समकालीन जनमत
पुस्तक

विनय सौरभ का कविता संग्रह ‘बख़्तियारपुर’ स्मृतियों के माध्यम से वर्तमान को परखने की एक सफल कोशिश है

प्रज्ञा गुप्ता


 

आज के समय में जब संबंधों की उष्मा के मायने कम हो रहे हैं; हमारी संवेदना के लिए घटनाएं मात्र एक खबर हैं, स्मृतियों को भूलकर मनुष्य वर्तमान में आनंद प्राप्ति के लिए भाग -दौड़ कर रहा है। ऐसे समय में विनय सौरभ संबंधों की उष्मा और अतीत का राग लेकर सुंदर कविताएँ रच रहे हैं और इन कविताओं में जीवन के प्रति गहरी आस्था और विश्वास है।

भूमंडलीकरण की चकाचौंध में आज हम एक करुणा और संवेदना से हीन संस्कृति की गिरफ्त में जा रहे हैं। ऐसे में स्थानीयता के प्रति मोह रखता, स्मृतियों को अभिव्यक्त करता यह कवि अपने समय को परख रहा है-
“मनोरंजन की पारंपरिक दुनिया से
धीरे-धीरे विदा हो गए हैं अब बहुरुपये भी!
अब उन्हें किसी शहर या गांव में नहीं देखा जाता
वे हमारी दुनिया से जा चुके हैं!”

विनय सौरभ की कविताओं में स्मृतियाँ हैं। उन स्मृतियों के साथ अपने समय की विसंगतियों को शब्दों के माध्यम से दर्ज करती स्थितियाँ हैं जो मनुष्यता के सामने अपने दर्द को बयां कर रही है- “बरसों बाद हम लौटते हैं
किसी पुरानी जगह पर
एक याद मिलती है
जगह खो जाती है”।

विनय सौरभ की लिखी गई कविताएँ उनकी अपनी निजी संवेदनाओं एवं स्मृतियों से लबरेज़ हैं लेकिन वह हमें अपनी सी लगती हैं और उस भावधारा में समाहित होकर हम मनुष्यता की राह में बढ़ते चले जाते हैं।

आचार्य शुक्ल ने कहा है “कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत के बीच क्रमशः इसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है। भाव योग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जगत् के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भावसत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व- हृदय हो जाता है।उसके अश्रुधारा में जगत की अश्रु धारा का, उसके हास-विलास में जगत के आनंद -नृत्य का, उसके गर्जन- तर्जन में जगत के गर्जन- दर्जन का आभास मिलता है”।

विनय सौरभ की कविताएँ भी हमें मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती हैं।

विनय सौरभ की कविताएँ उनके अपने जीवन के अनुभव की उपज है वहाँ पर दूसरे के उधार के दु:ख से उपजा दर्द नहीं है। यह उनकी अपनी करुणा है जिसकी धार में हम पाठक भी बहते चले जाते हैं और कवि की कविताई में पाठक का बहते चले जाना कविता की सार्थकता एवं सफलता है। विनय सौरभ की कविताओं में पिता हैं, माँ है, बहन है, बड़े भैया हैं, गंगेसर राम है, जिल्दसाज सुबंधु है, नोनीहाट है, छुटा हुआ घर है, चला गया आदमी है, डाकिया है, लोक धुन है और एक घर है और यह सब के सब स्मृतियों में जीवंत है। पिता की स्मृति में जैसे बख्तियारपुर काबिज है वैसे ही कवि की स्मृति में यह सारी बातें हैं।

नोनीहाट का यह कवि अपनी मनुष्यता से विनय लुटाता हुआ जितना सौरभ बिखेर रहा है वह बहुत सुकूनदायी है। कवि का जो विश्वास है वह पाठकों की संवेदना को हौले से स्पर्श करता चल देता है और यहीं कवि की कविताई जिजीविषा को सबल सिद्ध करती है। विनय जब लिखते हैं कि
“जीवन में उम्मीद और
किनारो पर लहरों की तरह लौटूंगा।

मैं तुम्हारी नींद में लौटूंगा
किसी सुंदर सपने की तरह

लौटूँगा तुम्हारी त्वचा और सांस में
हवाओं के साथ

शायद लौटूँ पंछी बनकर और
तुम्हारे कमरे के रोशनदान पर बसेरा करूँ
बहूँ तुम्हारे रक्त में तुम्हारे कुएँ का जल बनकर

बिखरूँ..
गुनगुनी धूप का टुकड़ा बनकर
सर्दियों के दिनों में तुम्हारी छत पर

देखना, तुम्हारे घर की खाली जमीन पर वनस्पति बनाकर उगूँगा
और चौके में आऊँगा तुम्हारे पास

तुलसी की पत्तियाँ बन जाऊँगा तुम्हारे आँगन में
तुम खाँसी की तकलीफ़ में उबालकर मुझे पीना!

