जयप्रकाश नारायण
इस दशक के शुरुआत में दुनिया ने भारत में बेमिसाल किसान आंदोलन देखा है। किसान विरोधी कॉर्पोरेट परस्त नीतियों का विरोध करते हुए हजारों किसान प्रतिकूल मौसम और परिस्थितियों में भी 13 महीने तक राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहे। अंत में खुद प्रधानमंत्री को आगे आकर काले कानूनों को वापस लेना पड़ा। आंदोलन वापसी के बाद सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों और लम्बित सवालों को हल करने के नजरिए से स्पष्ट हो गया है कि कानून बनाने से लेकर कानून वापस लेने तक मोदी सरकार न ईमानदार थी और न शुद्ध और पवित्र हृदय से किसानों की जीत को स्वीकार कर सकी। आज भी एमएसपी की कानूनी गारंटी और कर्जमाफी के सवाल अनुत्तरित पड़े हैं। भूमि अधिग्रहण के लिए बना 2013 का भूमि संरक्षण एवं अधिग्रहण कानून रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है। बिजली बिल तथा पराली जलाने जैसे सवाल पर सरकार चर्चा के लिए भी तैयार नहीं है। बल्कि बिजली के निजीकरण और स्मार्ट मीटर लगाने की योजना को तेजी से आगे बढ़ा रही है। जिससे जगह-जगह किसानों और बिजली कर्मचारियों के साथ सरकार का टकराव बढ़ रहा है।
सच कहा जाए तो किसान कॉर्पोरेट परस्त सरकार द्वारा ठगा जा चुका है। इसके लिए सीधे प्रधानमंत्री दोषी हैं। उन्होंने किसानों के समक्ष किए गए वायदों को पूरा नहीं किया ।शायद ही लोकतांत्रिक दुनिया के इतिहास में ऐसी कोई सरकार रही हो, जो सार्वजनिक रूप से जनता से किए गए वादे और समझौते के साथ विश्वास घात की हो। लेकिन भारत में ऐसा हुआ है। जिस कारण सम्पूर्ण देश के किसान और किसान संगठन आज भी विभिन्न तरह से आंदोलन कर रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा एक मंजिल पर आकर विभाजित तो हो गया लेकिन किसानों के संघर्ष की क्षमता में कोई गिरावट दर्ज नहीं की गई है। अभी सरकार कृषि विपणन के लिए नई नीति लेकर आ गई है। जो तीन कृषि कानूनों का और खतरनाक संस्करण है। इस समय भूमि अधिग्रहण के लिए बडी संख्या में परियोजनाएं चल रही हैं। देश का कोई कोना नहीं बचा है, जहां भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जन आक्रोश दिखाई न दे रहा हो।
विगत 5 वर्षों में कृषि के संकट के दायरे में छोटे मझौल किसानों से लेकर मजदूर तक खिंच आये हैं। माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के कर्जजाल में फंसे ग्रामीण समाज में भारी उथल-पुथल चल रही है। जिससे अवसाद और संघर्ष की दो विरोधी प्रवृत्तियां सतह पर दिखाई देने लगी हैं। इन कंपनियों ने कार्यकर्ता के रूप में दबंगों को नियुक्त कर रखा है। जो गरीब मजदूर किसानों के घरों पर जाकर उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं और मानसिक रूप से प्रताड़ित करते हैं। इस विकसित हो रहे माहौल में ग्रामीण समाज का अस्तित्व ही दांव पर लगा है । जिससे नए तरह के एजेंडे और मुद्दे उभर कर आ रहे हैं। आज सवाल यह है कि यथार्थ के बदलते स्वरूप में क्या किसान आंदोलन का नया संस्करण भारत में देखने को मिलेगा या ये प्रवृत्तियां सतह पर ही दफन हो जाएंगी।
भूमि लूट का कॉरपोरेट रोडमैप
