समकालीन जनमत
शख्सियत

कामरेड ज़िया-उल-हक़ : एक शताब्दी का शिला लेख

( 28 सितम्बर 1920 को इलाहाबाद के जमींदार मुस्लिम परिवार में पैदा हुए ज़िया –उल-हक़ ने अपने जीवन के सौ साल पूरे कर लिए हैं. नौजवानी में ही समाजवाद से प्रभावित हुए ज़िया साहब अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और बकायदा पार्टी के दफ़्तर 17 जानसेन गंज, इलाहाबाद में एक समर्पित होलटाइमर की तरह रहने लग गए. 1943 में बंगाल के अकाल के समय जब महाकवि निराला कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित राहत अभियान में अपना सहयोग देने पार्टी दफ़्तर पहुंचे उस समय जि़या भाई ही पार्टी के जिला सचिव थे और निराला जी ने अपनी दस रूपये की सहयोग राशि उन्हें सौंपी.

अपने जीवन का एक हिस्सा ज़िया साहब ने पत्रकार के रूप में भी निभाया और दिल्ली रहे. इस रोल में भी वे बहुत कामयाब रहे. हो ची मिन्ह जैसी दुनिया की नामचीन हस्तियों के साथ इंटरव्यू करने का मौका भी उन्हें मिला. साठ के दशक से वे अपनी पार्टनर और शहर की मशहूर डाक्टर रेहाना बशीर के साथ इलाहाबाद में पूरी तरह बस गए. पिछली आधी शताब्दी से ज़िया साहब इलाहाबाद के वामपंथी और लोकतांत्रिक स्पेस की धुरी बने हुए हैं. अपने दोस्ताना व्यवहार के कारण वे जल्द ही सबके बीच ज़िया भाई के नाम से जाने गए. आज उनके सौवें जन्मदिन के मुबारक़ मौके पर समकालीन जनमत उन्हें बहुत मुबारक़बाद पेश करता है और उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए दुआ करता है.

इस मुबारक़ मौके पर हम ज़िया भाई के चाहने वाले तमाम युवा और बुजुर्ग साथियों के संस्मरण पेश कर रहे हैं जिन्हें उपलब्ध करवाने के लिए उनके बेटे और छायाकार सोहेल अकबर का बहुत आभार.

इस कड़ी में पेश है कमल कृष्ण राय  का लेख. सं. )

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100 साल किसी मुल्क के इतिहास में बहुत अहम घटनाओं को समेटे रहता है जिसमें पिछले कई सौ साल की घटनाओं की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। इसीलिए माओ-त्से-तुंग ने येनान में छात्रों से बात करते हुए कहा था कि सबको अपने-अपने देश के कम से कम पिछले सौ साल के इतिहास का गंभीर अध्ययन करना चाहिए।

और अगर किसी शख्स ने सौ साल जीवन जिया हो, बेलौस और जिंदादिली से, तो उसके सौ साल की जिंदगी में उतने ही समय के समाज/ राजनीति/ संस्कृति को भी उनके जीवन के दर्पण में देखा जा सकता है।

अगर मान लिया जाय कि ज़िया भाई का जन्म 1917 या 1919 के बीच हुआ है तो शुरूआती जीवन के 30 साल उनके ब्रिटिश राज में गुजरे और उसके बाद के अनवरत तीस साल कांग्रेस की हुकूमत में।

वे आजीवन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) से व उसके संगठनों से जुड़े रहे। जब पार्टी अविभाजित थी और तब भी जब विभाजित हो गई। सीपीआई (एम) बना और आगे भी विभाजन हुआ।

ज़िया भाई इलाहाबाद से हैं। एक संपन्न जमींदार परिवार में जन्म लिए और यूनिवर्सिटी तक पढ़ाई की। यह वह दौर था जब संपन्न परिवारों से इंग्लैंड, योरप गए और भारत की यूनिवर्सिटियों में पढ़ रहे है युवाओं में कम्युनिस्ट होने की ललक बहुत तेजी से बढ़ रही थी। 1925 में सीपीआई का बकायदा गठन हो चुका था। 1936 में लखनऊ में पीडब्लूए और एआईएसएफ बन गया है। ज़िया भाई का वह तरुणाई का समय था। सज्जाद जहीर इसी शहर इलाहाबाद से थे। जेड. ए. अहमद आकर इलाहाबाद में जमे हुए थे। मुजफ्फर हसन का यहाँ लगातार आना-जाना था। उनके युवा मन पर इन सब का क्या प्रभाव पड़ा होगा इसका अंदाजा हम उनके प्रारंभिक अवस्था से ही उनके सचेतन मन मस्तिष्क से अंदाज कर सकते हैं।

