(साहित्य, कला, संगीत, दर्शन, राजनीति आदि जीवन-जगत के विविध क्षेत्रों में दुनिया को अपने भावों और विचारों से आलोकित करने वाले गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर का 7 मई को जन्म दिन होता है. आज गुरुदेव के जन्मदिन के अवसर उनकी स्मृति को नमन करते हुए प्रस्तुत है उनके महत्वपूर्ण उपन्यास ‘गोरा’ पर गोपाल प्रधान का यह आलेख सं.)
रवींद्रनाथ ठाकुर जैसा बेचैन रचनाकार किसी भी भाषा, देश और समाज को सदियों में संयोग से मिलता है । उनकी रचनाओं से देश तो समृद्ध हुआ ही, बांग्ला भाषा का गौरव भी बढ़ा । आज इस बात को याद करना अधिक जरूरी है क्योंकि भारत जैसे बहुभाषी देश में किसी एक भाषा को राजकीय प्रश्रय देना सभी भाषाओं को दरिद्र बनाएगा। उनमें आपसी सहकार की जगह संदेह पैदा होगा । भारत की भाषाओं के आपसी सहकार के चलते ही रवींद्रनाथ ठाकुर के इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद हिंदी के प्रसिद्ध कवि अज्ञेय ने किया है । उनके अनुवाद की गुणवत्ता के चलते भी उपन्यास हिंदी में सुबोध हो गया है ।
यह उपन्यास 1907 से 1910 तक प्रबासी नामक पत्रिका में क्रमबद्ध प्रकाशित हुआ और 1910 में बांग्ला में छपा । किताब के बतौर छपाई के समय रवींद्रनाथ ने कुछ संपादन भी किया था । उनके मन में इस किताब की कल्पना 1904 में आई जब सिस्टर निवेदिता को उन्होंने यह कथा सुनाई थी । कथा में गोरा और सुचरिता का मिलन नहीं हुआ था । जो कहानी उन्होंने सुनाई थी उसमें गोरा के आयरिश मूल का पता चलने पर सुचरिता ने उससे विवाह करने से इनकार कर दिया था । इसे सुनकर सिस्टर निवेदिता नाराज हुईं और कहा कि जो असल जीवन में न हो उसे कथा में तो होता दिखाया जा ही सकता है । उपन्यास जब प्रकाशित हुआ तो दोनों का मिलन चित्रित हुआ । प्रकाशित कथा में गोरा के जन्म का समय 1857 का है । उसके वयस्क होने को तीस साल की उम्र मानें तो कथा 1880 की ठहरती है । कहानी के इस समय को ध्यान में रखें तो उन्नीसवीं सदी की आखिरी चौथाई की समूची हलचल का साक्ष्य इस उपन्यास से हासिल होता है । समय को रवींद्रनाथ ने केवल तारीख के रूप में नहीं दर्ज किया । समूचे पर्यावरण को भी पहचानते हुए वे इसे देखते हैं । उस समय के कलकत्ता का हाल ‘उस समय कलकत्ता की गंगा और गंगा का किनारा वणिक सभ्यता की लाभ-लोलुप कुरूपता से जल-थल पर आक्रांत नहीं हुआ था; किनारे पर रेल की पटरी और पानी पर पुल की बेड़ियाँ नहीं पड़ी थीं । उन दिनों जाड़ों की संध्या में शहर के नि:श्वासों की कालिख आकाश पर इतनी घनी नहीं छा जाती थी ।’ लेखन के समय और कथा के समय को इस तरह से अलगाना आज भी बेहद संवेदनशीलता की मांग करता है ।
इस उपन्यास के जरिए रवींद्रनाथ ठाकुर ने वैचारिक उपन्यास की एक नई विधा को जन्म दिया । आज भी यह उपन्यास अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है । उपन्यास की वैचारिकता के लिए याद रखना होगा कि रवींद्रनाथ ठाकुर 1905 के बंग भंग के विरोध में हुई गोलबंदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे । उनकी इस सक्रियता से हासिल अनुभव ने भी उपन्यास को गहन वैचारिक पृष्ठभूमि प्रदान की है । उपन्यास में उठाए गए तमाम गम्भीर सवालों पर स्वदेशी आंदोलन की सफलता या असफलता की छाया है ।
