डॉ. बृजेश यादव
(लिंच-मोब के सामाजिक-वैचारिक आधार की पड़ताल)
( कॉर्पोरेट मीडिया की अगुआई में इन दिनों सत्ता के सभी संस्थान एक हाथ से साम्प्रदायिक नफ़रत बाँट रहे हैं, दूसरे हाथ से भारत की सम्पदा-सम्प्रभुता का सौदा कर रहे हैं – देशभक्ति के नाम पर यह काम खुलेआम हो रहा है। सवाल यह है कि नफ़रत के ‘विकास’ की दक्षिणपंथी राजनीति क्या केवल अफ़वाह के दम पर संचालित है ? आमतौर पर यही माना जा रहा है जो कि पूरी तरह सही नहीं है ! हमें इस सवाल का जवाब चाहिए कि नफ़रत के ‘ ग्राहक ’ का उत्पादन कैसे हो रहा है, कहाँ हो रहा है ? दूसरी बात यह कि किसी टीकधारी को देशभक्ति की पुड़िया खिलाना इतना सरल क्यों हो रहा है ? यह ‘देशभक्त’ हिंसा हत्या की बन्द गली में ऐसे कैसे फँस जा रहा है कि असत्य-अन्याय की जयकार ही उसका कर्तव्य हो रहा है ? वैचारिक रूप से अन्धे और मानसिक रूप से बहरे इस ‘फासिस्ट’ की निर्मिति में उस राजनीति की भी कोई भूमिका बन रही है क्या – जो सामाजिक न्याय और अम्बेडकरवाद के नाम पर की जा रही है ? भक्ति भाव में पगी, देशभक्ति की सगी सामाजिक चेतना निजीकरण के किन स्रोतों से पोषित है, भेदभाव के किन मूल्यों से प्रेरित है जो इन दिनों ‘भीड़-तंत्र’ का हिस्सा बनने को अभिशप्त है – इन प्रश्नों पर यहाँ विस्तार से विचार किया गया है )
स्वामी अग्निवेश पर संघियों के हमले की मुख्य वजह यह रही कि पाकुड़ (झारखण्ड) के अपने भाषण में उन्होंने यह कह दिया कि पशुपतिनाथ से लगाकर ढाकेश्वरी मन्दिर तक पूजा पाठ ढोंग तमाशा कर रहा नरेन्द्र मोदी संविधान और भारत के खिलाफ काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यही सब करना है तो जाओ पंडागीरी करो, प्रधानमंत्री पद पर तुम्हारा क्या काम है !
वे मोदी के पाखण्ड की आलोचना कर रहे थे, असत्य अन्याय की जयकार में निहाल स्वयंसेवक की मूर्खतापूर्ण हरकतें बता रहे थे। परन्तु जैसा हम समझ पा रहे हैं कि यह होलटाइमरी का प्रताप है कि पाकुड़ में उनकी बात के भीतर से, उपस्थित जनता की आँख के सामने – देवी देवता का नाम जपते हुए भारत की संप्रभुता बेचने में नह-दाँत देकर जुटे भगोड़ों के यार आरएसएस के प्रथम पाखंडी का, हमारी गौरवशाली भारतीयता के गद्दार का, पूँजीपतियों के दलाल का शैतानी चेहरा सामने आ गया तो वे पिटाई खाने का काम कर बैठे। बयान के अन्दर से, भरी सभा में, कल्पना कीजिए कि श्रोता की आँख के सामने, जब कठुआ का जुलूस निकल आया होगा तो विष्णु भगवान का अवतार बने फिर रहे गुजरात 2002 के सूत्रधार के अनुयाइयों पर क्या गुजरी होगी ! आप समझिए कि सत्य-न्याय का सिर कुचलने में जुटे जफ़र हुसैन के हत्यारे का, आशिफ़ा के अपराधी का खूनी संघी मुकुट जब वहाँ दिख गया तो भारत की बरबादी में वर्चस्व भकोस रही संघी हिन्दू चेतना को गुस्सा आना लाज़िम हो गया !
इस गुस्से ने यह साबित किया कि जिसे वे पाखंडी बता रहे थे, उसका असल रूप क्या है, उसका असल ‘कर्तव्य’ क्या है, कि सवा अरब भारतीयों ने उसे दरअसल किस “पवित्र” कार्य का ‘’मैंडेट’’ दे रखा है !
आरएसएस का होनहार स्वयंसेवक अपने प्रत्येक वक्तव्य में साम्प्रदायिक नफ़रत फैला रहा है. लगातार। इसकी हर स्पीच हेट स्पीच है. गौ-रक्षा, लव जिहाद, हिंसा, हत्या के पक्ष में इसका प्रत्यक्ष परोक्ष समर्थन खुलेआम है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट तक बैठे गण सबकुछ सुनकर भी सबकुछ अनसुना कर रहे हैं. लिंचिंग के बारे में चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व में अभी जो आदेश जारी किया गया, वह भी एक भाषण ही है. शान्ति, एकता , सहिष्णुता, संविधान, बहुसांस्कृतिकता की बात करने से भक्तों और देशभक्तों को कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा. इस आदेश का अर्थ वही है जो किसी भी ‘ दो-मुंहे ’ भाषण का है – जिसे पुलिस और प्रशासन के अफ़सर ही नहीं, निचली अदालतों के जज भी बखूबी समझते हैं कि “कानून व्यवस्था राज्य सरकार का मसला है” – लोकसभा में गृहमंत्री के इस बयान में अदालत की मंशा के साथ कार्यपालिका की मिलीभगत स्पष्ट है कि जैसा चल रहा है वैसा ही चलेगा. लोकसभाध्यक्ष सदन में कह रही हैं – ‘’फिर आप वही सब बोलोगे, हम लोग क्या कर सकते हैं, जो कुछ करना है कोर्ट को करना है, चलो बोलो, बोलकर आप भी अपना पेट भर लो . ’’
सत्ता-शासन-पुलिस-प्रशासन की देखरेख में, नफ़रत की पायेदार होती जा रही बुनियाद पर बढ़ती फैलती जा रही हिंसा हत्या को – इसके पीछे चमकाये जा रहे राजनीतिक बिजनेस को, भारत की बिकवाली – बरबादी को जब देखा जाएगा तो यह भी उजागर होगा कि सुप्रीम कोर्ट तक बैठे महानुभाव लिंचिंग के बारे में रुलिंग देते समय ‘भीड़तंत्र’ की बात करके देश की आँख में क्या झोंक रहे हैं और “अमीर सवर्ण हिन्दुओं” (हिमांशु कुमार) के नेतृत्व में देशभर में किये जा रहे संगठित हमलों की शिनाख़्त करने में इस कदर अक्षम क्यों साबित हो रहे हैं !
जरा पता लगाइए कि वे कौन लोग हैं जिन्होंने आजाद भारत में किसी भी योजना को लागू नहीं होने दिया, जिनकी वजह से आज भी किसी भी नियम कानून का अनुपालन नहीं हो पा रहा, जिन्हें अपने को ‘देशभक्त’ बताने की चिंता हरदम चांपे पड़ी है ? इस देश-समाज-संस्कृति के गद्दार वे कौन लोग हैं जिन्होंने भक्ति+देशभक्ति का हवामहल खड़ा करके सच्चे-भले भारतीय को उलझा दिया है ? थानों से कचहरियों तक बैठे आख़िर वे कहाँ के ‘राष्ट्रवादी’ हैं जो किसी भी ऐरू-गैरू की तहरीर देखते ही ‘द्रोहियों’ को सबक़ सिखाने के लिए उछल पड़ रहे हैं ?
