वीरेन डंगवाल की कविताएँ उनके तीन संग्रहों और विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में फैली हुई हैं। अभी नवारुण प्रकाशन से उनकी समग्र कविताओं का संग्रह ‘कविता वीरेन‘ छपने वाला है जिसमें उनके सभी संग्रहों और उसके बाद की अन्य कविताएँ भी शामिल हैं। उसी संग्रह से एक कविता है: ‘मेट्रो महिमा‘। यह कविता न सिर्फ़ वीरेन की काव्य–यात्रा के दिलचस्प पड़ावों को दिखाती है, बल्कि इस दौर में तकनीक और पूँजी के हस्तक्षेप की पड़ताल भी करती है। आज पढ़िए–गुनिए उनकी यही कविता।
पाँच खंडो में बनी यह कविता पढ़ते हुए वीरेन के दूसरे संग्रह की एक कविता याद आती है: ‘कम्प्यूटर कक्ष‘। इस कविता में नयी तकनीक के शीर्ष कम्प्यूटर–कक्ष की आभा की खिल्ली उड़ाई गयी है। कविता कम्प्यूटर कक्ष में पड़ी कम्प्यूटर नामक मशीन पर ‘लानत’ भेजती है। अगर हम थोड़ी रियायत से सोचें तो यह कविता उन लोगों की जगह से नई तकनीक की आलोचना करती है जिनके लिए यह मशीनें सपना थीं, हैं, रहेंगी। कहिए तो जिस तरह का ‘डिजिटल डिवाइड‘ अभी भी भारत में और समूची दुनिया में मौजूद है, उस विभाजन की जगह पर यह कविता जाने–अनजाने अंगुली रखती है।
पर आज हम जानते हैं कि बातें यहीं तक नहीं रह गयी हैं। चीज़ें बदल गयी हैं, बदल रही हैं। हालाँकि ‘डिजिटल डिवाइड‘ अभी भी भारी है, पर तकनीकि में अति उत्पादकता ने इस बात को बदल–बदल दिया है। अब हर हाथ में फ़ोन है जो एक क़िस्म का कम्प्यूटर ही तो है। स्मृति हीनता के इस दौर में आप याद करिए कि आज से 20-25 साल पहले के कंप्यूटरों की स्मृति [मेमोरी] उतनी या उससे भी कम होती थी जितनी आजकल सामान्य फ़ोन में होती है। सो, मशीनें फैल रही हैं। अब उनपर लानत भेजने से क्या ही होगा?
वीरेन अपनी काव्य–यात्रा में इस सवाल से मुख़ातिब हैं। मशीनों के फैलने के दौर में हम क्या करें? दिलचस्प सवाल है यह। एक उत्तर इस सवाल का यह है कि हम मशीन विहीन युग में लौट जाएँ। ग्राम स्वराज। आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था। आदिम साम्यवाद। पर क्या यह सम्भव है? क्या यह सम्भव है कि इतिहास का चक्का पीछे की ओर घुमा दिया जाए? दूसरा उत्तर वाल्टर बेन्यामिन जैसे मार्क्सवादी चिंतकों की ओर से है जो ‘मशीनी पुनरुत्पादन के दौर में कला‘ को एक चुनौती की तरह लेते हैं।
‘मेट्रो–महिमा‘ तकनीकि के दौर में कला का प्रभामंडल (औरा) बदलने की कोशिश है। ‘डिजिटल डिवाइड‘ का सवाल यहाँ भी है पर ज़रा अलग तरीक़े से। कवि अब मशीन पर लानत नहीं भेजता। वह उसकी ख़ूबसूरती पर निगाह डालता है, उसकी ख़ूबसीरती पर भी। कवि का सवाल अब यह बनता है कि उसमें मेरे वा मेरे जैसे लोगों के लिए जगह है कि नहीं? बल्लीमारान और क़ासिमजान जाने के लिए तो अभी भी रिक्शे का ही सहारा लेना होगा, कवि इस बात को भी दर्ज करता है। यह भी पूछता है कि मेट्रो की इस ख़ूब दुनिया में इसे ‘मटरू‘ कहने वालों का क्या होगा?
