‘अस्थि फूल ’ उपन्यास पूरा पढ़ लेने के बाद, बल्कि पूरा पढ़ने के दौरान,पृष्ठ-दर-पृष्ठ एक बात का तीव्र से तीव्रतर अहसास होता रहा कि इसे पढ़ना अपने समय के सबसे भयावह, निरंकुश, क्रूर यथार्थ से रूबरू होना है. बाज दफे यह इस हद तक जा पहुँचता है कि उस क्रूरता, अमानवीयता, वीभत्सता, भयानकता को अपने भीतर पचा लेने के लिए पाठक को खुद से संघर्ष करना पड़ता है. और यह कोई गढ़ा हुआ नहीं, देश की बेहद जलती हुई सच्चाइयां हैं, जिनको पढ़कर ही रूह कांपने लग जाए.
अल्पना मिश्र ने इसे जैसा सजीव चित्रित किया है, वह उनकी कलम का लोहा तो मनवाता ही है, साथ ही इन बारहा देखकर भी नजर अंदाज कर दिए गए मसलों पर उनकी गहरी संवेदनशीलता और न्याय के लिए प्रतिबद्धता को पूरी प्रखरता से उजागर करता है.
इस उपन्यास की केन्द्रीय थीम कोई है तो वह है-न्याय. चौतरफा अन्यायों के विरूद्ध एक मुखर प्रतिरोध और सतत न्याय की मांग. फिर मामला चाहे झारखंड की नाबालिग लड़कियों को शादी के झांसे में फांसकर परिवार के सभी मर्दों द्वारा किया जाने वाला अमानवीय दैहिक शोषण हो, या काम दिलाने के नाम पर थोक में लायी गयी लड़कियों को देह व्यापार में धकेल देने का मुद्दा हो, या दूरस्थ गांवों में जल-जंगल जमीन पर कब्जे की रणनीति में लगे राजनैतिक दल हों, कॉरपोरेट कम्पनियां हों, और उसके वाहक और मोहरे बने पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था हो. यह अन्याय इतना ज्यादा उद्वेलित करने लगता है कि दम फूलने लग जाए, लेकिन इस क्रूर समाज व्यवस्था में महिलाओं के प्रति पुरुषों का मर्दवादी, सामंती, उपभोगवादी नजरिया नहीं बदलता.
उपन्यास ने यों तो केंद्र में झारखंडी आदिवासी गाँव और जीवन को रखा है, लेकिन वस्तुतः इसका कैनवास बहुत बड़ा है. जो सुदूर आदिवासी गांवों के जनजीवन से लेकर हरियाणा के सामंती लोगों, या नक्सली मुठभेड़ों के नाम पर गांव की जमीन को कॉरपोरेट के वास्ते कब्जाने के नाम पर सामूहिक नरसंहार किया जाना हो. दरअसल यह सब एक-दूसरे से जुड़ी अमानवीय श्रृंखलाएं हैं.
यह उपन्यास स्त्री जीवन की त्रासदियों की असंख्य कहानियों को अपनी पीड़ा और यातना में इसके पात्र इनारा, पलाश, चंदा, पिंकी, मणिमाला बहन जी के बहाने समेटे हुए है. और गाँव के जल जंगल जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ने की कहानी बीजू जैसे आदिवासी नवयुवक के मार्फ़त कही गई है.
अनुमान लगाया जा सकता है कि जब पाठक को इस भीषण क्रूर यथार्थ का सामना करने में ही साँस फूलने लगती है, या साँस रुकने लगती है, तब लेखक ने इन्हें लिखते हुए कैसा विकल उद्वेलन महसूस किया होगा. स्त्री जीवन की इन त्रासदियों को महज स्त्री विमर्श में सीमित करके कतई नहीं देखा जा सकता. उपन्यास जहां वैसी हृदय विदारक यातनाओं का जीवंत आख्यान है, वहीं इसके ख़िलाफ़ सुलगते प्रतिरोध के ज्वालामुखी के मुहाने तक खींच ले जाता है.
इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह भी लगता रहा, लेखक ने इसे देश की इन भीषण यातनाओं, त्रासदियों, विडम्बनाओं को औपान्यासिक कलेवर में ‘कुशलतापूर्वक’ समेट लेने के कौशल से बिलकुल नहीं लिखा है. इसे पढ़ते हुए उन रूह कंपा देनेवाली यातनाओं के संग पाठक गुजरने लगता है. खासकर इनारा और पलाश के जीवन का जो पूर्वार्ध है, उसमें लेखक ने ऐसी अद्भुत जीवंतता और संवेदनशीलता से लिखा है जो टी.वी.या समाचार पत्रों के माध्यम से इन बार-बार, रोज-ब रोज जाने-सुने यथार्थ को पहली बार देखने-सुनने जैसा सिहरन महसूस करने लगता है.
इसी के साथ, इस उपन्यास को आदिवासी जीवन सौन्दर्य की गहरी पहचान कराने वाले उपन्यास के तौर पर भी देखा जा सकता है. सुदूर आदिवासी गाँवों के जन-जीवन की झाँकी के साथ उस जीवन में समाया प्राकृतिक सौन्दर्य जिस गहराई और आत्मीयता से चित्रित हुआ है वह सुखद रूप से विस्मित करता है. यहाँ इनके इतिहास हैं, गीत हैं, लोक कथाएँ हैं, उल्लास हैं, खेल हैं, शरारतें हैं, प्रेम है, और दो जून का भात पा लेने भर की -इतनी छोटी- आकांक्षा हैं. और इसी भूख और गरीबी के चलते बेटियाँ बिकने/ बेचने की अथाह मजबूरी है. आदिवासी जन-जीवन को केंद्र में रखकर उपन्यास जैसी विधा को साध पाना लेखक के लिए जैसी शिखर चुनौती रही होगी,एक पाठक के तौर पर ही इसका अनुमान कर पाते हैं.इसे किसी आदिवासी विमर्श के अंतर्गत देखना भी इसके महत्व को कुछ कम करने जैसा होगा.
