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क्रिमिनल जस्टिसः बिहाइंड क्लोज़्ड डोर्स- वैवाहिक रिश्ते में अपराध की कथा

क्रिमिनल जस्टिसः बिहाइंड क्लोज़्ड डोर्स, डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर प्रसारित हुई  वेब श्रृंखला है। यह पूर्व में प्रसारित क्रिमिनल जस्टिस का सीक्वेल है। इसमें एक ही कथा से जुड़े कुल आठ प्रकरण या कड़ी है। हर प्रकरण का एक शीर्षक है।

कला के लिहाज से वेब श्रृंखलाओं ने साहित्य या उपन्यास विधा से तो बढ़त ली ही है, यथार्थ के मामले में भी साहित्य उससे पीछे छूटा है। वेब श्रृंखलाओं ने मनोरंजन से आगे बढ़कर यथार्थ के ऐसे क्षेत्रों में प्रवेश किया है, जो साहित्य के लिए अभी भी एक फुटकल  क्षेत्र है। क्रिमिनल जस्टिसः बिहाइंड क्लोज्ड डोर्स, ऐसे ही यथार्थ से परिचय कराती वेब श्रृंखला है।

इसकी कहानी के केंद्र में है स्त्री-पुरुष संबंध, पति-पत्नी के संदर्भ से। इस संबंध के बहाने स्त्री को लेकर सामाजिक-संस्थानिक व्यवहार को भी उभारा गया है। परिवार, जेल, थाना, अदालत के भीतर पुरुष वर्चस्व, आभिजात्य नियंत्रण कैसे है, इसको बहुत कुशलता से दृश्यमान किया गया है।

इसमें भी मुख्य है पति-पत्नी के बीच के सारे संबंधों में पुरुष वर्चस्व या शारीरिक सुख के लिए मनमाना व्यवहार, जहाँ पत्नी की मर्जी और सुख के कोई मायने नहीं।  इस व्यवहार को समाज का समर्थन मिलता है, क्योंकि दोनों एक ही नैतिकता से संचालित होते हैं और वह है; पुरुषवादी नैतिकता।
भारतीय समाज के संदर्भ में उसमें वर्णवाद एक नयी कोटि के रूप में जुड़ जाता है। यह कोढ़ में खाज की तरह होता है।
इस पुरुषवादी व्यवहार की पीड़ित स्त्रियाँ भी इसी नैतिकता के साथ खड़ी मिलती हैं। जेल में बंद महिला कैदियों और महिला पुलिसकर्मियों तक में बराबर ढंग से यही नैतिकता मौजूद है।

इस नैतिकता में पुरुष निष्कलुष  होता है या शारीरिक संबंधों में उसके द्वारा किया गया अपराध,  अपराध न होकर उसका अधिकार माना जाता है।

समाज में इस तरह की सोच को बनाने में राज्य की संस्थाओं का भी योगदान होता है या दोनों एक दूसरे को सम्पोषित करते हैं। जेल के भीतर महिला पुलिसकर्मियों द्वारा महिलाओं के साथ पुरुषों की तरह का ही रूखा, अपमानजनक, अनुदार, अमानवीय व्यवहार इसे प्रकट करता है।

इस वेब श्रृंखला में पति-पत्नी के  चार मुख्य प्रारूप हैं।  वकील विक्रम चंद्रा-अनुराधा चंद्रा,  सब इंस्पेक्टर हर्ष प्रधान-सहायक सब इंस्पेक्टर गौरी प्रधान, वकील माधव मिश्र-रत्ना तथा वकील निखत हुसैन के माता-पिता के बीच का संबंध।

आखिरी  संबंध के बीच की हकीकत निखत हुसैन  और उसकी माँ के बीच के संवादों के माध्यम से दिखायी गयी है, बाकी के तीन संबंध चरित्रों के माध्यम से सीधे  ही प्रदर्शित हुए हैं।

ये सभी संबंध आपस में जुड़ते हैं अनुराधा चंद्रा की केंद्रीय कथा से। अनुराधा चंद्रा की कथा से ही एक और पति-पत्नी का संबंध गौण रूप में खुलता है जेल की कैदी सुधा से। सुधा की कहानी जब तक अनुराधा की कहानी के साथ चलती है उतने प्रकरण रचनात्मक तनाव के उत्कर्ष लिए हुए हैं। इन दृश्यों में वर्गीय फ़र्क़ और मानवीय ऐक्य कलात्मक ऊँचाई के साथ प्रस्तुत हुआ है।

पहला दृश्य ही चरम तनाव के साथ शुरू होता है। विक्रम चंद्रा जो प्रभावी और चर्चित वकील है, चाकू से घायल अस्पताल में लाया जाता है। हमला उसकी पत्नी अनु चंद्रा ने किया है। इसके बाद दृश्य-पर- दृश्य, कड़ी-दर-कड़ी कथा इस बात की तरफ बढ़ती है, कि अनु ने अपने पति को चाकू क्यों मारा?

