(नक्सलबाड़ी आन्दोलन की 51 वीं वर्षगांठ (25/5/18) के अवसर पर नक्सलबाड़ी आन्दोलन के सांस्कृतिक पक्ष पर रौशनी डाल रहें हैं, इलाहा बाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक और आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित प्रो. प्रणय कृष्ण)
नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह (1967) ने भारत की एक नई कल्पना का सृजन किया जिसने कला, संस्कॄति और साहित्य पर गहरा अखिल भारतीय असर डाला. किसी आंदोलन में उतार-चढ़ाव, आत्म-संघर्ष, निराशा, बिखराव और उत्साह के तमाम मंज़र आते और जाते रह सकते हैं, लेकिन नक्सलबाड़ी से प्रेरित आंदोलनों के भू-राजनीतिक विस्तार से कहीं बड़ा रहा है उसकी सृजनात्मक कल्पना और सपनों का आकाश.
नक्सलबाड़ी के आरम्भिक नेताओं के सामने यह स्पष्ट था कि भारतीय क्रांति के स्वप्न के पीछे इस देश की किसान और मेहनतकश जनता के गौरवशाली संघर्षों की लंबी विरासत है। उन्होंने 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर भगतसिंह जैसे क्रांतिकारी देशभक्तों की लम्बी परंपरा की खुद को एक कड़ी माना। उन्होंने भाकपा(माले) नाम की नई पार्टी बनाई लेकिन सदैव खुद को गदर पार्टी के समय से ही चली आ रही कम्यूनिस्ट विरासत का हिस्सा माना. इस आधार पर खड़े होकर उन्होंने देश और देशभक्ति की एक अभिनव परिभाषा गढ़ी. अभिजन के राष्ट्र्वाद के विरुद्ध क्रांतिकारियों की देशभक्ति. ’70 के क्रांतिकारियों का सबसे प्रिय गीत ‘मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि’ अकारण न था. वे अपनी निगाह में भारत की मुक्ति का संघर्ष ही छेड़े हुए थे-
फैलता उजाला दसों दिशा में
मिट जाए रात का अंधार
लाल सूरज की किरणों में
करेगी मातृभूमि मुक्तिस्नान
वे 1857, भगतसिंह, तेलंगाना की असफ़लता की जितनी जल्दी हो सके क्षतिपूर्ति कर देना चाहते थे, भूमिपुत्रों के नए मुक्तिसंग्राम के ज़रिए. 1970-71 में नक्सलबाड़ी से प्रेरित युवकों ने बांगला पुनर्जागरण के कई मनीषियों की मूर्तियां तोड़ीं क्योंकि उन्होंने 1857 के महासमर का विरोध किया था और कई अंग्रेज़ों के पक्ष में खड़े हुए थे. आज यह अतिरेकपूर्ण लग सकता है लेकिन मातृभूमि पर उत्सर्ग की जो भावना हज़ारों नौजवानों को सड़कों पर खींच लाई थी, उनके भावना का ज्वार ही कुछ और था. कई लोग नक्सलबाड़ी के चार दशक बाद भी तमाम दमन और बिखराव के बीच उससे प्रेरित आंदोलनों के जीवित रहने के बावजूद आज भी इस मूर्खतापूर्ण विचार को पाले हुए हैं कि नक्सलबाड़ी का विद्रोह चीन के इशारे पर हुआ था. उन्हें चारु मजुमदार का वह लेख पढना चाहिए, जिसका शीर्षक ही है-“चीन के चेयरमैन, हमारे चेयरमैन”. इस लेख में वे लिखते हैं,”जनता का जनवादी भारतवर्ष अब दूर की चीज़ नहीं रहा.लाल सूर्य की पहली किरणें आंध्र के तट पर आन पड़ी हैं, देखते ही देखते अब अन्य राज्यों को भी रंग देंगी. इस लाल सूर्य की रोशनी में नहा कर भारतवर्ष हमेशा-हमेशा के लिए जगमगाता रहेगा.” हां, यह अवश्य है कि उन्होंने चीन की क्रांति और माओ से वैसे ही प्रेरणा ली जैसे कि रूसी क्रांति से आज़ादी की लड़ाई में भगतसिंह सहित तमाम क्रांतिकारी देशभक्तों और बुद्धिजीवियों ने ली थी .खालिस्तानी आतंकवादियों के हाथों मारे गए नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरित कवि ‘पाश’ ने लिखा था-
“भारत-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
…………………………………..
