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हलयोग: कहानी का समाज और समतामूलक समाज निर्माण की अड़चनें

मोहम्मद उमर 
मार्कण्डेय ग्राम कथाकार हैं। वह जीवन से सीधे साक्षात्कार करने वाले कथाकार हैं। ग्राम जीवन का चित्रण अपनी कथाओं में मार्कण्डेय पूरी सजीवता से करते हैं लेकिन अपने रचनात्मक सरोकारों को लेकर बेहद सतर्क हैं।
मार्कण्डेय अपनी कहानियों को अपने आस-पास के परिवेश से उठाते हैं।  कहानियों के साथ वे ग्राम परिवेश को भी जीते हुए चलते हैं, जहाँ उनका रागात्मक सम्बन्ध भी स्पष्ट होता चलता है, लेकिन इन सबके बावजूद वह सामाजिक विद्रूपताओं का चित्रण भी अत्यंत सफलतापूर्वक करते हैं। वे लोकजीवन से, माटी से जुड़े हुए कथाकार हैं।
मार्कण्डेय की कहानियों में सामाजिक विषमताओं का चित्रण लगातार मिलता रहता है। ग्राम जीवन की छाप जिस तरह उन्होंने अपनी कहानियों में छोड़ी है, उसमें कुछ नहीं बचा है, सब कुछ उन्होंने चित्रित कर दिया है। वह ‘जीवन की उभरती हुई वास्तविकताओं को उसके पूरे परिवेश के साथ ग्रहण करने की (कहानी, फरवरी 59, पृ.70, मार्कण्डेय/ हिंदी कहानी का विकास, मधुरेश, पृ.160)’ बात करते हैं। कहना न होगा कि इसमें वह काफी दूर तक सफल कथाकार भी मालूम होते हैं।
मार्कण्डेय सामाजिक-आर्थिक असमानता के दृश्यों को अपनी कथाओं में पूरी तन्मयता के साथ उकेरते हैं। उनकी कहानियां राजनीतिक हलचलों, आंदोलनों को भी दर्ज करते हुए चलती है। वह राष्ट्रीय आंदोलनों, विचारधाराओं एवं उनमें व्याप्त अंतर्विरोध के साथ ही सामाजिक सुधारों को भी केंद्र में रखते हैं।
जातीय उत्पीड़न का दंश झेल रहे समाज का जैसा चित्रण उनकी कहानी में है, मेरे विचार से वह प्रेमचंद के बाद दूसरे ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने जातीय उत्पीड़न एवं अंधविश्वासों को सफलतापूर्वक चित्रित किया है।
मार्कण्डेय की ‘हलयोग’ कहानी इसका प्रमाण है। ‘हलयोग’ कहानी पर विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणी बेहद उपयुक्त मालूम होती है कि ‘जहाँ तक मुझे स्मरण आता है प्रेमचंद ने ऐसी कोई कहानी नहीं लिखी है, जिसमें किसी दलित पात्र के प्रति ऐसी सुनियोजित विशुद्ध क्रूरता बरती गई हो’ (कुछ कहानियाँ: कुछ विचार, बदलते समय के रूप, पृ.118)। त्रिपाठी जी की यह टिप्पणी कहानी की महत्ता को भली-भाँति स्पष्ट कर देती है।
‘हलयोग’ मनुवादी अथवा ब्राह्मणवादी व्यवस्था के क्रूर चरित्र की कथा है। यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था एवं चरम अंधविश्वास के गठजोड़ से निर्मित समाज से आने वाले निम्न जाति के युवक चौथीराम की व्यथा-गाथा है, जिसका शिक्षित होना ही अंततः उसके लिए अभिशाप सिद्ध होता है।
कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस कहानी में एक शिक्षित दलित पर अत्याचार होता दिखाई देता है। एक दलित का शिक्षित होना ब्राह्मणवादियों को इतना बुरा लगता है, कि अंततः भिन्न-भिन्न प्रकार के षड्यंत्रों द्वारा उसे ऊपर उठने से रोक ही दिया जाता है।
कहानी का परिवेश आजादी के पहले का है। यह परिवेश जरूर उसी समय का होगा जब दलितों में चेतना जाग्रत हो गयी थी। औपनिवेशिक युग में दलितों को पढ़ने का मौका मिला। ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के साथ-साथ राजनीतिक एवं प्रशासनिक सेवाओं में वंचितों के आरक्षण की माँग की। इसके बाद डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में एक  आंदोलन चला। पहली बार इस देश के वंचित तबकों को शिक्षा का सुअवसर मिल रहा था। इसके पहले मनुवादी व्यवस्था में वे शम्बूक की तरह मार दिए जाते या एकलव्य की तरह उनके अँगूठे काट लिए जाते थे। इस तरह की मिथकीय घटना के ऐतिहासिकता पर संदेह किया जा सकता है लेकिन इस बात से नहीं कि वंचित तबकों को हमेशा इसी तरह आगे बढ़ने से रोका जाता रहा।