19वी सदी (1851- 52) के मध्य में भारत में रेलवे की शुरुआत हुई। उस समय मार्क्स ने कहा था कि इंग्लैंड ने भारत में रेल लाइनों के जाल द्वारा औपनिवेशिक लूट की जो परियोजना शुरू की है, वह भारतीय समाज की जड़ता को खत्म कर देगी और भारत में नए जागरण की शुरुआत का कारक बनेगी। इंग्लैंड ने जाने-अनजाने भारतीय समाज में परिवर्तन के नए तत्व प्रवेश करा दिए हैं । कंपनी ने जब भारतीय रेलवे की नींव रखी तो उसका उद्देश्य था सुदूर इलाकों से पैदा होने वाले कृषि और वनोउत्पाद के साथ प्राकृतिक और खनिज सम्पदा को सुगमता पूर्वक बंदरगाहों तक ले जाने के लिए राह बनाना। उस समय के रेलवे मैप देखें तो सुदूर और दुर्गम क्षेत्रों से प्रारंभ हुई रेल परियोजनाएं अंततोगत्वा किसी समुद्री बंदरगाह पर जाकर खत्म होती थी। इसका उद्देश्य था कि भारत के कपास, खनिज, अनाज, कच्चा माल को समुद्र तट पर बने बंदरगाहों तक पहुंचाना और वहां से ब्रिटेन के औद्योगिक जरुरतों के लिए जल मार्ग से इंग्लैंड तक ले जाना। भारत जैसे उपनिवेशों की इसी लूट से ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति चरम पर पहुंची थी।
भारत की अपार प्राकृतिक संपदा की लूट से वह दुनिया का ऐसा मुल्क बना, जिसके राज में सूरज नहीं डूबता था। भारत की लूट से ही ब्रिटेन के लिए यह संभव हुआ कि वह विश्व महाशक्ति बना और फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड, इटली को पछाड़ते हुए विश्व की बादशाहत हासिल कर ली।
लेकिन यह नियम है कि जब किसी देश-समाज में नई तकनीकी ज्ञान और उत्पादन के औजार (आवागमन के साधन मशीन और तकनीक तदनुसार शैक्षणिक संस्थान )का प्रवेश होता है। तो वह समाज भी स्थिर नहीं रहता। रेलवे के जाल के विस्तार ने भारत में बड़े पैमाने पर किसानों, आदिवासियों और ग्रामीण समाज को उनके पुस्तैनी संसाधनों, जमीन, जंगल से बेदखल किया। जिसका परिणाम हुआ कि भारत में स्वतंत्रता की लहरें उठने लगीं। जगह-जगह विद्रोह की जमीन तैयार हो गई। जिसके परिणाम स्वरूप सैकड़ों छोटे-बड़े जन विद्रोह हुए। जिसमें भारत के लोगों द्वारा दिए गए बलिदान और उनकी जिजीविषा आज भी हमें उत्तेजित कर देती है।
उदारीकरण के दूसरे दौर में भारत-1991 से लागू हुई एलपीजी (उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण ) की नीतियां अब तीसरे दौर में प्रवेश कर रही है। पहले दौर में आजादी के बाद बनी आर्थिक नीतियों व संस्थाओं का विश्व बाजार की जरूरतों के अनुसार पुनर्गठन हुआ। दूसरे चरण से भारत के बाजार को वैश्विक बाजार के साथ जोड़ दिया गया। जहां नरसिम्हा राव सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में विदेशी पूंजी के अनुकूल भारतीय बाजार के अंतर संबंधों को दुरुस्त करने के लिए धीरे-धीरे कदम बढ़ाए। वही वाजपेई सरकार में इसकी गति तेज हो गई। उसी समय कृषि बाजार को विश्व बाजार के लिए खोला जाने लगा।
उदारीकरण का प्रभाव
इस दौर में किसानों में दरिद्रीकरण और कर्जदारी तेजी से बढ़ी। जिसका असर ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर पलायन और बाद में हताशा में किसान की आत्महत्या के रूप में दिखाई दिया। दूसरा- इस दौर में इंफ्रास्ट्रक्चर और कनेक्टिविटी डेवलप करने के नाम पर भूमि लूट शुरू हुई । स्वर्ण चतुर्भुज योजना ने भारत में भूमि अधिग्रहण के अभियान को तेज किया। इसके साथ जगह-जगह औद्योगीकरण स्पेशल इकाॅनामिक जोन( सेज)और अन्य उपक्रमों के लिए भूमि अधिग्रहण की बाढ़ आ गई । जिसके परिणाम स्वरूप किसानों में असंतोष बढ़ा। उत्तर प्रदेश में ही भट्ठा पारसौल, घोड़ा बछेड़ा और दादरी जैसी जगहों पर किसानों पर गोलियां चलाई गईं। इसमें कई किसान शहीद हुए। यह लूट छत्तीसगढ़ के बस्तर, झारखंड और उड़ीसा के इलाके में बर्बर रूप में देखी गई। भूमि अधिग्रहण के खिलाफ उठ रहे आन्दोलन को देखते हुए मनमोहन सिंह सरकार 2013 में भूमि अधिग्रहण विधेयक लेकर आयी।