( 195 3 में  अपने वालिद सैयद ज़मीरुल हक़ के साथ विभाजन के बाद पहली बार कराची में मुलाक़ात के वक़्त , फ़ोटो क्रेडिट : ज़िया भाई का निजी संग्रह )

एक बार चर्चा कर रहे थे कि वे तब जी.आई.सी. में पढ़ रहे थे। 27 फरवरी 1931। उनके कालेज में सुगबुगाहट फैली कि कंपनी बाग में कोई क्रांतिकारी अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गया है। उन्होंने और छात्रों ने जिद ठान ली कि वे शहीद का दर्शन करने जाएंगे। प्रिंसिपल तैयार नहीं था पर स्वदेशी आंदोलन से जुड़े एक अध्यापक उन विद्यार्थियों को लेकर चले। आगे बढ़े तो गवर्मेन्ट हाउस (आज के मेडिकल कालेज) के सामने पुलिस की कतार खड़ी थी। उसने जुलूस को आगे जाने नहीं दिया। शाम होते-होते पता चल गया कि कंपनीबाग में चंद्रशेखर आज़ाद शहीद हुए थे। बमुश्किल हाई स्कूल में पढ़ रहे किशोर को एक क्रांतिकारी की शहादत सड़क पर खींच लाई थी। वह भीतर की चिंगारी थी जो बाहर के भीषण उथल पुथल से तालमेल कर रही थी।

( राजकीय इंटर कालेज , इलाहाबाद के छात्र . खड़े हुए बीच की कतार में बायें से सातवें टोपी और चश्मा पहने हुए. फ़ोटो क्रेडिट : ज़िया भाई का निजी संग्रह )

 

जब ज़िया भाई का जन्म हुआ। वह दशक प्रदेश में और बाहर कई तरक्की पसंद लोगों के जन्म का दशक रहा। अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, रजिया सज्जाद जहीर, मखदूम के भी जन्म का दशक रहा है। यह कहना इसलिए लाजमी है कि आगे चलकर इन सबके किशोर मन को, युवावस्था को एक साथ देश में चल रहे आजादी का संघर्ष, मजदूर-किसान की जद्दोजहद ने अपने आगोश में ले लिया था ।

आजादी की लड़ाई फिर से संगठित हो चली थी। उसी समय खरतनाक कानून रौलेट एक्ट लाया गया जिसकी परिणति जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के रूप में हुई । फिर असहयोग आंदोलन का दौर आया । देश में ट्रेड यूनियनों का निर्माण शुरू हो गया और तभी तब के रेडिकल स्टूडेंट श्रीपाद अमृत डांगे ने एलान किया कि  मैं  अब तिलक का ‘चेला’ नहीं ‘लेनिन’ को मानने वाला हूँ। वे अपने बड़े बुजुर्गों व अपनी याददाश्त के सहारे बता रहे थे। जिया भाई जिंदगी की किताब का वरक पलट रहे थे । नीलाभ जी के साथ सिविल लाइन्स स्थित उनके प्रकाशन में । मैं भी वहाँ बैठा सुन रहा था। उन दिनों नीलाभ जी, प्रोफेसर ललित जोशी  के साथ इलाहाबाद शहर की मैपिंग करना चाह रहे थे और कुछ अजीम शख़्सियतों व शहर के रिश्तों को टटोल रहे थे। ज़िया भाई उन पहलू को छू रहे थे जो उनके  जिंदगी को प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष ढाल रही थी। इलाहाबाद की सेकुलर आबोहवा, उसके तीज – त्योहार – परम्पराएँ और कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियां, सब कुछ एकाकार हो रहा था, उनमें रामदल, शिवकुटी का मेला, मोहर्रम, दधिकान्दो। गवर्नमेंट प्रेस, इंडियन वर्कर्स यूनियन, कुली यूनियन, किसान संघ, इक्का-तांगा, रिक्शा चालक यूनियन, दुकान मजदूर यूनियन, बीड़ी यूनियन के जरिये इलाहाबाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सक्रिय थी और जिया भाई सियासत में अपना हाथ खोल रहे थे। आगे चलकर ग्रामीण अंचल में किसान सभा और शहर से बाहर ‘छिंवकी आर्डिनेंस डिपो’ की यूनियन में भी हलचल थी जिससे उनका वैचारिक, संगठनात्मक जुड़ाव शुरू हो चुका था। अपनी तरुणाई में वे इस शहर के तेज तर्रार वामपंथ के नेताओं से और अन्य शहरों के कामरेडों से सीखते रहे, बहस करते रहे और लोगों को जोड़ते भी रहे। सज्जाद जहीर, कामरेड अशरफ, जेड. ए.  अहमद, रमेश सिन्हा, आर.डी. भारद्वाज, हर्ष देव मालवीय, के अलावा कानपुर से शिव वर्मा, मौलाना संत सिंह यूसुफ, मऊ के जयबहादुर सिंह, गाजीपुर के सरयू पांडे, बनारस के रुस्तम सैटिन, उदल से अपनी प्रेरणा ले रहे थे।