1 – लम्पटों के साथ भस्मासुर भी हैं
हिमांशु जी के ध्यानार्थ एक बात हम यह कहना चाहते हैं कि स्वामी अग्निवेश पर किये गये ताजा हमले में सवर्ण लम्पटों के साथ वंचित समुदाय के भस्मासुर भी शामिल थे. भारतमाता और जयश्रीराम के नाम पर आयोजित-प्रायोजित दूसरी घटनाओं में भी ऐसा ही हुआ है, चल रहा है. जिन लोगों की चेतना भक्ति भजन भगवान की निगरानी में, भेदभाव की कड़ाही में सीझकर तैयार हुई है, उनकी समझ में फ़िलहाल अभी कुछ नहीं आने जा रहा. वे ‘ कालेपन की संतान’ हैं, वे ‘बंद बुद्धि’ के केस हैं, वे ठीक वही करेंगे जो उनके खिलाफ है. जो लोग अधिकार, आरक्षण माँग रहे हैं या अंबेडकरवाद कर रहे हैं – उन्हें जब तक यह पता चलेगा कि उनकी (सही) माँग के भीतर से (“अमीर सवर्ण हिन्दुओं” का पिछलग्गू ) भस्मासुर कैसे पैदा हो रहा है, तब तक नफरत के सौदागर, अकबरों अग्निवेशों को पिटवा कर मिटवा चुकेंगे.
नफ़रत की संजीवनी और मीडिया से अदालत तक शासक वर्ग का संरक्षण पाकर फल फूल रहे इन हमलों की खास विशेषता यह बन रही है कि इन घटनाओं में शरीक हो रहे दलित, ओबीसी. आदिवासी समुदाय के अधिसंख्य बहादुरों को हत्या करने के बाद भी ठीक ठीक पता नहीं होता कि उन्होंने क्या कर डाला है ! वे तो देशभक्ति कर रहे हैं, गौ-रक्षा कर रहे हैं या पुण्य-भू के लिए न्योछावर हो रहे हैं ! (उन्हें जब नहीं पता कि वे क्या कर रहे हैं तो उनका क्या कुसूर !) तथ्य यह है कि इन्हीं लोगों ने लिंचिंग की ताजा घटनाओं को इस दर्ज़ा जटिल बना दिया है कि इन समुदायों के पढ़े लिखे लोग भी आश्चर्यचकित हैं, ठीक ठीक समझ नहीं पा रहे हैं कि समाज में इतना उन्माद, इतनी वहशत कहाँ से कैसे फैलती जा रही है ?
नौकरी पढ़ने से या चाकरी करने से दृष्टि-विकास का कोई तआल्लुक नहीं है. जो लोग देशभक्ति वा भारतमाता के मुरीद हैं, जिनके जीवन का चरम लक्ष्य ऐन केन एक नौकरी प्राप्त करके पूँजीपतियों का घर भरना है, जिन्हें प्रेम के नाम पर सिनेमाई चोचलेबाजी में निहाल होना है या उच्चता के नाबदान में ‘आगे बढ़ना’ है, अथवा करुणा विषयक कुछ विसर्जित करना है – उन्हें बजरंगी बनने से कोई नहीं रोक सकता !
दलित, स्त्री, ओबीसी, आदिवासी समाज के “आगे बढ़े हुए” लोग खूँटी, पलामू या अलवर में कोई धंधा बिजनेस या रोजगार कर रहे हों अथवा बाबूगिरी से मास्टरी तक कोई नौकरी कर रहे हों – देखने में यही आ रहा है कि ये लोग अपने अपने ‘मोर्चे’ पर आत्मघाती, भस्मासुरी गतिविधि में लिप्त ही नहीं हैं बल्कि अपनी करतूत से लगभग बे-परवाह क़रीब-क़रीब निहाल हैं. कहना न होगा कि ये ब्राह्मणवाद के कैरियर हैं, ‘फ़्युडल माइंड’ के केस हैं. दरअसल संघी हैं (चाहे जिस जाति के हों) और भारतीय समाज की हमारी सामूहिक आत्मा के लिए, ज्ञानात्मक चेतना के लिए ब्राह्मणों से भी अधिक भ्रष्टक साबित हो रहे हैं। (सनद रहे कि जिसे यह नहीं मालूम कि वह क्या कह रहा है या कर रही है, वहाँ व्यक्ति का दोष नहीं होगा।)
2 – ‘बंद बुद्धि’ की बनावट कैसी है, समस्या क्या है ?