अंततः कवि इस सुंदर तकनीक पर किसका क़ब्ज़ा है, इसका सवाल उठाता है। “… अप्रतिम सौंदर्य/ जो सिर्फ़ इक्कीसवीं सदी में ही सम्भव था भारत में/ अपनी वैधता और औचित्य प्रमाणित करने के लिए/ इसीलिए अक्लमंद लुटेरे तुम्हें सबसे आगे करते हैं।“
आज के दौर में तकनीक से ही यह स्वर उठ रहे हैं कि उस पर पूँजी का नियंत्रण नहीं होना चाहिए। तकनीक वही करती है जो उसका स्वामी उससे करवाना चाहता है। अगर तकनीक, उसके उत्पादन और प्रयोग के साधन जनता के पास हों, उन पर स्वामित्व जनता का हो, तो तकनीक दुनिया को बेहतर बनाने के काम आ सकती है। तभी शायद पर्यावरण सम्बंधी समस्याएँ भी सुलझाई जा सकती हैं।
वीरेन की ‘मेट्रो–महिमा‘ कविता उनके ख़ास बिम्ब वैभव, भाषाई खिलंदड़ेपन और औदात्त की वजह से तो पढ़नी ही चाहिए, इसलिए भी उसे पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम तकनीक, पूँजी और जनता के जटिल अंतरसंबंध पर और सोच सकें। कविता के बिंबों पर अलग से बात की जा सकती है, पर वह फिर कभी।
मेट्रो महिमा
पहली
सीमेंट की ऊँची मेहराब पर
दौड़ती रुपहली मेट्रो
गोया सींगों को तारों पर उलझाए हिरनी कोई।
मेरा मसोसा हुआ दिल
गोया एक हमसफ़र तेरा हमराह।
मुझे भी ले चल ज़ालिम अपने साथ
चाँदनी चौक करौलबाग़ विश्वविद्यालय वग़ैरह
मेरे लिए भी खोल अपने वे शानदार द्वार
जो कभी बाएँ खुलते हैं कभी दाएँ सिर्फ़ आवाज़ के जादू से
दूसरी
अस्पताल की खिड़की से भी
उतनी ही शानदार दिखती है मेट्रो
गोया धूप में चमचमाता एक तीर
या शाम में ख़ुद की ही रोशनी में जगमगाता
एक तीर दिल को लगा जो कि हाय–हाय !
बेहतर हो चावड़ी बाज़ार उतरना और रिक्शा कर लेना बल्लीमारान गली
कासिमजान के लिए
तीसरी
दृश्य तो वह क्षणांश का ही था मगर कितना साफ़
वह छोटी बच्ची चिपकी हुई खिड़की से देखती मेट्रो से बाहर की दुनिया को
उसके पार पृष्ठभूमि बनाता
दूसरी खिड़की का संध्याकाश एकदम नीला
मुझे देखने पाने का तो उसका ख़ैर सवाल ही क्या, पर मुझे क्या–क्या
नहीं याद आया उसे देखकर
माफ़ करना ज़रूरी कामों जिन्हें गँवाया मैंने तुच्छताओं में
जिन्हें मुल्तवी करता रहा मैं आजीवन।
चौथी
हाय मैं होली कैसे खेलूँ तेरी मेट्रो में
तेरी फ़ौज पुलिस के सिपाही
ले लीन्हे मेरी जामा तलासी तेरी मेट्रो में
एक छोटी पुड़िया हम लावा
जैसे तैसे काम चलावा
बिस्तर पर ही लेटे–लेटे खेल लिए जमकर के होली
आं–हाँ तेरि मटरू में।
पाँचवीं
सुनुकसानम सुनुकसानम सुनुकसानम चलो नहाने
सुनुक सुल्लू छ तप्तधारा वसंतकाले अति भव्यभूती
जब तुम राजीव चौक पहुँचो
हे अत्यंत चपलगामिनी
तो कनाटप्लेस की समस्त नैसर्गिक तथा अति प्राकृतिक सुगंधियों को
मँगवा लेना अवश्य
तुम्हारा कोई भी भक्त किंवा दास
यह कार्य सहर्ष कर देगा बिना किसी उज़रत के
मध्य रात्रि के बाद जब मोटे–मोटे पाइपों की गुनगुनी धारा से भरपूर नहला
दिए जाने के बाद
(ऐसे पाइप अब पुलिस के पास भी होने लगे हैं दंगा निरोधन के लिए)
जब तुम्हें टपटपाता हुआ और एकाकी छोड़ दिया जाए
उस नीरव रंगशाला में
तब तुम बिना झिझक अपनी अदृश्य सुघड़ बाहें उठा कर
काँख और वक्ष में जम कर लगा लेना उन सुगंधियों को
मानो अभिसार तत्परता के लिए
तथा
अपनी काँच से बनी सुंदर आँखों से टिम टिम देखना अपना अप्रतिम
सौंदर्य
जो सिर्फ़ इक्कीसवीं सदी में ही सम्भव था भारत में
अपनी वैधता और औचित्य प्रमाणित करने के लिए
इसीलिए अक्लमंद लुटेरे तुम्हें सबसे आगे करते हैं।
(युवा कवि, आलोचक मृत्युंजय अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में पढ़ाते हैं । इनका एक कविता संग्रह ‘स्याह हाशिए’ प्रकाशित हो चुका है )
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