जब कुछ नयी निर्मित्ति होती है, कुछ नया रचा जाता है तो वो पुरातन की समृद्ध परंपरा, संस्कृति व स्मृतियों से जुड़कर, अपनी नव्यता को नया अर्थबोध प्रदान करते हुये इतिहासबोध को विस्तृत करता उसे बहुआयामी बनाता है। वहीं पुरातन की संस्कृति व स्मृति को नष्टकर, बिगाड़कर मलबे में बदलने के क्रम में जो कुछ भी नया बनाया जाता है वो हिंसा, क्रूरता और दमन का हथियार लेकर किया जाता है, अतः वो प्रवृत्ति में दमनात्मक होता है। वो सिर्फ़ किसी शहर, किसी नगर की किसी इमारत, किसी सड़क, किसी गली की शक्ल-ओ- सूरत व नाम ही नहीं, उसके अस्तित्त्व व इससे जुड़ी स्मृतियों को नष्ट करते चलता है। न्यू इंडिया कुछ इसी तरह बना या बनाया जा रहा है। न्यू इंडिया नया बनने का नहीं बल्कि जो पुराना है जो समृद्ध है, जो वैविध्य है, स्मृतियां जो अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा हैं, जो संस्कृतियों का इतिहासबोध है, उसे ध्वस्त कर मटियामेट करने की प्रक्रिया है। कवि राकेश रेणु इस विध्वंस की हिंसक प्रक्रिया को अपने नये कविता संग्रह की विषयवस्तु बनाते हैं।
“घटोत्कच अमर होना चाहता था
वह नया इतिहास रचना चाहता था नये मगध में
नवीन स्थापत्य, नई नृत्यकलाएँ-मूर्तिशिल्प
नवीन मूल्य जीवन, समाज, मनुष्यता के।
वह आदि धर्म की बात करता
और लम्बी कूद के साथ वर्तमान में आ जाता
मध्ययुग नहीं था उसके इतिहास में,लोक नहीं
उसके अवशेष मिटा देना चाहता था वह”
नये मगध के निर्माण में सिर्फ़ पुराने ढाँचे ही नहीं टूटे सामाजिक सांप्रदायिक सौहार्द्र का ताना-बाना भी टूटकर बिखर गया। साथ ही सत्ता का संकोच टूट गया, अब वह ज़्यादा अश्लील, ज़्यादा क्रूर होकर हत्या, हिंसा और विध्वंस के पक्ष में बेशर्म दलीलें देने लगा।
“स्मृति तेज़ थी राजन की
कहा- लाखों मरते हैं लोग हर बरस, हाँ लाखों
नानाविध, नाना रोगों से
इसमें नया क्या है पूछा राजन ने धिक्कार कर।”
फ़ासीवाद एक संस्कृति का प्रतिपादन और उसका प्रचार प्रसार करती है। जिसमें सारतः एक पिछड़ापन और अपरिपक्वता निहित होती है। उसकी प्रकृति पितृसत्तावादी और सर्वसत्तावादी होती है। उसमें नकरात्मकता और निषेध पर अधिक बल है। सकरात्मकता और सृजनशीलता उसके लिये मानो विजातीय हों। फ़ासीवाद सर्जकों नहीं विध्वंसकों की ही लामबंदी कर पाता है। फ़ासीवाद में श्रेष्ठता पर इतना बल होता है कि सामान्यता उसे हेय लगती है। फ़ासीवाद की हिंसक प्रवृत्तियों को राकेश रेणु काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं –
“ उसे भाते न थे दास और पीड़ित चेहरे धरती के
दूर रखना चाहता था उन्हें अपने दृष्टिपथ से
केवल सुख होगा और सुखियारे राजधानी में
वह ऊंची दीवारों के पीछे चुनवा देना चाहता था
दुख और दुखियारे, सारी कालिमाएँ
श्रम से पिघली – सँवलाई शक्लें ”