इस कठिनाई को गौर से देख लीजिये। इस कठिनाई का मुख्य सृष्टिकर्ता बाभन है। एक आप्रवासी टट्टू को मुकुट पहनाकर – भगवान का रूप – राजा साहब बताकर, बाभन ने भक्ति भजन का जो पूरा ठग तंत्र खड़ा किया, उसमें वे लोग “जिनको कछू न चाहिए” था, वे लोग फँस गए. डीडी कोसंबी और रामशरण शर्मा ने इस बात के लिए ब्राह्मणों को बहुत फजीहत किया है कि पंडिज्जी लोगों ने बाबू साहबों की मिलीभगत से भारतीय सामूहिक आत्मा को इस दर्ज़ा विरूपित कर दिया कि लम्बे समय तक समर्पण, निष्ठा में निहाल रह चुकी चेतना अब जब आजाद हो जा रही है तो भी काम वही कर रही है, उसी बुद्धि से कर रही है जो हजार बारह सौ साल पहले भक्ति भजन भगवान के प्रपञ्च में सैट कर दी गई है। नौकरी, विवाह, क्रिकेट, फैशन में ऊभ चूभ हो रहे नौजवानों के सम्मुख जिस दिन पंडिज्जी का यह ‘फोल्डर’ खुल जाएगा, उसी दिन ये लोग सामूहिक रूप से ठीक किये जाएंगे ।
कठिनाई देखने का अर्थ सिस्टम के स्ट्रक्चरल आपरेशन को देखना है – भेदभाव ग्रस्त भारतीय समाज का सच यह है कि यहाँ लाभार्थी और पीड़ित दोनों अपनी अपनी मनुष्यता के नाश में फँसे पड़े हैं. हद यह है कि वर्तमान रूप में इस समाज की प्रत्येक गतिविधि स्त्री विरोधी है आज भी. स्त्रियाँ ख़ुद स्त्री-विरोधी काम में प्रसन्नतापूर्वक शरीक होने को अभिशप्त हैं. मूल्य-तंत्र की सतह पर यहाँ हर गतिविधि में निर्दोष का क़त्ल नियत कर दिया गया है, जो बलीभूत होकर अब समाज-तंत्र की सतह पर आ गया है। यह ‘टकेपंथी’ बाभन की करतूत है (याद रहे, व्यक्ति का मामला यहाँ भी नहीं है)। इतिहास की सतह पर यही चल रहा है. इसी को अँग्रेजी में यथार्थ कहते हैं. ये हमारे ‘युग-सत्य’ की निकटतम छवि है. यही तस्वीर कबीर के यहाँ “उलटबांसी” के रूप में है. गोरख पाण्डेय के यहाँ यही तस्वीर ‘’विराट आत्मघाती बौने’’ के रूप में है. वीरेन डंगवाल के यहाँ – ‘’इसमें जो दमक रहा वो शर्तिया काला है’’. यहीं विद्रोही के यहाँ आग लगी हुई है.