दूसरा कारण था विश्व बाजार के साथ भारतीय कृषि का संबंद्ध होना। जिससे भारतीय किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। उनकी फसलों के उचित दाम न मिल पाने से खेती संकट में चली गई । जिस कारण लाभकारी मूल्य के लिए किसान सड़कों पर उतरने लगे। इस स्थिति को देखते हुए सरकार ने कृषि विशेषज्ञ स्वामीनाथ के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया। जिसने किसानों के उत्पादन के मूल्य तय करने के लिए एक प्रणाली सुझाई । इसमें कृषि उत्पादन को c2 + 50% मुनाफे के साथ फसल का मूल्य तय करना था।
लेकिन सरकारों ने आयोग के रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस परिस्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों में दो प्रकार के आंदोलन शुरू हुए। एक था गांव और भूमि बचाने के लिए किसानों और ग्रामीण समाज का संघर्ष। दूसरा कृषि उत्पाद के लाभकारी मूल्य के लिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करने की मांग। जो अंततोगत्वा एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के रूप में ठोस शक्ल ली।
जगह-जगह किसानों ने फसलों के लाभकारी मूल्य के लिए आंदोलन शुरू किया। इसी क्रम में मध्य प्रदेश के मंदसौर मंडी में आंदोलन कर रहे किसानों पर शिवराज सिंह की सरकार ने गोलियां चलाई। जिसमें 6 किसान मारे गए। इस घटना के बाद किसान आंदोलन में गुणात्मक परिवर्तन आ गया। बाद में कोविड का फायदा उठाते हुए मोदी सरकार तीन कृषि कानून लेकर आई ।तो परिदृश्य बदल गया । इसके बाद दुनिया ने इतिहास के सबसे बड़े किसान आंदोलन को देखा। जो उदारीकृत कॉर्पोरेट नियंत्रित विश्व में संघर्ष रत किसानों के लिए प्रेरक नजीर बन चुका है।
मोदी सरकार का अमेरिका के सामने आत्म समर्पण
20 जनवरी 25 को अमेरिका में ट्रंप ने राष्ट्रपति की शपथ ली। उसके तुरंत बाद भारत का कान ऐंठना शुरू कर दिया। ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री के सामने ही धमकी दी क्यों भारतीय माल पर और टैरिफ लगाएगा । उसने भारत की खिल्ली उड़ाई और मोदी ट्रंप के सामने असहाय सा बैठे रहे। उसके पहले ही भारत में सरकार ने 2025-26 के बजट में अमेरिकी माल पर टैरिफ घटाने का ऐलान कर दिया था । जिसे 120% घटकर 15 से 20% पर लाने का प्रस्ताव था। फिर भी ट्रंप धमकियां देते रहे कि वह भारतीय उत्पादों पर अतिरिक्त शुल्क लगाएंगे। अब सुनने में आ रहा है कि भारत अमेरिका के बीच में मुक्त व्यापार समझौते ( FA) पर वार्ता चल रही है। जो अक्टूबर तक शायद लागू हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो भारतीय कृषि की कमर टूट जाएगी। क्योंकि अमेरिका से सस्ते में गेहूं, दूध, कपास, फल आदि कृषि उत्पाद का भारत आयात करेगा और भारतीय किसान बेमौत मारे जाएंगे।
वर्तमान प्ररिदृश्य और उभर रहे किसान आंदोलन के मुद्दे
