‘‘…भूमंडलीय अर्थव्यवस्था के आश्चर्यजनक विस्तार ने पर्यावरण को उपेक्षित किया है और इसलिये अंधाधुंध और अनियंत्रित आर्थिक विकास पर लगाम लगाना जरूरी हो गया है। हमारे पर्यावरण पर आर्थिक विकास के खतरनाक प्रभावों को रोकने अथवा नियंत्रित करने और पूंजीवादी बाजार की आवश्यकताओं के बीच एक स्पष्ट द्वन्द्व खुलकर सामने आया हैः लाभ की तलाश में विकास की अधिकाधिक निरंतरता। यही पूंजीवाद की सबसे कमजोर कड़ी है। इस समय यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से जीत किसकी होगी – पर्यावरण की अथवा लाभ की अनियंत्रित मनोवृत्ति की। ”
मानव समाज और इतिहास के मार्क्स के विश्लेषण के तमाम केंद्रीय पक्ष आज भी वैध और संगत हैं। स्पष्ट ही इसमें सर्वप्रथम हैं पूंजीवादी आर्थिक विकास की मोहासिक्त भूमंडलीय गतिकी तथा इसके पूर्व के पारिवारिक संरचना सहित मानवीय अतीत की विरासत के ऐसे सभी अंगों का विनाश करने की इसकी क्षमता का मार्क्स द्वारा किया गया विश्लेषण। मार्क्स ने इस बात पर भी जोर दिया है कि पूंजीवाद अतीत की विरासत के उन अंशों का भी विनाश करने में नहीं हिचकिचाता जिनसे यह स्वयं कभी लाभान्वित हुआ था।…..जिसे मार्क्स का अनुसरण करते हुये शुम्पीटर ने अंतहीन ”सृजनात्मक विनाश ” कहा है।’’ (इतिहासकार एरिक हाब्सवाम)
आज इस बात में किसी को कोई संदेह नहीं रह गया है कि ग्लोबल पूंजीवाद के लाभ-लोभ के चलते दुनिया में गरीबी और पर्यावरण का संकट बढ़ता जा रहा है। अपनी लालच के सिवा उसके सामने आदमी और प्रकृति की चिंता का कोई मायने नहीं रह गया है। विकास की पूंजीवादी अवधारणा या रास्ता विनाश का रास्ता बन गया है। वह जीवन और प्रकृति के विनाश का स्रोत बन गया है। आज दुनिया भर में कुलीन आर्थिक संस्थाओं- आइएमएफ़, वर्ल्ड बैंक, एनएफटीए, डब्यूटीओ आदि के खिलाफ़ विेद्रोह हो रहे हैं। विकास के वैकल्पिक रास्ते पर, न्यायोचित और टिकाऊ मानवीय विकास (Equitable and sustainable human development) के रास्ते का सवाल बहस के केंद्र में आ गया है। यहां इस पर बहस में जाने का अवसर नहीं है लेकिन विकास के इस विनाश की पूरी तस्वीर देखनी हो तो हमें आदिवासी क्षेत्रों की ओर रुख करना चाहिये, जहां सबकुछ साफ-साफ अपनी पूरी नग्नता के साथ मौजूद है।
झारखंड और उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्जापुर के आदिवासी इलाके में मलेरिया महामारी के रूप में मौजूद है। बरसात में डायरिया फैलना एक आम बात। नदियों का पानी इस कदर प्रदूषित है कि स्वर्णरेखा के किनारे के ग्रामीणों में कुष्ट रोगियों की और सोनभद्र के कुछेक इलाकों में विकलांगों की संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत ज्यादा है। खान में काम करने वाली आबादी टीबी, और खांसी के मरीज में बदल रही है। जादूगोडा के इलाके में रेडियो एक्टिव कचरे ने आदिवासियों की अगली पीढ़ी को ही विकलांग बना दिया। 90 के दशक के ‘डायरेक्टरेट ऑफ हेल्थ सर्विसेज’ की और उसके बाद के भी इन इलाकों के स्वास्थ्य संबंधी रिपोर्टें यही बयान करती हैं।
आदिवासी भारत के लगभग हर राज्य में हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक इनकी आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 फीसद यानीं 104 मिलियन है। पूरे देश में इन समुदायों की संख्या 600 से भी अधिक है। बेशक, हम 21वीं सदी में हैं और आदिवासी जीवन भी 21वीं सदी में आया है। इस नाते आदिवासी जीवन अब वही आदि जीवन नहीं है। उनके जीवन में बहुत कुछ बदलाव भी आये हैं, फिर भी पहले दुर्गम क्षेत्र होने के नाते आदिवासी इलाके जाति-वर्ण व्यवस्था से अपेक्षाकृत कम प्रभावित रहे। और श्रम की महत्ता, अंतरसामुदायिक जीवन की उपस्थिति और व्यक्तिगत संपत्ति की अनुपस्थिति के नाते भी समानता का बोध, भोजन और अन्य जरूरतों के लिये वन, भूमि और जलस्रोतों पर इनकी निर्भरता आदि ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जो आदिवासी समाज की विशेषता रही आईं और आज भी बहुत हद तक वे बनी हुई हैं जो इन्हें एक सूत्र से जोड़ती हैं।