बाभन-ठाकुर की मिलीभगत में भारतीय की ऐतिहासिक चेतना यूँ उलझ गई है कि यहाँ आज भी प्रत्येक गतिविधि में पतन का जशन चल रहा है। कविता, कहानी, साहित्य, विचार, विमर्श, बदलाव, राजनीति, संगठन – जिसे जो भी करना है, उसकी सक्रियता इस तथ्य से निर्धारित हो रही है कि ‘’पतन के जशन’’ को वह कहाँ से कहाँ तक देख पा रहा है। इस स्थिति से बच या उबर वही सकता है जो इस हाल को पहचानकर इसके खिलाफ़ लड़ जाएगा। लड़ाई वा संघर्ष में ही इस हाल से बचाव वा मुक्ति की कोई सूरत है या हो सकती है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। सामन्तवाद की यह सेट्टिङ्ग, ऐसा विकृत रूप दुनियाभर में केवल यहीं पाया जा रहा है – लिंचिंग में शरीक हो रहे भस्मासुर इस तथ्य के एकदम ताजा सुबूत हैं. आधुनिकता, आज़ादी और कल्याणकारी राज्य में जितनी अग्रगति हुई थी, नव उदारवाद ने उसे रद्द कर दिया है. रही सही कसर अस्मिता विमर्श और पिछड़ावाद पूरी किये दे रहा है.
‘ईमानदारी के बिना जीवन व्यर्थ है’ या ‘करुणा के बिना आदमी जानवर समान हो जाएगा’ – यह सब जो लोग बक रहे हैं, मान कर रहिए कि उनका अभी कुछ नहीं हो सकता, उनकी अगली पीढ़ी का इंतजार कर सकते हैं लेकिन अगली पीढ़ी तो कॉर्पोरेट और उसके दलालों के फेर में अभी और भी दुर्गति को प्राप्त होने जा रही है ! फिर क्या करना चाहिए ? सोचिए। करुणा और ईमानदारी के ये ‘भक्त’ उन लोगों के अगले संस्करण हैं जो मानते हैं कि ‘भगवान नहीं है तो यह सब चल कैसे रहा है ’ या ‘देशभक्ति तो होनी ही चाहिए’। स्वतंत्रता आंदोलन के समय एक हिस्सा वह भी था जो इस बात के लिए व्याकुल था कि ‘अंग्रेज़ चले जाएंगे तो शान्ति भंग हो जाएगी, अराजकता फैल जाएगी’।
लब्बोलुबान यह कि यहाँ सामाजिक परिवर्तन की गति इतनी मंद और उखाड़-पछाड़ युक्त है कि राजनीति से कविता कहानी करने वालों तक, प्रोफेसरों अधिकारियों वा वरिष्ठ पत्रकारों तक काफी बड़ी संख्या में ब्राह्मणवाद के कैरियर पाये जा रहे हैं. इन्हें नहीं मालूम कि क्या कर रहे हैं, क्या लिख रहे हैं, क्या बोल रहे हैं ? कमाल तो यह है कि इनमें से कई ‘चर्चित’ हैं. इनकी बहादुरी यह है कि ये लोग अपने रटे हुए से अलग कुछ देख-सुन लें तो भी नहीं जान पाते कि उन्होंने क्या सुना – देखा ! अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि ‘लिंच माब’ की जड़ें हमारे समाज में किस गहराई तक फैली हुई हैं।
3 – बर्बादी में ही वर्चस्व की हवस !