देखना मैं लौटूँगा कुछ ऐसे ही
और वह लौटना दिखाई नहीं देगा!”

कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं “जिस कवि का जीवन और जगत् के साथ बृहत्तर यथार्थ से जितना गहरा रागात्मक संबंध होगा, वह उतने ही सफल बिंबों का निर्माण कर सकेगा। इस संबंध की गाढ़ता के साथ संपन्न स्मृतिकोश और कल्पना शक्ति की उर्वरता भी आवश्यक होती है”।

विनय सौरभ के पास मानवीय रिश्तों की प्रगाढ़ता से संपन्न एक वृहत् स्मृति-कोश है। उनकी कविताओं में बिंबो के माध्यम से यह सहजता पूर्वक अवतरित होता है। बिंबो के माध्यम से हम वास्तविकता के विभिन्न स्तरों तक पहुँचते हैं ।

विनय जब अपनी संवेदना को अभिव्यक्त करते हैं तो उन जगहों, घटनाओं का चित्रण करने में जिन बिंबों को प्रयुक्त करते हैं वह हमारे दृश्य पटल पर प्रभावी रूप से परत दर परत अंकित होते चले जाते हैं-
“वह घर बिक चुका था
जो पिताजी ने पसीने से बनवाया था
इसका मतलब था कि
मैं बिके हुए घर की छत पर पतंग उड़ा रहा था!
मां ऊपर आई और कहा,
चलो, पतंग को उड़ता छोड़ दो!
अब जिसकी छत है
पतंग भी उसी की है!”

अपनी स्मृतियों के माध्यम से विनय कविताएँ रचते हुए जिन बिंबों का सहारा लेते हैं वह सफलतापूर्वक हमारी चेतना में धंस जाते हैं। जीवन का राग विराग, सुख-दुख, कोमलता-निष्ठुरता, खुशी, बेबसी जिस तरह से वे रचते हैं उससे कविता का सुंदर वितान तैयार होता चला जाता है। “कवि की मौलिकता के दर्शन केवल शैली और शिल्प में ही नहीं होते। उसकी मौलिकता वस्तु जगत के प्रति उसकी भावात्मक प्रतिक्रिया में होती है, जिसके द्वारा वह धीरे-धीरे संपूर्ण यथार्थ के प्रति अपना एक विशेष दृष्टिकोण बनाता है”। (केदारनाथ सिंह)

जीवन की जो भावात्मक प्रतिक्रिया विनय सौरभ की कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त है; वह विनय के अंदर की जो मनुष्यता है, जीवन राग है, समय की विसंगतियों का प्रतिकार है उसे अभिव्यंजित करते हुए हमें भी आत्मावलोकन की प्रक्रिया में ले जाती है। कहीं-कहीं यह आत्मावलोकन, चिंतन की प्रक्रिया में तब्दील होकर प्रश्न करता हुआ हमारे दिमाग को झिझोंड़ता है-
“कल दफ्तर से यह सब सोचता हुआ निकला कि एक सब्जी बेचने या
पैदा करने वाले की किडनी खराब हो जाए तो
वह क्या कर सकता है इस देश में?”
× × × × ×
“नये निज़ाम में मन की बात कहने की कवायद शुरू हुई थी
इस दौर में वह दृश्य अद्भुत था जब उसने कहा -दीदी ओ दीदी!
वह एक स्त्री की मानहानि जैसा कुछ था पर किसी को यह मानहानि का मामला लग ही नहीं!”

विनय सौरभ की हर कविता अपने आप में एक कथा है- जैसे “गंगेसर राम” जब आप कविता का अंत देखते हैं-“ गंगेसर दसियों गाँवों में जाना जाने वाला
इस इलाके का एक अनुभवी और भक्त बढ़ई था
जो लंबी बीमारी और अभाव में मरा!”