पूंजीवादी विकास की तेज गति ने बड़ी संख्या में आदिवासी समाज को विस्थापित किया है। साथ में बहिरागतों की कई लहरों के आने से यह भी हुआ कि जिन आदिवासियों की जनसंख्या पहले कुल आबादी में 70: 30 के अनुपात में थी वह तब से लेकर आज तक में उलट कर 30: 70 की हो गई है। जमीन पर अधिकार के नाते आगे बढ़े और ईसाई मिशनरियों व ठक्कर बापा के आदिम जाति सेवा मंडल के शिक्षण संस्थाओं के प्रयास से उरांव, संताल, मुंडा, खड़िया, हो समाज आदि के मुट्ठी भर लोगों ने शिक्षा पाई, नौकरियां पाईं और एक छोटे मध्यवर्ग का निर्माण किया। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में छोटे-मोटे स्तर पर ठेका-पट्टी लेने, व्यवसाय-दूकान आदि में लगने से एक छोटे मध्यवर्ग का निर्माण हुआ। मगर इस मध्यवर्ग के इस छोटे से हिस्से को छोड़ कर शेष आदिवासी समाज की स्थिति बद से बदतर होती गई है।
बेघर होते, विनाश के कगार पर आदिवासी और प्रकृति
कबूतरों से उनके पेड़ विस्थापित हो चुके हैं
जड़ों में पानी नहीं कि वे सूख न सकें (अनुज लुगुन)
विस्थापन किसी का भी हो बहुत दुखदायी होता हैं। लेकिन आदिवासियों का विस्थापन तो मरण के दुःसह दुख की तरह है। कहने को तो देश हमारा घर है फिर विस्थापन का क्या मतलब? लेकिन विस्थापन किसी घर, स्थान या भूगोल से ही नहीं होता। वह घर, स्थान, भूगोल उस समुदाय या व्यक्ति का सभ्यता, संस्कृति और अंतरजगत होता है। आदिवासियों के लिये जंगल केवल जीविका का साधन नहीं, उनकी सभ्यता-संस्कृति का घर, उनके अंतरजगत का अंग है। आदिवासियों का विस्थापन उनके लिये अपने सभ्यता-संस्कृति के घर से, अपने अंतरजगत से विस्थापन होता है। वे जहां जाते हैं वह जगह उनके लिये अजनबी, अक्सर खूंखार होती है और वे उस जगह के लिये अजनबी और बध्य हो जाते हैं।
पेड़, फल, फूल, जंगल, जमीन यही हमारे लिये सोना है
देश के 72 % वनज और अन्य प्राकृतिक संसाधन, 90 % कोयला खदान और 80 % खनिज संपदा आदिवासी इलाकों में ही है। इसके बावजूद आदिवासी यहां हाशिये पर ही हैं। 85 % आदिवासी सरकार द्वारा घोषित गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। अंग्रेजों द्वारा बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की प्रक्रिया में अपनी जमीन और जंगल से आदिवासियों की बेदखली और उनकी सामुदायिक आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के नाश का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह और भी विकराल रूप में जारी है। सलवाजुडूम को उसके प्रतिनिधि उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
आदिवासियों की अपनी आजादी की लड़ाई का सिलसिला लंबा है और आज भी जारी है। आदिवासियों ने भारत की अंग्रेजों की गुलामी से आजादी की लड़ाई को अपनी आजादी के रूप में देखा था।
देश की आजादी मिलने के साथ आदिवासी समाज ने भी राहत की सांस ली थी। उनके कंठ से विजय और उल्लास के गीत निकले: रावण-राज्य समाप्त हुआ, सती सीता धरती पर आईं, आकाश में तिरंगा लहराने लगा (अब हमारे दिन भी बहुरेंगे।)
रावण-राज सेनो जना
सती सीता हिजु लेना, धरती रे
तिरंगा उटंग जना, सिरमा रे (रामदयाल मुंडा)
