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साहित्य-संस्कृति

हिंदी के लोकप्रिय साहित्य का इतिहास

लोकप्रियता को केवल आधार बनाया जाय और विधा में कथा साहित्य के अलावा काव्य को भी शामिल किया जाय तो हिंदी के लोकप्रिय साहित्य का इतिहास हिंदी के मध्यकालीन संत कवियों की कविताओं तक जायेगा.

क्योंकि समाज में इनकी कविताओं की जो लोकप्रियता है वह तो भाषा की दीवार को भी तोड़ देती है. ऐसा न होता तो रैदास जैसे कवि की कविताएँ पंजाब, राजस्थान और उत्तर भारत के अनेक हिस्सों में कैसे पहुँच जातीं. क्या यह उनकी कविताओं की लोकप्रियता ही नहीं है जिसके कारण उनके पद गुरु ग्रंह साहब में संकलित हैं.  लेकिन आधुनिक लोकप्रिय साहित्य के जो अभिलक्षण हैं उनके आधार पर मध्यकालीन संत कवियों की कविताओं को लोकप्रिय साहित्य में शामिल नहीं किया जा सकता. क्योंकि इन संतों की कविताओं के लोकमानस में प्रसार की कोई सुनियोजित प्रविधि नहीं है बल्कि कविताओं में मानवीय और नैतिक मूल्य ही लोगों को आकर्षित करते हैं.

इन कविताओं में जीवन अनुभव के निष्कर्षों के आधार पर भावी जीवन की परिकल्पना है. ये कविताएँ आध्यात्मिक मुक्ति की तलाश की शक्ल में नए मनुष्य को गढ़ने की प्रेरणा से युक्त हैं. वहां कोई न प्रेस है, न प्रकाशक है जिसको मुनाफा कमाना है. वहां कोई विक्रेता भी नहीं है. इसलिए कविता का प्रसार जनसंवाद के माध्यम से ही होता है.

ये कविताएँ विशिष्ट और वैकल्पिक लोकवृत्त का निर्माण करती हैं. यही लोकवृत्त उनकी लोकप्रियता का आधार बनता है. लोकप्रिय साहित्य की जो प्रमुख विशेषता कथा शैली है उसमें विषय वस्तु का प्रस्तुतीकरण महत्त्वपूर्ण है, उसके प्रकाशन और प्रसार के माध्यम से कथावस्तु की निरंतर वृद्धि एक जरुरी चीज मानी जाती है.

इसलिए हिंदी का मध्यकालीन काव्य साहित्य अपार लोकप्रियता के बाद भी लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है.

अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी में लोकप्रिय साहित्य का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में उपन्यास के जन्म के साथ ही होता है.

आरंभिक हिंदी उपन्यासों की लोकप्रियता हमे इसके कारणों की तलाश करने पर विवश करती है.

चंद्रकांता उपन्यास की लोकप्रियता के प्रमुख कारण : देवकी नंदन खत्री का उपन्यास चंद्रकांता हिंदी के आरंभिक उपन्यासों में से एक है. इसके लेखन की शुरुआत 1880 में हुई थी . यह 1888 में प्रकाशित हुआ.

यह उपन्यास रहस्य और रोमांच से भरपूर था. संभवतः हिंदी उपन्यास में यह तकनीकी पहली बार इस्तेमाल की जा रही थी.

देवकी नंदनखत्री हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे. चंद्रकांता की लोकप्रियता का आलम यह था कि इसको पढने के लिये गैर हिंदी भाषी लोगों ने हिंदी सीखा और इस उपन्यास को पढ़ा . आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में इसकी लोकप्रियता की चर्चा की है. उन्होंने लिखा,

“ हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में चंद्रकांता का बहुत योगदान रहा है. इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया. इस किताब का रसास्वादन करने के लिए कई गैर-हिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी. बाबू देवकीनंदन खत्री ने ‘तिलिस्म’, ‘ऐयार’ और ऐयारी’ जैसे शब्दों को हिंदी भाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया. जितने हिंदी पाठक उन्होंने उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं.”[1]

चंद्रकांता की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण उसकी सरल हिंदी भी कही जाती है.

देवकीनंदन खत्री संस्कृत फारसी और उर्दू के भी जानकार थे, वे उर्दू में भी लिख सकते थे लेकिन उन्होंने इस उपन्यास को हिंदी में  लिखना उचित समझा. वह भी ऐसी हिंदी में जो आम-फहम हो. आलोचकों का अनुमान है कि शायद संस्कृतनिष्ठ हिंदी में न लिखने के कारण ही उनको मानक साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा गया. आम-फहम हिंदी के कारण ही उनको भाषा के मामले में प्रेमचंद की पूर्ववर्ती परंपरा का लेखक माना जाता है.

इस उपन्यास की हिंदी की सरलता के बारे में यहाँ तक कहा गया कि इसको कोई कक्षा पांचवीं का विद्यार्थी भी आसानी से पढ़ सकता है.

इस तरह इस उपन्यास की लोकप्रियता का एक बड़ा आधार इसकी आसान भाषा भी है. इसकी विषय वस्तु में रहस्य और रोमांच का निवेश भी इसकी लोकप्रियता का बड़ा आधार है. तलिस्म का प्रयोग भी पाठकों की उत्सुकता को जगाये और बनाये रखने के लिए किया गया. तिलिस्म शब्द मूलतः अरबी का शब्द है जिसका अर्थ होता है-

“माया, इंद्रजाल, जादू दृष्टिबंध, वह मायारचित विचित्र स्थान जहाँ अत्यंत अजीबो-गरीब व्यक्ति और चीजें दिखाई पड़े और जहाँ जाकर आदमी खो जाय फिर उसे घर पहुँचने का रास्ता न मिले.”[2]

इस उपन्यास में इस तिलिस्म की शैली का खूब बढ़िया से इस्तेमाल किया गया है. यह किसी भी कथा को रोचकता प्रदान करने के लिए पर्याप्त है. उपन्यास में नाजिम नाम का एक ऐयार है जो चंद्रकांता के बाग में चंपा का वेश धारण करके आया हुआ है. लेकिन चंद्रकांता की ऐयारा चपला की चपलता के कारण जल्द ही पकड़ लिया जाता है और यह भेद खुल जाता है कि वास्तव में वह चप्मा के वेश में नाजिम ही है.

