समकालीन जनमत
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राही डूमरचीर के कविता संग्रह ‘ गाडाटोला ‘ की समीक्षा

प्रज्ञा गुप्ता


प्रेम और प्रकृति को भाषा में बचाने की कोशिश करता एक कवि

“जिंदगी में कुछ ‘बनने’ की चाहत में
पहाड़ पीछे छूटते गए
नदियों को गाड़ी की खिड़की से
जी भर के देख पाता
उससे पहले ही खत्म होते रहीं”

राही की कविताएँ हमें आम जनजीवन, ग्रामीण अस्मिता से जिस तरह से परीचित कराती हैं वह हमें एक बार आत्मावलोकन के लिए उकसाती हैं और आज के समय में यह बेहद जरूरी है ।आगे बढ़ने की बात करते हुए, रोजगार की तलाश में, विकास की प्रक्रिया में हमारे कदम किस ओर हैं? हमसे क्या छूट रहा है? हम कैसी दुनिया का निर्माण कर रहे हैं? क्या प्रकृति की अनदेखी करके हम अजर- अमर हो जाएंगे या कोई बड़ा खजाना हमारे हाथ लगेगा ? हमारी आने वाली पीढियों को हम क्या दे जाएंगे? बहुत सारे प्रश्नों से राही का कवि मन जूझ रहा है।

विस्थापन का आंतरिक रूप-
राही की कविताओं की एक बड़ी खूबी मुझे नजर आती है;वह यह कि वे विस्थापन, विलोप और निर्वासन की जिस पीड़ा को लेकर अपनी कविताओं में संजीदा हैं वह मात्र भौगोलिक नहीं है; अपनी सूक्ष्मता में ये कविताएँ आंतरिक विस्थापन की कविताएँ हैं। उनकी कविताएँ उस अदृश्य हिंसा की ओर भी इंगित करती हैं जिसे ग्रामीण और आदिवासी समाज लगातार झेल रहे हैं ।और यह अदृश्य हिंसा उस औद्योगिक विकास की देन है जो आदिवासी और ग्रामीण समाज के जीवन को समझे बिना अनायास उनपर लाद दिया गया है।
राही की कविताएँ अपने दर्द को जिस खूबसूरत सहजता से अभिव्यक्त करती हैं वह हमारे हृदय में एक नदी की तरह उतरकर बढ़ने लगती हैं और कवि की तरह हम भी स्वयं को प्यारी सी बाँसलोई के किनारे बैठकर नदी का मुड़ना देखते रह जाते हैं।

“नदी थी तुम
पहाड़ के साथ मुड़ गईं
मैं तुम्हारे मुड़ने के सौंदर्य में खोया
सखुआ का जंगल हो गया
अब तुम नहीं हो
सिर्फ तुम्हारा मुड़ना बचा है यहाँ
मुझे भी
कोयले की खानें
पत्थर की खदानें
कब की लील चुकी हैं ”।

यह प्रेम की कविता लगती है लेकिन सिर्फ प्रेम की कविता नहीं है यह। प्रकृति- चित्रण की कविता लगती है लेकिन मात्र प्रकृति- चित्रण नहीं; प्रकृति के बीच रहने वाले बाशिन्दों के विस्थापन का दर्द, प्रकृति के विनष्ट होते जाने की टीस और औद्योगीकरण की भयावहता एक साथ इन पंक्तियों में यहाँ दर्ज है। राही की कविताएँ प्रेम की बात करते हुए, प्रतिरोध की कविताएँ बन जाती हैं और प्रतिरोध करते हुए कविताएँ हमसे संवाद करने लगती हैं और यह संवाद हमारे हृदय में देर तक चलता है; जहाँ बांसलोई नदी हमसे अपना दुख बतियाती, “गाडाटोला” हमसे अपनी पीड़ा साझा करता, शालघाटी अपनी वीराने से अवगत कराता है।