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहां अन्न उगता है जहां सेंध लगती है…”
नक्सलबाड़ी से प्रेरित कवि अकेले हैं जो देश और देशभक्ति के शासकवर्गीय भाष्य को उलटते हैं., ‘ शायनिंग इंडिया’ के झूठ को जो 51 साल पहले से जानते हैं और सिर्फ़ यही नहीं बताते कि उनका प्यारा भारतवर्ष क्या है, बल्कि यह भी कि उसे क्या नहीं होना चाहिए-
“यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लासमंच नहीं है मेरा देश…”(नबारुण भट्टाचार्य)
इस विद्रोह के महान शिल्पी चारू मजूमदार का व्यक्तित्व ही गहरे में सांस्कृतिक था.1950 से ही सिलीगुडी़ में राजनीतिक कामकाज सम्भाल चुके युवा चारू मजूमदार की पहलकदमी पर ही सिलिगुड़ी शहर के मुख्य क्लब में ‘रवीन्द्र-नज़रुल-सुकांत दिवस’ , बांगला वैशाख(बांगला कैलेंडर में वैशाख से वर्ष की शुरुआत होती है और इसका पहला दिन रवीन्द्रनाथ के जन्मदिन के रूप में भी मनाया जाता है) आदि मौकों पर क्रांतिकारी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा शुरू हुई. चारूबाबू का शास्त्रीय संगीत के प्रति भी प्रबल आकर्षण था और बड़े गुलाम अली का गाया ‘बाजूबंद खुल खुल जाए’ उनका ऎसा पसंदीदा गीत था जो भूमिगत जीवन की कठिनाइयों में भी उनका साथी रहा.सन 1964 में जब उन्हें गंभीर दिल की बीमारी डाक्टरों ने बताई और तबकी उनकी पार्टी का नेतृत्व उनके इलाज के प्रति उदासीन बना रहा तो ‘कथा ओ कलम’ नामक सांस्कृतिक संगठन ने अपने प्रदर्शन आयोजित कर उनके इलाज के लिए जितना बन पड़ा, पैसा इकट्ठा किया.1967 का विद्रोह जब शुरु हुआ और चारूबाबू के घर देशी-विदेशी पत्रकारों की भीड़ लगी रहती, तो उन्हीं दिनों धर्मयुग के पत्रकार ने उनसे पूछा, ” आपके घर में रवींद्रनाथ की फोटो लगी हुई है. क्या आप उनको मानते हैं? चारूबाबू ने जवाब दिया,”सवाल मानने या न मानने का नहीं है. सवाल तो है एक महान शिल्पी के सकारात्मक पहलू के विवेचन का’. इसके बाद उन्होंने रवींद्र की ‘मृत्युंजय’ शीर्षक कविता पूरी सस्वर सुनाई. 1961 की पार्टी की 6ठीं विजयवाड़ा कांग्रेस में चारुबाबू नहीं गए. इन दिनों अचानक उन्होंने नाटकों के निर्देशन का मन बना लिया. ‘कथा ओ कलम’ के नाटकों का रिहर्सल कराते, वे मानिक बंदोपाध्याय के सपनों के समाजवाद ‘मैनाद्वीप’ का मर्म साथी कलाकारों को समझाते हुए घंटों बोलते चले जाते. उनके साथी सरोजदत्त न केवल क्रांतिकारी