पंचवर्षीय योजनाओं में विकास के काम शुरू हुए तब झाारखंड के आदिवासी लोगों ने भी उमंग का अनुभव किया-
गूंजे बी.डी.ओ. के नाम
काम खुले धूमा-धाम
गांवें-गांव सड़क बनवाएं गोइ साजइन,
मिलि-जुलि रुपिया गनवाएं गोइ साजइन (नईमउद्दीन मिरदाहा)
खोरठी भाषा के कवि श्रीनिवास पानुरी ने संतोष व्यक्त किया-
आइज छोटानागपुरें,
प्रगतिक चक्का घुरें।
लेकिन यह सपना ज्यादा देर कायम नहीं रहा, बिखरने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि यह आजादी यहां के मूल निवासियों की नहीं बल्कि नवागंतुकों के लिये आई है।
अब शोषण का चक्र और भी रफ्तार से घूमने लगा। विस्थापन और दरिद्रता आदिवासियों की जैसे नियति दिखने लगी। गीतों के सुर अब बदलने लगे। उमंग की जगह उदासी और अपनत्व की जगह परायेपन के तल्ख स्वर गूंजने लगे-
बनली परदेशी निज घरे
छोइड़ के भगलयं डेरा सोमरा मंगरा,
सेइ ठांवें बनल रे भवन अनकरे,
बनलीं परदेशी निज घरे (मुकुंद नायक)
अब इस क्षेत्र की सभी भाषाओं में यह पीड़ा और बेचैनी अभिव्यक्त होने लगी। क्षितीश कुमार ने कुड़ुख भाषा के अपने गीत में कहा- मत रो मां, मत रो, मैं तेरे लिये अपना सारा जीवन निछावर कर दूंगा:
अम्बा चींखय आइयो, अम्बा चींखय,
निंघर लागि जनम गंवाबोन
आइयो, अम्बा चींखय।
जातीय जागरण, प्रकृति प्रेम और जीवन सौंदर्य के गीत गाने वाले यहां के मूर्धन्य कवि और गीतकार ढलती संध्या के गीत गाने को विवश हो गये-
सांझ पूछे किरन हम कहां चइल आली गो
भोर पातर गली, दूरे-दूरे छोड़इ आली,
दुपहरी ताप पथ में हेराली गो,
सांझ पूछे किरन, हम कहां चइल आली गो
हम कहां चइल आली
नींद टूइट गेलइ बीचा-बीचे, मोर सपना महल मेइट गेल,
नींझल दीया जइसन करम बिधि देल (नींझल दीया)
आज़ादी के बाद
एक मोटे आंकड़े के मुताबिक़ हमारे देश में पिछले 50 वर्षों के दौरान बड़ी परियोजनाओं मसलन बड़े-बड़े बांधों, खदानों, उद्योगों, वन्य-जीव संरक्षण क्षेत्रों (वाइल्ड लाइफ सैन्क्चुअरिज), फिल्ड फायरिंग रेंज आदि के चलते लगभग 2 करोड़ 13 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। इसमें से 40 प्रतिशत संख्या, लगभग 85 लाख, अकेले आदिवासी/मूलवासी लोगों की है। इन विस्थापितों में से महज़ एक चौथाई का रिसेटिलमेंट हुआ। बाकी बचे लोगों को स्थानीय प्रशासन द्वारा क्षतिपूर्ति के एवज़ में मनमाने तरीके से कुछ नकद ले-दे कर उन्हें सदा के लिए भुला दिया गया।
आइये एक उड़ती नज़र झारखंड में 1950 से 1995 तक की अवधि में विस्थापन और अधिग्रहीत ज़मीन की स्थिति पर एक सरसरी नज़र डालें। (देखिये टेबल – 1)
सरकारें उद्योग और खदानों के लिये नीतियां बनाने में तो पूरी तत्परता से व्यस्त हैं लेकिन यह जो औपनिवेशिक काल से विस्थापन का सिलसिला चला आ रहा है उसमें आज भी आदिवासियों/मूलवासियों के पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) की कोई योजना, कोई नीति किसी सरकार के पास नहीं है, न ही इसमे उनकी कोई दिलचस्पी है।
जो हो, लेकिन इस स्वप्नभंग से उपजे उदासी और अवसाद के बीच भी आदिवासी समाज जल्दी ही फिर इस सबसे बाहर आता है और अपने हक की लड़ाई में उतरने लगता है। आदिवासी जीवन, उसकी समस्याओं और संघर्षों से हिंदी साहित्य की दूरी बनी रही है जो बाद को टूटती है, फिर भी उतनी नहीं जितनी चाहिये। इस पर अपनी बात 1960-61 में लिखी मुक्तिबोध की एक कविता के अंश से शुरू करना शायद ठीक होगा।
आदिवासी
हम आदिवासी जन बहुत-बहुत अनुभवी
अनेक विधि फल चख कर बार बार
हमने ही दुनियां में प्रथम बार
खाद्य अखाद्य सब ठहराया
मनुष्य का भोजन निश्चित किया
हम आदि वैज्ञानिक!!