‘शालघाटी ’कविता में कवि जिस नदी को मुड़ते हुए सौंदर्य रूप में देखता है, वह नदी अब नहीं है; बस उसकी एक स्मृति है। इसके विपरीत कवि स्वयं को उन चीजों से घिरा हुआ महसूस करता है जो जीवन को नष्ट करती हैं;कोयले की खान यानी औद्योगिकरण और खत्म होती प्राकृतिक सुंदरता। फिर भी कवि स्वयं को जंगल में बचे ‘आखिरी पेड़’ की तरह देखता है ,वह अकेला है पर बचा हुआ है। यह अकेले बचना ही अपने अस्तित्व की बात करना है। नदी स्मृति में है और स्मृति का बचा होना बहुत कुछ बचा ले जाता है। राही की कविताएँ हमें इस बात का एहसास कराती हैं कि विकास की इतनी योजनाओं के बाद भी ‘बांधकोय’ का दुख वही है जो आज के 50 वर्ष पहले रहा होगा।

हमसे जो छूटता है,जितनी तेजी से; उतनी ही रफ्तार से वह हमारे पीछे हमारे संग आता है।गाँव-घर, नदियाँ, पेड़-पौधे,वनस्पतियाँ हमारी रगों में इस तरह समाहित होते हैं कि हमें तब पता चलता है जब हम उनसे छूट जाते हैं। पर यह छूटना भला कहाँ छूटना होता है! हम जितना छूटते हैं उतना ही जुड़ते जाते हैं ।यह एक स्वाभाविक क्रिया है। लेकिन इन सब के बीच कुछ ऐसा भी घटित हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। हमारे गाँव-घर, प्रकृति से जीवन के अति आवश्यक स्तंभ नष्ट हो रहे हैं। यह सब कुछ इस तरह फटाफट झटपट घटित होता जा रहा है कि हम अवाक् हैं। लेकिन एक कवि नदी के किनारे बैठकर नदी का सूखना देख रहा है; अपनी जिह्वा पर अमरूद की मिठास याद रखना चाहता है ।कवि यह भी चाहता है कि अगली पीढ़ी के बच्चे इमारत की छाँव और पेड़ की छाँव में फर्क करना सीखें। वह पेड़ों की ताकत और जिजीविषा को बयां करता कवि है –

“ पेड़ और पत्तों की रजामंदी से आता है पतझड़
वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ झुलसा पाती है
बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं पत्ते ”

अँचल की गंध अपने में समेटे नदी ,पहाड़ ,वृक्ष ,पशु -पक्षी की सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं का चित्रण करती हुई ये कविताएँ सह्रदय पाठकों को अपने साथ लेकर आगे बढ़ती हैं।

प्रेम और प्रकृति की भाषा-

इस संग्रह की एक कविता है “ अभी नहीं कहना है तुमसे ” प्रेम, भाषा और प्रकृति की बात करती अद्भुत कविता है। कवि को इस बात से एतराज है कि सुंदर प्रकृति को हमने भाषा में सही स्थान नहीं दिया । “ पहाड़ को हिंदी के मुहावरों से छुड़ाए बिना/ भाषा में कैसे बरत पाऊंगा अपने प्यार को ” इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने स्पष्ट किया है कि हिंदी भाषा के मुहावरेदार संसार में पहाड़ और जंगल को अक्सर नकारात्मक प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया गया है। जब तक प्रकृति को उसके सही रूप में अभिव्यक्ति नहीं मिलेगी हम अपनी भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं कर पायेंगे। जब कवि कहता है-

“ जंगल की खुशबू से भरी
तुम्हारी आंखों को
झरने की तरह बातें करता देखता
बैठा रहा हूँ सदियों बाँसलोई किनारे
पर!अभी नहीं कहना है तुमसे
अभी तो वह भाषा सीखनी है
जिसमें बांसलोई से बतियाता है जंगल
अभी तो बांसलोई की बालू का
हर एक कण भारी है मुझ पर ”