मुख्य जाँच अधिकारी इसके पीछे की मंशा जानना चाहता है और बिल्कुल प्रारम्भ में ही आशंका जाहिर करता है, कि यह ‘मैरिटल रेप’ का मामला है; अर्थात वैवाहिक संबंध में बिना पत्नी की सहमति के जबरन शारीरिक यौन संबंध बनाना।

उसके मातहत जाँच  करने वाला सब इंसपेक्टर हर्ष प्रधान इसे संपत्ति से जोड़कर देखता है। और, अनुराधा चंद्रा को अपराधी और शातिर दिमाग का मान कर चलता है।

हर्ष प्रधान स्त्रियों को लेकर परम्परागत और पिछड़े हुए मूल्यों से संचालित है। वह प्रारम्भ से ही पूर्वाग्रहों को लेकर चलता है। इसी के अंतर्गत वह  अपराध का एक आत्मगत सिद्धांत गढ़ता है तथा उसी के अनुकूल तथ्य-सत्य निर्मित करता है। अपने पूर्वाग्रह के  अनुकूल जब पर्याप्त तथ्य  नहीं गढ़ पाता तो वह पुलिसिया रौब और धमकी के बल पर अपनी बात के पक्ष में बयान लेता है।

सब इंस्पेक्टर हर्ष प्रधान भारतीय पुलिस व्यवस्था का वह प्रतिनिधि चेहरा है, जिससे भारतीय संस्थाओं के अलोकतांत्रिक, आधुनिकताविहीन, दकियानूसी, पिछड़ी नैतिकता में ही विकसित होने तथा उसी के प्रमुख होने का पता देता है।

यह अनायास नहीं हुआ, बल्कि सत्ता संस्थानों का विकास ही इसी दिशा में हुआ। हर्ष प्रधान जैसे पुलिस अधिकारियों को ही कुशल,  सफल और तेजतर्रार कह कर स्थापित किया गया।

हर्ष प्रधान भारतीय पुलिस व्यवस्था का वह सच है, जो स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक तथा अन्य तमाम अस्मिता (राष्ट्रीयता) विरोधी नैतिकता से मिलकर बनता है। भारतीय राष्ट्र भी इसी नैतिकता से बहुत कुछ बनता रहा। इसे संस्थानिक यथार्थ कह सकते हैं। इस यथार्थ का ‘टाइप’ चरित्र है, इंसपेक्टर हर्ष प्रधान।

इस यथार्थ के अन्य ‘टाइप’ हैं- वकील विक्रम चंद्रा, दीपेन प्रभु, मंदिरा माथुर तथा पूरी की पूरी जेल।

मंदिरा माथुर का चरित्र महत्वपूर्ण है। वह आधुनिक है, प्रगतिशील भी है, सभ्य है लेकिन अपने पेशे में वह कोई अलग मिसाल बनाने की बजाय सत्ता व पुरुषों की थम्हायी प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाती है। वह स्त्रियों को लेकर दीपेन प्रभु के विचार से असहज होती है, लेकिन अपनी गति में वह स्वयं उस विचार की क्रियाशीलता का हिस्सा बनती है।

इस पूरे यथार्थ को प्रारम्भ की चार कड़ियों में रोहन सिप्पी ने जिस कमाल से निर्देशित किया है, वह सिर्फ कलात्मक कुशलता से सम्भव नहीं होता, जब तक कि आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील विचार-तत्व उसमें न जुड़ा हो। रोहन सिप्पी के निर्देशन में यह विचार-तत्व ओढ़े हुए ढंग से नहीं शामिल है, बल्कि वह जीवन-तत्व  के रूप में है। इन्हीं मूल्यों के तहत वकालत करते हैं, वकील माधव मिश्र।

