समझे यह मानने के लिए तैयार हो जाने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है कि जो लोग ठीक उनकी तरह नहीं हैं उनसे उन्हें खतरा पैदा हो गया है। ऐसा करने से एक ऐसे खौफ का निर्माण करके उसे प्रस्तुत किया जाता है जिसका न तो कोई अस्तित्व है और न ही उसे सत्यापित किया गया है। हरिद्वार की घटना में वक्ताओं ने अपने भाषणों में एक ऐसे भारत की छवि प्रस्तुत की जिसके मुसलमानों द्वारा कब्जा कर लिए जाने का खतरा आन पड़ा है, और बताया गया कि इसीलिए सभी मुसलमानों से नफरत करना और उन्हें संदेह के दायरे में रखना तर्कसंगत है। इसके बाद इन नफरती भाषणों के पोषकों ने इसका एक समाधान भी बता दिया- हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए सभी मुसलमानों के खिलाफ हथियार उठा लेना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने अपने अनुयाइयों की घेरेबंदी करके सामूहिक नरसंहार के लिए एक काल्पनिक कारण बताते हुए मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान कर दिया।
दूसरे, हमें इस पर विचार करने की ज़रूरत है कि भारत में नफरती भाषण देनेवालों को अलग-थलग करके उनको दंडित किया जाना इतना कठिन क्यों होता है जबकि इन भाषणों में साफ तौर पर, खतरनाक रूप से और अविलंब बहुसंख्यकों को हथियार उठाने और मुसलमानों का कत्ल करने का आह्वान किया जाता है। भारतीय नीति-निर्माता अभी भी उस सीमा को साफ तौर पर क्यों नहीं पहचान पाते जिसमें नफरती विमर्शों के चलते वास्तव में ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं जिनमें लक्षित समूह के लोगों की जानें चली जाती हैं, लोग घायल हो जाते हैं और उन्हें अपनी संपत्ति से हाथ भी धोना पड़ता है?
विभेद हीनता
भारत में हम नफरती और खौफनाक भाषण में कोई फर्क नहीं कर पाते। किसी समुदाय विशेष के खिलाफ नफरती भाषण (जिसमें धमकियों, गालियों, हिंसा और पूर्वाग्रहों का समावेश हो) तभी प्रभावी रूप से कारगर होते हैं जब माहौल पूरी तरह से खौफनाक भाषणों से संतृप्त हो चुका हो। खौफनाक भाषणों में अनजाने और असत्यापित खतरे होते हैं जो लोगों में चिंता और भय की भावना पैदा करते हैं। इन्हें किसी मक़सद से असपष्ट ही रखा जाता है। इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण है 1980 के दशक में अमेरिका में “सैटानिक पैनिक” का प्रसार जिसमें शैतानी आत्माओं के भय के शमन के अनुष्ठानों के चलते बच्चों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाता था जिससे लोगों में खौफ भर गया था।
भारत में हिन्दुत्व के विचारक जब हिंदुओं से कहते हैं कि उन्हें मुसलमानों से खतरा है तो वे लोगों में भय और दुष्चिन्ता पैदा कर रहे होते हैं। भूतकाल में भी जब-जब वे हिन्दू समुदाय पर किसी तगड़े आघात का जिक्र कर रहे होते हैं, तब-तब वे उस चोट का स्थायी भाव जगाने के साथ ही उस समुदाय के लोगों के मन में एक लक्षित समूह के प्रति विशेष तौर पर ज़हर भर रहे होते हैं। जब समाज में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक असमानता और अनिश्चितता बढ़ती है उस समय यह ज़हर खास तौर पर प्रभावी हो जाता है। इस तरह के भाषण लोगों में समान्यतः किसी एक पक्ष के प्रति लगाव पैदा कर देते हैं। बीच का रास्ता लेने का कोई विकल्प ही नहीं रह जाता।