मोदी सरकार ने राष्ट्रीय कृषि विपणन नीति फ्रेमवर्क (NPFAM) नाम से एक प्रस्ताव तैयार किया है। जिसे राज्यों में सहमति के लिए भेजा जा चुका है। यह प्रस्ताव तीन कृषि कानूनों की नयी पैकेजिंग है । इसके द्वारा सरकारी मंडियों को खत्म कर निजी मंडियों को प्रोत्साहित किया जायेगा। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेट घराने को लाभ पहुंचाने की साजिश है । स्थानीय ग्रामीण मंडियों को कमजोर कर एफपीओज, ई-नाम और ठेका खेती (कांट्रैक्ट फार्मिंग) के माध्यम से बड़े कृषि प्रोसेसिंग उद्योगों के लिए सस्ते कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चत करने की चाल है। साथ ही यह खेती को फ्यूचर ट्रेडिंग और शेयर मार्केट से जोड़ने की कोशिश है । यह सब विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक की सिफारिश के अनुसार किया जा रहा है। साफ बात है कि मोदी सरकार( 2020 में लाये तीन कृषि कानूनों से ) कृषि को कॉर्पोरेट के हाथ में सौंपने के अपने लक्ष्य से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है। इस बार सिर्फ इसमें विधानसभाओं से पास कराने का नाटक जोड़ दिया गया है। निश्चय ही आने वाले समय में इसके खिलाफ किसानों के संघर्ष तेज होंगे।
दूसरा मुद्दा- ईस्ट इंडिया कंपनी ने रेल लाइन बिछाने के जिस तरह से बहुत बड़े पैमाने पर भारत के किसानों और ग्रामीणों से बलपूर्वक भूमि छीनी थी। मोदी सरकार उससे ज्यादा क्रूरता पूर्वक भूमि लूट अभियान चला रही है । जिसके लिए कई तरह के तरीके लिए गए है। एक- भारतमाला परियोजना के नाम पर पूरे देश को सड़क मार्ग से कनेक्टिविटी विकसित करना । यह एक बृहत्तर भूमि छीनो अभियान है। जिससे बड़े स्तर पर उपजाऊ किस्म की जमीनों का नेचर बदल जायेगा ।
दूसरा- एक्सप्रेस वे या हाईवे के निर्माण और विस्तारीकरण से सुदूर गांवों और प्राचीन कस्बों शहरों के विध्वंस हो रहा है। साथ ही किसानों की बहुमूल्य भूमि का अधिग्रहण कर बड़े कॉर्पोरेट घरानों को दे दिया जाएगा। जहां वे माल या बड़े गोदाम खड़ा कर सके। इस बे रहम अधिकरण की कार्रवाई से सैकड़ों गांवों, कस्बों, छोटे शहरों का स्वरूप ही बदल जा रहा है।
तीसरा- उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट घरानों द्वारा सरकार के संरक्षण में जमीनों का अधिग्रहण। उदाहरण स्वरूप अमौसी हवाई अड्डे के विस्तार के लिए अदानी द्वारा चार गांवों की सैकड़ों एकड़ जमीनों का बलपूर्वक अधिग्रहण किया जा रहा है। जिसके खिलाफ चार महीने से ज्यादा समय से किसान आंदोलनरत हैं।
चौथा – बन क्षेत्रों और जल स्रोतों तक मल्टीनेशनल कंपनियों के पहुंच को सुनिश्चित करना। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में पलिया मैलानी निघासन क्षेत्र, उड़ीसा की चिल्का झील तथा तमिलनाडु, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में यह अभियान चल रहा है।
पांचवा- खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए कॉर्पोरेट कंपनियों को इजाजत देना। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हसदेव पहाड़ियों के हजारों वर्ग किलोमीटर वन भूमि को अदानी के हाथ में सौपना। क्योंकि वहां लाखों टन कोयला सहित अन्य खनिज भंडार जमीन में भरा पड़ा है। इस क्षेत्र में लाखों वृक्षों की कटाई से जो पर्यावरणीय छति होगी, उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। कई नदियों सहित जल स्रोतों के जाने से बनों उपज जैसे जंगली जड़ी बूटियां व वृक्षों का सर्वनाश साफ-साफ दिखाई दे रहा है । हसदेव जंगल का क्षेत्र हाथियों सहित अनेक जंगली जीवों का अभ्यारण रहा है। इसके अलावा इस बन क्षेत्र के विध्वंस से पर्यावरणीय सुरक्षा का खतरा बना हुआ है। हसदेव के जंगलों को छत्तीसगढ़ का फेफड़ा कहा जाता है । यहां आदिवासियों सहित सभी लोग वर्षों से आंदोलनरत हैं और दमन झेल रहे हैं।