नेता थे, बल्कि बांगला के उत्कृष्ट कवि भी. वे भी चारुबाबू की तरह जेल में ही शहीद हुए. समीर मित्र, मुरारी मुखोपाध्याय, द्रोणाचार्य घोष भी ऎसे बांगला कवि थे जिन्होंने नक्सलबाडी विद्रोह में भाग लिया और पुलिस के हाथों शहीद कर दिए गए. चारूबाबू शासक वर्ग के हाथों में हिंसा के एकाधिकार को तोडने के पक्षधर थे, न कि बेलगाम, प्रतिशोधात्मक और उद्देश्यहीन हिंसा के. यही कारण है कि 1870 के दशक की क्रांतिकारी बांगला कविता में बराबर गरीबों, मेहनतकशों पर बर्बर सामंती और पुलिसिया दमन के चित्र, जेल में दी जाने वाली यातनाओं और फ़र्ज़ी मुठभेडों में में ढेर किए जा रहे नौजवानों के चित्र ज़्यादा मिलते हैं, प्रतिशोधात्मक हिंसा का उत्सव विरल ही है-
इस तरह पीटो कि
सिर से पांव तक कोड़े का दाग बना रहे
इस तरह पीटो कि
दाग काफ़ी दिनों तक जमा रहे.
इस तरह पीटो कि
तुम्हारी पिटाई का दौर खत्म होने पर
मैं धारीदार शेर की तरह लगूं
(‘तुम्हारी पिटाई का दौर खत्म होने पर’ शीर्षक विपुल चक्रवर्ती की कविता से)
यह श्वेत आतंक का मंज़र है, 1970 के दशक का कलकत्ता और बंगाल जहां हर थाना कत्लगाह बना हुआ था. प्रेम और वात्सल्य की भावनाएं भी दमन के अभिशप्त परिवेश और क्रांति के उत्ताप के द्वंद्व में तप कर कविता में ढल रही थीं. बहुत से लोग जो अंधी हिंसा को ही नक्सलबाड़ी का पर्याय मानते हैं, वे इस मंज़र को भूल जाते हैं. राजसत्ता और शासक जमातें आज भी गरीबों और जन-आंदोलनों के प्रति पर्याप्त हिंसक हैं. लेकिन मुश्किल तब बढ़ जाती है जब खुद उससे प्रेरणा लेने की बात करनेवाले माओवादी भी बहुधा अपने अतिरेकी व्यवहार से लोगों के मन में इस महान आंदोलन की महज हिंसक छवि ले जाते हैं और जाने अनजाने जनता को दक्षिणपंथ की ओर ढकेल देते हैं. लेकिन नक्सलबाड़ी से प्रेरित अनेक बड़े कलाकारों ने खुलकर किसी भी बददिमाग हिंसा की आलोचना की, जबकि वे किसी भी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े थे. मलयाली कवि सच्चिदानंदन, तेलुगु कवि ज्वालामुखी और बांग्ला नाटककार बादल सरकार ने बाकायदा इस के विरुद्ध बयान देकर और लिखित तौर पर अपनी राय ज़ाहिर की है.
क्रांति के आह्वान पर सैकड़ों नौजवान बंगाल में शहीद हुए थे. ऎसे में शहीद बेटे की मां का चित्र इस दौर की कविता में बार बार कौंधता है-
जेल के सींकचे पकड़ सब कुछ खोई, हे जननी
अलग से
किसका चेहरा ढूंढ लेना चाहती हो?