गौरतलब है कि जब कम्युनिस्ट पार्टी में नेहरू और आज़ादी के मोहभंग का राजनैतिक विस्फोट हुआ और महान तेलंगाना उभार की पृष्ठभूमि में शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन हुआ तो कामरेड पीसी जोशी ने इलाहाबाद में एलन गंज में आकर कुछ महीने बिताए। इस दौर में उन्होंने यहां के साहित्यिक, सांस्कृतिक व दर्शन के परिवेश को समाज के द्वंद्वात्मक इतिहास दृष्टि को काफी समृद्ध किया। रघुपति सहाय फिराक, प्रोफेसर एसएस भटनागर, प्रोफेसर भट्टाचार्य, प्रोफेसर संगम लाल पांडे, प्रोफेसर ए.डी. पंत का जमावड़ा वहां रहता था। जिया भाई भी उनमें से एक थे। फिराक साहब की अमर ‘हिंडोला’ नज़्म उन्हीं दिनों की देन है। वामपंथ की रस्सी में जब गांठ पड़ने लगी तो यह काम लोहिया ने यहां संभाला और साही, रघुवंश, प्रो. राकेश चतुर्वेदी, विपिन अग्रवाल, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रामकमल राय के जरिए समाजवादी वैचारिकी की आधारशिला रखी।

ज़िया भाई की सोच और शख्सियत की एक सरहद थी। वे पार्टी की सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकते थे और खुद पार्टी अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय परिस्थितियों के आकलन मूल्यांकन में, देश की राजसत्ता, कांग्रेस, पूंजी के स्वभाव को लेकर ‘भूल चूक लेनी देनी’ की दरार में फंसती जा रही थी। लेकिन हम सबके लिए गौरव की बात है और यह दुर्लभ सच्चाई है कि पूरे 100 साल बीत गए पर कामरेड जिया-उल-हक ने ना तो अपना झंडा बदला, ना अपनी पार्टी बदली। ना वसूल से समझौता किया ना रास्ते से डगमगाए।

बहुत कम लोगों को मालूम है कि पार्टी के आदेश पर कुछ समय जिया भाई ने दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय दफ्तर में सेंट्रल कमेटी के साथ काम किया। वे वहां पर कामरेड रणदिवे, का. राजेश्वर राव, का. पार्वती कृष्णन, का. सुरजीत के साथ बिताए दिनों को याद करते रहे हैं। होली के दिन शीर्ष कामरेडों के रंग खेलने के कौतुहल को वो हँस हँस कर सुनते रहे हैं।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि यूनिवर्सिटी छात्रसंघ का अध्यक्ष रहते जब हमने छात्र संघ की ओर से सोवियत विघटन की चुनौतियों पर राष्ट्रीय गोष्ठी की तो उसका उद्घाटन करने महान नेता ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद आये । अगले दिन भाकपा (माले) के का. बृज बिहारी पांडेजी बोले । समापन भाषण सी पी आई के राष्ट्रीय नेता एम फ़ारूकी को देना था ।  उनके रहने का इन्तजाम सरकिट हाउस में था पर स्टेशन पर उतरकर मोटर  पर बैठते ही बोले,  ‘‘मैं कामरेड ज़ियाउल हक साहब के यहां ठहरूंगा । मुझे एहसास हुआ कि ज़िया भाई में जमीन और  आसमान का कोलाबा मिला देने की ताकत थी। वे तीनों दिन छात्र संघ भवन पर डटे रहे।

