( यह लेख ‘‘द इंडियन एक्सप्रेस’’ से लिया गया है जिसे मूल तमिल से अंग्रेजी में वी0 गीता ने अनूदित किया है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है )
द्रविड़ मुनेत्र कषगम के संस्थापक एवं तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री सी0एन0 अन्नादुरै ने स्वयं द्वारा सम्पादित साप्ताहिक पत्रिका ‘द्रविड़ नाडु’ में 24 अगस्त 1947 को ‘सेंगोल’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। लेख की भाषा अलंकारिक थी और यही उनके व्यंग्य की परिकल्पना की भाषा थी। यह लेख कई हिस्सों में है- इसमें लेखक और एक मैत्रीपूर्ण, यद्यपि निरुत्तर बिचौलिये के बीच और एक आधुनिक बुद्धिजीवाी ब्राह्मण और अधीनम के बीच काल्पनिक वार्तालाप सम्मिलित हैं। इस लेख की शुरुआत में ही अन्नादुरै को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को राजदंड समर्पित किये जाने को लेकर जो दलील दी गयी उसीपर आश्चर्य होता है। प्रस्तुत है उसी लेख का छोटा सा हिस्सा।
थिरुवादुथुरै आधीनम ने नयी सरकार के प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू को एक सेंगोल भेंट किया है।…….उन्होंने ऐसा क्यों किया ? क्या यह एक उपहार था, एक भेंट थी या कोई लाइसेंस फीस ? यह एकदम अप्रत्याशित है, और बिला वज़ह भी। यदि यह सिर्फ बिला वज़ह होता तो कोई बात नहीं थी। इस इंगित का एक गहरा निहितार्थ है और यह अब साफ होता जा रहा है कि यह एक ख़तरनाक़ अपशकुन है।
हमें नहीं पता कि इसे लेकर पण्डित नेहरू की क्या सोच है और हम यह भी नहीं जानते कि इसके साथ थिरुवादुथुरै आधीनम ने कोई टिप्पणी भी भेजी थी या नहीं। लेकिन पण्डित नेहरू से कहने के लिये हमारे पास भी कुछ है।
आप राष्ट्रों के इतिहास से भली-भाँति परिचित हैं। कोई अभिषिक्त राजा (जिसका राज्याभिषेक हुआ हो) अपनी प्रजा को इसलिये काम पर लगाता है ताकि उसके श्रम पर वह और उसके दरबारी विलासिता पूर्ण जीवन जी सकें। राजा के स्वर्ण महल में कुछ चुनिंदा लोगों को हर हिस्से में जाने की आजादी होती है, वे हैं धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त लोग। यदि हमें जनता के शासन की वैधता बरकरार रखनी है तो ऐसे लोगों से उनके विशेषाधिकार छीनने होंगे। यह स्वयं सिद्ध है। आप यह बात जानते हैं।
यही सवाल आधीनम जैसों को परेशान करता है। उन्हें आश्चर्य है, और क्षोभ भी, कि आपकी सरकार इस ज्ञान के अनुसार कार्य करेगी, इसलिये वे आपको केवल स्वर्णिम राजदंड ही नहीं बल्कि उसमें नवरत्न भी जड़कर देंगे, केवल इसलिये कि वे चाहते हैं कि उनके हित सुरिक्षत रहें।
यह भक्तों द्वारा जोर जोर से गाकर ईश्वर के आशीर्वाद स्वरूप प्राप्त किया गया राजदंड नहीं है……नहीं, आधीनम का यह उपहार लोगों के श्रम की उपज है। इसके निर्माण में लगे सोने का मूल्य उन लोगों द्वारा चुकाया गया है जिन्हें इस बात की चिन्ता नहीं है कि कुछ लोग अपना दिन और रात भूखे रह कर गुजारते हैं, वे दूसरों के धन का अपव्यय करते हैं, किसानों के पेट पर लात मारते हैं, मजदूरों को कम से कम मजदूरी देते हैं, उनके कर्जों का भुगतान नहीं करते, अपने मुनाफे में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी करते हैं। और अपने अपराधों को और अपने पापों को छुपाने और ईश्वर को धोखा देने के लिये यह सोना चढ़ाते हैं।
यदि हमारे भावी शासक ऐसे लोगों से यह राजदंड प्राप्त करते हैं जो स्वभावतः लोगों के तन-मन का शोषण करते हैं तो यह किसी तरह से शुभ नहीं है।
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ब्राह्मण : तो आप, आधीनम, नयी सरकार के प्रति अपने अप्रतिम प्रेम, आदर और दिलचस्पी के चलते किसी शुभ मुहूर्त में यह राजदंड भेजेंगे, क्यों, इससे आपको जयपुर, बड़ौदा, उदयपुर, मैसूर……..राजघरानों से थोड़ी प्रशंसा तो मिल जायेगी। वे इस राजदंड को मिनट-दो मिनट याद रखेंगे पर वास्तव में होगा यह कि आपका यशोगान तो सारे दिन होगा।
आधीनमः तो क्या इसे भेजने का विचार अच्छा नहीं था ?
ब्राह्मणः राजदंड को राजा अपने हाथ में धारण करता है। और सरकार को यह राजदंड किसने सौंपा? आधीनम ने, तो इस प्रकार किसने यह राजदंड देकर अपनी सहमति या आशीर्वाद की मुहर लगायी, जैसे कि नयी सरकार को अपना काम प्रारम्भ करने के लिये हरी झंडी दिखायी जा रही हो- लोगों में चर्चा का विषय यही होगा। सिर्फ आज ही नहीं, भविष्य में भी, हमेशा।
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सेंगोल पर एक नज़र डालिये। यह खूबसूरत तो है। पर सम्भव है कि आपको पवित्र साँड़, ऋषभम् से अधिक भी कुछ दीख जाय। आपको उन कृषि मजदूरों द्वारा जोते-बोये गये हजारों एकड़ खेत भी दीख जाँय जिनकी ज़िन्दगी नरक हो चुकी है। आपको इस राजदंड में उनकी झोपड़ियाँ भी दिखायी देंगी और उनमें पसरी हुयी दरिद्रता भी। आपको मिरासदार (टैक्स वसूलने वाले) भी दिखायी देंगे, उनके बंगले भी और उनकी सोने की प्लेटें भी, जिनमें वे खाना खाते हैं। और फिर आप देखेंगे थके हुये बदन, निस्तेज आँखें…….आपको दिखायी देंगे मठ और डरावने साधु, उनके मोती, उनके कानों में सोने की बालियाँ, उनके सोने के खड़ाऊँ।
…..पण्डित नेहरू को भेजा गया यह सेंगोल कोई उपहार नहीं है। न यह प्रेम का प्रतीक है। और यह देशभक्ति का प्रदर्शन भी नहीं हैं। यह भारत के भावी शासकों से एक याचना है कि वे आधीनम को बख्श दें, उनके धन-दौलत को छीनें न। हमारे शासकों को यह प्रसाद देकर आधीनम उनसे दोस्ती करना चाहता है ताकि उनकी ख्याति और वर्चस्व पर कोई आँच न आये।
…..यह सारा सोना इन साधुओं के कब्ज़े में है, फिर भी जितना कुछ वास्तव में उनके पास है यह उसकी झलकी मात्र है। यदि उनके परिसर का सारा सोना जब्त कर लिया जाय और उसे जनकल्याण में खर्च कर दिया जाय तो यह राजदंड केवल प्रदर्शन की वस्तु नहीं रह जायेगा बल्कि जनसामान्य के जीवनस्तर को ऊपर उठाने का साधन बन जायेगा।