ऐसे कितने शम्बूकों और एकलव्यों को इस व्यवस्था की भेंट चढ़ा दिया गया। इस रूप में मिथक-कथाओं में  अत्याचार का इतिहास पढ़  जा सकता है।
कहानी का पात्र चौथीराम उन शुरुआती पीढ़ी के वंचितों में से है जिसने पहली बार शिक्षा को देखा और जाना था। जब वह शिक्षा प्राप्त करता है तो वह नौकरी पाता है। यह सब मनुवादियों को नहीं जँचता है। यह उनके संस्कार और व्यवस्था पर आघात सा था। इसे रघुवर पण्डित के वाक्यों में देखा जा सकता है,
‘लुटिया ही डूब गई ब्राह्मन-ठाकुरों की। कोप होगा। महामारी और नाती-पनाती संकर बरन के हो जाएंगे। इसी को कलिकाल कहते हैं। अब चमार वेद बाँचेंगे और बच्चों का विद्यारम्भ करेंगे।’
इसे रघुवर पण्डित नहीं बल्कि उस व्यवस्था का विलाप कह सकते हैं जिसकी जमीन दरक रही थी और चरमरा रही थी। यह सोच उस समय के ब्राह्मण नेताओं की भी सोच थी जिन्हें नई सोच और आधुनिकता का पुरोधा भी बताया जाता है।
‘आप किसान के लड़के को हल जोतने, लोहार के बेटे धौंकनी से, मोची के बेटे को सूआ के काम से पकड़कर आधुनिक शिक्षा देने के लिए ले जाएंगे।….और लड़का अपने पिता के पेशे की आलोचना सीखकर आएगा।..ऐसा करने पर वह लड़का रोजगार के लिए सरकार की तरफ देखेगा'( बाल गंगाधर तिलक, अवर सिस्टम ऑफ एजुकेशन: ए डिफेक्ट एंड क्योर’, मराठा अखबार, 15 मई 1881)
‘तिलक ने कहा कुनबी बच्चों को शिक्षा देना धन की बर्बादी है। वह धन बर्बाद किया जा रहा है जो करदाताओं से लिया जाता है'( मंडल कमीशन राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी पहल, पृ.13)।
उपरोक्त संदर्भों को देखकर सहज ही यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि उच्च वर्ण की दलितों के शिक्षा के प्रति क्या मानसिकता थी। इसके साथ ही कहानीकार का पात्र रघुवर पंडित कहानी भर का चरित्र न होकर वास्तविक चरित्र लगने लगता है। यह ग्राम कथाकार का व्यापक दृष्टिकोण है कि वह राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों के प्रति कितना सचेत है।
कहानी में बाबा एक गाँधीवादी चरित्र है। गाँधी जी ने भी अछूतोद्धार आंदोलन चलाया था एवं ढेर सारी पत्र-पत्रिकाएं निकाली थीं। लेकिन गाँधी जी का आंदोलन बेहद सीमित था। वह सिर्फ भेदभाव, छुआछूत की प्रथाओं का ही समापन करना चाहते थे। वह स्वयं वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे।
गाँधीवाद और उसके तथाकथित अछूतोद्धार की पोल भी यह कहानी बखूबी खोलती है। एक ओर वह चौथी के गाँव के स्कूल में ही नियुक्ति की सिफारिश भी करते हैं एवं चरखा संघ से चरखा लाकर चमरौटी की स्त्रियों में बांटते हैं वहीं दूसरी ओर उनके अंतर्विरोध भी सामने आ जाता है।
जब चौथीराम कहता है, ‘बाहुली में पानी बहुत नीचे है। इनके फिसल जाने का डर है यह रोज़ ही करना होता है’। इसके आगे कहानीकार लिखते हैं ‘बाबा ने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। उनके खून में समाया यह सब परम सहज था। इसलिए मुझे मुंशी जी को सौंपते हुए बोले-‘ज़्यादा उलट-फेर ठीक नहीं। धीरे-धीरे चलो।…
मुंशी जी ने बाबा का संकेत समझकर कहा था, ‘ फिर तो सब जस का तस बना रहेगा, ठाकुर बाबा!