अपने प्रेम को अभिव्यक्त करने से पहले, कवि अपनी भाषा की उस मूल जगह पर लौटना चाहता है जहाँ प्रेम ,प्रकृति और शब्द एक हो जाते हैं । कवि को वह भाषा सीखनी है जो बांसलोई नदी और जंगल के बीच होती है। कवि की चाहना है कि वह उस मूल जैविक आत्मीय भाषा को फिर से वापस सीखें,जिसे शहरीकरण ने लील लिया है । ‘अभी नहीं कहना है तुमसे’ कविता भाषा; प्रेम और प्रकृति की बात करते हुए परंपरागत सौंदर्य बोध की आलोचना करती है और प्रकृति के प्रति एक नई संवेदना को स्थान देती है।
‘गाडाटोला’ की शुरुआत एक छोटी सी कविता से है-

‘ रास्ते हों
तो दरख़्त भी हों
कविता में इतनी छाँव
जरूरी है ”

यहाँ जीवन के रास्तों में दरख्त प्रतीक हैं जीवनदायिनी प्रकृति का। बिना दरख्तों के रास्ते शुष्क, कठोर और थकाने वाले होंगे। प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना मुश्किल है। जैसे रास्ते में दरख्त होने चाहिए वैसे ही कविता में छाँव जरूरी है; यह छाँव सिर्फ पेड़ की नहीं करुणा, सहानुभूति और संवेदना की छाँव है। यह कविता छोटी सी है लेकिन इसमें विचार, भाव एवं सौंदर्य की घनी छाँव है।

स्मृति, संस्कृति, प्रतिरोध-

‘गाडाटोला’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह संग्रह उस टोले की कहानी कहने की कोशिश कर रहा है जो नदी के किनारे बसा है। नदी के किनारे बसने वाले के लिए नदी कितनी महत्वपूर्ण है, यह वहां के रहने वाले ही जानते हैं। राही की कविताएँ मात्र प्रतिरोध की कविता नहीं, उनमें स्मृति, चेतना और संस्कृति की रक्षा की करुण पुकार है। राही की कविताएँ प्रकृति और प्रेम की बात करते हुए, विस्थापन, पर्यावरण, अन्याय ,आम जीवन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती हैं ‘गाडाटोला’ कविता के माध्यम से इसे समझा जा सकता है-

“ हुलास मारती है नदी
सबसे पहले दिल के भीतर
नक्शे पर
तभी जनमता है गाडा टोला
पहले अंदर मारी जाती है नदी
तब मिटता है नक्शे से गाडा टोला ”

यहाँ नदी का ‘ हुलास मारना’ जीवन के उल्लास का प्रतीक है। नदी सबसे पहले मनुष्य के भीतर एक संवेदना के रूप में जन्म लेती है और उसके बाद धरती पर कोई ‘ गाडा टोला ’ बसता है भौगोलिक सामाजिक रूप में। लेकिन विकास के नाम पर जब कोई नदी मार दी जाती है, कोई गाँव जब उजड़ता है तो सबसे पहले लोगों को भावनात्मक चोट लगती है। नदी के खत्म होने से गाँव भी उजड़ते ही है,यह सत्य है। राही कि यह कविता पढ़ते हुए यह अहसास और गहरा होता है कि कोई जगह केवल भौगोलिक नहीं होती, वह सांस्कृतिक, भावनात्मक और ऐतिहासिक भी होती है। लेकिन जब विकास के नाम पर, उद्योगों के नाम पर विस्थापन होता है तो सबसे पहले हमारी भावनाएँ आहत होती हैं। विकास के नाम पर होने वाली है ये घटनाएँ हमारे भीतर के इंसान को तोड़ देती हैं। राही अपनी कविताओं में स्मृतियों के माध्यम से, अपनी संवेदना के माध्यम से बार-बार यह जताते हैं कि कोई जगह नक्शे से भले मिट जाय लेकिन हमारी स्मृति और संवेदना जब तक जीवित है तब तक नक्शे से उसे कोई भले मिटा दे, आत्मा से वह नहीं मिटता। और यह स्मृति हमें वापस अपनी जड़ों की ओर ले जाएगी।