अपनी संस्कृति, अपने संप्रदाय, अपनी भाषा, नस्ल और लिंग के प्रति श्रेष्ठता का दर्प और दूसरे संप्रदाय, नस्ल, भाषा और पहनावे के प्रति घृणा, असहिष्णुता व हिंसक भाव भंगिमा व क्रियाकलाप फ़ासीवादी प्रवृत्ति है। ‘सभ्यता कथा’ शीर्षक कविता में कवि श्रेष्ठतावादी प्रवृत्तियों की शिनाख्त करता है।
“ श्रेष्ठता के पैमाने तय किए हमने-
किसी की औरत हथिया ले
या खेत या खनिज
या गाँव या रियासत
वह श्रेष्ठ।
किसी के घर में घुस जाए
आबादी या देश में
मार-काट करे, लूटमार, बलात्कार
वह श्रेष्ठ
अपनी चौहद्दी का जितना विस्तार करे वह उतना ही श्रेष्ठ।”
कई बार एक काल विशेष, एक नस्ल विशेष, एक क़ौम विशेष, एक रंग विशेष, एक पहनावे विशेष के प्रति एक समाज, एक स्टेट असहिष्णु हो जाता है और उसके ख़िलाफ़ अपनी मशीनरी का इस्तेमाल करने लगता है। राकेश रेणु फ़ासीवाद के इन नस्लीय अभियानों को कविता की विषयवस्तु बनाते हुए इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि ये महज अख़बारी ख़बरों की सपाटबयानी न लगे। इसके लिये वो एक अलहदा काव्य-भाषा और संवेदना का विकास करते हैं जो न केवल उन्हें प्रतिक्रियावादी होने से बचाती है, बल्कि कविता को शोर में तब्दील होने से भी।
“हत्यारे पकड़ लेंगे राहगीर को चोर चोर कहकर
पुलिस हत्यारों को शाबाशी देगी फोटो खिंचवाएगी
किसी को शक्ल से पहचाना जाएगा किसी को खान-पान से
किसी को दाढ़ी और ख़तने से
बपतिस्मा से पहचाने जाएँगे कई
कपड़ों के रंग से पहचाने जाएँगे
उन्हें घुसपैठिया और हत्यारा कहा जाएगा।”
अमूमन तानाशाही के रूपक के तौर पर हिटलर और मुसोलिनी का नाम आता है। राकेश रेणु इससे बचते हैं और तानाशाही के रूपक को भारतीय परम्परा में खोजते हुए वो घटोत्कच गुप्त तक पहुँचते हैं। घटोत्कच गुप्त राजवंश का सामंत राजा था जिसने ब्राह्मण धर्म की रक्षा के लिये शक मल्लो की हत्या कर दी।
अचानक एक गौण किरदार प्रमुख हुआ
गुप्तवंश का
नफ़रत की धारदार बर्छी और मुखौटे लिए
उसने राजप्रसाद में प्रवेश किया
हिन्दी साहित्य में राजनीतिक कविताओं की एक समृद्ध परम्परा रही है। मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, सुदामा पांडेय धूमिल, राजकमल चौधरी आदि ने हिन्दी कविता में राजनीतिक चेतना के बीज बोये। जिसे अब राकेश रेणु जैसे युवा कवि समृद्ध कर रहे हैं। 60-70 के दशक में राजनीतिक संकट अलग तरह के थे, आज के राजनीतिक संकट अलग तरह के हैं। दुनिया के एकध्रुवीय होने के बाद पूंजीवाद और राजनीति के गठजोड़ से क्रोनी कैपिटलिज्म का जन्म हुआ। नये मगध में क्रोनी कैपिटलिज्म है। जनकल्याणकारी नीतियों को त्याग सरकारी कल कारखानों को नीलाम करते हुए जहाँ शासक कहता है कि सरकार बिजनेस करने के लिये नहीं है वहाँ कोई मूल्य, कोई वस्तुवत्ता कैसे बचेगी। अब सब कुछ नीलाम होने को अभिशप्त है। पूँजीपति राष्ट्र हो गया। देश की सारी सम्पत्ति उसके चरणों में रख दी गई। क्रोनीकैपिटलिज्म व्यवस्था से संचालित नये मगध का सूरत-ए-हाल कवि ने कुछ यूँ बयां का है-