करारी (कौशाम्बी) के परवेज रिज़वी बताते हैं कि उनके जज्बे और जोश के आगे नौजवान पानी भरते थे।  हैदराबाद में ‘इस्कस’ का सम्मेलन होना था। शहर में पोस्टर चिपकाने,  परचा बांटने,  चन्दा मांगने में वे हम  सबसे आगे रहते। यहाँ तक की सभी नौजवानों की टीम को साथ लेकर तीसरे दर्जे में ट्रेन से हैदराबाद गये। जुलूस में चले।  नारा  लगाया। भाषण दिया। पैकेट और पत्तल में खाया और साथ लौटे। दरअसल वे इलाहाबाद के राहुल सांस्कृत्यायन हैं। डा. लाल बहादुर वर्मा ने अपनी किताब ‘इतिहास के बारे में’ इटली के विचारक क्रोचे को उद्धृत किया है कि ‘समस्त इतिहास समकालीन इतिहास है’ इसी के बरक्स हम देंखे तो ज़िया भाई का पूरा जीवन ही समकालीन रहा, अपने समय सवालों से मुठभेड़ करता हुआ।

पार्टी के विचलन में भी वे अपना रास्ता ‘अप्पो दीपो तरह दिखे। जब ‘साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चे में मुख्य  धारा की वामपंथी पार्टियां उ.प्र. में मुलायम सिंह यादवजी को अगुवा बनाकर मुहिम चला रही थी जिसके एवज में सी.पी.आई. के कई भारी-भरकम दिग्गज नेता समाजवादी पार्टी में चले गये। कुछ बाद में बी.एस.पी. में तो ज़िया भाई ने साम्प्रदायिकता पर एक मुकम्मल समझदारी के साथ एक वैकल्पिक मंच के साथ अपने को  जोड़ा।  डा. बनवारी लाल शर्मा, जस्टिस राम भूषण मेहरोत्रा,  श्री रवि किरण जैन,  प्रो. ओ. पी. मालवीय,  नरेश  सहगल,  श्री  बल्लभ, प्रो. कृष्ण मुरारी,  आजादी बचाओ आन्दोलन,  इंसानी बिरादरी,   स्वराज विद्यापीठ से   अपनी गतिविधियां गयी। हमें अच्छी तरह याद है जब इन्दिरा गांधी हत्या के बाद सिख विरोधी नरसंहार, लूट, आगजनी की लपट इलाहाबाद तक आयी तो हम लोगों के साथ खुद ज़िला कलेक्टर बी. एस. लाली के पास  जाकर पत्रक सौंपा  था और  जे.के. इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर एम. पी. सिंह से कहा वो भी दरभंगा कालोनी (कैसिल) उनके साथ बन्दूक लेकर पहरा देंगे (दरभंगा कालोनी में सिक्खों परिवारों की पर्याप्त संख्या है और प्रो. सिंह तब वहीं रहते थे ) और रात में हमले का अंदेशा था।

( कलबुर्गी, दाभोलकर और पानसारे की हत्या के ख़िलाफ़ हुए प्रतिरोध मार्च का नेतृत्व करते ज़िया भाई ,  बैनर के पीछे हरे कुरते में .फ़ोटो क्रेडिट : ज़िया भाई का निजी संग्रह )

1987 के इलाहाबाद के साम्प्रदायिक दंगों के खिलाफ जुलूस में निकले, तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को  कड़ा पत्र लिखा। जब 1993 में एवीबीपी के तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष लक्ष्मी शंकर ओझा ने 26 जनवरी को छात्र संघ भवन पर तिरंगा फहराने के लिए वीएचपी सुप्रीमो अशोक सिंघल को बुलाया तो आइसा नेता लाल बहादुर सिंह ने व्यापक छात्र समर्थन के साथ इसका सशक्त विरोध किया और खुद झंडा फहराने का बहादुराना कार्य अंजाम दिया। इस पर पुलिस ने छात्रों पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इसके खिलाफ हुए हस्ताक्षर अभियान में ज़िया भाई का नाम सबसे ऊपर था। (बाद में लाल बहादुर जी छात्र संघ अध्यक्ष निर्वाचित हुए)।उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के महिला कर्मी के यौन शोषण पर विरोध करने वालों में वे प्रमुख व्यक्ति थे। सांस्कृतिक केन्द्र के नौकशाहाना निरंकुशता, सत्तामुखी  क्रियाकलापों के विरूद्ध साहित्यकारों, पत्रकारों व लेखकों के साथ वे खड़े रहे। 2001 में अफगानिस्तान,  ईरान  पर अमरीका ने जब जार्ज बुश के नेतृत्व में एक तरफा युद्ध छेड़ दिया तो हम लोगों ने पूर्व अध्यक्ष शोभनाथ सिंह की स्मृति में अमरीका विरोध में छात्र संघ भवन पर एक सभा की जिसमें प्रभाष जोशी, योगेन्द्र यादव के साथ वो भी मंच पर थे।