यह कविताएँ लिखी तो गई है संताल परगना की पृष्ठभूमि में ,पर दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हैं। संताली में गाड़ा का अर्थ है ‘नदी’। इस संग्रह की कविताओं में बाँसलोई नदी केंद्र में है हर वह पाठक जिसके जीवन में कोई न कोई नदी रही है उसे यह कविताएँ अपनी सी लगेगी कवि का यह कहना कि

“अच्छा आप उसी गाँव के हैं ना
जहाँ मंदिर के किनारे नदी है
देवघर के उसे भले मानुष से कहा मैंने
जी नहीं, उस गाँव का हूँ
जहाँ नदी के किनारे मंदिर है ”

संग्रह की एक कविता है “ हेन्दा मय ” यानि ‘सुनो लड़की ’। कविता की बुनावट जब आप समझेंगे तब यह बात सामने आती है कि आदिवासी समाज की बसावट में जब से सभ्य कहीं जाने वाली दुनिया ने घुसपैठ किया तब से वहाँ ‘डर’ का आगमन हुआ। कविता की आखिरी कड़ी देखिए –

“ आधी रात को
सबके साथ नाच कर
खिलखिलाकर बतियाती
बसंत की अगवानी करती
कुल्ही के सबसे आखिरी घर में
बेपरवाह लौटती थी लड़की

कुछ मौसमों से
नई बसावटों से घिरते जा रहे
अपने उसी गांव में
थोड़ी सजग निगाहों से
चुपचाप अपने घर लौटती है लड़की ”।

“ नई बसावटें ” केवल भौगोलिक नहीं ,बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक बदलाव का प्रतीक है ।अब लड़की उतनी बेपरवाह नहीं रही, उसकी सजग निगाहें कड़वे अनुभव और असुरक्षा की भावना से भरी हैं।यह कविता हमारे समाज के बदलते चेहरे की नई कहानी है।

इस संग्रह की कई कविताएँ अपने आप में एक कहानी है। ‘ एदल किस्कू ’, ‘ हिंम्बो कुजूर ’, ‘ अमित मरांडी ’, ‘ बांसलोई ’, ‘ दारे-उमुल ’, ये कविताएँ हमारे समाज की बिडंबनाओं एवं बदलते स्वरूप की कथा कहती हैं और हमसे संवेदनात्मक न्याय की मांग करती हैं। ‘लाक्षागृह में आदिवासी’ और ‘अर्जुन की मुस्कान’ नए इतिहास बोध को सामने लाती हैं।

राही की कविताएँ बृहत संवेदना लोक का पता ही नहीं देतीं बल्कि हमारी संवेदना का विस्तार करती हैं। ये कविताएँ सांस्कृतिक दस्तावेज हैं। डूमरचीर ने आंचलिक शब्दों का सफल एवं सहज प्रयोग किया है। यह प्रयोगात्मक दृष्टि से बिल्कुल नये हैं एवं भाव के स्तर पर संपूर्ण दिखाई देते हैं; परंतु सवाल यह उठता है कि उन शब्दों का सामान्य जीवन में बर्ताव कैसा रहेगा ? मेरा यह विश्वास है कि हिंदी की ‘शब्द -संपदा’ इस संग्रह के माध्यम से बढ़ी है और हमारा हिन्दी -लोक कुछ और सहज एवं विस्तृत हुआ है।

पुस्तक : गाडाटोला (काव्यसंग्रह)

कवि : राही डूमरचीर

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

मूल्य : 199 रुपये (पेपरबैक)

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