‘ उसे तो बना ही रहना है। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हटाने के लिए लड़ रहे हैं, समाज को तोड़ने के लिए नहीं, वे भी वर्णाश्रम को मानते हैं।’ बाबा ने थोड़ी रुखाई से कहा था।
यह ठाकुर बाबा के चरित्र भर का अंतर्विरोध नहीं है बल्कि यह सम्पूर्ण युग का है। यह गाँधी जी, गाँधीवाद एवं उनके अनुयायियों की सच्ची और ठोस आलोचना है।
एक ओर अछूतोद्धार की बातें करना दूसरी ओर वर्णाश्रम को बनाए रखना, यही वह बिंदु है जहाँ वंचित गाँधी जी को अपने पक्ष में खड़ा नहीं मानता। महज राजनीतिक आज़ादी भर की लड़ाई लड़ना, यह भूल जाना कि औपनिवेशिक सत्ता के अलावा इसे देश इससे भी पुरानी एक सत्ता है जिसके चलते इस देश की वंचित-दलित आबादी का शोषण हुआ है और होता आ रहा है, अधूरी लड़ाई है।
समाज में जातिवाद बनाए रखने लिए दलित जातियों को अंधविश्वास में उलझाए रखने के लिए जो प्रपंच रचे जाते है उसे कथाकार ने स्पष्टता के साथ उतारा है। चौथिया को जब महाराज के घर गोबर पानी और सेवा करने के लिए कहा जाता है तो वह इंकार कर देता है।
अपने भाई पाँचू भगत के समझाने पर भी वह घर से निकल जाता है। वह पढ़ना चाहता है । भागने के ‘कई-कई दिन बाद घर लौटता और स्कूल में जा बैठता।’ यह आधुनिकता का परिणाम है।
यह स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के साथ ही विकसित हो रही दलित चेतना है। वह पाँचू भगत जैसा नहीं बनना चाहता है। लेकिन ‘चमरौटी में लोग कहते, उसके ऊपर ‘कारन’ है।’ यह अंधविश्वास उनके द्वारा बनाया गया है जो समाज में चौथिया को अपने बराबर नहीं देखना चाहते है।
ब्राह्मणवाद, जातिवाद एक सत्ता है। समाज पर उसका प्रभुत्व है। यह शासक वर्ग है। भले भारत पर अंग्रेजी शासन था लेकिन यह तबका दलितों पिछड़ों पर शासन कर रहा था।
वह हजारों वर्ष से मुफ्त में होती आयी सेवा और लाभों को नहीं छोड़ना चाहता था। वह अपनी बराबरी करने वालों को इसी तरह के छल प्रपंच का शिकार बनाता था। वर्चस्व उन्हीं का होता है जो सत्ता में होते हैं। उनके अंधविश्वास, संस्कृति सबकुछ का वर्चस्व होता है। यही कारण है कि चौथिया को अपने ही लोगों का समर्थन और सहयोग नहीं मिलता।
चौथी के तबादले कराए जाने से लेकर भूत-प्रेत बाँधा को दूर करने वाले प्रसंग तक कहानी बेहद मार्मिक हो जाती है। चौथी स्कूल में अंधविश्वास को भी दूर करता था। वह आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दे रहा था।
चौथी से बच्चों का लगाव भी बढ़ जाता है। वह सभी को समान दृष्टि देता है और सभी बच्चों को स्नेह करता है। जबकि पंडित मूलचंद भंगेड़ी थे। वह भाँग के नशे में चूर रहते थे। चौथी बेहद ईमानदार था। वह मुफ्तखोर वर्ग से नहीं था।