इंसानियत, जम्हूरियत और अकलियत पर हुए हर जुल्म में उनकी आवाज सुनाई दे रही थी। 1983 का नेल्ली हत्याकांड, 1987 का मेरठ, 1989 का भागलपुर, 1992 का मुंबई दंगा। हर बार ज़िया भाई बोलते रहे हुकूमत व फिरकापरस्ती के खिलाफ 2002 के गुजरात के नरसंहार ने उन्हें सबसे ज्यादा विचलित किया। हताशा के बजाय गुस्से का उबाल था।

वे अपनी बात की पीढ़ियों से जुड़ने को बेताब रहते। शहर की गतिविधियों में उनकी मौजूदगी आम बात थी। संगीत समिति, हिंदुस्तानी एकेडमी, अजुमन-ए-रुह-ए-अदब, छात्रसंघ भवन, साहित्य सम्मेलन हर जगह जिया भाई-खड़े बैठे, बोलते-बतियाते दिखते रहे। सियासी जलसों, जुलूसों में, साहित्यिक सांस्कृतिक गोष्ठियों में वे अपने कामरेडाना तहजीब के साथ सजीव रहते।

आपको ताज्जुब होगा। संयोग से मैं वहां था। हेस्टिंग्स रोड पर प्रो. नरवने साहब के बंगले पर एक मुख्तसर सा जलसा था, शायद उनके जन्मदिन का। उसमें अटाले की तरफ से एक क्लासिकल सिंगर मुस्लिम महिला आयी थीं जिनका गायन था। गायन के बाद ज़िया भाई ने उनसे खयाल गायकी पर जो चर्चा की वह चौंका देने वाला था। शायद यही सच्चे वामपंथ के पहचान का हिस्सा था जो राजनीति, साहित्य, समाज व संस्कृति पर एक समग्र दृष्टि रखता है। इसकी झलक हमें श्रीपाद अमृत डांगे की रचनाओं व नम्बूदरीपाद के मलयालम साहित्य व संगीत के समालोचनाओं में दिखती है।

ज़िया भाई के आंखों की रोशनी कुछ मद्धिम पड़ी और शरीर कमजोर होने लगा तो उन्होंने एक नया रास्ता निकाला। हम लोगों के वरिष्ठ व प्रबुद्ध साथी हिमांशु रंजन जी से मदद ली। सुबह 8:00 से 9:30 बजे उन्हें अपने घर पर बुलाते। अंग्रेजी – हिंदी – उर्दू का आठ-दस अखबार रहते। अंग्रेजी – हिंदी के प्रमुख संपादकीय, लेख- खबर पढ़वाते – ध्यान से सुनते और निशान लगवाते। फिर उसमें से चुनते, काटकर फोटोस्टेट करवाते और झूले में रखकर शहर में बांटने निकल जाते। दुर्लभ, अप्राप्य पुस्तकें जो बुक स्टॉल वाले नहीं मंगवाते वह ज़िया भाई के झोले में पड़ी रहती और उन्हें वे साथियों को बेचते, बांटते।