किंतु है हममें भी दोष एक
कई बार जहरीली नालियां
दिमागी रगों में बह उठती हैं
किंतु हमें दुख है कि उनमें का पोटैश सब
और गंधक निकाल नहीं पाते हम
बस उन्हें द्रव्यों को महसूस ही करते रह जाते हैं!!
पीले पोटैश और पीले उस गंधक से
ज्वाल-रूप दुलहिन की साड़ियां बनती हैं!!
ओ आदिवासियों, बनाओ ये साड़ियां
मनुष्य के जंगल के
दण्डकारण्य का दहन करो
एक कृष्ण ने दाह किया खाण्डव का
वही कृष्ण तुममें भी पैदा हो
ध्यान रखो
मनुष्यों के जंगल में
तुम्हारी कुमारियां और नारियां भ्रष्ट हुईं
कौन नहीं जानता कि कई रोग हमारे ये
उनके ही देन हैं।
स्याह आदिवासी हम
कुली हम खलासी हम
हम हब्शी हम मेहतर हम गरीब शिक्षक हैं
कि जिन्हें पिछले महीनों से
अवेतन ही रहना पड़ा है और
मनुष्यों के जंगल में पड़ा है खूब घूमना
निःस्हाय!!
किरासिन-बू-लदी भभक और दाव
हमें नित्य कहना पड़ा है – ‘‘सा’ ब!!’’
ओ आदिवासियो, पृथ्वी के पहचानो अपने को…..
‘मैला आंचल’ (1954) हिंदी का संभवतः पहला उपन्यास है जिसमें संथाल आदिवासियों के थोड़े से जीवन प्रसंग हैं। पूर्णियां में जमींदार संथाल आदिवासियों को खेती के काम के लिये लाये थे। संथालों ने जंगल काट कर खेत भी बनाया था। जमींदारी प्रथा खत्म होने की घोषणा से उन्हें लगा कि अब जमीन उनकी हो जाएगी। जब जमीन पर कब्जे के नारे के साथ सोशलिस्ट पार्टी सदस्यता अभियान चलाती है, रेणु ने लिखा है कि तब ‘संथाल टोली का एक भी आदमी गैर-मैंम्बर नहीं रहा।’ लेकिन जमीन बंदोबस्ती के वक़्त संथाल अकेले पड़ जाते हैं। सभी जातियों के भूस्वामी एकजुट होकर उन्हें बाहरी घोषित कर देते हैं। यहां तक कि सभी पार्टियों कांग्रेस, हिंदूवादी और सोशलिस्ट का भेद खत्म हो जाता है। आदिवासी हक के लिये लड़ते हैं, उसमें चार संथालों की जान जाती है, सात घायल होते हैं और उनकी औरतों के साथ बलात्कार होता है। (पूणियां में आज भी आदिवासी समाज का भूस्वमियों के खिलाफ प्रतिरोध संघर्ष जारी है। हाल ही में दिवंगत हुए साहित्यकार सुरेंन्द्र स्निग्ध का उपन्यास ‘झाड़न’ उस संघर्ष को अपना विषय बनाता है।)
‘मैला आंचल’ में कानून और पुलिस प्रशासन का चेहरा भी आदिवासी-विरोधी दिखाई पड़ता है। देश की आजादी की घोषणा के साथ मुकदमें का फैसला आता है, वह ‘सुराज’ का चरित्र स्पष्ट कर देता है। रेणु लिखते हैं -‘मुकदमा में भी सुराज मिल गया। सभी संथालों को ‘दामुल हौज (आजीवन कारावास) हो गया।
1967 नक्सलबाड़ी आंदोलन
बेशक, ‘मैला आंचल’ में गैर आदिवासी खेितहर मजदूरों की संथालों से दूरी बनी रहती है, मगर उपन्यास के प्रकाशन के 13 साल बाद 1967 में नक्सलबाड़ी में भूमिहीन आदिवासी किसानों ने विद्रोह किया, तब उसकी लपट गैर आदिवासी खेतिहर मजदूरों और किसानों तक पहुंचने में कोई बाधा नहीं आई।
नक्सलबाड़ी आंदोलन ने जैसे साहित्य की भी धुरी ही बदल दी। नगराभिमुख साहित्य गांवों की ओर मुड़ा (आलोकधन्वा: गोली दागो पोस्टर) उसी के साथ हिंदी साहित्य का भूगोल भी बदला। उसने हिंदी साहित्यकारों को भी आदिवासी समस्याओं और संघर्षशील एवं प्रतिरोधी आदिवासी चरित्रों के बारे में लिखने के लिये प्रेरित किया। महाश्वेता देवी के जंगल के दावेदार, तिलका मांझी पर ‘सालगिरह की पुकार, चोटिमुंडा और उसका तीर, अग्निगर्भ, टेरोडैक्टिल आदि उपन्यास और कहानी संग्रह आये और उसी रफ्तार से हिंदी में उनके अनुवाद भी। इसी के साथ हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन और प्रश्नों पर मौलिक रचनाओं की भी शुरूआत हुई। बेशक, अब भी उतनी नहीं जितनी चाहिये।