एकदम आरम्भ में ही उपन्यास अपनी विवेच्य वस्तु का पता दे देता है । इसकी कथाभूमि का शहर कलकत्ता है । अगर आपने प्रेमचंद का उपन्यास ‘गबन’ देखा हो तो याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उसकी कथाभूमि इलाहाबाद और कलकत्ते की है । हिंदी क्षेत्र में औपनिवेशिक आधुनिकता का प्रवेश इलाहाबाद से हुआ तो उत्तर भारत में उसका प्रवेश कलकत्ते से हुआ था । आधुनिकता का एक अन्य लक्षण विभिन्न सभाओं और संस्थाओं की मौजूदगी भी उपन्यास में प्रचुरता से प्रकट हुई है । यहां तक कि अखबार और पुस्तकें भी महत्वपूर्ण तरीके से मौजूद हैं । मतलब कि ‘गोरा’ की कथा में औपनिवेशिक आधुनिकता और उसके दबाव से पैदा सामाजिक हलचल महत्वपूर्ण तत्व हैं । आधुनिकता के साथ ही जुड़ी परिघटना नौकरशाही है जिसने मुट्ठी भर अंग्रेजों का शासन कायम रखने में मदद की । ऐसे हिंदुस्तानियों के बारे में बात करते हुए रवींद्रनाथ संदर्भ विशेष से अलग होकर उत्पीड़क व्यवस्था में मौजूद व्यक्ति के अमानवीकरण की प्रक्रिया की भी पड़ताल करते हैं । इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए सुचरिता से गोरा कहता है ‘—नौकरी के फंदे अंग के गहने होते जा रहे हैं और आजकल के डिप्टियों (भारतीयों) के लिए भी देश के लोग कुत्ते-बिल्ली के समान हुए जा रहे हैं । और इस तरह तरक्की पाते रहने से जो उनकी केवल अधोगति हो रही है, इस बात की अनुभूति भी उनकी चली जा रही है ।’
इस दबाव से जो बदलाव आ रहे हैं उनमें स्वाधीनता की आकांक्षा से लगे लिपटे जाति व्यवस्था और स्त्री की सामाजिक स्थिति के मामले में उलटफेर जैसे प्रश्न कथा के एकदम शुरू में ही नजर आने लगते हैं । स्त्री का प्रसंग स्वदेश प्रेम से जुड़ा हुआ है । इस सवाल पर विनय और गोरा के विचारों का टकराव तब नजर आता है जब विनय कहता है ‘हम भारतवर्ष को केवल पुरुषों का देश मानकर देखते हैं, स्त्रियों को बिलकुल देखते भी नही ।’ उत्तर में गोरा कहता है ‘तो तुम शायद अंग्रेजों की तरह घर में और बाहर, जल-थल और आकाश में आहार-विहार और कर्म में, सब जगह स्त्रियों को देखना चाहते हो?’ इसके परिणाम की भयावहता की ओर संकेत करते हुए कहता है ‘उसका नतीजा यही होगा कि पुरुषों से स्त्रियों को अधिक मानना होगा- उससे भी देखने में सामंजस्य नहीं रहेगा ।’ विनय का इसके बाद का कथन तत्कालीन देशभक्ति की इस प्रचंड सीमा का उद्घाटन करता है ‘—तुम्हारी राय में देश मानो नारी-हीन ही है ।’ असल में मुख्य मामला स्त्री की सार्वजनिक उपस्थिति का है ‘गृहस्थी के काम-काज से बाहर अगर हम देश की स्त्रियों को देख पाते तो हम स्वदेश के सौंदर्य और संपूर्णता को देखते ।’ कहने की जरूरत नहीं कि राष्ट्र के भीतर के तनावों को इसमें अभिव्यक्त देखा जा सकता है । सुचरिता के प्रेम में पड़ने के बाद इस मामले में गोरा भी बदलता है । उसके अनुभव को दर्ज करते हुए रवींद्रनाथ ने लिखा ‘जब तक भारतवर्ष की नारी उसकी अनुभव गोचर नहीं हुई थी, तब तक उसकी भारतवर्ष की उपलब्धि कितनी अधूरी थी, यह वह इससे पहले नहीं जानता था । गोरा के लिए नारी जब तक अत्यन्त छायामय थी, तब तक देश के संबंध में उसका कर्तव्य-बोध कितना अधूरा था !’