तीसरे, हम भारत में जो कुछ भी देख रहे हैं वह है किसी अंतिम लक्ष्य की ओर नफरती और खौफनाक भाषणों का निरंतर प्रसार, इसमें भारतीय राजनीति से मुसलमानों को हिंसक रूप से निकाल बाहर कर दिया जाना भी सन्निहित है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने चुनावी रूप से फायदेमंद हिन्दू पहचान को अपने इर्दगिर्द लपेट लिया और समय बीतने के साथ ही उनमें से उग्र हिन्दू नेता विकसित हो गए और धार्मिक कमाई खानेवाले दूसरे लड़ाकू नेताओं पर उन्हें वरीयता मिल गयी, इन्हीं में से अनेक हरिद्वार में उपस्थित थे। इन सबों ने खुद अपने और राजनीतिक रूप से भाजपा के फायदे के लिए एक ही सांप्रदायिक फॉर्मूले का अनुसरण किया।
रूपान्तरण और समर्थन
चौथे, एक सदी में हिन्दुत्व की विचारधारा, छिटपुट संगठनों के ढीले-ढाले समूह से आगे बढ़कर एक स्थायी मूलाधार वाले राजनीतिक आंदोलन के रूप में विकसित हो चुकी है और उसे चुनावों के सहारे राज्य की संस्थाओं पर कब्जा मिल चुका है। यह कब्जा बहुत महत्वपूर्ण है। यही वजह है कि स्वामी प्रबोधानन्द गिरि बड़े दावे से सफाई अभियान में पुलिस और सेना को लगाने के बात कह सकते है। वहाँ मौजूद लोगों को पता है कि उन्हें सत्ताधारी दल और उसकी संस्थाओं का समर्थन प्राप्त है। उन्हें लगभग निश्चित रूप से पता है कि नफरती भाषणों को अपराध की श्रेणी में रखनेवाले वर्तमान कानूनों के अंतर्गत लगाए जानेवाले आरोपों से उन्हें निजात मिल सकती है। बार-बार किए गए प्रयोगों से उन्हें स्वाभाविक रूप से समझ में आ गया है कि नफरती भाषण उनके अनुयाइयों को एक लक्षित समूह के खिलाफ हिंसा के लिए उकसा सकते हैं और खौफ के भाषण लोगों को हिंसा से रोकने के सारे अवरोधों का विध्वंस कर सकते हैं।
पांचवें, हरिद्वार का तमाशा, जहां भाजपा के कम से कम दो कार्यकर्ता, अश्विनी उपाध्याय और भाजपा महिला मोर्च की उदिता त्यागी मौजूद थे, भारतीय संविधान में वर्णित नागरिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन था। वक्ताओं ने दिल्ली, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के खिलाफ 1857 की तर्ज़ पर विद्रोह की धमकी दी (राजद्रोह, हथियार उठाकर हिंसा के लिए उकसाना)।
एक वक्ता, सिंधु सागर स्वामी ने तो डींग मारते हुए 10 मुसलमानों को अनुसूचित जाति एवं जनजाति (नृशंसता निवारण) कानून के अंतर्गत झूठे मामले में फँसाने की बात कह दी। ये सभी अपराध भारतीय दंड संहिता के विभिन्न अनुच्छेदों के अंतगर्त अपराधों की श्रेणी में आते हैं।
तैयारी 2014 से
और अंत में, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हरिद्वार की नफरती सभा अल्पसंख्यक समूहों, गिरजाघरों और मस्जिदों पर बढ़ते हुए हमलों और नमाज़ में खलल डालने के व्यापक संदर्भों में हुई थी। ऐसी घटना के होने का तरीका और उसकी तीव्रता 2014 में ही तय हो चुकी थी। अब यह साफ हो रहा है कि वर्तमान भारतीय सत्ता आम हिन्दू नागरिक को अपने अड़ोस-पड़ोस के स्तर पर अपनी बहुलतावादी सोच को जबर्दस्ती लागू करवानेवाले बल में बदल देना चाहती है। हरिद्वार के स्वयंभू संत इस प्रक्रिया के मददगार हैं, वे भाजपा से इतनी सुविधाजनक दूरी बना कर रखते हैं कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह असंपृक्तता का दिखावा तो कर ही सके। यह निश्चित रूप से भारत के लिए सबसे अधिक खतरनाक रास्ता है क्योंकि जनसामान्य में राजनीतिक और सामाजिक तर्कशीलता सत्ता से नहीं आती। सत्तासीन लोगों को बढ़ती हुई तर्कशीलता पर रोक लगाने की ठीक-ठाक सलाह दी जाती है क्योंकि इससे यह प्रतीत होता है कि यह घर के अंदर के काल्पनिक दुश्मनों की काल्पनिक राष्ट्रविरोधी क्रियाकलापों पर रोक लगाने की कार्यवाही है।
( वसुंधरा श्रीनेत द्रेनन एक राजनीतिक वैज्ञानिक और पत्रकार हैं। वह इंडिया वॉयलेंस आर्काइव की सर्जक हैं जो भारत में समूहिक जनहिंसा के अभिलेखन के उद्देश्य से जनता के आंकड़े इकट्ठा करता है )