पटना। भाकपा माले के महाधिवेशन में देश के विभिन्न राज्यों और विभिन्न भाषाओं में सृजित प्रतिरोधी साहित्य-संस्कृति-कला की झलक देखने को मिली।
महाधिवेशन में पश्चिम बंगाल, असम, कार्बी आब्लॉग, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान आदि राज्यों की सांस्कृतिक टीमों, जनगायकों और कलाकारों ने गायन और नृत्य की प्रस्तुतियाँ कीं. इनमें सामूहिक सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ अधिक थीं।
सांस्कृतिक प्रस्तुतियों की शुरुआत शहीद गीत से हुई. महाधिवेशन में गाये गये जनगीतों में दमन और हत्याओं के प्रतिरोध की अदम्य भावना की अभिव्यक्ति हुई. पश्चिम बंगाल के संस्कृतिकर्मियों ने शोषक- उत्पीड़क और जालिम सत्ता को संबोधित अपने सामूहिक गान में स्पष्ट रूप से कहा कि तुम चाहे जितना भी हमला करो, जितने लोगों को मारो, हम नहीं मरेंगे, हम फिर से जी उठेंगे.
पश्चिम बंगाल के कलाकारों ने नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान चर्चित गीत ‘मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि’ पर आधारित सामूहिक नृत्य के माध्यम से भाकपा (माले) के 11 वें महाधिवेशन के केंद्रीय स्लोगन ‘ लोकतंत्र बचाओ, देश बचाओ’ की भावना को अभिव्यक्ति दी.
सांस्कृतिक प्रस्तुतियों में इस दौर में चल रहे विभिन्न प्रकार के संघर्षों को भी मुखर किया गया. झारखंड की प्रीति भास्कर ने महिला आजादी से संबंधित आकांक्षा और संघर्ष को अपने नृत्य के जरिए मूर्त किया. झारखंड के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सामूहिक नृत्य में जल, जंगल, जमीन के लिए चल रहे संघर्ष को तेज करने का आह्वान था. असम के प्रतिनिधियों ने चाय बगान में उचित मजदूरी के लिए हो रहे संघर्ष से संबंधित गीत सुनाये.
क्रांतिकारी वामपंथी धारा के प्रमुख कवि गोरख पांडेय की क्रांतिकारी सांस्कृतिक भूमिका को ‘ जाग मेरे मन मछंदर ‘गीत के माध्यम से याद किया गया और पूंजी के साम्राज्य के विरुद्ध सचेत संघर्ष का आह्वान किया गया. इस गीत को हिरावल के संतोष झा और डी. पी. सोनी ने सुनाया.
माले के महाधिवेशन में प्रतिरोध की जो सांस्कृतिक आवाजें गूंजी, उनमें यह स्पष्ट संदेश था कि क्रांतिकारी वामपंथी जनराजनीति और जनसंस्कृति की जो धाराएँ हैं, उनका प्रवाह जारी रहेगा. जसम, बिहार के कलाकारों ने ऐलान किया- दबने वाले है दमन हे तेरे.
महाधिवेशन के दौरान फासीवाद के खिलाफ विपक्षी पार्टियों की एकता के उद्देश्य से हुए कन्वेंशन के आरंभ में मशहूर इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज की नज्म ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ में भी ऐसी ही भावना का इजहार हुआ.
महाधिवेशन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका भी साहित्य-संस्कृति और राजनीति के अटूट रिश्ते की बानगी है. इसका एक विशेष खंड बिहार के साहित्यकार- संस्कृतिकर्मियों पर केंद्रित है, जो सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन और क्रांति में साहित्यिक-सांस्कृतिक कर्म की महत्वपूर्ण भूमिका के प्रति भाकपा (माले) की वैचारिक समझ को स्पष्ट करता है.