इस कठिनाई को जो लोग देख पा रहे हैं यानि ‘बंद बुद्धि’ के उलझाव का दुरुपयोग कर रही मुनाफाखोरी को जो लोग निजी संपत्ति की जड़ तक उखाड़ देना चाहते हैं – साहित्य, विचार, राजनीति वा संगठन में उन्हीं लोगों की सक्रियता का कोई अर्थ है या समाज व भविष्य के लिए उनके किये का कोई महत्व है। इन क़ीमती लोगों में, जो हमारे समाज में बहुत थोड़ी तादाद में जीवित पाये जा रहे हैं, मानना होगा कि सबसे बड़ी संख्या उन साथियों की है जिन्होंने भले ही ब्राह्मण कुल में जन्म पाया लेकिन क्षमा दया करुणा की अवतारवादी धोखाधड़ी के खिलाफ न्याय, सत्य और संघर्ष के पक्ष में लामबंद हुए। अग्निवेश इन्हीं क़ीमती लोगों में एक हैं चाहे वे जिस जाति कुल के हों। दूसरी तरफ़, जो लोग हमारी ऐतिहासिक चेतना की इस कठिनाई को देख नहीं पा रहे हैं या दृष्टिहीनता के वशीभूत अनदेखा करने को अभिशप्त हैं – वे भइया जी के साथ रहें या बहिनी जी के साथ, वे फ्री थिंक करें या सोशल मीडिया पर संघर्ष करें, वे आरक्षण मांगें चाहे अधिकार यात्रा निकालें, वे कोई फोड़म रचें, सूक्ति लिखें या आत्मकथा बनाएँ अथवा जीवनी के नाम पर कच्चा रस पोंकें – यह सब निरर्थक ही होता तो भी गनीमत थी – यह बढ़ते जा रहे कचरधम्म में बढ़ाई जा रही गंदगी है जिससे आने वाली नस्लों का संकट और विकट हो जाना है।
सवाल सिस्टम के स्ट्रक्चरल आपरेशन को देखने का है, केवल स्ट्रक्चर नहीं। इसके किसी हिस्से की विशेषता या अंतर्विरोध को ठीक ठीक वही समझ-कह सकता है जो पूरे मामले को देख पा रहा है। याद राखिए – इतिहास की नज़र से, वर्ग की दृष्टि से ही पूरी तस्वीर देखी जा सकती है। वर्ग कहने से जिसे वामपंथ की बू आ रही हो उसे अपनी नाक का नहीं, दिमाग का – दरअसल ‘बंद बुद्धि’ का उपचार कराना होगा, वगरना शान्ति-एकता तो दूर, देशभक्ति और अखण्डता भी पल्ले नहीं पड़ेगी।
गौर करने की बात यह है कि जोगी मोदी के पितृजन लुक्काड़ा लेकर बढ़े चले आ रहे गड़खुल्लों को देख रहे हैं. वे डेरे तक पहुँच जाएंगे तो पूड़ी कड़ाही समेत निजीकरण का सारा भंडारा भंड हो जायेगा और खाये मोटाये परजीवियों और उनके भूखे लम्पट आश्रितों का बहुत बुरा हो जाएगा. वे लोग आसन्न ख़तरा देख रहे हैं लेकिन अफसोस की बात यही है कि दलितों वंचितों के पितृजन आरक्षण वा विमर्श में विह्वल हैं और इसे अपनी अपनी (वामपंथ विरोधी) होशियारी समझ रहे हैं. इधर, नये से लगते लोग सेलिब्रिटी बनने के लिए व्याकुल हैं या काँग्रेसी यथास्थिति से आगे कुछ समझ नहीं पा रहे हैं इसलिए मोदी विरोधी चुटकुलेबाजी में व्यस्त हैं।