(‘जेल के सींकचे पकड़कर’ शीर्षक धूर्जटि चटोपाध्याय की कविता से)
सृजन सेन की ‘थाना गारद थेके मां के’ (थाना हवालात से मां को) शीर्षक कविता या रंजित गुप्त की ‘खुली चिट्ठी’ शीर्षक कविता भी ऎसी ही कविताओं हैं। महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘हज़ार चौरासी की मां’ की महाकाव्य वेदना इसी संवेदना का का विस्तार है। ऊपर उद्धृत कवियों के अलावा विनय घोष,कमलेश सेन, पार्थ बंदोपाध्याय, वीरेंद्र चट्टोपाध्याय, अमित दास, केस्टो पोड़ेल,शोभन सोम,अनिंद्य बसु, सत्येन बंदोपाध्याय,तुषार चंद, समीर राय, अर्जुन गोस्वामी, अमिय चट्टोपाध्याय,मणिभूषण भट्टाचार्य,इंद्र चौधुरी, आलोक बसु ने बांगला कविता के 70 और 80 के दशक पर अमिट छाप छोड़ी। यह परंपरा बांगला कविता में आज भी जीवित है। आज के बांगला साहित्य के संभवत: सबसे चर्चित नाम नबारुण भट्टाचार्य सहित तमाम कवि आज भी नंदीग्राम, सिंगूर या लालगढ़ में जनता के कत्लेआम के खिलाफ़ उसी तेवर से सृजनरत हैं.कथा सहित्य में भी उत्पलेंदु जैसे रचनाकारों ने नया आवेग पैदा किया. क्रांतिकरी नुक्कड़ नाटकों का मंचन तो नक्सलबाड़ी विद्रोह से उपजे जनांदोलन का हर कहीं एक आवश्यक हिस्सा था ही, लेकिन बांग्ला थियेटर भी इससे अछूता न रहा. थिएटर यूनिट के आशीष चटर्जी और ‘सिलूएट” के प्रबीर दत्त तो क्रमश: 1972 और 1974 में शहीद ही हो गए. 1970 में विख्यात रंगकर्मी उत्पल दत्त, जिन्हें हिंदी दर्शक फ़िल्मी हास्य अभिनेता के रूप में जानते हैं, ने लिखा,” क्रांतिकारी थियेटर को क्रांति का प्रचार करना चाहिए. उसे न केवल व्यवस्था का भंडाफोड़ करना चाहिए, बल्कि राज्य मशीनरी के हिंसक खात्मे का आह्वान करना चाहिए.” आश्चर्य नहीं कि’ 70 के दशक में उत्पल दत्त ने ‘जात्रा’ के ज़रिए थियेटर को लोक कलारूपों से समृद्ध करते हुए उसे गांव के गरीबों की ऒर मोड़ दिया. इस दौर के उनके तमाम नाटक ‘टीनेर तलवार(’73), बैरीकेड(’77), सूर्यशिकार(‘ 78) और दुष्स्वप्नेर नगरी (’79-’80) सरकार के कोप का भाजन बने। कर्जन पार्क, कलकत्ता में जहां ‘मुक्ति आश्रम’ नाटक खेलते वक्त प्रबीर दत्त शहीद हुए, ठीक उसी जगह एक महीने बाद,उनकी याद में , बादल सरकार ने 24 अगस्त,1974 में अपना नाटक ‘जुलूस’ प्रस्तुत किया. बादल सरकार ने ‘७० के दशक में ‘तीसरा रंगमंच’ यानी भारत का ग्रामीण रंगमंच स्थापित किया.प्रोसेनियम को तिलांजलि देकर उन्होंने कम खर्चीला, लचीला और गांव-देहात के सुदूर इलाकों तक ले जाया जा सकने वाले नाट्यरूप का आविष्कार किया. 1967 में बादल सरकार ने ‘सगीन महतो’ नाटक लिखने के साथ ही इस नए प्रयोग की शुरुआत की ‘जुलूस’, ‘भोमा’, ‘बासी खबर’ और ‘खाट-माट-किंग’आदि नाटक इसी नाट्य संवेदना का विस्तार थे. ‘भोमा’ नाटक के इस अंश में ’70 के दशक की प्रतिरोध की चेतना का अक्स देखा जा सकता है-
“भोमा जंगल। भोमा आबाद.भोमा गांव.हिंदुस्तान की पचहत्तर फ़ीसदी आबादी गांव में रहती है. भोमाओं का खून पीकर हम रहते हैं शहरों में”
बंगाल में सृजन की हर विधा को नक्सलबाड़ी की चेतना ने भीतर तक मथा। ’90के दशक तक में शहरी मध्यवर्ग से आए लोकप्रिय गायकों की एक पीढ़ी जिसमें सुमन चट्टोपाध्याय, नचिकेता, प्रतुल और प्रबीर बल विशेष उल्लेखनीय हैं,’70 के क्रांतिकारी दशक के रोमान को आज भी अपनी कला में जीते हैं. आश्चर्य है कि खुद को नक्सलबाड़ी की चेतना से प्रेरित मानने वाले बहुत से बांग्ला बुद्धिजीवी आज वाममोर्चा के कुशासन के खिलाफ़ तृणमूल के साथ खड़े हैं. नक्सलबाड़ी ने और उसके बौद्धिकों ने क्रूरतम दमन झेलकर भी पारंपरिक वाम का एक स्वतंत्र वाम विकल्प ही रचा था, किसी पूंजीवादी दल का दामन नहीं थामा था.