तथ्य यह है कि अभी भी 90% आदिवासी जीविका के लिये कृषि और वनज उत्पादनों पर निर्भर हैं। मगर एक ओर जहां कृषि की हालत खराब होती गई है, वहीं वनों को आदिवासियों के लिये लगभग प्रतिबंधित कर दिया गया है। आदिवासी मजदूरों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है और उनका विस्थापन भी तेजतर हुआ है। ‘हिंदी में आदिवासी केंद्रित उपन्यासों की संख्या अभी भी बहुत नहीं है लेकिन जो भी है उनमें आदिवासी जीवन के इन मूल प्रश्नों और उनके संघर्षों को अपना विषय बनाया गया है। मिजो आंदोलन के कारणों को उजागर करता उपन्यास ‘जहां बांस फूलते हैं’ (श्रीप्रकाश मिश्र),
अपनी जमीन, रोजगार, स्त्री-सम्मान, प्राकृतिक संसाधनों के सामूहिक उपयोग की चेतना से संबंधित ‘धार’ (संजीव), आदिवासी जीवन की बुनियादी समस्याओं को केंद्र कर धर्मांतरण पर सवाल उठाता ‘काला पादरी’(तेजिंदर) जरायमपेशा जाति घेषित कबूतरा जनजाति की स्त्री के जीवन-संघर्ष पर केंद्रित ‘अल्मा कबूतरी’(मैत्रेयी पुष्पा), राजस्थान की जनजातियों पर केंद्रित ‘गमन’(हबीबी कै़फ़ी), झारखंड आंदोलन पर केंद्रित ‘गगन घटा घहरानी’(मनमोहन पाठक), झारखंड आंदोलन पर बहस छेड़ता ‘ पांव तले की दूब ’(संजीव), आदि के उपन्यास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।’
शातिर भूमिका में सरकार
हाल के वर्षों में नयी बात यह हुई है कि भूमि अधिग्रहण के औपनिवेशिक काल से चले आये कानून में किसान आंदोलनों के बाद 2013 में जो संशोधन हुआ, उसके बाद से सरकारों ने अब यह काम पूरी तरह से देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया है। अब सरकार आमतौर पर भूमि अधिग्रहण में हाथ नहीं डाल रही। अब वह सीधे पूंजीपतियों को ज़मीन खरीदने में लगा रही है और खुद इस काम में उनकी सहयोगी की भूमिका में आ गई है।
अब अधिकांश मामलों में निजी कंपनियां ही ज़मीन खरीदती हैं। वह भी औने-पौने में मनमानी तरीके से। इसके लिये वे आदिवासी जनता से कोई राय-बात भी नहीं करते। बेशक, अगर किसान, आदिवासी इसका विरोध करते हैं तो सरकार और स्थानीय प्रशासन उनके खिलाफ दमन करने में पूरी ताकत लगा देते हैं। सच कहिये तो जंगल, जलस्रोत और खनिज संपदा पर अबाध अधिकार के रास्ते में आदिवासी/मूलवासी बाधक हैं और सरकार उन्हें हर कीमत पर खत्म कर देना चाहती है। अधिक हुआ तो पूंजीपतियों के हक़ में स्थानीय प्रशासन क्षतिपूर्ति के नाम पर मनमाने तरीके से कुछ नकद(कैश) देकर मामले को रफादफा करवा देता है।
झारखंड में विस्थापन आदि आदिवासी मसलों के अध्येता स्टेन स्वामी (Stan swamy) ने अपने एक लेख में इस बाबत झारखंड के संथाल परगना के पाकुड़ जिले का एक दिलचस्प उदाहरण दिया है। झारखंड सरकार ने कोयला खदान के लिये एक निजी कंपनी (Panem) को लाइसेंस दिया। उस कंपनी ने अपनी पुनर्वास नीति घोषित की- पहले एक एकड़ पर 50,000 रु., दूसरे पर 30,000 और तीसरे एकड़ पर 20,000 रु. दिये जाएंगे। अगल-बगल ली जाने वाली सारी जमीन एक तरह की, एक गुण वाली लेकिन रेट असग-अलग। अब इस बेतुकी नीति के पीछे क्या तर्क है यह कोई भी समझ सकता है। लेकिन झारखंड सरकार ने इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखा दी। ज़ाहिर है लोगों ने इसे मानने से साफ इन्कार कर दिया।
पुनर्स्थापन बनाम पुनर्वास
यहां इस बात को स्पष्ट कर देना भी जरूरी है कि ‘पुनर्स्थापन (Resettlement) पुनर्वास (rehabilitation) नहीं है। पूंजीपति तो पूंजीपति सरकार भी पुनर्स्थापन को जैसे-तैसे मान लेती है लेकिन पुनर्वास को आज तक उसने भी नहीं माना है। पुनर्स्थापन में विस्थापित व्यक्ति को रहने या खेती के लिये जमीन का एक टुकड़ा और कुछ जरूरी सुविधा-साधनों के लिये कुछ पैसे दे दिये जाते हैं। अब यह उस विस्थापित व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह वहां जाकर बस जाये। यह समुदाय को बिखेर देने का आजमाया हुआ तरीका भी है। इस तरह वह समुदाय बिखर जाता है। आदिवासियों के लिये सामुदायिक जीवन प्राणवायु है। इसके बगैर वे निष्प्राण हो जाते हैं। और इस तरह विस्थापन सरकारों के हाथों आदिवासी आबादी को मार डालने के हथियार में बदल जाता है।
दूसरी तरफ पुनर्वास का अर्थ है कि जिस समुदाय को आप विस्थापित कर रहे हैं उसे समुदाय के बतौर रहने की व्यवस्था आपको करनी पड़ेगी। आदिवासियों के मामले में आपको उनके पूजास्थल (सरना), उनके पूर्वजों के आरामगाह(कब्रगाह) पर रखा पत्थर (ससंदिरी), उनके पशुओं के सामूहिक चारागाह, उनके युवकों के लिये सांस्कृतिक प्रशिक्षण केद्र (दमकुरिया) आदि उनके सामुदायिक जीवन के अंग हैं। इन्हें जहां-तहां स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। अब धन के लोभी पूंजीपति और उनके सहयोग में खड़ी सरकारों को यह कैसे रुचे-पचेगा यह सहज ही समझा जा सकता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि आज तलक किसी सरकार ने कहीं के भी विस्थापितों का पुनर्वास नहीं किया है। ऐसा तब जब झारखंड के 1984 के कोयल-कारो बांध परियोजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में केस फाइल किया गया, जिसपर अपने फैसला में कोर्ट ने कहा कि पहले सरकार को लोगों की इच्छानुसार जैसा वे चाहते हैं दो मॉडल गांव बनाने पड़ेंगे और उसे लोगों को दिखाना पड़ेगा। मज़ा यह है कि सरकार ने आज तक ऐसा नहीं किया लेकिन वह लगातार कहती आ रही है कि वह मुआवजे की राशि को बढ़ा देगी बशर्ते लोग राजी हो जाएं। जाहिर है लोगों ने सरकार के इस प्रस्ताव को नकार दिया।
झारखंड जहां 36 लाख आदिवासी पहले से ही विस्थापित किये जा चुके हैं और सरकार हर रोज जमीन अधिग्रहण के ओएमयू पर दस्तखतें करती जा रही है, जिससे और बड़ी आदिवासी आबादी विस्थापित होगी लेकिन वह क्षण भर के लिये भी पुनर्वास की कोई नीति बनाने पर विचार करने के लिये तैयार नहीं है।’ (स्टेन स्वामी)
नये सिरे से पत्थलगड़ी आंदोलन
इस हालात में झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ के भीतर आदिवासियों ने आंदोलन के नये तरीके, जो उनके लिये उनकी पुरानी परंपरा रही है, अपनाने और संघर्ष में उतरने की ठान ली है। ऐसा ही एक परंपरागत तरीका उन्होंने अपनाया है पत्थलगड़ी (पत्थर गाड़ना) का।
पत्थलगड़ी प्राचीन समय से चली आ रही परंपरा है जिसका निर्वाह लोग आजतक करते आ रहे हैं। लोग अनेकों तरह की पत्थलगड़ी करते हैं। ब्रिटिश शासन काल में जब छोटानागपुर क्षेत्र में स्थाई बंदोबस्ती कानून लागू किया गया और जमीन की लिखा-पढ़ी होने लगी तो इस क्षेत्र में बाहरियों ने अवैध रूप से जमीन अपने नाम में लिखवा ली। इस कारण से यहां विद्रोह भड़क उठा और ये मामला न्यायालय में चला गया। उस समय न्यायालय कलकत्ता में हुआ करता था। जब न्यायालय ने जमीन का सबूत मांगा तो इस इलाके के लोग पत्थलगड़ी के पत्थर को ही ढो कर पैदल कलकत्ता ले गए और न्यायालय के समक्ष इसी पत्थलगड़ी के पत्थर को जमीन के सबूत के रूप में न्यायालय के समक्ष पेश किया। न्यायालय ने पत्थलगड़ी के पत्थर को सबूत के तौर पर माना और आदिवासियों की विधि और प्रथा को मान्यता प्रदान की। पत्थलगड़ी आदिवासी समुदाय की पारंपरिक प्रथा है और संवैधानिक भी।