खिलाड़ी नीलाम हुये पंचतारा होटल में
लेबर चौक पर बिके मज़दूर-कारीगर हर फ़न के।
वकील बिके ठीक न्यायालय परिसर में
अवमानना है कहना कि माननीय न्यायाधीश बिके
औरतें बिकी सरेराह ,सरे बाज़ार
डॉक्टर बिके ,बिके चार्टर्ड एकाउंटेंट
सितारे हिन्द बाबुओं का बिकना आम रहा हमेशा
अगुआ नेताओं की कौन कहे
ये बिके पहले एक-एक, फिर थोक-थोक खुदरा क़ीमत पर
जिस मगध को श्रीकांत वर्मा ने अपने समय में खो दिया था, उस मगध के खंडहर पर जो नया मगध राकेश रेणु को मिला है वह नया मगध जन का नहीं है। नये मगध में बनाई हुई जनता है, बिना दिमाग, बिना विचार, बिना रीढ़ वाली हिंसक व रक्तपिपासु। अब नये मगध में दो तरह के लोग हैं। एक वो जो सत्ता में भागीदार हैं। जिन्हें घृणा आधारित षडयंत्रपूर्ण राजनीति ने सामूहिक विवेक हर कर मनोरोगी बना दिया है। उनके लिए नये मगध में संरक्षण है, पद है, पुरस्कार है।
काली कमाई कराने वालों को
सुरक्षित विदेश में रहने की सुविधा
वज़ीरों –दरबारियों के भेदिये का एनकाउंटर
गौरक्षकों के लिए मानवाधिकार आयोग में आसन
लिचिंग करने वालों को सैन्य बल की कमान
प्रवचनकर्ताओं को प्राचार्य पद से कम नहीं
धर्माधिकारियों के लिए उपकुलपति का पद सुरक्षित
उपरोक्त कविता को पढ़ते हुये बरबस धूमिल की कविता ‘पटकथा’ याद आती है जिसकी कुछ पंक्तियां यहाँ मौजूं हैं-
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतो और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
श्रम विरोधी, श्रमिक विरोधी, जन विरोधी ब्राह्मणवादी व्यवस्था वाले नये मगध में दूसरे तरह के लोग वो हैं जो अपने श्रम कौशल से हर जगह हैं पर खुद कहीं नहीं हैं। न सरकारी योजनाओं में, न व्यवस्था की कागजी कार्रवाईयों में। ऐसा भी नहीं है कि सत्ता को उनकी भनक नहीं है। सत्ता को सब पता है।
घटोत्कच जानता था
घर नहीं,चौखट नहीं,
एक तिहाई आबादी के पास
फिर भी नये मगध में सर्वहारा लोगों के लिए विस्थापन, निर्वासन, उत्पीड़न, दमन, विध्वंस है। इनके लिए शहर में चारदीवारी, बड़ी जेलें और यातना कैम्प बन रहे हैं। यातना कैम्प वाले इस नये मगध में तन्त्र का हाल कुछ यूं है कि-
क़ानून ने पहन रखे थे मुखौटे
धर्म और जात के मुखौटे सबसे सुर्ख़ सबसे चमकदार
प्रेम का मुखौटा नफ़रत की बात करता
शांति का मुखौटा सबसे हिस्त्र नज़र आता
‘नये मगध में’ शीर्षक से कुल 15 कवितायें हैं इस संग्रह में। इसके ठीक बाद की कविता फ़ासीवादी समय में उम्मीद की कविता है। ‘लौट आऊँगा’ शीर्षक कविता में कवि नये मगध के जन को आश्वासन देता है-