इतने बड़े सामाजिक फलक का यह उपन्यास विधा की शर्तों पर भी पूरी तरह से खरा उतरता है । इसमें पात्रों के बीच विचार विमर्श के साथ ही उनके जीवन की निजी हलचलें भी चलती रहती हैं । पूरे उपन्यास में रोचकता कहीं कम नहीं होने पाती । आखिरी पन्ने तक रोमांच बना रहता है । सुचरिता और गोरा के रिश्ते की परिणति का रोमांच तो आखिरी पंक्ति तक बनाए रखने में रवींद्रनाथ सफल हुए हैं । निराला को शायद इसी से कुल्ली के समलैंगिक होने के तथ्य को अंत तक छिपाए रखने की कला मिली होगी । पाठक को बीच बीच में गोरा के सिलसिले में कुछ रहस्य का संकेत मिलता रहता है लेकिन रहस्य अंत में खुलता है । उसके हिंदू पुनरुत्थान का नेता होने और आयरिश माता-पिता की संतान होने की विचित्रता इस हिंदू पुनरुत्थान के यूरोपीय मूल का इशारा पूरी विडम्बना के साथ करता है । जब उसके समक्ष सचाई खुलती है तो मानो उसकी मुक्ति हो जाती है । इस मुक्ति को स्वर देते हुए गोरा कहता है ’आज मैं सारे भारतवर्ष का हूँ । मेरे भीतर हिन्दू, मुसलमान, ख्रिस्तान किसी समाज के प्रति कोई विरोध नहीं है । आज इस भारतवर्ष में सबकी जात मेरी जात है, सबका अन्न, मेरा अन्न है ।’ इससे पहले भी उसके हिंदू और मनुष्य होने के बीच का टकराव चित्रित हुआ है । जब उसके अविनाश जैसे अनुयायी प्रचार के लिए उसका उपयोग करना चाहते हैं तो उसका क्षोभ जाहिर होता है । इसके अतिरिक्त भी शहर से बाहर देहात में उसके अनुभव उसे कट्टरता से ऊपर उठा देते हैं ।
उपन्यास को प्रेम कथा के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। कम से कम दो जोड़े तो हैं ही जिनके आपसी भावनात्मक संबंधों की उठापटक पूरे उपन्यास में व्याप्त है। गोरा और सुचरिता तथा विनय और ललिता के प्रेम की कहानी उपन्यास का मुख्य कथासूत्र है। दोनों स्त्रियां ब्राह्म परिवार की हैं । इस तरह प्रेम के साथ ही ब्राह्म और हिंदू समाज का टकराव भी उभर आता है। इन दोनों ही समाजों के कट्टरों के साथ गोरा को जिन्होंने अपनाया उन आनंदमयी और सुचरिता के पालन पोषण करने वाले परेश बाबू ऐसे पात्र हैं जिनके समक्ष कट्टरता परास्त हो जाती है।
हिंदू और ब्राह्म के बीच यह टकराव किस स्तर का था इसका पता चलता है जब हम ललिता के प्रसंग में सुनते हैं कि ‘ललिता के मन में ब्राह्म-परिवार का संस्कार बहुत दृढ़ था, जिन स्त्रियों को आधुनिक ढंग की शिक्षा नहीं मिली और जिन्हें वह “हिन्दू घर की औरते” कहकर जानती थीं, उनके प्रति ललिता में सम्मान नहीं था ।’ प्रसंग आनंदमयी के समक्ष इस अहंकार के टूटने का है।
