समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

“ सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फ़ौज ”  पुस्तक का लोकार्पण

दिल्ली। आईटीओ स्थित सुरजीत भवन सभागार में 23 जनवरी की शाम सुभाषचंद्र बोस की 126वीं जयंती के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में अशोक तिवारी की क़िताब  “सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फ़ौज” का लोकार्पण हुआ।

कार्यक्रम की शुरुआत में अशोक तिवारी ने अपने लेखकीय वक्तव्य में कहा कि 1997 में डॉ ललित शुक्ल ने इस किताब पर काम करने की जिम्मेवारी मुझे सौंपी थी। उसके बाद फ्रीडम मूवमेंट को पढ़ने और लिखने का सिलसिला दर सिलसिला शुरू हुआ तो होता ही चला गया। इसके लिए सुभाष के भाई शिरीष के संपादन में प्रकाशित 12 खंडों की जीवनी  का गहन अध्ययन किया और आज वह अध्ययन एक किताब के रूप में सामने है। उन्होंने किताब की संपादक समूह के सदस्यों मोनिका मिश्रा, अंशु चौधरी और प्रभाकर प्रकाशन का धन्यवाद ज्ञापन किया।

शिक्षाविद बी.पी. पांडेय ने किताब पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इसे एक बार में पढ़ा जाना और उसे एक बार में ही समझ पाना मुश्किल है जब तक आप इसका विश्लेषण नहीं करेंगे, आप समझ नहीं पाएंगे। उन्होंने कहा कि मैं व्यवस्था से पूछना चाहता हूं कि क्या हम सुभाष के मूल्यों को आम जीवन में शामिल कर पा रहें हैं क्यूंकि शिक्षक के रूप में मैं सुभाष से मिलने वाले शिक्षा के आयामों को देखता हूं।

वरिष्ठ आलोचक गोपाल प्रधान ने कहा कि वाल्टर बेंजामिन ने कहा था कि “फासिस्टों से वर्तमान को जितना खतरा है उससे ज्यादा मृतकों को है। ” इतिहास के पन्नो को सही रूप से सामने लाया जाना चाहिए जिसके लिए यह किताब बहुत महत्वपूर्ण है। अपने अतीत को देखने की चुनौती वर्तमान पेश करता रहता है। उन्होंने कहा कि मुस्लिम शासन को जोड़कर हजार साल की गुलामी का आख्यान गढ़ने की कोशिश हो रही है। सत्ता में काबिज़ लोगों का स्वाधीनता आंदोलन में कोई योगदान नहीं है इसलिए यह हो रहा है। शुक्ल ने लिखा है कि स्वाधीनता आंदोलन केवल शहरों से देहातों तक ही नहीं बल्कि दूसरा विश्व स्वाधीनता आंदोलन के हिस्से के रूप में भारत की स्वाधीनता थी। उन्होंने यह भी कहा कि अंग्रेजों के कारण भारत में एकता नहीं बनी, बल्कि स्वाधीनता संग्राम के कारण बनी। स्वाधीनता संग्राम एकरंगा नहीं था।

साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका नासिरा शर्मा ने कहा कि हमारी तारीख ऐसी नही थी कि की हम लड़ सकें क्योंकि तब लोग सिर्फ हड्डी के ढांचे के समान थे। सुभाष चंद्र बोस तब एक हिम्मत बन के आए। इस किताब ने बहुत भ्रम तोड़े हैं। सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि हम किसी भी मजहब को नहीं मानते। इतिहास के पन्नों पर कई तानाशाह और फासिस्ट सरकारें आईं और आगे भी आती रहेंगी लेकीन हम नागरिकों को क्या हो जाता है कि हम क्यों आपस में मोहब्बत करना भूल जाते हैं। हमे एक-दूसरे का हाथ कभी नहीं छोड़ना चहिए। आज के बच्चे इस किताब को पढ़कर सुभाष चंद्र बोस को करीब से जानेंगे। आज के बच्चे सुभाष को इतना ज्यादा नहीं जानते होंगे जिसके बीच यह क़िताब पुल का काम करेगी। आगे कहा कि जिस तरह बच्चों के सिलेबस में उपन्यास आदि लगते हैं ठीक उसी तरह सुभाष जैसी किताबों को भी जोड़ा जाना चाहिए।

कार्यक्रम का संचालन आलोक मिश्र ने किया। प्रभाकर प्रकाशन के संपादक अंशु कुमार चौधरी ने धन्यवाद ज्ञापित किया। परिचर्चा में दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय, आंबेडकर विश्वविद्यालय एवं दिल्ली के कई महाविद्यालयों के शिक्षक और छात्र-छात्राएं उपस्थिति रहे।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion