धार्मिक उन्माद और उसके पीछे राजसत्ता की ताकत खड़ी हो जाये तो वह कैसा कहर बरपा सकती है,फरवरी के महीने में देश की राजधानी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगे इस बात की बानगी हैं. हाल ही में दिल्ली के सांप्रदायिक कत्लेआम पर सार्वजनिक हुई दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट, इस बात की तस्दीक करती है कि राजसत्ता की ताकत, सरेआम लाठी,डंडा,तमंचा और पेट्रोल बम ले कर घूम रहे दंगाईयों के पीछे खड़ी थी और उसी ने उन्हें यह साहस दिया कि घर और दुकाने जलाने से लेकर किसी पर गोली चलाने का काम दंगाई पुलिस के सामने बेझिझक कर रहे थे.
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग द्वारा फरवरी के महीने में हुए दिल्ली दंगों के तथ्यों की पड़ताल करने के लिए मार्च में सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता एम.आर.शमशाद की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी गठित की गयी. जांच कमेटी के अन्य सदस्य थे-दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्य गुरमिंदर सिंह मथारु, ह्यूमन राइट्स लॉं नेटवर्क से जुड़ी अधिवक्ता तहमीना अरोड़ा, मानवाधिकार कार्यकर्ता तनवीर काज़ी, जामिया मिलिया इस्लामिया की प्रो.हसीना हाशिया,अधिवक्ता अबु बकर सबाक्क, मानवाधिकार कार्यकर्ता सलीम बेग, सी.एच.आर.आई. की देविका प्रसाद व अदिति दत्ता तथा सामाजिक कार्यकर्ता सुहैल सैफी. हालांकि दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग द्वारा इस कमेटी के गठन के कुछ ही दिन बाद कोरोना का फैलाव तीव्र होने और उसके परिणामस्वरूप लॉकडाउन होने के चलते कमेटी को काम करने में दिक्कतें पेश आईं, लेकिन उसके बावजूद जांच कमेटी की रिपोर्ट के आईने में दंगाईयों और उनके सरपरस्तों के चेहरे देखे जा सकते हैं.
जांच कमेटी ने दंगे में अपना सब कुछ गंवा देने वालों, प्रत्यक्षदर्शियों और दंगों की कवरेज करने वाले पत्रकारों के बयान दर्ज किए. दंगा प्रभावितों इलाकों का भी जांच कमेटी ने दौरा किया.
इस पूरी प्रक्रिया में जो रिपोर्ट सामने आई है, उसमें जो दंगों में जले हुए भवनों और घायल और मृत इन्सानों की तस्वीरें हैं, वह किसी भी संवेदनशील मनुष्य के रौंगटे खड़े करने के लिए काफी हैं. पर ऐसा संवेदनशील मनुष्यों के साथ होगा. जिन्होंने इन भयानक घटनाओं को अंजाम दिया वे भी तो मनुष्य ही थे. पर वे ऐसे मनुष्य थे,जो धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक घृणा के हाथों अपनी संवेदनशीलता खो चुके थे. इसलिए जैसे भयानक कांड की तस्वीरें देख कर सामान्य मनुष्य हिल जाये,उन जघन्य वारदातों को अंजाम देते हुए,उनके हाथ जरा भी नहीं कांपे.
इन दंगों के ठीक पहले पूरे देश की तरह दिल्ली में भी सी.ए.ए. विरोधी आंदोलन चल रहा था. रिपोर्ट से साफ जाहिर होता है कि इस आंदोलन में बेहद मजबूती से लेकिन बेहद संयम और शांति के साथ शरीक अल्पसंख्यक समुदाय को सबक सिखाने और उसे तबाह करने के लिए इन दंगों को अंजाम देने का षड्यंत्र रचा गया. रिपोर्ट सिलिसलेवार तरीके से उन विष बुझे बयानों का ब्यौरा पुनः सामने लाती है,जो पूरे देश ने इस वर्ष के शुरू में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में केन्द्रीय सत्ता पर आसीन भाजपा के मंत्रियों और शीर्ष नेताओं के मुंह से सुने. ये नफरत भरे बयान एक तरह से इन दंगों की पूर्व पीठिका थे.
रिपोर्ट याद दिलाती है कि कैसे उत्तर पूर्व दिल्ली के पुलिस उपायुक्त के सामने 23 फरवरी को कपिल मिश्रा खुलेआम कह रहे थे कि ट्रम्प के भारत में रहने तक वे चुप हैं और यदि तब तक,तीन दिन में सड़क नहीं खुली तो वे पुलिस की भी नहीं सुनेंगे. दिल्ली में आप के विधायक रहते हुए नरेंद्र मोदी के बारे में भदेस अंदाज में टिप्पणी, आप से अलगाव के बाद भाजपा में नहीं जाऊंगा का घोष और फिर दंगाई ब्रिगेड के अगवा तक,राजनीति में आदमी अपना अस्तित्व बनाए और बचाए रखने को किस हद तक जा सकता है,ये महाशय उसके जीते-जागते नमूने हैं. जीते-जागते में भी जागते तो प्रतीत नहीं होते. जागते होते तो जुबान से हिंसा-घृणा से भरे बोल क्यूँ उगलते रहते !
रिपोर्ट बताती है कि कपिल मिश्रा के बयान के कुछ घंटों के अंदर ही उत्तर पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में हिंसा की शुरुआत हो गई. यानि जुबान से भले वे तीन दिन की बात कह रहे थे,लेकिन वह बात दंगाइयों को जैसे इशारा थी कि काम पर लग जाना है.
रिपोर्ट में विभिन्न इलाकों में दंगे में अपना सब कुछ गँवाने वाले भुग्तभोगियों के बयान दर्ज किए गए हैं. विभिन्न इलाकों में हिंसा हो रही थी. लेकिन दंगाईयों और बलवाइयों की मोडस ओपरेंडी यानि काम करने का तरीका लगभग एक जैसा था. झुंड में जाओ,घरों-दुकानों पर हमला बोलो,पेट्रोल बम फेंको,गाड़ियों को आग लगाओ,अल्पसंख्यकों के धर्म स्थलों को जलाओ-यह लगभग सब जगह किया गया. “मु….. ले लो आज़ादी,हम देंगे आज़ादी” जैसे नारे भी सब जगह लगाए गए. हिंसा इस कदर लक्षित और योजनाबद्ध थी कि सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय की दुकानें जलायी गई.
रिपोर्ट में देना बैंक और बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति की दुकान के बीच एक अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति की जलायी गई दुकान का ब्यौरा फोटो सहित है. ऐसे कई और विवरण हैं. रिपोर्ट में दर्ज है कि यदि दुकान बहुसंख्यक की है और किरयाएदार अल्पसंख्यक है तो दुकान नहीं सामान जलाया गया. इस पहले ऐसा गुजरात में 2002 के दंगों के समय देखा गया था. दंगों के गुजरात मॉडल का ही दिल्ली में प्रयोग किया गया. यह ऐसा मॉडल है,जो किसी धर्म विशेष को भले विजेता होना का अहसास दिलाये पर समाज और देश के हिस्से इस मॉडल से मनुष्यता के ध्वंसावशेष और बर्बादी के सिवा कुछ नहीं आएगा.
राजसत्ता जब किसी दंगे के पीछे खड़ी हो तो पुलिस हो कर भी नहीं होती. इसका एक उदाहरण दिल्ली के दंगे हैं. रिपोर्ट इस बात के ब्यौरों से भरी पड़ी है कि दंगाइयों से बचाव की गुहार लगाने वालों से पुलिस किस तरह गाफ़िल बनी रही. लोग पुलिस और फायर ब्रिगेड को फोन करते रहे. उधर से- आते हैं,भेजते हैं- का जवाब और दंगाई आराम से लूटपाट और आगजनी को अंजाम देते रहे. रिपोर्ट बताती है कि बहुतेरे मौकों पर तो पुलिस के सामने ही दंगाई,मारपीट, आगजनी, लूटपाट सब कर रहे थे और पुलिस मूक दर्शक थी.
युवा पत्रकार राहुल कोटियाल को दिया गया सी.आर.पी.एफ. के एक जवान का बयान पुलिस और सुरक्षा बलों के हालात के बारे में बहुत कुछ कहता है. उक्त जवान ने कहा “ऐसी लाचारी में हम क्या करें ? हमें नहीं पता हमें यहाँ तैनात क्यूँ किया गया है,जब हमें कुछ भी करने का आदेश नहीं है. आदेश होता तो इन दंगाई लड़कों को हम दस मिनट में सीधा करके घर भेज देते.” पुलिस और सुरक्षा बल रहें पर वे दंगाई लड़कों की हरकतों के तमाशाबीन रहें, क्या यह समझना कोई मुश्किल काम है कि ऐसा इंतजाम किसके इशारे पर किया गया था ?
पुलिस को देख कर दंगाई भीड़ द्वारा-दिल्ली पुलिस जिंदाबाद के नारे लगाए जाने के वाकये रिपोर्ट में दर्ज हैं,जो यह बताने के लिए काफी हैं कि पुलिस दंगा रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी. पुलिस द्वारा एफ.आई.आर. दर्ज न किए जाने के भी कई ब्यौरे रिपोर्ट में हैं. खास कर जब आरोपियों में सत्ताधारी पार्टी के पूर्व विधायक,पार्षद आदि के नाम थे तो पुलिस ने पीड़ितों पर दबाव डाला कि वे नाम हटा कर अज्ञात लोगों के खिलाफ शिकायत दें तभी एफ.आई.आर. दर्ज की जाएगी.
दंगों के बीत जाने के बाद उक्त जांच के क्रम में जब दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की टीम ने दिल्ली पुलिस से विभिन्न जानकारियां मांगी तो दिल्ली पुलिस ने कोई एक जानकारी भी उपलब्ध नहीं करवाई. दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग, एक संवैधानिक संस्था है. इस नाते जानकारी देना दिल्ली पुलिस का दायित्व था. लेकिन दिल्ली पुलिस ने अपने राजनीतिक आकाओं की सेवा में कानून और संविधान, सभी कुछ ताक पर रख दिया.
रिपोर्ट में कुछ वाकये हैं जहां पुलिस ने पीड़ितों की मदद की. लेकिन वे अपवाद हैं. काश कि ये अपवाद न हो कर नियम बने होते तो परिदृश्य ही दूसरा होता. पर अफसोस ये हो न सका.
रिपोर्ट में दर्ज है कि अधिकांश दंगा पीड़ितों को या तो मुआवजा मिला ही नहीं या बहुत कम मिला. दंगा क्यूँ हुआ,इसके सरपरस्त कौन थे,इसके बारे में मुस्तफाबाद में अल्पसंख्यक समुदाय के बुजुर्ग ने जांच कमेटी को एक शेर सुनाया,जो सारी तस्वीर साफ-साफ सामने रख देता है. पीरजादा कासिम का वह शेर है :
शहर करे तलब अगर,तुमसे इलाज-ए-तीरगी
साहिब-ए-इख्तियार हो,आग लगा दिया करो !
मनुष्यता के क्षरण के इस पूरे घटनाक्रम के दौर में जब अस्पतालों में तक इलाज करने से पहले धर्म देखा जा रहा था, कुछ सुकूनदायी वाकयात भी रिपोर्ट में दर्ज हैं. धार्मिक उन्माद के चरम के बीच भी दोनों समुदायों के ऐसे लोग थे,जिनमें मनुष्यता जिंदा थी और उन्होंने दूसरे धर्म के लोगों की खुल कर मदद की. ऐसे कई वाकये हुए जो उम्मीद जगाते हैं. मनुष्यता,समाज और देश यदि बचेगा तो ऐसे ही लोगों से बचेगा,जो चरम धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक घृणा के दौर में भी अपना विवेक और मनुष्यता नहीं खोएँगे.