क्रांतिकारी गीतों और नाटकों के प्रति समर्पित चारुबाबू जन नाट्य संगठन बनाए जाने के खिलाफ़ रहा करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि ये मध्यवर्ग का अड्डा बन जाएंगे. लेकिन जिस आंदोलन के वे महानायक थे, उससे प्रेरणा लेकर तमाम सांस्कृतिक और लेखक संगठन बने. नक्सलबाड़ी के ही समानांतर चल रहे ‘श्रीकाकुलम’ के किसान विद्रोह की प्रेरणा से तेलुगू साहित्यकारों ने पहले 1966 में वरवर राव की पहल पर ‘साहिति मित्रलु'(साहित्य के मित्र), फ़िर ‘तिरगबदु'(विद्रोही, 1970) जैसे संगठन बनाए जिनका अंतत: ‘विप्लव रचयिताल संघम’ (विरसम:1970) यानी ‘क्रांतिकारी लेखक संघ’ के रूप में विकास हुआ. तेलुगु में आधुनिक चेतना के जनक महाकवि श्री श्री जिन्होंने 1962 के हिंद-चीन युद्ध के समय कम्यूनिस्टों की सामूहिक गिरफ़्तारी के खिलाफ़ 1964-66में पहले नागरिक अधिकार संगठन की नींव रखी थी नौजवान संस्कृतिकर्मियों के साथ आ मिले. महान मुक्तियोद्धा और कवि सुब्बाराव पाणिग्रही 1969 में शहीद हुए.’विरसम’ ने पाणिग्रही को ही अपना प्रेरणा-स्रोत घोषित किया. श्री श्री, आर.वी. शास्त्री, के.वी. रमन रेड्डी,चेराबंडराजू, वरवर राव, सी. विजयलक्ष्मी, ज्वालामुखी, सत्यमूर्ति,निखिलेश्वर,अशोक टंकसाला आदि ने तेलुगू साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव लाया. बीच बीच में विरसम प्रतिबंधित भी होता रहा लेकिन मंच के रूप में इन संगठनों से जुड़े लेखकों की ‘सृजन’ पत्रिका 200 से ज़्यादा अंक निकाल चुकी है और समकालीन तेलुगू साहित्य को इसने दूर तक प्रभावित किया है. 1971 में गद्दर ने ‘जन नाट्यमंडली’ की स्थापना की. तब से आज तक गद्दर गांव गांव में अपने नृत्य-गीत-नाटकों का ज़बर्दस्त प्रदर्शन कर जनता में क्रांतिकारी चेतना फ़ैलाते रहे हैं. चेराबंडराजू का यह लोकप्रिय गीत गद्दर झूमझूम कर गाते हुए जनता में क्रांतिकारी प्रश्नाकुलता पैदा करते हैं-
‘पर्वतों को तोड़कर, पर्थरों को फोड़कर
बनाईं योजनाएं ईंट लोहू से जोड़कर
श्रम किसका है?