लौटूंगा जैसे लौटती है सुबह रात के बाद
जैसे लौटता है लोकतंत्र लंबी तानाशाही के बाद
जैसे लौट आता है जीवन
लोकतंत्र के लिए लड़ाई में मारे जाने के बाद
नये मगध में सिर्फ़ जन ही पीड़ित, प्रताड़ित नहीं है। नदियों का हाल जन से भी बदतर है। ‘दिल्ली में यमुना’ शीर्षक एक कविता में कवि युमना की पीड़ा को अभिव्यक्ति देता है-
वो अपने दिन गिन रही है
उसका शरीर निस्तेज
और काला पड़ गया है
उसके मुँह से ढेर सारा झाग निकल रहा है
बेघरों के इस देश में देश की सबसे बड़े पूंजीपति का एक घर है जिसे नाम दिया गया है एंटालिया। ‘घर’ शीर्षक कविता में बराबरी और समानता की पैरवी करने वाला कवि इस गैरबराबरी पर कहता है-
“यह जो मकान है पक्का और आलीशान
चुनौती है बेघरों के लिए
उन्हें उठता देख ऊँचा और ऊँचा
अपने को छोटा और बौना महसूस करते हैं
बेघर और छोटे घर वाले लोग।”
दुनिया के सभी धर्म अपने द्वारा स्वीकृत नैतिक संहिता और सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाए रखने में पितृसत्तात्मक हैं। सभी कट्टरपंथी ताक़तें बहाली के विशिष्ट एजेंडे की घोषणा करती हैं। महिलाओं के जीवन में परिवार और घर की केंद्रीयता और उनकी कामुकता पर नियंत्रण। यौन हिंसा, सामूहिक यौन दमन, लव-जेहाद जैसा प्रोपेगैंडा आदि खड़ाकर लड़कियों को भयभीत करके वापिस दहलीज के भीतर भेजने और उनकी यौनिकता को नियंत्रित करके उन्हें बच्चा जनने की मशीन बनाने की साजिश का हिस्सा है। ‘कुछ और स्त्रियां (दो)’ शीर्षक कविता में पितृसत्ता की वर्चस्ववादी लैंगिक राजनीति की चीरफाड़ करते हुये परम्परा में खड़े होकर कवि वर्तमान की स्त्रियों को संबोधित कर रहा है।
इन्द्र को सत्ता जाने का डर था
अयोध्या को अपनी इज़्ज़त
राज्य के विभाजन की आशंका रही ययाति को
उसे भोग के लिए चाहिए थी स्त्री
बराबरी और हक़ जताने के लिए नहीं
‘हत्या होगी’ कविता गांधी के बहाने हत्या के लिये अभिशप्त नागरिकों को संबोधित है। परिवार नामक संस्था जिसका मुखिया पिता होता हो बच्चे के समाजीकरण में भूमिका अदा करती है। ‘बाबू जी के लिए ’ शीर्षक कविता श्रृंखला पिता को एक इंस्टीट्युशन के तौर पर विन्यस्त करती है।
बाबूजी ने कोई जागीर नहीं छोड़ी
दौलत बटोरने के गुर नहीं सिखाए
बेईमानी नहीं, ईमानदार बने रहना बताया
मनुष्य बनाया, कर्मशील
भगवाकरण के इस काल में जब निज़ाम चाहता है कि हर चीज भगवा रंग की हो। उसने अन्य रंगों के ख़िलाफ़ अघोषित सांप्रदायिक युद्ध छेड़ रखा है। वहाँ कवि कविता के जरिये लाल, नीला, हरा, सफेद, काला आदि रंगों की महत्ता स्थापित करता है। भगवाकरण के विरुद्ध यह एक तरह का प्रतिरोध रचना हुआ। लाल रंग के लिए कवि कहता है-
यह सृजन का रंग है
कोख का माहवारी का रंग
इसी के प्रेम में हुलस कर पुकारा
माँ ने तुम्हारा नाम –लाली!