आजादी के 70 साल के बाद भी यहां के लोग मूलभूत सुविधाओं से महरूम हैं। यहां के आदिवासियों का विश्वास सरकार के ऊपर से उठ चुका है। इसलिए उन्होंने अब अपने गांवों के सीमाओं में पत्थलगड़ी करने का काम जोर शोर से शुरू कर दिया है। इस पत्थल में वे संविधान के अनुच्छेदों यथा 13 (3) (क) , 244 (1) 244 (2), 141 (1), 19 (5), 19(6), सहित आदिवासियों से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पत्थर में उकेरना शुरू कर दिया है।
इस इलाके का पहला पत्थलगड़ी 09 मार्च 2017 को भंडरा गांव में करने के साथ ही इस जिले के अन्य 300 गांवों में पारंपरिक तरीके से कर दिया गया है। इसके बाद गांव में बिना अनुमति अन्य लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। अगर आपको उस गांव में प्रवेश करना है तो उन लोगों के माध्यम से गांव के मुंडा के पास जाकर गांव में प्रवेश की अनुमति मांगना है। ग्राम सभा की अनुमति के बाद उन्हें गांव में प्रवेश की अनुमति प्रदान की जाती है। यदि ग्राम सभा आगंतुकों के उद्देश्य से संतुष्ट नहीं हो पाती है तो उन्हें अनुमति नहीं भी दी जा सकती है।
पत्थलगड़ी किये जाने के तात्कालिक कारण
15 सितम्बर 2016 को सीएनटी और एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ रांची में आयोजित विरोध प्रदर्शन में सम्मिलित होने के लिए जाने के क्रम में सायको के पास पुलिस ने शांतिपूर्ण तरीके से जा रहे लोगों को रोका और गोली चलाकर कुछ लोगों की हत्या कर दी और कई लोग इस गोली बारी में घायल भी हुए। इस घटना के बाद पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों को रोकने का काम पत्थलगड़ी द्वारा शुरू हुआ। खूंटी जिला के पत्थलगढ़ी आंदोलन ने पिछले 6-8 महीना के दौरान जिला के उपायुक्त, डीसी सहित कई सरकारी अधिकारी व पुलिसकर्मियों को कम से कम 2 बार बंधक बनाकर करीब 15 -15 घंटा गांव में रात भर खुले आसमान के नीचे बैठाकर रखा था। झारखंड की सरकार इसे माओवादी/आतंकवादी/विदेशी एजेंट की संज्ञा देकर इसपर दमन भी चला रही है। अब इस आंदोलन में जमीन अधिग्रहण से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य तक के मुद्दे जुड़ते जा रहे हैं। अब किसी भी कीमत पर अदिवासी जनता अपनी बची खुची जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत, व खनिज संपदा को तथाकथित विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर कारपोरेट घरानों को देने के लिए तैयार नही हैं।
अपने नये तेवर में साहित्य
इधर हाल के वर्षों में आये और चर्चित हुए उपन्यासों, कविताओं पर नज़र डालें तो नये दौर में साहित्य भी अपनी नयी भूमिका और तेवर लेकर सामने आ रहा है। असुर समुदाय के जीवन संघर्ष पर केंद्रित ‘ग्लोबल गांव का देवता और आदिवासी समुदाय के अपने अधिकार और जीवन मूल्यों पर कॉरपोरेट पूंजी के हमले के खिलाफ उनके प्रतिरोध को विषय बनाता ‘गायब होता देश’ (रणेंद्र) व महुआ मांज़ी के उपन्यास अपने समय और संघर्ष की जटिलताओं को गहराई से पकड़ने और रचनात्मक रूप देने के लिये उल्लेखनीय हैं।