जिन अदालतों के साम्प्रदायिक फासिस्ट नैतिक व्यवहार में पतित हो जाने या ऐसी सत्ता के आगे समर्पित हो जाने  की बातें आजकल आम हो गयी हैं, उसके विकास को माधव मिश्र के प्रकरण से समझा जा सकता है।

माधव मिश्र  वकीलों की दुनिया से बहिष्कृत हैं। यह बहिष्कार माधव मिश्र का नहीं,  बल्कि उन मूल्यों का है, जिसे माधव मिश्र  अपने वकालत के पेशे में धारण करते हैं। यह मूल्य है- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। जिसे आधुनिक, प्रगतिशील मूल्य  कहा जाता है।

यह मूल्य है, मानवीय गरिमा से जुड़े प्राकृतिक न्याय का। जिसे, प्रत्येक लोकतांत्रिक राष्ट्र की न्याय प्रणाली का अहम, अनिवार्य तत्व  बनाया गया है।  लेकिन, इन सबको अपनी वकालत का पैमाना बनाने वाले माधव मिश्र का अदालत के बाकी वकील बहिष्कार  करते हैं।

अर्थात, भारतीय न्याय व्यवस्था की हकीकत को यहाँ प्रदर्शित कर दिया गया है।  इस हकीकत में विधि का शासन बहिष्कृत है, संविधान प्रदत्त व्यवस्थाएँ बहिष्कृत हैं। कानून या अदालत जैसी संस्था का ‘टाइप’ चरित्र है- दीपेन प्रभु और विक्रम चन्द्रा।

इस संस्थान में भी सफल, कुशल, और स्थापित वही है, जो अपने मूल्यों में पिछड़ा है लेकिन सुख-सुविधा में अव्वल, आधुनिक, आगे।

ऐसे संस्थानों को अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए दक्षिणपंथी फासिस्ट राजनीति को इसीलिए  बहुत कम मेहनत करनी पड़ी। अपने भीतर की  इन्हीं खासियत के चलते यह वेब श्रृंखला औपन्यासिक ऊँचाई  को पाती है। खैर

जिस समस्या को मुख्य कथा-तत्व  बनाया गया है, वह है ‘मैरिटल रेप’। कानून की नजर में यह अपराध है। वैसे तो, यह बहस पहले से ही चली आ रही है कि किसी भी तरह के शारीरिक संबंध में स्त्री-पुरुष दोनों में सहमति जरूरी है। लेकिन पति-पत्नी के रिश्ते या वैवाहिक स्थिति में इस सहमति को समाज में जरूरी नहीं माना गया। बल्कि, इसे पति के पक्ष में एक अधिकार की तरह  प्रदान किया गया।

इस सहमति की अवहेलना, उल्लंघन एक अपराध है, कानून की दृष्टि में भी और प्राकृतिक न्याय के हिसाब से भी।

विक्रम चंद्रा अपनी पत्नी अनुराधा चंद्रा से जबरन  यौन-संबंध बनाता है तथा गुदा-मैथुन के लिए दबाव बनाता है। इसके चलते अनुराधा के लिए यौन-सुख रोजमर्रा की यंत्रणा  और पीड़ा में बदल जाती है।

विक्रम चंद्रा मानसिक बीमार भी है। वह मैनुपलेटिंग पर्सनाॅलिटी है। यहाँ तक, कि अपनी बेटी को भी वह माँ के बारे में झूठ  बताता है और उसे भी मानसिक रूप से कमजोर बनाता है। यह सब कुछ वह इसलिए करता है, ताकि अनु को मानसिक रूप से विवश बनाये।

अनुराधा को वह पहले ही सबसे अलग काट कर रखता है और मानसिक रुप से बीमार बना देता है। अनु खुद को ही अपराधी मानने लगती है। वह भावनात्मक रूप से कमजोर होती जाती है। और, एक दिन अपनी इस जिंदगी से मुक्त होने के लिए वह अपने पति को चाकू मार देती है।

अनुराधा से जुड़कर अन्य मुख्य और सहयोगी  कथाएँ भी हैं। एक सहयोगी  कथा है सुधा की। सुधा का पति भी उससे अनु जैसा ही यौन संबंध बनाता है। लेकिन, वह इतने पर ही नहीं रुकता, बल्कि वह अपने बेटे से भी यौन दुर्व्यवहार करता है।