उधर, हवा पानी से लगाकर धान अरहर दूध सब्जी तक लगभग सबकुछ मुनाफाखोरों के जिम्मे चला गया है। मन्दिर-मस्जिद और फॅमिली सिस्टम के आगे जहालत के डेवलोपमेंट में जितनी कसर बच रही थी उसे पब्लिक स्कूल से बढ़कर क्रिकेट पूरा कर रहा है। सड़क बनाने में सरकार को बहुत मजा आ रहा है। दुकान, बाजार, फैशन, ब्यूटी, पैकेट बंद सामग्री की मार्फत समूचा निओ लिबरल ऑर्डर लम्पट-लफंगा तैयार करने में जुटा पड़ा है। ये पागलों के भी पागल हैं। इन लोगों के यहाँ “नाश” ही “सुन्दर” हो गया है। संगठन राजनीति कविता कहानी छोड़ दीजिए, वे सुनी हुई बात भी नहीं सुन पा रहे हैं। वे अन्धों बहरों से आगे बढ़ चुके हैं। समर्पण के शीरे में भचाभच डूबा इनका ऐस्थेटिक सेंस अब देशभक्ति के पैकेट में डालकर सील किया जा चुका है। देखते जाइए – यह पैकेटेड ऐस्थेटिक सेंस अभी कई प्रकार के नये करतब दिखाएगा।
निजीकरण की खास पैदाइश है यह फ़ासिस्ट। इसे गौर से पहचान लीजिये। यह मोदी के ‘न्यू इण्डिया’ का नौजवान है। इसे लम्पट वा भस्मासुर कहते समय ख्याल रहे कि किन्हीं विशेष राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इसे पैदा कराया गया है। अब वह पैदा ले लिया है तो अपना काम करेगा। आपको जो करना हो कीजिये – यह याद रखते हुए कि क़ुसूर आखिरकार नौजवान का नहीं, सिस्टम का है।
जिसकी घेंच में दम हो, गर्दन उठाके यह शीन देख ले। जिसे पिटाई खाना है, अग्निवेश की तरह बोल के देख ले। गोली खाना हो तो पत्थर उठा के देख लीजिए।
4 – गतिरोध कहाँ तक जाएगा
याद रखिए कि मसला न्याय का है, करुणा का नहीं ; सवाल समानता का है, नौकरी पाने का नहीं ; झगड़ा भक्ति वा देशभक्ति की बदमाशी को हमेशा के लिए हल कर देने का है, ठगी वा गिरहकटई के अड्डों को धरती से हटा मिटा देने का है – इस काम में जितनी देर की जाएगी, कश्मीर में भारत की साम्राज्यवादी सरकशी बढ़ती जाएगी और इस भूभाग में अब किसी अकबर, किसी जिग्नेश, किसी अग्निवेश की ख़ैर नहीं है – ’19 में मोदी हार जाएगा तो ’24 में इसका अगला विकृत संस्करण आएगा। समाज की सारी संस्थाएँ जब असत्य, अज्ञान, कालापन पैदा करके वर्गीय दृष्टि को धुँधला करती जाएँगी तो साहित्य, विचार, संगठन, राजनीति में गिरावट बढ़कर गारतगरी में तब्दील हो जाएगी । विरोध करने वाले जब विमर्श में लोट-पोट हो जाएंगे, गाने बजाने में मस्त हो जाएंगे तो विरोध की जगह क्या क्या होगा, इसके कई जीवित प्रमाण सामने आ चुके हैं लेकिन कोई विश्वसनीय विश्लेषण- विरोध अभी निकल नहीं पा रहा है। सब मोदी को कोस रहे हैं लेकिन यह भी तो बताना होगा कि मैसेज देखते ही जो लोग सोंटा डंडा लेकर सनक जा रहे हैं, उनकी इस नई बउरहट में बाबा साहब की भी कोई भूमिका बन रही है क्या ? सिधू-कानू की जमीन पर रघुबर पनप जाएगा तो गुरुजी से गोरूजी तक सब, एकदिन हुरे जाएंगे कि नहीं ?
सामाजिक न्याय और अम्बेदकरवाद के नाम पर कॉंग्रेस, भाजपा के साथ पु लू लु लु खेलने वालों को अभी भनक नहीं है कि उन्होंने क्या करामात अर्ज़ कर डाली है !
