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बायोपिक चमकीला- लोकभाषा पर एक विमर्श

रूपम मिश्र

अभी इम्तियाज अली ने पंजाब के लोकगायक अमर सिंह चमकीला पर बायोपिक फ़िल्म बनायी। फ़िल्म में अमर सिंह चमकीला के कुछ गीतों को भी रखा गया है ।

कुछ लोग ये दलील दे रहे हैं कि अगर चमकीला नायक हो सकता है तो पवन सिंह या खेसारी क्यों नहीं। हाशिए के समाज की अपनी भाषा होती जो उसी भूगोल में दूसरे वर्गों के मनुष्यों की भाषा से अलग होती है ।

मैं हमेशा गाँव में रही हूँ। बचपन में मजदूर औरतों को बुलाने के लिए कभी-कभी मैं साइकिल से उनकी बस्तियों में जाती तो ध्यान जाता कि उनकी बातचीत में शील-अश्लील का बहुत भेद नहीं है, उनकी भाषा भी उनके जीवन की तरह खुली होती है, वहाँ ज्यादा दुराव-छिपाव या अभिजात्यता का जामा नहीं होता।

मेरी शिक्षा गाँव के प्राइमरी स्कूल में हुई साथ पढ़ती लड़कियों को देखा कि उनकी भाषा हमारी भाषा से कहीं ज्यादा खुली हुई है। आज जब भाषा को थोड़ी समझ मेरी विकसित हुई तो बचपन की एक घटना याद आती है। एक बार स्कूल में एक हाशिए के वर्ग की बच्ची ने मुझसे पूछ लिया

“तुम महीना होती हो !” मैं दीदी के पास जाकर फफक कर रोने लगी । दीदी कारण पूछने लगीं तो मैंने कहा समला ने मुझे गाली दी।

ये एकदम सामान्य बात थी लेकिन जिस परिवेश में मैं पली थी वहाँ पीरियड्स आने को बहुत छिपाने वाली बात की तरह देखा जाता था। जैसे बच्ची पर अपवित्र होने का दाग लग गया। जाने क्या था वहाँ पीरियड को लेकर।

मुझे याद है मेरे पीरियड्स आने पर माँ रो पड़ी थीं। इसी तरह भाषा की पवित्रता को खासकर यौनजनित भाषा को लेकर गवईं अभिजनों में बड़ा तोपना-ढांकना देखा ।

हमारे बचपन में हमारे घरों में शौच को जाती स्त्रियां कहतीं कि लौटने जा रहे हैं और इसी बात को उन घरों की स्त्रियां खोलकर कहतीं कि शौच करने जा रहे हैं।

दरअसल मेरे कहने का आशय ये है कि भोजपुरी के ये गायक हाशिए के समाज की भाषा को हथिया कर उसका व्यापार किए क्योंकि वो उनकी भाषा नहीं थी।

जबकि चमकीले की वो अपनी भाषा थी उसने किसी और वर्ग के मनुष्यों की भाषा को गाने के लिए नही चुना था । इसलिए पवन सिंह,मनोज तिवारी, निरहू यादव या खेसारी यादव के साथ उनको जोड़ना न सिर्फ सतही बात है बल्कि वैचारिक बेईमानी भी है।

रही बात शील-अश्लील की तो हमारे यहाँ होली के पारंपरिक गीत जिसे कबीर कहा जाता था वो क्या थे या महिलाएं शादी-ब्याह में जो गालियां गाती थीं वो सब क्या था। लेकिन अब कोई भी बहस बाजार के बढ़ते वर्चस्व को तटस्थ करके नहीं हो सकती।

चाहे उन लोकगीतों की बात हो या चमकीले की अपनी भाषा का अंतर ये है, तब बाजार इतना हावी नहीं था, उन गीतों को उस भाषा को बाजार में बेचा नही जा रहा था।

अब तो इंटरनेट क्या-क्या बेच रहा है बताने की जरूरत नहीं है। एक हाशिए का मनुष्य अपनी भाषा में गा रहा है तो अभिजन लोगों को उसे न सुनकर खारिज करना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

रही बात भाषा के अपनेपन की तो चमकीला अपनी पत्नी के साथ मंच पर गीत गाता था क्योंकि उस भाषा को लेकर उसके यहां भेद नही था , लेकिन भोजपुरी गानों के ये गायक कभी अपने परिवार के साथ नहीं गाए ये गीत , क्योंकि वो इसे अश्लील और फूहड़ मानते थे। अब सवाल उठता है कि जो इसे अश्लील और फूहड़ नहीं मानता और अपनी भाषा में अपने परिवार के साथ खड़े होकर गाता है और वे लोग जो महज इस भाषा का व्यापार करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं दोनों की बराबरी कैसे हो सकती है।

ये भोजपुरी के गायक तो किसी हाशिए के वर्ग के नहीं हैं। उन्होंने उस भाषा महज इस्तेमाल किया और दूसरी तरफ अपनी महिमामयी संस्कृति के वाहक भी बने रहे । तो महज किसी भाषा को बाजार में बेचने के लिए इस्तेमाल करना और उसे अपनी भाषा संस्कृति न कहना सिर्फ मुनाफाखोरी है ।

फ़िल्म के दृश्य में जब पत्रकार पूछती है चमकीले से कि वो उसकी तरफ क्यों नहीं देख रहा है तो वो कहता है कि उसने जीन्स पहनी लड़की नहीं देखी इसलिए असहज है।

पत्रकार अगला सवाल करती है कि इतने अश्लील गाने कैसे गा लेते हैं । तो चमकीला कहता है ऐसे गाने खूब सुने हैं जी। तो भोजपुरी गायक पवन सिंह, मनोज तिवारी से चमकीले की तुलना करना “लोकभाषा” के अर्थों में ठीक कह सकते हैं लेकिन इतना याद रखना होगा कि एक हाशिए की जाति के मनुष्य के पास वो विकल्प नहीं होता जो सुविधाभोगी वर्ग के मनुष्य के पास होता है।

यह भी देखना होगा कि मनोज तिवारी, पवन सिंह, निरहू यादव या खेसारी यादव जैसे समाज में किसी हाशिए की जाति से नहीं आते बल्कि इनके वर्चस्व का इतिहास, वर्तमान सब भरा पड़ा है ।

एक बात और है, जिसपर ध्यान जाता है, कि इन अश्लील भोजपुरी गायकों से पहले भोजपुरी गानों में ऐसी अश्लीलता नहीं थी जबकि पंजाब में तो अखाड़ों में ऐसे गीत गाये जाते थे तो इस तरह भी देखें तो भोजपुरी गानों में फूहड़ कचरा लाने का श्रेय मनोज तिवारी, पवन सिंह और निरहू यादव जैसे लोगों को जाता है।  पितृसत्ता और धार्मिक कट्टरता की बात करें,  तो फ़िल्म कहे या न कहे वह ज़ाहिर है।

चमकीला की पहली पत्नी के साथ जो हुआ स्त्रियों के साथ ये अन्याय नया नहीं है । कला-साहित्य का वैभव संसार ऐसे उदाहरणों से पटा है।

हाशिए के समाज का पुरुष सामन्ती समाज के पुरूष से आखिर कितना अलग होगा। और चमकीला को किसने मारा ये सवाल खुद ही जबाब है धार्मिक उन्माद का क्योंकि अश्लील गानों को गाने के लिए यदि चमकीला को मारा गया तो पाश को क्यों और किसने मारा ये सवाल भी उसके साथ खड़ा है!

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