छठा- कॉर्पोरेट लार्डो के लिए भूमि बैंक बनाने के नाम पर परती बंजर ग्राम समाज जंगलात नदियों के छारण से निकली अतिरिक्त भूमि को बलपूर्वक किसानों से हथियाया जाना।
सातवां – बन्य जीव संरक्षण के नाम पर किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल करना। जैसे, हाथी कॉरिडोर तथा वन्य जीव संरक्षण कॉरिडोर । लखीमपुर में बड़े पैमाने पर जंगलों के किनारे के गांवों को खाली करने के लिए नोटिस दिया गया है। नदियों के डूब क्षेत्र के नाम पर सैकड़ों गांव को उजाड़ने का फरमान जारी करना , साथ ही वर्षों से बसे हुए लाखों परिवारों को अवैध घुसपैठिए या भूमाफिया घोषित कर उनको बलपूर्वक बेदखल करने का अभियान चलाना। इसके लिए चकबंदी विभाग सहित राजस्व विभाग से जुड़े सभी महकमों और वन कानूनों का मनमाना दुरुपयोग करते हुए किसानों के नाम खतौनी या भू अभिलेख से हटाने का खेल चल रहा है। लखीमपुर में मैलानी के बगल में नारंग गांव सुआभोज और पलिया तहसील के बसही सहित कई गांव इस तरह की कार्रवाइयों के चपेट में हैं। इसके खिलाफ किसान वर्षों से आंदोलन कर रहे हैं।
असम सहित अनेक आदिवासी क्षेत्रों, जिसमें झारखंड, उडीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान के आदिवासी इलाके शामिल हैं, यहां भी विकास और अवैध कब्जे के नाम पर यह खतरनाक खेल चल रहा है। यही हालत बिहार के सुपौल सहरसा जिला में भी हो रहा है।
आठवां- अब तक हुए भूमि सुधारों को पलटते हुए लाखों दलितों आदिवासियों और गरीब परिवारों को जमीन और आवास से बेदखल करने का सुनियोजित अभियान चल रहा है। इस अभियान से उत्तर प्रदेश के सभी जिले प्रभावित हुए हैं ।
नौवां-शहरी विकास का मास्टर प्लान। वस्तुतः है यह गांव उजाड़ो और भूमि हड़पो अभियान। जिसकी जद में हजारों गांव आने वाले हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में भदोही डेवलपमेंट अथॉरिटी ने 200 से ज्यादा गांव को नोटिस दे रखा है । वाराणसी खेती की जमीन लूटने और गांव उजाड़ने का मॉडल जिला बन गया है। अभी वाराणसी के डुमरी में 350 बीघा जमीन बन क्षेत्र विकसित करने के लिए छीनी जानी है । यही हालत चंदौली, सोनभद्र आदि जिलों में भी है।
बिहार भी इससे अछूता नहीं है। जहानाबाद के नवानगर ब्लॉक में सबसे उपजाऊ जमीन वाले पांच गांवों के रहवासियों को बेदखल करने का अभियान चल रहा है । पटना देहात में जमीन लूट के खिलाफ मसौढ़ी में एसकेएम की महापंचायत हुई है। सिवान से लेकर सीतामढ़ी तक सीता पथ के लिए अधिगृहित की जाने वाली भूमि वाले गांव में व्यापक जन आक्रोश फैल रहा है।
बिहार में चुनाव को देखते हुए प्रधानमंत्री ने मखाना बोर्ड बनाने की घोषणा की। मोदी चुनाव आते ही मखाना खाने लगे हैं। वस्तुतः इससे कीमती पौष्टिक ड्राई फ्रूट के व्यापार के लिए मखाना बोर्ड द्वारा मल्टीनेशनल कंपनियों के प्रवेश के लिए दरवाजा खोलने का प्रयास है। बिहार मंत्रिमंडल में मिथिलांचल से लिए गए चार मंत्रियों का संदेश यही है। इसके अलावा बिहार में आठ नए हाईवे बनाने की घोषणा से बिहार जैसे उपजाऊ जमीन वाले प्रदेश में जमीन लूट की बड़े स्तर पर शुरूआत होने वाली है। निश्चय ही बिहार को बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के केंद्र में बदलने के मोदी सरकार की योजना का बिहार उचित जवाब देगा।