ये पंक्तियाँ उन सभी कारीगरों की कथा कहती हैं जो लोक में अपनी कला के साथ बदहाल रहे। यहाँ रेणु की ‘ठेस’ कहानी का सिरचन भी याद आता है। ये कविताएँ अपने समय को पहचानने का आग्रह करती व्याकुल करती हैं। विनय सौरभ की कविताएँ ही नहीं, कविता की कुछ पंक्तियों में ही पूरी कथा सी बुनावट है ।‘पिता की शव यात्रा’ में बातचीत की पंक्तियाँ देखिए-
“इस यात्रा में पिता अतीत की चर्चाओं
और स्मृतियों से घिरे थे
इस समय ही मुझे पता चला कि
पिता का व्यक्तित्व कितना सफल था
और कितना सुखदायी!
× × × ×
लोगों ने तो यहाँ तक कहा
यह सिर्फ मृत्यु से हारा”।

इन पंक्तियों में पिता का पूरा जीवन उनका आदर्श और व्यक्तित्व गहनता से अभिव्यंजित है।

विनय सौरभ की कविताओं में जो छवियाँ आई हैं वे संवादात्मक है करुणा का जो सोता हमारे हृदय में दबा है उसे बाहर आने के लिए प्रेरित करती हैं ये छवियाँ। छोटकी दिदिया की यह प्रतिबिंब देखिए –
“अब तुम्हारा फोन नहीं आएगा
अब तुम्हें छुप-छुप कर बात करने की जरूरत नहीं
अब तुम्हें डरने की जरूरत नहीं
अब किसी बात का कोई मतलब नहीं रह गया है”।

बख्तियारपुर की कविताओं में एक खास बात यह है कि कवि जिन स्थितियों, परीस्थितियों से होकर गुजरा है, वहाँ से जिन अनुभूतियों को बारीकी से पकड़ कर उसने चलना सीखा, उन अनुभूतियों ने उसे थोड़ा और मनुष्य बनाया। अपनी जीवन स्थितियों को स्वीकारते हुए बड़ी ही सहजता के साथ उनका चित्रण है। साथ ही साथ जहाँ विसंगतियाँ आईं, उनका बड़े ही धैर्य के साथ प्रतिकार भी है। ‘यह वही दुनिया थी’ कविता की पंक्तियाँ देखिए-
“पिता के कुछ सरकारी पैसे थे,
उनकी निकासी के वास्ते
उनके दफ्तर में जाना पड़ा हमें
और बार-बार जाना पड़ा!
आखिरकार रो दिए हम!
वहाँ हवा भी रुपए माँगती थी
काम के एवज़ में!
यह असली दुनिया थी-
भयावह विवरणों से भरी!”

मार्मिक अनुभवों का जो बिंब यहाँ खड़ा किया गया है वह पूरी व्यवस्था को चित्रित करता है ; जिसमें दृश्य -श्रव्य जो भी बिंब हैं वह हमारी करुणा को कंठ तक ले आती है। यही कविता की ताकत है, हम मनुष्यता की ओर एक कदम आगे बढ़ते हैं। आज के समय में जब भूमंडलीकरण, बाजारवाद, नस्लवाद, बेतरतीब सूचना क्रांति, नव-फासीवाद हमारी संवेदना और संस्कृति पर एक साथ हमला कर रहे हैं; मनुष्य के साथ-साथ हमारा पर्यावरण, वनस्पतियाँ सब कुछ खतरे में है; हमारी स्मृति और हमारी भाषा खतरे की ज़द में है ऐसे में विनय सौरभ अपनी भावात्मक प्रतिक्रिया से आगे भी कविता को ले जाते हैं
“कुछ वजह तो है
कि बचा हुआ हूँ इस पृथ्वी पर!”

उन्हें अपनी जिम्मेवारियों का अहसास है। कवि की कविताओं में दुनिया को बचा ले जाने की आकांक्षा है। स्मृतियों की जो संपत्ति विनय सौरभ के पास है वह मनुष्यता की अवधारणा से परिपूर्ण है।

विनय स्थानिकता के कवि हैं। स्थानीयता उनकी कविताओं में बड़े ही गर्व के साथ चित्रित है। एक ऐसे समय में जब विभिन्न जगहों के नाम पर प्रायोजित विवाद खड़े हो रहें है। विनय सौरभ बख्तियारपुर नाम से कविता संग्रह लेकर पूरे आत्मविश्वास एवं संबंधों की प्रगाढ़ता के साथ हमारे समक्ष खड़े हैं। इस बात का आग्रह करते हुए कि हमें अपनी मनुष्यता बचाये रखनी है खुद को अमानुष बनने से रोकते हुए। विनय सौरभ की कविताओं से गुजरना मनुष्य बनने की प्रक्रिया से गुजरना है।


समीक्षक:

प्रज्ञा गुप्ता मूलतः कवयित्री हैं। जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984. प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।

संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।

विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com

 


प्रकाशक: राजकमल पेपरबैक्स

मूल्य: 250 रुपये

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