जब उसे आगे बढ़ने का मौका मिला तो उसने बच्चों को वैज्ञानिक शिक्षा दी। बिना स्वयं के आधुनिक हुए ऐसा दृष्टिकोण नहीं विकसित होता। मध्यकालीन समाज में जब वंचित तबके के लोग आंदोलन खड़ा करते हैं तो उनमें भी कबीर, रैदास वर्णाश्रम का, बाह्य आडम्बरों का कड़ा विरोध करते हैं।
आधुनिक शिक्षा के साथ ही चली आ रही प्रतिरोध की परम्परा भी ऐसे व्यक्तित्व को गढ़ती होगी। हालाँकि कहानी में ऐसा उल्लेख नहीं है लेकिन सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
जब यह कहा जाता है कि चौथी पर बरम बाबा की सवारी है तो गाँव में अफरातफरी का माहौल बन जाता है। लोग उससे भागने लगते हैं। उसकी खोजबीन भी शुरू हो जाती है। लेकिन चौथी ऐसे लोगों से बचना चाहता है।
अंधविश्वास और जाति-पाँति के विरोधी चौथी को जबरन उसी में खींचने की कोशिश की जाती है। वह इन सबका विरोधी है। लेकिन यही विडंबना है।
‘ बड़ी खोज के बाद लोगों को चौथी गोमती तट पर मिले। उन पर ब्राह्म का ऐसा तेज था कि सात आठ लोगों से वे घंटे भर तक अकेले ही कुश्ती लड़ते रहे। लोग उनके ताप के आगे टिक नहीं पा रहे थे। हाथ पाँव जोड़कर किसी तरह मनाया गया और बड़ी पूजा आरजा के बाद दोनों हाथ पीठ पर चढ़ाकर बाँधे गए और उन्हें लाया गया। रात भर चमरौटी पाँचू का घर घेरे बरम बाबा को बैठ मनाती रही और अंदर महानंद के डोलची और जोखू जनता री चौथी को ब करवाने के लिए पचरा गाते और बीच-बीच में बोल-बोल की आवाज़ देते हुए ब्राह्म के मुंह पर झापड़ों की वर्षा करते रहे। पर ब्राह्म का प्रकोप ऐसा की वह टस्स-से-मस्स होने को तैयार नहीं।’
लेकिन कहानी में कथाकार ने माँ के मुँह से कहलवा दिया है कि ‘डरने की कोई बात नहीं है। बस सिर पर कपड़ा रख लेना। ऊँची जाति वालों को नहीं पकड़ते हैं बरम-भूत।’
भूत भी वर्ण व्यवस्था के हादसे के शिकार हैं। जैसे उच्च मुस्लिमों को साफ सुथरे जिन्न और निम्न तबके के मुस्लिमों को शौच में रहने वाले खबीस पकड़ते हैं।
कहानी के अंत में आते-आते मार्कण्डेय पूछते हैं, ‘आखिर वह कौन सी सच्चाई थी जो सिर्फ उनके पास थी जिसे बताने के लिए वे इस तरह व्याकुल थे?’ इसका उत्तर इस कहानी में है,
‘…मेरे पास एक सच्चाई है, इसे सुन लीजिए। इसे आपको दूसरा कोई नहीं बता सकता- धर्मग्रंथ, वेद पुरान कोई भी नहीं…सुनिए, सुनिए….और हर आदमी उन्हें देखता भागता।’ चौथी (मुंशी जी) छलों और प्रपंच से वाकिफ थे। लेकिन उनकी सुन कौन रहा था! सभी भाग रहे थे। यह ब्राह्मणवादी वर्चस्वता को बनाए रखने का छल था जिसे ब्राह्मकोप कहा गया था।