ग्रामीण बेरोजगारी और निर्धनता
एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में बेरोजगारी दर वस्तुतः 41% के आसपास है। जो शहरी भारत से ज्यादा है । जिससे युवाओं का पलायन शहरों की तरफ बढ़ता जा रहा हैं । सबसे अधिक युवा कामगारों का पलायन बिहार से होता है। जो समृद्ध उपजाऊ भूमि वाला प्रदेश है। जो गन्ना, केला, मक्का, मखाना, धान जैसे फसलों के लिए उपयुक्त है। इन फसलों का आधुनिक तकनीक और पूंजी निवेश द्वारा उत्पादन बढ़ाया जा सकता है और बिहार की कृषि को महाराष्ट्र, कर्नाटक के स्तर पर उन्नत किया जा सकता है। लेकिन मोदी सरकार बिहार को कारपोरेट लूट के केंद्र में बदलने पर अमादा है।
भारत की सीमान्त प्रदेश लद्दाख में भी अदानी जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों को दी जाने वाली भूमि के खिलाफ लोग आंदोलन कर रहे हैं। यहां भी जमीन लूट के साथ पारिस्थितिकी और पर्यावरण बचाने का संघर्ष प्रधान संघर्ष बना हुआ है। सोनम बांगचुक के नेतृत्व में कई मांगों को लेकर लद्दाख के भू क्षेत्र और पर्यावरण बचाने का आंदोलन दिल्ली तक पहुंचा था। इसी तरह उड़ीसा में चिल्का झील से लेकर पर्यावरण जंगल और जमीन बचाने की लड़ाई तेजी से आगे बढ़ रही है। भारत के सभी आदिवासी इलाके इन्हीं सवालों को लेकर उबल रहे है । उत्तराखंड में जोशीमठ को बचाने और नदियों के जलस्रोतों पर्वतों तथा जंगलों की सुरक्षा का सवाल वहां के नागरिकों का एजेंडा बनता जा रहा है। अभी-अभी उत्तरकाशी में पहाड़ों से छेड़छाड़ का परिणाम ग्लेशियर फिसलने की त्रासदी के रूप में सामने आया है।
किसान आंदोलन के लिए तैयार होती नई जमीन
हमारे सामने सरकार से हुए समझौते को लागू करने के सवाल पर डल्लेवाल और पंधेर गुट द्वारा सवा साल से खनोरी और शंभू बॉर्डर पर चलाए जा रहे आंदोलन के सबक हैं कि एक ही प्रकार से आंदोलन को बार-बार दोहराया नहीं जा सकता। आज संयुक्त किसान मोर्चे के सामने एक बड़ा सवाल है कि बदलते हुए परिवेश में किसानों पर बढ़ रहे हमले को देखते हु संगठन ( यानी मोर्चा) और संघर्ष की अखंड श्रृंखला कैसे तैयार हो। नहीं तो आंदोलन के आवाहन कर्मकांड में बदल जाएंगे । जो सरकार पर दबाव बनाने या पीछे हटने के लिए मजबूर करने की ऊर्जा खो बैठेंगे। पंजाब के एसकेएम ने इस हकीकत को समझ लिया है और उनका मानना है कि निकट भविष्य में दिल्ली जैसा कोई आंदोलन खड़ा करने की स्थिति नहीं है। वे ऐसा नहीं करने जा रहे हैं।
सही बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ सहित दक्षिणी भारत के राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र, तेलंगाना सहित अन्य राज्यों के किसान संगठनों पर भावी आंदोलन का भविष्य निर्भर करता है। क्योंकि आंदोलन का गुरूत्व केंद्र दिल्ली के इर्द-गिर्द से शिफ्ट कर भारत के अन्य इलाकों की तरफ मुड़ गया। अगर ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य में हम उस तीव्रता का आंदोलन खड़ा करने की स्थिति में नहीं रह पाएंगे । हालांकि स्थानीय स्तर पर जो किसान आंदोलन फूट रहे हैं वह सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण करते हुए बार-बार टकराव की सीमा तक पहुंच रहे हैं। जरूरत है इन सभी आंदोलन को एक कड़ी में पिरोने की।