धन किसका है?
जंगल को काटकर धरती को जोतकर
फ़सलें उगाई स्वेद लहरों से सींचकर
भात किसका है?
माड़ किसका है?
मलयालम में ‘जनकीय सांस्कारिक वेदी’ का गठन 1970 में हुआ जो न केवल सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक संघर्षों को भी चलाने वाला संगठन था। केरल के सांस्कृतिक जगत को उसने न केवल नयी तरह की क्रांतिकारी कविताओं- नाटकों, ‘प्रेरणा’ पत्रिका,बल्कि अपनी ज़बर्दस्त बहसों से झकझोरा और बाद में भारी दमन और आंतरिक विघटन का शिकार होने के बाद भी मलयाली साहित्य पर उसके संस्कार अमिट हैं. कदमनिता रामाकृष्नन, के.जी. शंकर पिल्लई, कें सच्चिदानंदन, सिविक चंद्रन, अत्तूर रवि, एन. सुकुमारन,यू.जी. जयराज,तोप्पिल भासी,बालचंद्रन चुल्लीकाड आदि ने कविता, कहानी और नाटक, सभी विधाओं में अमिट छाप छोड़ी. वेदी द्वारा सैकड़ों स्थानों पर खेला गया नाटक ‘नाडूगड्डिका’ आदिवासी कलाकारों को लेकर उनके ही अनुष्ठानों को कलारूप में बदलकर कम्यूनिस्ट आदर्शों की विजय का अनमोल नाटक है.पंजाबी में अमरजीत चंदन, अवतार सिंह ‘पाश’, लालसिंह ‘दिल’, सुरजीत पातर, संतराम उदासी, गुरुशरण सिंह, स्वदेश दीपक आदि तमाम गीतकार, कवि, नाटककार जो आज भी पंजाबी साहित्य के सिरमौर हैं, इसी आंदोलन की पैदावार हैं। मराठी के दलित साहित्य आंदोलन में नामदेव ढसाल, दया पवार, राजा ढाले आदि ने नक्सलबाड़ी की चेतना से युक्त होकर उसे नया विस्तार दिया. ‘एक नक्षलवादया चा जन्म’ शीर्षक विलास मनोहर का मराठी उपन्यास एक आदिवासी द्वारा नक्सलबाड़ी का रास्ता अख्तियार करने की कथा कहता है. अरुंधति राय के चर्चित उपन्यास ‘गाड आफ़ स्माल थिंग्स’ का नायक भी नक्सल कार्यकर्ता है. मन्नू भंडारी के ‘महाभोज’ की पृष्ठभूमि में इस आंदोलन की गूंज है. उड़िया, कश्मीरी, उर्दू, नेपाली, कन्नड़,असमिया आदि भाषाओं के साहित्य में भी नक्सलबाड़ी की चेतना के प्रभाव में महत्वपूर्ण रचनाएं प्रकाश में आईं. जिस तरह नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम की प्रेरणा ने तेलुगू के ‘दिगम्बर कवलु’ जैसे काव्यांदोलन के ज़्यादातर कवियों में चेतनागत रूपांतरण उपस्थित किया, जैसे कि बांगला की ‘क्षुधित पीढी़’ का काव्यांदोलन इस क्रांतिकारी ज्वार में बह गया, कुछ उसी तरह हिंदी में अकविता और अकहानी आंदोलन समाप्त हुए.हिंदी-उर्दू क्षेत्र की कविता में पूरे उत्कर्ष के साथ नक्सलबाड़ी के आंदोलन की चेतना की धमक धूमिल, आलोकध्न्वा, कुमार विकल,लीलाधर जगूड़ी, गोरख पाण्डेय, माहेश्वर, तड़ित कुमार, हरिहर द्विवेदी, ध्रुवदेव ‘पाषाण’, देवेंद्र कुमार, कुमारेंद्र पारस नाथ सिंह, वेणुगोपाल, जैसे कवियों में पहले पहल सुनाई पड़ी. साथ साथ उनसे भी युवतर नीलाभ, वीरेन डंगवाल, ज्ञानेंद्रपति,विजेंद्र अनिल,मदन कश्यप,पंकज सिंह,बल्ली सिंह ‘चीमा’, मंगलेश डबराल,शंभू बादल की रचनाओं में वह आज भी हिंदी कविता की ताकतवर आवाज़ है जबकि इसके