लखनऊ। जन संस्कृति मंच के स्थापना दिवस के मौके पर 27 अक्टूबर को जंग और जुल्म के विरोध में परिचर्चा और कविता पाठ का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता जसम लखनऊ के कार्यकारी अध्यक्ष जाने-माने लेखक तथा ‘तज़किरा’ के प्रधान संपादक असगर मेहदी ने की। संचालन जसम की लखनऊ इकाई के सचिव कथाकार फरजाना महदी ने। उन्होंने आयोजन की आधार भूमिका रखी। कार्यक्रम इप्टा दफ्तर, कैसरबाग, लखनऊ में संपन्न हुआ।
मुख्य वक्ता जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कवि और लेखक कौशल किशोर ने जन संस्कृति मंच की 40 साल की यात्रा के बारे में बोलते हुए कहा कि जनजीवन व जनसंघर्षों ने कला, साहित्य और संस्कृति को उत्प्रेरित किया है। आज का दौर ज्यादा निरंकुश, भयावह और दमनकारी है। जंग और ज़ुल्म से दुनिया घिरी है। भारत प्रतिक्रियावादी संस्कृति का केंद्र बना है। हमें सांप्रदायिक फासीवाद और दकियानूसी विचारों तथा सत्ता संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति के आंदोलन को आगे बढ़ाना है। इसके लिए समान धर्मा संगठनों व रचनाकारों की एकता जरूरी है। जसम इसी दिशा में प्रयत्नशील है।
कौशल किशोर ने आगे कहा कि एक साल के अंदर गाजा में एक लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं । यह युद्ध नहीं नरसंहार है। गाजा जेल ही नहीं है बल्कि जहरीली गैसों का चैंबर है जहां हर आदमी मरने को अभिशप्त है। करुणा, संवेदना और मानवता जैसी बातें दिखावे की बनकर रह गई हैं। ऐसे में फिलिस्तीन जनता के साथ होना इंसाफ के पक्ष में खड़ा होना है। इसराइल के पीछे अमेरिका और साम्राज्यवादी शक्तियां हैं। दुर्भाग्य है कि भारत सरकार इसराइल के साथ है। विश्व शांति की चर्चा
गायब है।
वर्कर्स कौंसिल के ओ पी सिन्हा का कहना था कि युद्धों के पीछे अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी शक्तियां हैं । हथियारों का व्यवसाय बढ़ा है। यह तभी संभव है जब दुनिया में तनाव और युद्ध की स्थितियां बनी रहे। हरेक देशों के रक्षा बजट में लगातार वृद्धि हुई है। कल तक महाशक्तियों के पास परमाणु हथियार होते थे। आज विकासशील देश जो गरीबी से जूझ रहे हैं, वे भी परमाणु हथियारों का देश बनने की होड़ में हैं। यूएनओ जैसी संस्थाएं निष्प्रभावी हैं। पहले के युद्ध में सैनिक ठिकाने हमले के केंद्र में होते थे। आज आम लोगों को निशाना बनाया जा रहा है।
असग़र मेहदी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य की शुरुआत जॉर्ज ऑरवेल के कथन को उद्धृत करते कहा कि वर्तमान में युद्ध और हिंसा से जो ख़तरे पैदा हुए उसके दो स्वरूपों – ज़मीनी युद्ध और स्ट्रक्चरल यानी आर्थिक युद्ध के संदर्भ को समझने की जरूरत है।वर्तमान में और अतीत में युद्ध और हिंसा को बढ़ावा देने में अमरीका की भूमिका को देखा जाना चाहिए। इतिहास में युद्ध विजय और लूट के लिए लड़े गए हैं। ग़रीब वर्ग अपना खून बहाता है। आज कोई भी राष्ट्र यह दावा नहीं कर सकता कि वह स्टेट टेररिज़म में इन्वाल्व नहीं है। नौकरशाही आतंक पूरे समूहों, कभी-कभी पूरे राष्ट्रों को डराता है, घायल करता है।