हर्ष और गौरी प्रधान की कथा में गौरी भी अपने पेशे को ईमानदारी और गंभीरता से करना चाहती है। जबकि, उसका पति हर्ष चाहता है, कि वह बच्चा पैदा करे और नौकरी छोड़ दे।

इसके लिए गौरी तैयार नहीं होती। साथ ही, हर्ष प्रधान, गौरी को हमेशा कमतर साबित करता रहता है। उसके लिए स्त्री बच्चे पैदा करने और घर संभालने के लिए होती है।

जबकि वहीं अनुराधा तो यही भूमिका निभाती है, इसके बावजूद विक्रम चंद्रा का व्यवहार उसके प्रति अमानवीय होता है। अर्थात हर्ष और विक्रम उस पुरुष मनोवृति के रूप में दर्शाए गए हैं, जिसमें स्त्री कमतर और यौन-वस्तु मात्र है।
यह प्रवृत्ति हिंदी समाज की मुख्य प्रवृत्ति है या लगभग भारतीय समाज की भी।

गौरी आधुनिकता बोध की प्रतिनिधि चरित्र  है।  इसी बोध से जुड़ी अन्य चरित्र है रत्ना मिश्रा। रत्ना मिश्रा माधव मिश्र की पत्नी है। मुंबई में आकर वह बदलती है और माधव मिश्र  को अहसास दिलाती है, कि आधुनिकता, प्रगतिशीलता, उदारता, मनुष्यता का संबंध सिर्फ पेशे से ही नहीं होता, जीवन से भी होता है।

रत्ना मिश्रा अपनी जातिगत विशेषताओं, मान्यताओं को तोड़ती है और शॉपिंग मॉल में सफाई कर्मचारी की नौकरी करती है। वह पिछड़े  सामाजिक परिवेश से आती है,  लेकिन  ज्यादा अग्रणी सोच को  अपनाती है।

कथा के अंत में विक्रम चंद्रा की माँ बिज्जी चंद्रा, मौसी मंदिरा माथुर व निखत हुसैन की माँ भी पितृसत्तात्मक पुरुषवादी व्यावहारिकता के खिलाफ खड़ी होती हैं।

गौरी, रत्ना और निखत का चरित्र इस श्रृंखला के अंत में सबसे ज्यादा दीप्त होकर उभरता है। हालाँकि इसमें रत्ना जहाँ अपने पति को पाती है, वहीं गौरी अपने पति को गँवाती है। बावजूद इसके गौरी स्त्री-गरिमा और स्वाभिमान की प्रतीक बनकर उभरती है।

इस वेब श्रृंखला में  हमारे देश के मौजूदा यथार्थ और बदलते यथार्थ के द्वन्द्व और तनाव को बखूबी  प्रदर्शित किया गया है।  खासकर रोहन सिप्पी ने गजब का निर्देशन किया है। यह उनके लाजवाब कामों में से एक है। उन्होंने सिनेमा के शिल्प को यहाँ बिलकुल नहीं अपनाया है। कड़ियों में प्रदर्शित वेब श्रृंखला का जो उच्च कलात्मक शिल्प होता है, वह रोहन सिप्पी ने प्रभावी ढंग से अपनाया है। चरित्र, वातावरण, क्षणांश में भी गति, ठहराव का बेहतरीन संयोजन दृश्यों में किया गया है। रोहन सिप्पी लगता है जैसे वेब श्रृंखला के क्राफ्ट पर अपने विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हों, कि देखो, इसे कहते हैं क्राफ्ट या शिल्प!

बाद के चार प्रकरण का निर्देशन अर्जुन मुखर्जी ने किया है। इसकी कहानी लिखी है, अपूर्व असरानी ने।

दीप्ति नवल व मीता वशिष्ठ जैसे कलाकार जहाँ अपनी उपस्थिति मात्र से दृश्यों को महत्वपूर्ण बनाते हैं, वहीं कीर्ति कुलहरी, पंकज त्रिपाठी, आशीष विद्यार्थी, पंकज पालावत, अनुप्रिया गोयनका, शिल्पा शुक्ला ने अपने प्रभावी अभिनय से। लेकिन इसमें भी कल्याणी मुले, खुशबू अत्रे और अदृजा सिन्हा ने अपने अभिनय से ज्यादा आकर्षित किया है।
यह वेब श्रृंखला अपनी वस्तु-संवेदना तथा शिल्प दोनों रूपों में उत्तम है, उत्कृष्ट है।

(फीचर्ड इमेज गूगल से साभार)

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