“उसने बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकालकर जलाई. एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बांधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुंघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आ कर अपने को कैद और बेबस देखा. चपला कोड़ा ले कर खड़ी हो गयी और मारना शुरू किया.”[3]

इस उद्धरण से यह तो स्पष्ट है कि इस उपन्यास की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह तिलिस्म शैली है जहाँ एक-एक गतिविधि से पाठक का मन जुड़ जाता है. यह शैली अजनबियत और चमत्कार का भाव पैदा करती है.

वैसे भी भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा अपने सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में इसी तरह सोचता और विश्वास करता है. वह तो भूत और पिशाच के कारनामों में यकीन करता रहा है. इसमें यह फर्क करना औचित्यपूर्ण नहीं है कि इस तरह की चीजों पर विश्वास करने वाला वर्ग पढ़ा लिखा है या नहीं.

वैसे यह तो स्पष्ट ही है कि उस समय सात प्रतिशत भारतीय ही साक्षर थे, उन्हीं लोगों में से ही इस उपन्यास का पाठक वर्ग था. देवकीनंदन खत्री भारतवासियों को उनके विश्वास को ही एक नयी शैली में लौटा रहे थे.

एक तरह से भारतीयों के अवचेतन मन को भा जाने वाली शैली का प्रयोग ही उनकी लोकप्रियता का प्रधान कारण था. सभवतः इसी तरह की विषयवस्तु और शैली के कारण सेक्सपियर के नाटक भी अपने ज़माने में खूब लोकप्रिय हुए.

सुनील कुमार साव ने चंद्रकांता संतति की समस्याएँ शीर्षक से एक लेख लिखा है जिसमे उन्होंने इस बात की पड़ताल की है कि इसकी लोकप्रियता का मुख्य कारण क्या है. उन्होंने अपने शोध लेख में कई समस्याओं को चिन्हींत किया है. इसी प्रक्रिया में उन्होंने यह भी बताया है कि चंद्रकांता ने पाठकीय अभिरुचियों का विकास किया .

ये ही अभिरुचियाँ आगे चलकर प्रेमचंद, जैनेन्द्र, यशपाल और अज्ञेय जैसे लेखकों के लिए पाठक समुदाय का निर्माण करती हैं. भारत में कम साक्षरता दर के कारण पाठकों की बड़ी संख्या नहीं हो सकती थी.

यहाँ तक कि उस समय प्रकाशित होने वाले पत्रों तक के प्रकाशन संख्या बेहद कम थी. लेकिन

“14 वर्षों के अंतराल में चंद्रकांता की छह संसकरणों का प्रकाशन हुआ और वह भी लगभग 4000 प्रति प्रत्येक संस्करण के हिसाब से”[4]

सुनील का मानना है कि देवकीनंदन खत्री ने अपने उपन्यासों में अपने समय के वैज्ञानिक आविष्कारों का खूब प्रयोग किया है.

“देवकीनंदन खत्री ने अपने समय के अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों को तिलिस्म से जोड़ दिया था. फलस्वरूप उनका तिलिस्मी वर्णन सामाजिक यथार्थ की तरफ मुड़ जाता है.”[5]

इस उद्धरण से सुनील यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि चंद्रकांता केवल मनोरंजन के लिए लिखी गयी एक खयाली दुनिया की रचना नहीं है बल्कि इसमें सामाजिक यथार्थ की अनुगूंजें सुनी जा सकती हैं. हिंदी दुनिया के एक मूर्धन्य आलोचक और साहित्यकार राजेंद्र यादव ने ‘दयनीय महानता की दास्तान : चंद्रकांता संतति’ शीर्षक से एक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा.

इस लेख में उन्होंने अपने समय की खूब पढ़ी जाने वाली रचनाओं के सामाजिक उद्देश्यों की ओर संकेत किया है. उन्होंने आनंदमठ से लेकर देवदास के सामाजिक उद्देश्यों की ओर इशारा किया है. उनका मानना है कि ऐसी रचनाएँ मनुष्य समाज के आतंरिक उथल-पुथल को व्यक्त करती हैं. अपने तरीके से समाज को दिशा देती हैं.

ऐसी एक रचना ‘दास्तान-ए-अमीर-हमजा’ की लोकप्रियता के समाजशास्त्रीय पहलू पर विस्तार से चर्चा की है. इसलिए चंद्रकांता की कथावस्तु कोई न कोई सामाजिक सन्देश तो देती ही है.

चंद्रकांता की कथा आम जन-जीवन की कथा नहीं है. वह राज घराने की ही कथा है. यह एक प्रेमकथा है.

सामंतवाद की ऐसी कथा जहाँ प्रेम सामंती घरानों के बीच की दुश्मनी की दीवारों को पार कर जाता है. तमाम विरोधों और षड्यंत्रों के बाद यह प्रेम कथा अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है.

सन्दर्भ-

[1]  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास

[2] Rekhtadictionary.com

[3] चंद्रकांता : देवकीनंदन खत्री

[4] Sunilvijsy.blogspot.com

[5] Sunilvijsy.blogspot.com

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