आरक्षण के रास्ते जैसा सामाजिक न्याय हो रहा है और बहुजनवाद के रास्ते जिस किस्म का विमर्श हो रहा है – इस सबसे वंचितों के हक़ में भेदभाव की सामाजिक संरचना को बदलना था, लेकिन बदलाव के सभी मोर्चों पर भस्मासुरों की तादाद बढ़ती जा रही है। जीने रहने की सहूलियत तो चाहिए ही, मगर कश्मीर समेत देशभर में लिंचिंग की घटनाओं में बढ़ती जा रही बहादुरी के मद्देनज़र, गाँव से शहर तक, बाबा साहब से कम्युनिस्ट पार्टी तक देख लिया जाए कि आगे बढ़ने के पूंजीवादी रास्ते तथाकथित व्यक्तिगत उत्थान को समुदाय के खिलाफ़ कैसे खड़ा किए दे रहे हैं ? ‘सामाजिक न्याय’ के लिए जो लोग संघर्ष कर रहे हैं, वे सामाजिक बदलाव के खिलाफ़ कैसे खड़े हो जा रहे हैं, आख़िर वे अपने मनुष्य के खिलाफ़ कैसे खड़े हो जा रहे हैं – ऐसा क्यों हो रहा है, नीयत के सच्चे भले लोग इतनी मुश्किल में कैसे धँसते जा रहे हैं – इन प्रश्नों पर विचार होना चाहिए।
मीडिया से अदालत तक बैठे हीनता के लाभार्थियों को शायद अंदाजा नहीं है कि जिस नफ़रत को वे पोष रहे हैं या संघियों के संरक्षण में फलते फूलते देख निगाह फेर ले रहे हैं, वह नफ़रत भारत को पाकिस्तान के पिछवाड़े ढकेलकर बलूचिस्तान बना देगी। लंपटों से कम खतरा भस्मासुरों से नहीं है। दूसरी तरफ़ यह बात भी है कि अगर ये लोग सचमुच होश में आ जाएंगे तो मन्दिर मस्जिद से दुकान बाजार तक सबका टंडीला उखाड़कर फेंक देंगे, सारी ठेकेदारी हिरन हो जाएगी रातोरात, तिलक चुटिया समेत सारा गर्व और पूंछविहीन सारी बाबूसाहबी, लफंगई छू मन्तर हो जाएगी तीन दिन के अन्दर बन जाएगी पूरी फिलम। बताते हैं कि कटहा कुकुर औ मरकहा बैल कितने भी पालतू बन जाएँ इनसे हमेशा खबरदार रहना चाहिए। वह कभी भी कहीं भी नोंच ले सकता है और बैल ने अगर घूमकर ओलझार दिया तो एक ही वार में ओझढ़ी पोझढ़ी सब बाहर चली आएगी।
जो लोग शिक्षा-नौकरी के आगे, भेदभाव की मर्यादा-प्रतिष्ठा के उस पार तक सोच सकने की सलाहियत रखते हैं वे यह देख लें कि दड़बा छाप घर बनवाने से या टीवी फ्रिज गाड़ी मोटर खरीदकर मुनाफाखोरों का घर भरने से – दलितों की पिटाई की कार्यवाही में, मुसलमानों की हत्या में, अग्निवेशों की पिटाई में, जेएनयू समेत तमाम संस्थाओं के नष्टीकरण में, भारत की बिकवाली में कोई अन्दरूनी वैचारिक राजनीतिक मदद पहुँच रही है क्या ?
आपादमस्तक स्त्री-विरोधी, भेदभाव की इस ‘महान’ सामाजिक व्यवस्था को जो लोग तेरे-मेरे की आख़िरी ईंट तक उखाड़ देना चाहते हैं, जो लोग फाइट में हैं, जिनकी निगाह शहंशाह के अंटे पर लगी है, वे कभी बूढ़े नहीं हो सकते, इसलिए अग्निवेशों के लिए क्षमा-दया मत मांगिये (संदीप सिंह)। अग्निवेशों को ’सफल’ हो चुके खरहों की प्रार्थना नहीं चाहिए। उन्हें हारे हुए कछुओं की तरह, कुचले जाने के बाद भी, लहूलुहान सिर उठाकर जूझ जाना है – मंज़िल मिले, न मिले। उनका हौसला, उनकी हिम्मत इतिहास का विषय है, उन्हें मोदियों जोगियों की शर्म नहीं चाहिए।
लगभग एकतरफा होते जा रहे हालात कब-कैसे पलटेंगे, देखना होगा। गतिरोध किस रूप में, कहाँ टूटेगा – ‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’!
(नोट – अन्धा बहरापन दृष्टि का, ऐतिहासिक चेतना का है। यहाँ इसी अर्थ में प्रयुक्त है। फिर भी इस शब्द प्रयोग से यदि किसी को चोट पहुंचे तो लेखक क्षमाप्रार्थी है । )