शहर के बुद्धिजीवियों, ट्रेडयू़नियनिस्टों, युवा तुर्कों की तरह वह कभी कॉफी हाउस के जमावड़े में नहीं बैठे। उन्हें अक्सर सिविल लाइंस में व्हीलर बुक शॉप के किताबों के अटारी में विचरण करते या उसके पुस्तक खोजी मैनेजर गुप्ता जी से गुफ्तगू करते देखा जा सकता है। वहाँ की मेरी खींची उनकी एक दुर्लभ फोटो मेरे पास होगी। वे लक्ष्मी बुक हाउस, युनिवर्सल पर किताबें, पत्रिकाएं, अखबार पलटते दिख जाते थे। हर पीढ़ी से उनकी लाग डाट थी। यारवाशी थी। अश्शुभाई, जफ़र, कमर आगा, उमेश नारायण शर्मा, अली जावेद, विभूति नारायण राय, चितरंजन सिंह, अली अहमद फातमी, रामजी राय, सुरेंद्र राही, आलोक राय, मो. असलम, संतोष भदौरिया, आनन्द मालवीय सबके वे अपने थे। सौ बरस के ज़िया भाई अपने से 70 साल, 60 साल, 50 साल छोटों से भी लपटकर लपककर मिले। बातें करते रहे। राय देते रहे। जफर बख़्त, उत्पला, पद्मा सिंह, अंशु मालवीय, सुबी, डॉ. सूर्यनारायण, परवेज़, शाहिद, रिज़वान रिज़वी,  के के पाण्डे, संध्या नवोदिता, सीमा आज़ाद सभी के युवा मित्र हैं ज़िया भाई।

राजनीतिक बदलाव को लेकर उन्होंने कभी मुगालता नहीं पाला। संपूर्ण क्रान्ति का खिचड़ी विप्लव, राजा के फकीर बन जाने का तिलस्म, या अन्ना आन्दोलन। वे किसी से मुतमईन  नहीं  थे। उन्हें हरी घास में  आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ने वाले जहरीले सांप की तरह भाजपा की बढ़त दिख रही थी। वे सिर्फ और सिर्फ वाम पंथ की अगुवाई में जनता के व्यापक मोर्चे का आगे बढ़ते देखना चाहते हैं। उनके सपने में लाल किले पर  लाल झंडा और जमीन पर एक समावेशी समाज की परिकल्पना है।

इस पूरे दौर में उन्हें अपनी जीवन संगिनी वह मशहूर चिकित्सक डॉक्टर रेहाना बशीर का हर कदम पर साथ मिला। आज उनके नजदीकी प्रोफेसर जी. पी. सिंह नहीं हैं, कामरेड मंगल सिंह भी नहीं जो बहुत कुछ बताते पर प्रोफेसर कृष्ण मुरारी, श्री राजकुमार जैन बता सकते हैं कि जानसेन गंज के सुभाष मुखर्जी हाल के पार्टी दफ्तर की मीटिंगों में वे कैसे पेश आते थे। लाल झंडे की सभाओं में उनकी भागीदारी क्या रही। कामरेड हरीश चंद्र द्विवेदी बता सकते हैं कि वामदलों के संयुक्त कार्यवाहियों में उनका क्या नजरिया रहता था।

मुझे तो लग रहा है कि आजाद के शहादत के दिन 27  फरवरी  1931 को अल्फ्रेड पार्क की ओर जो कदम उनके बढ़े थे, वे अभी रुके नहीं। चौराहे आते रहे। रास्ते फूटते रहे। राहों से राहें निकलती रहीं। पर ज़िया भाई का दायरा बड़ा से बड़ा होता रहा। अपनी पार्टी के अगुवा से वे वाम मोर्चे के चहेता बने और वहां से आम जनता के व्यापकतम मोर्चे के महबूब रहनुमा। एक ही सपना लेकर जीये।  सच्चा लोकतंत्र जिसके बुनियाद में हो संविधान सद्भाव सेकुलरिज्म और जेंडर जस्टिस।

उनके विचार और कर्म दोनों का संदेश यही है।

चे ग्येवारा ने लिखा है, “हमें लातिनी अमरीका के महान क्रांतिकारी होसे मार्ती का कथन याद रखना चाहिए कि खतरे के समय ग़रीब जनता की समस्याओं को हल करने के लिए उसके पास जाना चाहिए। भविष्य को निराशा के साथ नहीं देखना चाहिए और पुराने खयाल को भूलकर लोगों से और करीब से जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए।“

ऐसे हैं हमारे मित्र मार्गदर्शक और शिक्षक,

हमारे अज़ीज़ कॉमरेड ज़िया-उल-हक साहब।।

पीछे का सौ साल मुबारक।

आगे का हर साल मुबारक।।

 

 

( इलाहाबाद  यूनिवर्सिटी  के  पूर्व  छात्र संघ  अध्यक्ष  कमल  कृष्ण राय  वर्तमान  में  पी . यू . सी . एल. से  जुड़े  हैं  इलाहाबाद  हाईकोर्ट  के  जाने -पहचाने  वकील  हैं.  9415985414 )

 

 

 

 

 

 

 

 

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