हिंदी कविताओं में भी आदिवासी जीवन के शौर्यपूर्ण संघर्षों की अनुगूंज लिये समकालीन संघर्षों को और जीवन दशाओं व आदिवासी जीवन मूल्यों को समेटे बहुत सारी अच्छी कविताओं ने अपनी खास पहचान बनाई है। जिसमें आदिवासी और गैर आदिवासी दोनों तरह के रचनाकार हैं। अनुज लुगुन की एक कविता ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ में मुक्तिबोध और नार्गाजुन दोनों की अनुगूंज और दृष्टि समाहित है, जिनसे हमने कविता पर बात की शुरूआत और अंत किया है। अनुज लुगुन की इस कविता के ‘अथ प्रवेश कथा’ खंड का अंश आज ‘मनुष्यों के दंकारण्य’ की थिति स्पष्ट करने के लिये काफी है –
‘‘अब तक यह बताया जाता रहा है और जाना जाता रहा है कि बाघ का ठिकाना जंगल है। यह मानव सभ्यता के इतिहास का एकांगी और एकतरफा ज्ञान रहा है, जिसने एक वर्चस्व को जन्म दिया और हम उस वर्चस्व का लगातार पालन करते रहे हैं। इस वर्चस्व का जिसने प्रतिरोध किया उसे मानवीयता के दरजे से भी पदच्युत कर दिया गया। चूंकि अब जंगल तेज़ी से समाप्त हो रहे हैं और इसलिए बाघ का ठिकाना और स्वरूप भी बदल गया है। अब एक तरफ़ जंगल, पहाड़ और नदियां हैं तो दूसरी तरफ़ बाघ है। एक तरफ़ बाघों की तस्करी हो रही है, दूसरी ओर बाघों की जनसंख्या बढ़ाने के लिए जंगलों में सरकारी ‘बाघ प्रजनन परियोजनाएं’ चलाई जा रही हैं।
कल की ही बात है। सुगना मुण्डा की बेटी ने मनुष्यों के एक समूह को भूखे बाघ के हिंसक आवेग के साथ अपने गांव में हमला करते हुए देखा। वह घबराई, ‘‘इतने सारे ‘कुनुईल’ कहां से आ गए? चानर-बानर, उलट्बग्घा कहां से आ गए?’’ वह अपने समाज में अपने भाइयों की ओर दौड़ी, वहां भी उसने कुछ ‘चानर-बानर’ को टहलते हुए देखा। वह डर कर उनके हमलों से बचने के बारे में योजना बनाने लगी।
उसने देखा कि एक तरफ तो समूहों में आए बाघ उसे और उसके समुदाय को ‘जंगली’ संबोधन देकर घृणा प्रकट कर रहे थे वहीं दूसरी ओर उसने देखा अपने लोगों के बीच से ही ‘चानर-बानर’ बनने वाले शिकार की खोज में घूम रहे हैं। उसने सोचा ‘चूंकि उसके पुरखे, पिता और भाई ऐतिहासिक हैं इसलिए वह जो कुछ देख रही है वह स्वप्न नहीं हो सकता है और न ही कोई साहित्यिक परिकल्पना।’’
चित्रकला में भी नये लोगों ने काफी कुछ काम किया है। और फिल्मों के बारे में सब वाकिफ होंगे जिसमें हाल में आई ‘न्यूटन’ फिल्म की काफी चर्चा हुई। इस दिशा में डाक्यूमेंट्री फिल्मों ने कठिन आदिवासी जीवन, उनकी जटिल समस्याओं और संघर्षों को सामने लाने में काफी असरदार भूमिका निभाई है।
सोवियत संघ के पतन के बाद लिखी, सघन जंगल के बीच आदिवासियों की एक सभा पर नार्गाजुन की एक कविता के अंश के साथ यहां बात समाप्त करना प्रासांगिक होगा-
‘‘जिंदाबाद हमारे तीर कमान
ज़िंदाबाद हमारे जंगल
ज़िंदाबाद हमारी नदियां
ज़िंदाबाद हमारे पहाड़
ज़िंदाबाद हमारे सूअर
ज़िंदाबाद हमारी मूर्गियां
बाकी सबने दुहराया – ज़िंदाबाद
तीरों की होती है एक जात
किसी की नहीं सुनो
आलतू-फालतू एक भी बात
गरीबों की होती है एक जात
किसी की नहीं सुनो
आलतू-फालतू एक भी बात ’’
इस पर सभा खत्म होती है। यह संघर्ष को वर्ग-संघर्ष की ऊंचाई तक ले जाना है। अंततः आदिवासी प्रश्न वास्तविक लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण का ही प्रश्न है, उसे महज आदिवासी अस्मिता, दलित अस्मिता आदि अस्मिताओं में नहीं डुबोया जा सकता।
(रामजी राय समकालीन जनमत पत्रिका के प्रधान संपादक हैं )
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