असर के व्यापक दायरे में अन्य भी महत्वपूर्ण कवि जैसे कि दिनेश कुमार शुक्ल की तमाम कविताएं आती हैं. प्रगतिशील धारा की तब की नव्यतर पीढ़ी के कवि अरूण कमल की कविताओं पर भी इस चेतना की छाप मिलती है. यों इनसे भी नवतर पीढ़ी ने इस चेतना को अंगीकार किया है. नक्सलबाड़ी की चेतना के प्रभाव में प्रगतिशील धारा के वरिष्ठ कवि नागार्जुन की ‘मैं तुम्हें चुम्बन दूंगा’, ‘भोजपुर’ और ‘हरिजन गाथा’ और त्रिलोचन की ‘नगई महरा’ जैसी ताकतवर कविताएं प्रकाश में आईं. नई कविता के अग्रणी कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 1985 में दिल्ली में गठित हिंदी-उर्दू क्षेत्र में नक्सलबाड़ी धारा के पहले सांस्कृतिक संगठन “जन संस्कृति मंच” के साथ हो लिए. इस संगठन के पहले महासचिव गोरख पांडेय और अध्यक्ष विख्यात नाटककार गुरुशरन सिंह निर्वाचित हुए. एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह हुई कि मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान आंदोलन ने भोजपुरी रचनाधर्मिता को एक नूतन आवेग दिया. कवि-विचारक-संगठक गोरख पाण्डॆय खुद ही भोजपुरी के इस नवोन्मेष का नेतृत्व कर रहे थे. भोजपुर के आंदोलन की ताकतवर आवाज़ थे भोजपुरी कवि और आज़ादी की लड़ाई के सेनानी रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’. द्र्गेंद्र अकारी, निर्मोही आदि तमाम भोजपुरी कवियों ने इसी आंदोलन से ऊर्जा पाई. नाटक की दुनिया में स्वदेश दीपक,ज़हूर आलम,राजेश कुमार,अनिलरंजन भौमिक, चित्रकार-रंगकर्मी-कवि-कथाकार अशोक भौमिक, आलोचना में मैनेजर पाण्डेय, वीरभारत तलवार, चमनलाल,अनिल सिनहा, रविभूषण आदि लगातार अपने सृजन में इस आंदोलन की चेतना के वाहक रहे हैं. कथा साहित्य के क्षेत्र में काशीनाथ सिंह,महेश्वर, मधुकर सिंह,विजयकांत, नीरज सिंह, संजीव,धीरेंद्र अस्थाना,अवधेश प्रीत, शैवाल,कुमार संभव.श्रीकांत, सृंजय, मनीष राय,सुरेश कांटक,सिरिल मैथ्यू,शेखर, शिवकुमार यादव, रामदेव सिंह,अरविन्द कुमार, कैलाश बनबासी सहित लेखकों की लम्बी कतार है जिन्होंने इस आंदोलन के असर में अपने सृजन कर्म का विशिष्ट विन्यास पाया. आज बाज़ार और भूमंडलीकरण के दौर में यदि साहित्य और कला को प्रतिरोध का क्षेत्र मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है, तो असंदिग्ध रूप से यह नक्सलबाड़ी की सांस्कृतिक चेतना के अप्रतिहत प्रवाह का असर है. हिंदी सहित सभी भाषाओं के नक्सलबाड़ी धारा के संस्कृतिकर्म में पहले से चली आ रही मानवतावादी और प्रगतिशील परंपरा अपना पुनर्जीवन पाती है. कवियो की वाणी में उनके पुरखे भी बोलते हैं, जैसे कि गोरख पाण्डेय की इस कविता में निराला का ध्वनि-विन्यास और शमशेर की एक प्रसिद्ध कविता की पंक्ति नए अर्थ धारण करती है-
कविता युग की नब्ज़ धरो
अफ़्रीका, लातीन अमेरिका
उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निगाह में
खंजर सी उतरो!
