तीसरी महिला प्रधानमंत्री के रूप में 10, डाउनिंग स्ट्रीट में कदम रख रहीं लिज़ ट्रस एक बहुत मुश्किल वक्त में ब्रिटेन की कमान सँभालने जा रही हैं. ऐसा लगता है कि जैसे सारी आर्थिक-राजनीतिक मुश्किलें एक साथ टूट पड़ी हैं. अर्थव्यवस्था की हालत डांवाडोल है. मंहगाई की दर 10 फीसदी से ऊपर है. कई अर्थशास्त्रियों के मुताबिक आनेवाले दिनों में 15 फीसदी की अत्यधिक चुभनेवाली और राजनीतिक रूप से ज्वलनशील स्थिति में पहुँच सकती है.
पेट्रोल-गैस की कीमतें आसमान छू रही हैं. इससे लोगों खासकर वर्किंग क्लास का बजट गड़बड़ा गया है. इससे रेल, सफाईकर्मी और दूसरे औद्योगिक मजदूर नाराज़ हैं और महंगाई पर रोक लगाने और वेतन में बढ़ोतरी की मांग को लेकर हड़तालों की बाढ़ आई हुई है. दूसरी ओर, ब्रिटिश अर्थव्यवस्था पर तकलीफदेह और लम्बी चलनेवाली मंदी के बादल मंडरा रहे हैं.
यही नहीं, उनकी कंजर्वेटिव पार्टी अन्दर से विभाजित है. संसद में पिछली बेंचों पर बैठे उनके विरोधी खासकर ऋषि सुनक उनकी नाकामी का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. 12 साल लम्बे शासन के बाद पार्टी की लोकप्रियता ढलान पर है. दो साल बाद 2024 में आम चुनाव होने हैं. विपक्षी लेबर पार्टी अपने लिए बेहतर संभावनाएं देख रही है और सरकार पर हमलावर है.
सवाल यह उठ रहे हैं कि वे अपनी पूर्ववर्ती महिला प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की तरह लोकप्रिय और प्रभावी प्रधानमंत्री साबित होंगी कि दूसरी महिला प्रधानमंत्री थेरेसा मे की गति को प्राप्त होंगी जिन्हें कंजर्वेटिव पार्टी की अंदरूनी लड़ाई, ब्रेक्जिट के प्रावधानों को लेकर संसदीय सहमति बनाने में नाकामी और बढ़ती अलोकप्रियता के कारण सिर्फ तीन साल के अन्दर इस्तीफा देना पड़ा था.
लिज़ ट्रस के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं है. खुद उनकी राजनीतिक लोकप्रियता का हाल यह है कि पब्लिक ओपिनियन सर्वे में 52 फीसदी ब्रिटिश नागरिक मानते हैं कि वे ख़राब या बदतर प्रधानमंत्री साबित होंगी. केवल 12 फीसदी लोग मानते हैं कि ट्रस बेहतरीन या अच्छी प्रधानमंत्री साबित होंगी. साफ़ है कि उनसे लोगों को बहुत कम अपेक्षाएं हैं. यह एक मायने में अच्छा भी है और बुरा भी.
असल में, ट्रस के पास समय और विकल्प बहुत नहीं हैं और न ही उनके पास बोरिस जानसन की तरह नाटकीय या कहें कि मुद्दों से भटकानेवाला व्यक्तित्व और ड्रामा करनेवाली काबिलियत भी नहीं है. उन्हें जल्दी और सख्त फैसले करने होंगे. हालाँकि प्रधानमंत्री पद के लिए कैम्पेनिंग करते हुए उन्होंने नाटकीय अंदाज़ में एलान किया था- वी विल डिलीवर, वी विल डिलीवर, वी विल डिलीवर!
लेकिन यह कहना जितना आसान था, उसे पूरा करना उतना ही मुश्किल है. ट्रस ने कैम्पेनिंग के दौरान लोगों को महंगाई और खासकर उर्जा (पेट्रोल-गैस) की कीमतों से राहत देने के लिए कई वायदे किए हैं. मांग उर्जा की कीमतों को फ्रीज करने की हो रही है. उनका कट्टर कंजर्वेटिव आधार टैक्स में कटौती की उम्मीद कर रहा है. कैम्पेनिंग के दौरान कहा गया कि लिज़ ट्रस यानी एल.टी = लेस टैक्स. अपेक्षा यह भी है कि अर्थव्यवस्था को जितनी जल्दी से जल्दी मंदी की छाया से निकाला जा सके, उतना ही बेहतर होगा. लेकिन यह सब होगा कैसे?