अंधविश्वास और जातिवाद का चोली दामन वाला साथ इस कहानी में साफ है। और अंत में उस सच को, जो अब शांत हो गया था, कथाकार ने इन शब्दों में बताया है ‘कहीं यह वही तो नहीं, जो हलयोग की लकड़ी के उस विशाल कुन्दे पर लेटी पड़ी एक ऐसा व्रजाक्षर बन गई थी, जिसे सुना तो नहीं, सदेह देखा जरूर जा सकता था।’
कहानी का शीर्षक है ‘हलयोग’। योग यानी अंधविश्वास, जड़ता और मूर्खता और शोषण। हलयोग ही चौथी का इलाज है। चौथी प्रतीक है आधुनिकता का, टूट रही व्यवस्थाओं का और समानता का।
चौथी आधुनिक युवक है। वह उनके झाँसों में नहीं है। वह शिक्षित है इसलिए उसमें चेतना है। जबकि उसकी जाति के अन्य लोग अशिक्षा के कारण इन अंधविश्वासों, जड़ताओं और विभाजनों से बँधे हुए हैं।
उसका भाई पाँचू भगत ही उसके विरुद्ध है। वह उसे घर से निकाल देता है। यह अशिक्षा ही है जिसके चलते वे इसे अपनी नियति मान बैठते हैं। अगर कहीं विद्रोह भावना छिपी भी होती है तो वह धीरे-धीरे नियति मानकर दबती चली जाती है। शिक्षा इस इस तथाकथित नियति के खेल को खोल देती है।
‘तुलसीराम’ की बहुचर्चित आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में भी ब्राह्मण ऐसी अफवाहें और अंधविश्वास को उड़ाते हैं कि अधिक अध्ययन मनुष्य को पागल कर देता है। इसे तुलसीराम ने इन शब्दों में दर्ज किया है-
 ‘ब्राह्मण हमारे घर वालों से कहते कि ज्यादा पढ़ने से लोग पागल हो जाते हैं, इसलिए बच्चों को ज्यादा नहीं पढ़ाना चाहिए। ब्राह्मणों की इस सलाह से घर वाले सहमत हो जाते थे।..सबसे बड़ी समस्या मेरे पिताजी की थी। घोर अंधविश्वासी तथा धार्मिक होने के कारण वे ब्राह्मणों की हर बात एकदम सही मान लेते थे'( मुर्दहिया/ तुलसीराम/ पृ.149/ राजकमल प्रकाशन 2021 संस्करण)। इसके आगे तुलसीराम लिखते हैं कि ब्राह्मण यह भी कहते कि बभनौटी का कोई लड़का हाईस्कूल से ज्यादा नहीं पढ़ा। लेकिन ‘हकीकत यह थी कि बभनौटी का कोई बच्चा उस समय तक हाईस्कूल पास नहीं कर पाया था क्योंकि वे फेल होकर पढ़ाई छोड़ देते थे ‘(वही)।
जाहिर है, कि वर्चस्ववादी तबका किसी प्रकार भी दलितों को अपनी बराबरी में नहीं स्वीकार कर सकता है। यही मार्कण्डेय की कहानी में भी है।
तुलसीराम की आत्मकथा बेहद प्रामाणिक दलित आत्मकथा है। ‘मुर्दहिया’ के इस प्रसंग का उल्लेख मार्कण्डेय के रचनाकार व्यक्तित्व को उत्कृष्ट यथार्थबोध के साथ ही गहरे अनुभवबोध से भरा हुआ एवं बेहद प्रामाणिक रचनाकार बनाता है।
‘हलयोग’ का कथावाचक ‘विवेक’ एक बच्चा है। उस बच्चे के माध्यम से संस्मरणात्मक शैली में कहानी आगे बढ़ती है। वह चौथीराम का छात्र है। वह अभी सामाजिक विभाजनों एवं छुआछूत के प्रपंचों से अवगत नहीं है।
वह घटनाओं को जिस दृष्टिकोण से देखता है उसमें गहरे अर्थ छिपे हुए हैं। वह मनुष्यता से भरा हुआ है। वह चौथीराम को अपना शिक्षक मानता है। वह जातीय विभाजनों से कोसों दूर है।