असगर मेहदी ने युद्ध से जुड़े विभिन्न संदर्भों की चर्चा करते हुए अपने वक्तव्य के अंत में कहा कि युद्ध दुर्घटनाएँ नहीं हैं। वे एक आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था की पैदावार हैं। गाजा पर जो हो रहा है, वह युद्ध नहीं बल्कि जनसंहार है। यदि हमें युद्ध और आर्थिक शोषण दोनों में शामिल बड़े पैमाने पर हत्या को रोकना है, तो हमें प्रतिरोध और परिवर्तन की प्रक्रिया को एक महत्वपूर्ण क़दम मानकर उससे शक्ति प्राप्त करना होगा। ऐसा हो भी रहा है, स्वयं पश्चिम देशों में अमरीकी प्रायोजित क़त्ल ए आम पर आवाज़ें मुखरता के साथ सुनाई दे रही हैं।
कार्यक्रम के आरंभ में कलीम खान ने प्रो जी एन साईबाबा की दो कविताएं – ‘मैंने मरने से इन्कार किया ‘ और ‘आजादी’
ने सुनाई। वे कहते हैं – ‘माँ, मेरी आजादी के लिए /मत डरना/दुनिया को बता दो/मेरी आजादी खो गयी है/क्या उन सभी जन के लिए आजादी पायी जा सकती है/जो मेरे साथ खड़े हैं/धरती के दुख का कारण लाओ/जिसमें मेरी आजादी निहित है।’
कार्यक्रम का दूसरा सत्र कविता पाठ का था। शुरुआत अरविन्द शर्मा ने की। जंग और ज़ुल्म तथा बढ़ती बर्बरता को उकेरती ग़ज़ल , नज़्म, फ्री वर्स आदि शैलियों में कविताएं सुनाई गईं, जिन्हें श्रोताओं ने मनोयोग से सुना और सराहा। कविता पाठ करने वाले कवि थे – भगवान स्वरूप कटियार, शैलेश पंडित, हेमंत कुमार, विमल किशोर, रेनू शुक्ला, इंदु पांडेय, अनिल कुमार श्रीवास्तव, नय्यर उमर, अनूप मणि त्रिपाठी, कलीम खान और कौशल किशोर। कविताओं के शीर्षक थे ‘युद्ध के विरुद्ध ‘, ‘फिलिस्तीन’, ‘खेल और युद्ध’, ‘भयाक्रांत दर्दीली चीख’, ‘कटघरे के भीतर’ आदि।
इस अवसर पर कवि-आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि पूरी दुनिया में जब भी बर्बरता, युद्ध, हिंसा एवं क्रूरता बढ़ती है उनका सामना करने के लिए शब्द ही आगे आते हैं । मध्यकाल में भी बर्बरता, क्रूरता, दमन, हिंसा के बरक्स कवियों ने प्रेम एवं सौंदर्य को लेकर यूटोपिया की रचना की । जायसी, कबीर, रैदास, सूर, तुलसी एवं रसखान आदि कवियों के काव्य में इसे देखा जा सकता है । नयी कविता के दौर में भी युद्ध के विरुद्ध कवि शमशेर ने ‘अमन का राग’ जैसी कविता लिखी तो नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’ जैसे खंड काव्य की रचना की । शब्द ही बुरे वक्त में माहौल को सकारात्मक बनाते हैं ।
चन्द्रेश्वर ने तीन कविताएं सुनाईं जिसमें एक कविता प्रोफेसर जी एन साईंबाबा की स्मृति को लेकर थी। वे कहते हैं : ‘मेरे पास न लाठी /न भाला/न तीर /न कमान…/बस ! एक सीना /किसी नवजात/शिशु के कोमल माथे के बराबर/बस! एक मन/शब्दों में रमा ../उसी मन से जुड़ा /एक मस्तिष्क भी …इस मेरे/ज़िद्दी मन-मस्तिष्क का /क्या बिगाड़ लोगे /देह तो ठहरी ससुरी /नश्वर…/इसके नष्ट होने का/क्या ग़म…’।
कार्यक्रम का समापन जसम लखनऊ के सह सचिव कलीम खान के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ। इस मौके पर प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, शकील सिद्दीकी, राम किशोर, शहजाद रिजवी, अशोक मिश्रा, सत्य प्रकाश चौधरी, कल्पना पांडेय, के के शुक्ला, अजय शेखर सिंह, वीरेंद्र त्रिपाठी, अजय शर्मा, मंदाकिनी राय, अनिल कुमार, शांतम निधि आदि मौजूद थे।