एमएसपी पर कानून कर्जमाफी का सवाल वस्तुतः विकसित कृषि क्षेत्रों का सवाल है। लेकिन आज कॉर्पोरेट भूमि लूट का मुद्दा पूरे देश का केंद्रीय मुद्दा बनता जा रहा है। जमीन जंगल पर्यावरण गांव खेत बचाने का सवाल वर्तमान दौर में किसान आंदोलन का केंद्रीय सवाल बन सकता है। इसके साथ ग्रामीण बेरोजगारी और कर्ज से मुक्ति के मुद्दे जोड़ कर गतिशील आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। बड़े पैमाने पर देश में जमीन लूटने का अभियान चल रहा है ।उसने करोड़ों लोगों को अपने आगोश में खींच लिया है। सवाल यह है कि अलग-अलग चल रहे जमीन बचाने के संघर्षों को किसी बड़े मोर्चे में संगठित कर देश में अलग-अलग इलाकों में विकेंद्रित मोर्चा लगाने की । ऐसे मोर्चे लगभग सभी राज्यों में लगाए जा सकते हैं। उत्तर भारत और उत्तर मध्य भारत का इलाका इस समय विस्फोटक स्थिति में पहुंच रहा है। दक्षिण में महाराष्ट्र और कर्नाटक किसान आंदोलन के नए केंद्र के रूप में उभर सकते हैं । तमिलनाडु में भी भूमि अधिग्रहण का सवाल जगह-जगह मुद्दा बन रहा है। इसलिए देश के अलग-अलग अंचलों में अलग-अलग तरह के सवालों को लेते हुए जमीन, जल, जंगल का सवाल केंद्रीय मुद्दा बनाया जा सकता है।
संयुक्त किसान मोर्चा अगर वस्तु स्थिति के विकास को समझे तो शायद भविष्य में किसान आंदोलन का कोई नया संस्करण सामने आ सकता है। याद रखिए जमीन का सवाल किसी लक्ष्मण रेखा में नहीं बांधा जा सकता।
दूसरी बात किसान नेताओं और संगठनों को स्पष्ट तौर समझ लेना चाहिए कि गैर राजनीति के नाम पर होने वाली खतरनाक राजनीति और नेताओं के अवसरवाद से लड़ने का उपयुक्त समय आ गया है । हमें गैर राजनीति की जुमलेबाजी से बाहर आकर किसान राजनीति का नया एजेंडा खड़ा करना होगा। किसान भी इस देश का नागरिक है । लोकतंत्र में उसकी भी अपनी भूमिका है और उसे किसानों के सवाल पर लोकतांत्रिक राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप करना होगा। नहीं तो कॉर्पोरेट नियंत्रित भारत में किसानों की लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
उम्मीद है किसान संगठन और संयुक्त किसान मोर्चा के नेता किसान आंदोलन को पुनः खड़ा करने में वर्तमान समय की जटिलता को समझेंगे। कृषि संकट से मुक्ति पाने और खेत खेती किसान बचाने के लिए ठोस एजेंडा तैयार करेंगे। इस एजेंडा को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जन जागरण अभियान में उतरेंगे । आगे के संघर्ष संचालन के लिए संघर्ष समिति का कोई रूप तैयार किया जा सकता है। जिसके नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान जागरण अभियान को संचालित किया जा सके। जिसमें मज़दूरों, छात्रों, नौजवानों और अन्य तबकों को जोड़ा जाना चाहिए।
वर्तमान समय में सरकार संकट में है । वह सीधे सांप्रदायिक नफरती विभाजनकारी एजेडें पर उतर गई है। अगर संयुक्त किसान मोर्चा ने इस दिशा में ठोस पहल लेकर सरकार के खतरनाक अभियान को पीछे हटने के लिए विभिन्न तत्वों की मजबूतन गोल बंदी नहीं की तो विलंब हो जाएगा। आशा है किसान संगठन और संयुक्त किसान मोर्चा इससे विकट परिस्थिति की गंभीरता को समझेंगे और तत्काल राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन बुलाकर आगे की ठोस रणनीति तैयार करेंगे!
(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)
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