स्कूल में भी वह चौथीराम से अंधविश्वास विरोधी एवं वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करता है। चौथीराम उसके आदर्श शिक्षक हैं। वह ह्रदय में नायकत्व सी छाप छोड़ते हैं। घटनाओं का दर्शक और वाचक एक बच्चा बनाने में भी कथाकार का निहितार्थ भी समझ आता है।
दरअसल बच्चे मनुष्य होने का प्रतीक हैं। वे विशुद्ध रूप से मनुष्य हैं। उनकी मनुष्यता में संदेह नहीं किया जा सकता है। उनकी बातों में भी प्रमाणिकता छिपी होती है। वह जो देखते हैं वो कहते हैं। बच्चे से कहानी का एक संदेश भी सामने आता है।
मनुष्य अपनी बीतती उम्र के साथ सामाजिक विषमताओं के प्रति सहज होता जाता है, और वह अपनी मनुष्यता खोता जाता है। वह कृत्रिम विभाजनों में बँटे हुए समाज के वातावरण से तालमेल बिठा लेता है ऐसे में कहानी का दर्शक और वाचक एक बच्चे का होना एक संदेश प्रेषित करता है। वह हममें पुनः मानवीय गरिमा से युक्त होने का बोध जागता है, प्रेरित करता है।
मार्कण्डेय का एक उपन्यास है, ‘अग्निबीज’। वह उपन्यास 1981 में आया था। अग्निबीज में भी मार्कण्डेय ने विषमताओं का गहरे से चित्रण किया है। गाँव की जातियों और वर्णों में घिरी, बँधी मानसिकता इसे नहीं स्वीकार कर पाती कि अछूत होकर भी ‘सागर’ आश्रम के स्कूल में अध्यापक बने और उन बच्चों को पढ़ाए जिन्हें सवर्णों के ढोर डंगर चराने है।
आश्रम में लगाकर उसकी हत्या की कोशिश इसी सोच का परिणाम है'(हिं०उपन्यास का विकास, पृ.207, मधुरेश)।
मार्कण्डेय के सम्पूर्ण रचनात्मक संसार पर दृष्टिपात करते हुए ज्ञात होता है कि ‘हलयोग’ सामाजिक विषमताओं और भेदभाव को उजागर करने वाली उनकी पहली और अन्तिम रचना नहीं है। पान-फूल कहानी भी सामाजिक विषमताओं को उजागर करने वाली महत्वपूर्ण कहानी है। किन्तु ‘हलयोग’ कहानी कथात्मक एवं रचनात्मक स्तर पर उनके सिद्धहस्त कथाकार होने का प्रमाण है।
नब्बे के दशक में दलित अस्मिता के उदय के समय इस कहानी का आना इस बात का प्रत्युत्तर भी है कि दलित जीवन के अनुभवों एवं दुःखों को सिर्फ दलित ही लिख सकता है, यहाँ तक सीमित करना अनुचित है।
यह सच है कि दलित आंदोलन ने समाज में व्याप्त विषमताओं, शोषण के जिन रूपों को सामने रखा है वह मुख्यधारा के साहित्य में कम मिलता है और मिलता भी है तो गहराई की कमी होती है।
लेकिन मार्कण्डेय की कहानी ‘हलयोग’ दलित जीवन को, उनके शोषण को जिस आत्मीयता, मार्मिकता एवं गहराई से व्यक्त करती है वह हिंदी कहानी की मुख्यधारा में कहीं अन्यत्र क्यों नहीं है? मार्कण्डेय या इक्का-दुक्का कथाकारों को छोड़कर कोई अन्य कथाकार दलित जीवन का इतनी ईमानदारी से चित्रण करने में इतना सफल क्यों नहीं रहा है?