इसमें झारखंड राज्य के राजनीति को भी निकट से समझने/दिखाने की कोशिश की गई है, जिससे राज्य को उनके निहित स्वार्थों, भ्रष्टाचार के कारण उनका ‘अपना’ राज्य मिल पाने का सपना आधा-अधूरा ही रहा आया है. बल्कि साधारण आदिवासी के सपने ‘ग्रीन हंट’ जैसे अभियानों से डरावने हो गए, जिसके द्वारा राज्य एक आतंककारी रूप पा जाते हैं. 287 पृष्ठों में फैले इस उपन्यास में इतने बड़े कैनवास को समेट पाना जहां बहुत जगहों में प्रभावी हुआ है, वहीं कुछ जगहों में यह स्वप्न या आख्यान बन कर रह गया है.
अल्पना मिश्र की लेखनी उन जगहों में बहुत प्रभावशाली है जहां वह स्त्री जीवन को दर्शाती हैं. पूरा उपन्यास मूल रूप से उन्हीं की पीड़ाओं की कथा है. और उन ज्वलंत प्रश्नों से सीधे और बहुत संवेनशीलता से मुठभेड़ किया गया है. लेखिका ने उपन्यास में स्वप्न, फैंटेसी, लोक कथा जैसे कई कथा युक्तियों का प्रयोग कर वर्तमान जीवन और संघर्ष का चित्रण और विश्लेषण किया है. उपन्यास में जगह-जगह स्त्री जीवन की इस दशा को लेकर गहरा क्षोभ व्यक्त किया है,जो बहुत बार उनके जीवन के सूत्रवाक्य से बन पड़े हैं. जैसे –
“जब तक औरत अपनी जमीन पर है, अपने जंगल के साथ है, तब तक मानुष है, तब तक लड़ने की ताकत है उसमें, लेकिन वही औरत शहर में आकर सिर्फ जिस्म बनकर रह जाती है. शहर हमारी कब्रगाह है…इतनी मजबूत है यहाँ की कैद कि इसमें से निकलना मुश्किल. कैसे निकलें ? जूझते-जूझते ही ख़त्म हो जाते हैं.” (पृष्ठ 175 )
“ अब जीने को कुछ नहीं बचा इनारा.जीने की सब जगहें हमसे छीन ली गई हैं. गाँव, घर, परिवार…पूरी दुनिया…हमारा देस नहीं रह रह गया…छीन लिया गया हमसे…हमारी देह तक हमारी नहीं रही…” (पृष्ठ 231 )
“इनारा, हमारा हाल जिबह किए जा रहे बकरे जैसा है जिसकी गर्दन धीरे-धीरे रेती जाती है, जो अपने ही खून में नहाया पड़ा होता है और मौत के बाद भी जिसकी धड़कन चल रही होती है.” (पृष्ठ 231 )
“हमें बचपन में स्कूल में बहिन जी ने बताया था कि बच्चे देश का भविष्य हैं. कौन से बच्चे? यह नहीं बताया? बच्चे अगर मंडी में पहुंचाए जा रहे हैं तो कौन सा भविष्य हैं ये?” (पृष्ठ 235)
यहाँ झारखंड के हजारीबाग से नई दिल्ली तक, और एक फंतासी के माध्यम से देश के वर्तमान नव-औपनिवेशिक, कॉरपोरेट्स गुलामी को सामने लाया गया है, जहां देश बिक रहा है. उपन्यास अपने कुछ अंतिम अनुच्छेदों में वैसा प्रभावी नहीं रह गया है, जैसा कि अपने पूर्वार्द्ध में. पात्रों की पकड़ पाठक से छूटने लगती है, और लगने लगता है कि वे लेखक के प्रतिनिधि होकर उसी की भाषा में विचार रख रहे हैं. इन आरोपित स्थितियों,घटनाओं या वैचारिकी से बचा जा सकता तो यह उपन्यास और अधिक प्रभावी और विश्वसनीय बन पाता.
कुल मिलाकर हिंदी में ह्युमन ट्रेफिकिंग पर केन्द्रित यह उपन्यास उसके तमाम स्रोतों, कारणों को बहुत शिद्दत से, संवेदनशीलता और गहराई से प्रस्तुत करने का बहुत साहसिक और प्रतिबद्ध प्रयास है जो समकालीन हिंदी लेखन में अत्यधिक विशिष्ट और विरल काम है, जिसकी भरपूर प्रसंशा होनी चाहिए. इसके अतिरिक्त, अल्पना मिश्र की भाषा की बहुस्तरीयता इसे और महत्वपूर्ण बना देती है. यहाँ उनकी हमारे समय और यथार्थ को बहुत काव्यात्मक भाषा में दर्ज करने के अतिरिक्त, दूरस्थ संथाली, झारखंडी, हरियाणवी जैसी बोलियों में उनकी जमीनी पकड़ जहां एक ओर चकित करती है, और इसकी विश्वसनीयता को बढ़ाती है, वहीं पठनीयता के लिहाज से इसे बहुत सहज और रोचक भी बनाती है.
‘अस्थि फूल’ (उपन्यास) – अल्पना मिश्र
पेपरबैक 2019
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य: रु. 250
( लेखक कैलाश बनवासी कथाकार हैं. संपर्क -41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा, दुर्ग, (छ.ग.) मो. 9827993920