हरे रंग को आज सांप्रदायिक रंग बना दिया गया है। कवि हरे को सांप्रदायिक जकड़बंदी से मुक्त करवाकर उसे उसकी प्राकृतिकता और मानवीय भावभूमि वापिस लौटाता है।
यह क्लोरोफिल का रंग है
पत्तियाँ तैयार करती हैं भोजन जिससे पेड़ों के लिए
माँ की तरह
और सूरज के प्रेम में हरी हो जाती हैं
यह प्रेम का, वात्सल्य का रंग है
आज़ाद भारत का सबसे बड़ा किसान आन्दोलन एक साल तक चला और तीन केंद्रीय कृषि क़ानूनों के निरस्त होने के साथ ही संपन्न हुआ। जंगल के बाद अब किसान के खेतों पर कार्पोरेट की नज़र है। आदिवासियों के अपराधीकरण के बाद अब किसानों का अपराधीकरण किया जा रहा है। उन्हें संसद में नासमझ, विकास विरोधी और आन्दोलनजीवी कहा जा रहा है। ‘खेत चाहिए’ कविता किसानों और ज़मीन पर कार्पोरेट हमले का भंडाश्राद्ध करती है।
खेत चाहिए, पेप्सिको को खेत चाहिए
आलू उगाएगा पेप्सिको नायाब
सरपट दौड़ती कारों के लिए खेत चाहिए सड़कें और चौंड़ी
सड़कों के लिए खेत चाहिए
हवाई अड्डे बनाने के लिए खेत चाहिए
बुलेट ट्रेन चलाने के लिए खेत चाहिए
संग्रह की आखिरी कविता ‘आत्मकथ्य’ है। यह कविता कवि का आत्मबयान लगती है। वो नैतिक होने की शर्त पर सफलता, श्रेष्ठता, के सारे मानदंड खारिज़ कर देते हैं।
यदि धोखा देना बुद्धिमान होना है
तो बेहतर है, मैं निरा मूर्ख बना रहूँ
यदि झूठ और ठगी ज़रूरी है मनुष्य के लिए
तो क्षमा करें, मैं मनुष्य नहीं हूँ
साठोत्तरी कविता में जिस राजनीतिक चेतना व प्रतिरोध का विकास हुआ है राकेश रेणु आगे बढ़कर उस परंपरा के वाहक बनते हैं। उनकी कविताओं में राजनीतिपरकता और प्रखर होकर आती है। उऩकी काव्य-संवेदना राजनीतिक व समाजिक संवेदना है। राजनीतिक प्रतिरोध उनकी कविताओं का मुख्य स्वर है, इस संग्रह का भी। सात सितंबर से शुरु होकर राष्ट्रपिता के शहादत दिवस पर संपन्न हुई मुख्य प्रतिपक्षी राजनीतिक दल की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान लगभग हर कार्यक्रम में विपक्षी नेता ने कहा कि वो नफ़रत के खिलाफ़ लोगों के दिलों में प्यार भरने के लिए भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि नफ़रत के बाज़ार में मोहब्बत की दुकान खोल रहे हैं। इस राजनीतिक यात्रा से बहुत पहले राकेश रेणु कविता में अपने समय का नारा लिखते हैं –
आज़ाद होना चाहते हो तो प्रेम करो
नफ़रतें मिटाने के लिए प्रेम करो
कोई शक-ओ-शुब्हा नहीं कि देश और समाज के निर्माण में राजनीति महत्वपूर्ण योगदान देती है। नवीनतम ज्ञान और तकनीकि विकास राजनीति में फ़ासीवादी प्रवृत्ति के विकास के लिये वरदान साबित हुआ है। ऐसे में कविता सिर्फ़ जीवन की ही नहीं राजनीति की भी आलोचना है। धूमिल ने कहा है कि युवा लेखन के लिये राजनीतकि समझदारी ज़रूरी है। बिना राजनीतिक समझदारी के आज का लेखन सम्भव नहीं। राकेश रेणु में यह समझ है, उनकी कविताएं अपने समय के राजनीतिक मूल्यों के पतन को बखूबी उकेरती हैं। ये कविताएँ बेबाक राजनीतिक टिप्पणी भर नहीं हैं।
अनुज्ञा बुक्स प्रकाशन हाउस से प्रकाशित कविता संग्रह ‘नये मगध में’ राकेशरेणु का तीसरा कविता संग्रह है। 136 पृष्ठों वाले इस संग्रह में कुल 72 कविताएं संकलित हैं। पेपरबैक संस्करण की क़ीमत है 199 रुपये। संग्रह का कवर ब्लर्ब वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने लिखा है।