दलित जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर मुख्यधारा कथा साहित्य में इतनी मौनता क्यों है? यह हिंदी के अन्य कथाकारों की ईमानदारी को भी प्रश्नांकित करती है।
कहानी का परिवेश भले आजादी पूर्व का हो लेकिन कहानी का सच वर्तमान का सच भी है। नब्बे के दशक में कुछ प्रगतिशील लेखकों को लगने लगा था कि समाज में ब्राह्मणवाद, जड़ मानसिकता, शोषण के ऐसे रूप नहीं बचे हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं, ‘संस्मरण के रूप में कौशल से यह स्पष्ट कर दिया गया कि आजकल ऐसा हो पाना शायद मुश्किल है, लेकिन मार्कण्डेय के बचपन यानी चौथे दशक के अंतिम वर्षों में ऐसा होता था'( कुछ कहानियाँ:कुछ विचार, बदलते समय के रूप, पृ.118,वि.त्रि., राजकमल प्रकाशन, सं.2015)।
लेकिन त्रिपाठी जी यह बात वर्तमान के संदर्भ में कितनी तर्कसंगत लगती है! ‘हलयोग’ जैसी कहानी तो पचास ही साठ के दशक में ही आ जानी चाहिए थी। क्या कहानी वर्तमान से नहीं जुड़ती है! क्या अब जातिवादी मानसिकता से ग्रसित जनता उदार हो गई है? ‘शायद’ लगाकर वे निष्कर्ष देने की किस जल्दबाजी में हैं!
अग्निबीज उपन्यास में भी तो ‘सागर’ के शिक्षक बन जाना और दलितों को पढ़ाना सहन नहीं है! लेकिन अग्निबीज में तो ‘मार्कण्डेय के बचपन यानी चौथे दशक के अंतिम वर्ष’ वाला वातावरण नहीं बल्कि स्वतंत्रता के बाद का वातावरण और राजनीतिक परिदृश्य है।
इस प्रकार तो दलित कथाकारों की हाल फिलहाल के यथार्थ को अंकित करते हुए अधिकांश कहानियाँ एवं आत्मकथाएँ ‘आजकल शायद ऐसा हो पाना शायद मुश्किल है’ कहते हुए ख़तिया दी जाएंगी!
मुख्यधारा की हिंदी कहानी में मार्कण्डेय की ‘हलयोग’ कहानी कथा, पात्र, परिवेश, शिल्प सभी दृष्टिकोणों से बेजोड़ है। मार्कण्डेय की खूबी यह रही है कि उन्होंने कहानी लेखन में न सिर्फ आत्मपरकता या अस्तित्ववाद का विरोध किया बल्कि उनका भी जो अवधारणात्मक तरीकों से कहानी लेखन कर रहे थे। यहाँ वे कलावादियों का ही नहीं बल्कि मार्क्सवादी कथाकारों का भी विरोध करते हैं।
कहानी की बात में एक जगह वे लिखते हैं, कि ‘विज्ञान और दर्शन की प्रगति ने हमारी परंपरागत मान्यताओं एक नए परिवेश में ला खड़ा किया है, जहाँ हर अनुभूति को कार्यकारण की कसौटी पर खरा ही उतरना पड़ता है'(कहानी की बात, पृ.14, लोकभारती प्रकाशन, वर्तमान संस्करण 2015)।
ऐसा कहते हुए लगता है कि मानों कहानी लेखन की वे एक नई कसौटी का निर्माण कर रहे हों। मार्कण्डेय की कहानियाँ समय संदर्भों से जुड़ी हुई कहानियाँ हैं। वह कहानियों में आए समाज को जीते हुए चलते हैं।
मार्कण्डेय अपने समय के साथ-साथ आज के समय में भी उतने ही सन्दर्भवान हैं। ‘हलयोग’ जैसी कहानियाँ इसका साक्षात प्रमाण हैं।
(मोहम्मद उमर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में
 हिंदी साहित्य, एम.ए प्रथम वर्ष के छात्र हैं।उन्होंने यह लेख महादेवी वर्मा स्मृति महिला पुस्तकालय की ऑनलाइन गोष्ठी में कहानी पाठ और परिचर्चा के अन्तर्गत प्रस्तुत किया था )
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