डॉ.दीना नाथ मौर्य
बचपन में सीखने-पढ़ने की औपचारिक शुरुआत तो बाद में होती है पर किस्से कहानियों के जरिये बच्चों में दुनियावी चीजों की अवधारणाओं के निर्माण की प्रक्रिया स्कूल से काफी पहले ही शुरू हो जाती है. स्कूल से पहले के इन दिनों में बच्चे एक अच्छे श्रोता होते हैं और अच्छे वक्ता भी. इस समय जहाँ उनके भीतर हर एक चीज को बारीकी के साथ जान लेने की तलब होती है वहीं अपने को व्यक्त करने की बलवती इच्छा भी. बड़े जब उन्हें नहीं सुनते तो अपने दोस्तों के बीच में वे अपनी तार्किकता की खूब आजमाइश करते हैं. समूह में खेलते हुए बच्चों को कभी गौर से देखिए और इसे महसूस करिए. जीवन के इस महत्त्वपूर्ण काल में उन्हें कुछ भी सुनाया और बताया नहीं जाना चाहिए बल्कि इसमें एक चयन का भाव होना चाहिए. संवेदनशीलता,सहयोग और मित्रता जैसे सामाजिक नागरिक होने के गुणों के बीजारोपण का यह काल होता है अतः समाज के लिए यह जिम्मेदारी पूर्ण समय होता है कि वह इस समय अपने आने वाली पीढ़ी को क्या देता है. सभ्यता के विकास में यह कोई नई बात नहीं है. हर समय और समाज इसके लिए अपने को तैयार रखता है. बालमनोविज्ञान के अनुसन्धान इस बात के साक्षी हैं कि जिस समाज और परिवेश में किस्सागोई की लोकप्रियता ज्यादा होती है वहां के बच्चे अपेक्षाकृत ज्यादा कल्पनाशील और भाषाई रूप से ज्यादा रचनात्मक और समृद्ध हुआ करते हैं. किस्सागोई की कसौटी पर कार्टून और कामिक्स काफी पीछे है. बल्कि कभी-कभी तो लगता है कि कामिक्स जैसी विधा स्थितियों के बीच से भाषा को चबा जाती है और बच्चों की कल्पना को सीमित भी करती है. इसमें कहन और सुनन का न तो वह आनंद होता है और न ही सन्दर्भों के बीच से कल्पनाशीलता की जगह ही.
कविता कौमुदी के तीसरे खंड में राम नरेश त्रिपाठी ने किस्सा कहने और सुनने की परम्परा को रेखांकित करते हुए लिखा है कि गाँव की पुरानी कहानियों की प्रकृति ही दूसरी होती है. जैसे–एक राजा था;उसके सात बेटे थे. राजा ने कहा- जो बेटा फलां टापू से फलां फल ला देगा,उसे वह आधा राज-पाट दे देगा. सातों बेटे अलग-अलग राहों से जाते हैं.रास्ते के अनेक कष्ट भोगते हैं. अंत में सबसे छोटा बेटा ही सफल होकर लौटता है.राजा उसे आधा राज दे देता है.बेटा उसे बड़े भाई को सौंप देता है. वे मानते हैं कि ऐसी कहानियों से बच्चों में साहस के काम कराने का हौसला तो बढ़ता ही है;रस्ते के कष्टों का और उनसे छुटकारा पाने का ज्ञान भी उनको हो जाता है और आधा राज पाकर उसे बड़े भाई को सौंप देने का महत्त्वपूर्ण त्याग भी उनको बता दिया जाता है. सबसे बड़ी विशेषता गाँव की कहानियों में यह होती है कि उनमें प्रायः सबसे छोटे भाई को ही जिताया जाता है;क्योंकि वे छोटे बच्चों के लिए ही होती हैं,जिसे उत्साहित करना जरूरी होता है.कभी बड़ा भाई भी छोटा था तब वही कहानी उसके लिए भी थी. कुछ कहानियां गद्य में होती हैं, कुछ पद्य में; और कुछ दोनों में. गद्य और पद्य दोनों की कहानियों की भाषा बोलचाल की,सरल,सुबोध और छोटे-छोटे वाक्यों वाली होती है,जिससे बच्चे के नन्हें -नन्हें फेफड़ों पर ज्यादा बोझ नहीं पड़ता.
भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में बच्चों को कहानी सुनाने की परंपरा रही है. कहीं स्टोरी टेलिंग के रूप में कहीं किस्सा के रूप में. किस्सागोई ग्रामीण सामाजिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती है और बच्चे की दुनिया के साथ उसका संवाद ‘पार्टिसिपेटरी रोल’ के साथ होता है .बच्चे इन किस्सों में खुद को पाते हैं और खुद को जीते हैं. इनके जरिये वे जिज्ञासु होते हैं,सवाल करना सीखते हैं,चीजों को उनके सही नाम से पुकारने की ट्रेनिंग कि शुरुआत भी यहीं से होती है. किस्सों का कई-कई दिनों तक धारावाहिक के रूप में चलना और सुनते समय हुंकारी का भरना यह सब सहज सा लगता हुआ भी भाषिक मनोविज्ञान के बहुत ही महत्त्वपूर्ण फार्म को निर्मित करता है,जिसमें सुनने वाले का उतना ही महत्त्व होता है जितना कहने वाले का.किस्सों में पात्रों की कल्पना यथार्थ से अलग होती हुई भी अपने आस-पास के परिवेश को जीवंत करने वाली होती है .राजा-रानी, तोता-मैना,घास-कौड़ी,ढूध-खीर अनेकानेक संदर्भ बच्चे की मानसिक कल्पना को विस्तारित करने वाले होते हैं . यद्यपि हमेशा उनके विषय कई रूपों में अंतर्विरोधी स्थितियों का सृजन करते थे पर भाषा और संदर्भ के साथ के संवाद को नई रचनात्मक जमीन यहाँ तैयार होती है . दूसरी स्कूली शिक्षा के आरंभिक दिनों में जब दुनिया भर की अवधारणाओं को को समझने में बच्चा मशक्कत कर रहा होता है किस्सागोई की शैली में चीजों को समझने और समझाने का सार्थक प्रयोग किया जा सकता है.
यह बात बुनियादी रूप से सही है कि ज्ञान कोई तैयार माल नहीं होता जिसे दूसरे को दिया जा सके.दी और ली जाने वाली चीज इस संबंध में यदि कोई है तो वह है सूचना.शिक्षण के व्यापक आयामों में सूचना को ज्ञान मान लेने की भूल नहीं करनी चाहिए. स्कूली शिक्षा के दौरान हमारी यह भूल शिक्षणशास्त्रीय निष्कर्षों को ही नहीं पद्धतियों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है. परिणाम तो खैर प्रभावित होंगें ही.ज्ञान निर्माण में सूचना एक टूल्स हो सकती है,सहायक हो सकती है पर वह ज्ञान का विकल्प नहीं होती है. ज्ञान की निर्मिती में अनेक कारक होते हैं जिसमें से एक प्रमुख कारक होता है हमारा पूर्व अनुभव.सूचनाओं को हम अपने अनुभवों के जरिये ज्ञान में बदलते हैं. स्कूली शिक्षा के शुरूआती दिनों में जिम्मेदारी इस बात की होनी चाहिए कि हम शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों के मानस तक अनुभवों के विस्तार के लिए कितना अवसर दे पा रहे हैं? शिक्षा की दुनिया के सवाल केवल शिक्षक, विद्यार्थी और और उनकी किताबों तक ही सीमित नहीं होते हैं बल्कि उनका विस्तार उस व्यापक दुनिया तक होता है जहाँ से इन तीनों चीजों को एक निश्चित सन्दर्भ मिलता है.किस्सों और कहानियों के जरिये हम बच्चों को संदर्भगत स्थितियों से परिचित कराते चलते हैं. सीखना या सीख लेना कोई घटना नहीं होती है वह एक प्रक्रिया है जिसमें दाखिल होकर हम अपने समय और सन्दर्भ को परिभाषित करते हैं और अपनी अवधारणों को दुरुस्त करते चलते हैं.अपने शुरूआती दिनों में बच्चों का दिल दिमाग इसी खुले काल्पनिक भाषाई संसार को वहां स्कूल में भी ढूढ़ता है.क्या स्कूल में औपचारिक पढ़ाई के लिए तयशुदा विषयों के ज्ञान के साथ इस किस्सागोई स्वाद भी उन्हें वहां मिल पाता है ? यह किस्सागोई की शैली एक तरह की शिक्षण प्रविधि है जिसके सूत्र हमें लोक मानस की मौखिक परंपरा में सहजता से मिल जाते हैं. पंचतंत्र की कथाओं से कहन की इस शैली की प्रभावशीलता को समझा जा सकता है.जिसके जरिये जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने की दिशा खुलती है. आज जब हम स्कूली शिक्षा में बस्ते के बोझ कम करने की बात कर रहे हैं तो स्कूली दिनों में सामान्य तौर पर सभी विषयों की कक्षाएं और विशेष तौर पर भाषा की कक्षा में सन्दर्भ से जुड़े विविध पक्षों से परिचित कराने के लिए इस शैली का उपयोग हम शिक्षण प्रविधि तौर पर सकते हैं.
(लेखक एन.सी.ई.आर.टी. में प्रोजेक्ट फेलो रह चुके हैं, वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं,संपर्क – 9999108490, dnathjnu@gmail.com )