…………………………………..
शोषण छल-छंदों के गढ़ पर,
टूट पड़ो नफ़रत सुलगाकर
क्रुद्ध अमन के राग,
युद्ध के पन्नों से गुज़रो!
उल्टे अर्थ विधान तोड़ दो
शब्दों से बारूद जोड़ दो
अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को
छापामार करो!
(गोरख पाण्डेय, ‘कविता युग की नब्ज़ धरो’)
फ़िल्मों की दुनिया में ‘जुक्ति ताक्को गप्पो'(रित्विक घटक,बांगला,1974), ‘नक्सलाइट’ (ख्वाज़ा अहमद अब्बास, हिंदुस्तानी,1980), चोख(उत्पलेंदु चक्रवर्ती,बांग्ला, 1983), अम्मा आरियां( जान अब्राहम, मलयालम, 1986), पिरावी (शाजी एन। करुना, मलयालम, 1988) के ज़रिए इस आंदोलन का अक्स उकेरा गया. कन्नड़ में ‘वीरप्पअ नायक'(एस. नारायण,1990), ‘माथाद माथाद मल्लिगे'( नागातिहल्ली चंद्रशेखर, 2007) जैसी फ़िल्में नक्सलबाड़ी की चेतना के पक्ष से गांधीवाद के साथ संवाद और विवाद की फ़िल्में हैं. मलयाली फ़िल्म ‘तलप्पवु’ (2009) ’70 के दशक में शहीद क्रांतिकारी वरगीज़ के जीवन पर केंद्रित है॥मलयाली फ़िल्म ‘गोलमोहर'(जयराज, 2008) भी नक्सल थीम पर आधारित है.’ हज़ार चौरासी की मां'(गोविंद निहलानी,हिंदी,1998) इसलिए भी काफ़ी चर्चित रही और देखी गई क्योंकि महाश्वेता जी के उस उपन्यास से लोग पहले से ही परिचित थे,जिसपर फ़िल्म बनी. इससे पहले भी निहलानी 1984 में ‘आघात’ बनाकर मुबई में गुंडा गिरोहों द्वारा वामपंथी ट्रेड यूनियनों के खात्मे से निपटने के लिए ‘तीसरे रास्ते’ का संकेत दे चुके थे. ‘लाल सलाम'( गगनविहारी बोराटे,2002) ‘हज़ारों ख्वाहिशें ऎसी’ (सुधीर मिश्रा, 2005) वगैरह भी चर्चित फ़िल्में रही हैं.
आज नक्सलबाड़ी विद्रोह के चालीस साल बाद भी उससे नया सृजन उन्मेष पाने वालों को कवि वीरेन डंगवाल के ताज़ा संग्रह `स्याही ताल` की ये पंक्तियां जितना आश्वस्त करेंगी, उतना ही बेचैन भी करेंगी-
“दरअसल मैनें तो पकड़ा ही एक अलग रास्ता
वह छोटा नहीं था न आसान
फ़कत फ़ितूर जैसा एक पक्का यकीन
एक अलग रास्ता पकड़ा मैनें….”
(वीरेन डंगवाल,`कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा`,’स्याही-ताल’ कविता-संग्रह, 2009 से)
(यह लेख पूर्व में ‘प्रभात खबर’ अखबार और ‘एक जिद्दी धुन’ ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है )