संप्रदाय का यही विभाजन परेश बाबू के शब्दों में सुनिए ‘संप्रदाय ऐसी चीज है कि लोगों को यह जो सबसे सीधी बात है कि इंसान इंसान है, यही भूला देता है । इंसान ब्राह्म है कि हिन्दू, समाज की गढ़ी हुई इस बात को विश्व-सत्य से बड़ा बनाकर एक झमेला खड़ा कर देता है ।’ इस भावना की ही प्रतिध्वनि आनंदमयी के कथन में मिलती है ‘तुम्हारा ब्राह्म समाज भी क्या मनुष्य को मनुष्य से मिलने नहीं देगा? ईश्वर ने जिनको भीतर से एक बनाया है, तुम्हारा समाज बाहर से उन्हें अलग कर रखेगा?’ यही प्रेम गोरा के मन में हिंदू धर्म की उदार भावना की जगह बनाई । सुचरिता से वह कहता है ‘—दुनिया में केवल हिन्दू धर्म ने मनुष्य को मनुष्य कहकर जाना है, केवल दल का व्यक्ति नहीं समझा । हिन्दू धर्म मूढ़ को भी मानता है, ज्ञानी को भी मानता है- और ज्ञान की भी केवल एक मूर्ती को नहीं मानता, उसके अनेक प्रकार के विकास को मानता है ।’ इसी हिंदू धर्म की कमजोरी विनय को तब महसूस होती है जब उसने ललिता से विवाह करने का निश्चय किया । गोरा से वह कहता है ‘जिस समाज में ज़रा-सा धक्का लगने से ही टूट आ जाती है और हमेशा के लिए रह जाती है, उस समाज में मनुष्य के लिए अपनी इच्छा से चलने-फिरने या काम-काज करने में कितनी कठिनाइयाँ हो जाती हैं, यह भी तो सोचना चाहिए ।’ हिंदू धर्म की इस समस्या को परेश बाबू ने व्यक्त करते हुए कहा कि ‘हिन्दू समाज मनुष्य का अपमान करता है, निषेध करता है, इसलिए आजकल के ज़माने में उसके लिए आत्मरक्षा कर सकना प्रतिदिन कठिनतर होता जाता है, क्योंकि अब वह और ओट में नहीं रह सकता- अब दुनिया में चारों ओर रास्ते खुल गए हैं, चारों ओर से लोग उस पर चढ़े जा रहे हैं- अब शास्त्र-संहिता के बाँध बनाकर या दीवारें खड़ी करके वह अपने को किसी तरह भी दूसरों के संपर्क से अछूता नहीं रख सकता । अब भी अगर हिन्दू समाज अपने भीतर संग्रह करने की शक्ति नहीं जगाता और क्षय-रोग को ही प्रश्रय देता चलता है, तो बाहर के लोगों का यह संपर्क उसके लिए एक सांघातिक चोट हो जाएगा ।’ कहीं कहीं उनकी आलोचना अंबेडकर की चिंतनधारा से संवाद करती हुई महसूस होती है । देहात के बारे में गोरा की राय देखिए ‘—इन देहातों में समाज के बंधन पढ़े-लिखे भद्र समाज से कहीं अधिक कड़े हैं । हर घर के खान-पान, उठने-बैठने और हर काम-काज पर समाज की अपलक आँखें मानो दिन-रात निगरानी रखती थीं ।–इन लोगों में ऐसा कोई ऐक्य नहीं था, जो सुख-दु:ख और विपत्ति में उन्हें कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़ा कर सके ।’
गोरा जन्म से आयरिश है इस तथ्य के उल्लेख से रवींद्रनाथ मामले की जटिलता को और बढ़ा देते हैं । सभी जानते हैं कि इंग्लैंड का पहला उपनिवेश आयरलैंड ही था ।
(इस लेख में राधारानी चक्रवर्ती के गोरा संबंधी अध्ययन तथा तनिका सरकार के लेखन से मदद ली गई है । गोरा से सभी उद्धरण साहित्य अकादमी से प्रकाशित अज्ञेय के हिंदी अनुवाद से दिए गए हैं )