मुश्किल यह है कि कंजर्वेटिव पार्टी और खुद ट्रस भी बजट घाटा बढ़ाने के खिलाफ रही है. अपने वायदों के मुताबिक, ट्रस अगर महंगाई और खासकर उर्जा की कीमतों में राहत देने के लिए कीमतें फ्रीज करने, नेशनल इंश्योरेंस टैक्स में बढ़ोतरी को वापस लेने और अपने सामाजिक आधार को खुश करने के लिए टैक्स में कटौती जैसे फैसले करती हैं तो सरकारी बजट पर 100 अरब पाउंड का और बोझ आएगा.
क्या लड़खड़ाती ब्रिटिश अर्थव्यवस्था इस अतिरिक्त और बड़े कर्ज का बोझ उठा पाएगी? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ट्रस के ज्यादातर फैसलों जैसे नेशनल इंश्योरेंस टैक्स और कार्पोरेट टैक्स में कटौती जैसे फैसलों से अमीरों और बड़े कार्पोरेट्स को फायदा होगा? क्या ट्रस इन मुद्दों पर खुद कंजर्वेटिव पार्टी के अन्दर सहमति बना पाएंगी? क्या उनके फैसले वर्किंग क्लास खासकर हड़ताल पर आमादा औद्योगिक मजदूरों को मना पायेंगे?
ट्रस के बारे में कहा जाता है कि वे राजनीतिक-वैचारिक यू-टर्न लेने में माहिर हैं. इस नाते माना जाता है कि वे एक व्यावहारिक और अवसरवादी राजनेता हैं. यूनिवर्सिटी के दिनों में वे मध्यमार्गी राजनीति खासकर लिबरल डेमोक्रेट्स खेमे में सक्रिय थीं. लेकिन बाद में कंजर्वेटिव पार्टी में शामिल हो गईं. इसी तरह कंजर्वेटिव पार्टी के अन्दर ब्रेक्जिट पर हुए जनमतसंग्रह में वे ब्रिटेन के यूरोप के साथ रहने यानी रिमेन कैम्प के साथ थीं लेकिन नतीजों के बाद ब्रेक्जिट की हार्डलाइनर पक्षधर बन गईं.
ऐसे ही बोरिस जानसन के खिलाफ पार्टी में हुए विद्रोह खासकर कैबिनेट मंत्रियों के इस्तीफे के दौरान वे ख़ामोशी से तमाशा देखती रहीं और खुद इस्तीफा देने से इनकार कर दिया. लेकिन जब जानसन के इस्तीफे के बाद मौका आया तो प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार बन गईं और जानसन के सहयोग से प्रधानमंत्री भी बन गईं.
लेकिन अब उनके पास यू-टर्न के ज्यादा मौके नहीं हैं. लोग नाराज़ हैं. कंजर्वेटिव पार्टी में बेचैनी है. इन्हीं हालातों में उन्हें वायदे के मुताबिक, अब जल्दी डिलीवर करना है. पहले पंद्रह दिनों से एक महीने के अन्दर यह तय हो जाएगा कि वे थैचर बनने की राह पर हैं या थेरेसा मे ?
उन्हें मालूम है कि पिछले छह साल में वह तीसरी कंजर्वेटिव प्रधानमंत्री होंगी जिसे सीधा जनादेश नहीं मिला है. उनसे पहले के दोनों प्रधानमंत्रियों ने मध्यावधि चुनाव कराए थे. पहली बार आम चुनाव- 2017 (थेरेसा मे के नेतृत्व में) और 2019 (बोरिस जानसन की अगुवाई में) हुए लेकिन ट्रस यह जोखिम भी नहीं ले सकती हैं. उन्हें मालूम है कि हवा कंजर्वेटिव पार्टी के खिलाफ बह रही है.
ट्रस को लहरों के खिलाफ तैरना है. इसमें यू-टर्न की गुंजाइश नहीं है. उनकी चुनौतियाँ इसलिए भी आसान नहीं हैं क्योंकि कई पर खुद उनका भी कोई वश नहीं है. उन्हें बोरिस जानसन की तरह गलतियों के बावजूद मौके नहीं मिलनेवाले हैं. कंजर्वेटिव बैक-बेंचों पर उनकी नाकामी का कई दावेदार इंतज़ार कर रहे हैं.