(मशहूर कवि आलोकधन्वा का आज जन्मदिन है. समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है युवा आलोचक अवधेश त्रिपाठी का उनकी कविताओं पर लिखा लेख. सं )
कुछ साल पहले पटना के जन संस्कृति मंच के नाट्य दल ‘हिरावल’ ने एक नुक्कड़ नाटक किया था, जिसका नाम था ‘दुनिया रोज बदलती है’. नाटक का नाम आलोकधन्वा के कविता संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ के शीर्षक से प्रेरित लगा था. यद्यपि नाटक में आलोक धन्वा की कविताओं का न तो प्रयोग किया गया था और न ही पूरे नाटक के दौरान एक बार भी इन कविताओं की याद आयी थी.
नाटक जबर्दस्त राजनीतिक व्यंग्य था जिसमें अमेरिका की छत्रछाया में भारत में फलते-फूलते (अपने शब्दिक अर्थों में) लोकतंत्र को निशाना बनाया गया था. नाटक और कविता के बीच के संबंध के सूत्र इतने अदृश्य भी नहीं कि उसे समझा न जा सके. दोनों रचनाओं में विधागत अंतर के बावजूद दुनिया को बनाने और बदलने वाली शक्तियों के आकार ग्रहण करने की प्रक्रियाओं को पहचानने की कोशिश साफ है. यदि कवि ‘विद्रोही’ के मुहावरे में कहें तो दुनिया रोज बनती नहीं बनायी जाती है, बदलती नहीं बदली जाती है और इनके पीछे के कर्ता के द्वंद्वों और संघर्षों, प्रेम और घृणा, जय और पराजय के तमाम भौतिक व दार्शनिक आयामों को समेट लेने की कोशिश सार्थक रचना की सृष्टि करती है.
इन अर्थों में हिरावल का नाटक ‘दुनिया रोज बदलती है’ और आलोकधन्वा का कविता संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ दोनों अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं. यह बात उन तमाम लोगों को नागवार लग सकती है जो ‘अफीम के पानी में अगला रविवार चुरा लेना चाहते हैं’.
‘दुनिया रोज बनती है’ में 70 के दशक की शुरुआत से लेकर 90 के दशक तब की कवितायें मौजूद हैं. आलोकधन्वा के बारे में सब जानते हैं कि वे नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित कवियों की परंपरा में आते हैं. यही उनकी सबसे बड़ी सामर्थ्य है.
नक्सलबाड़ी के आंदोलन ने जितने व्यापक दायरे को भौगोलिक रूप से अपनी जद में लिया था, उससे कहीं अधिक था संस्कृति और कल्पना के आकाश पर उसका प्रभाव. फिर आलोकधन्वा तो आंदोलन के केन्द्र के बहुत निकट के हैं. जब मैं नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित कविता की बात करता हूं तो मेरा आशय सिर्फ बंदूक और वर्ग संघर्ष की कविताओं से ही नहीं है; ऐसी कवितायें तो महत्वपूर्ण हैं ही. लेकिन मैं नक्सलबाड़ी से प्रभावित कविताओं में अपार मानवीय करुणा, उद्दाम प्रेम, स्त्री-पुरुष संबंधों के सामंती ढांचे पर प्रहार को उनकी सबसे बड़ी ताकत समझता हूं.
ये कवितायें हिंसा की कवितायें नहीं हैं, हिंसा को अप्रासंगिक बना देने की कवितायें हैं, जो पूर्ण मानवीय संभावनाओं की खोज करती हैं. यहां हिंसा का गुणगान नहीं दमन की दास्तान और उसका प्रतिरोध दर्ज है. ‘जनता का आदमी’ शायद उनकी सबसे ज्यादा प्रशंसित और पढ़ी जाने वाली कविताओं में है. यह कविता किसिम-किसिम की कविताओं के बीच एक नयी तरह की कविता की जमीन तैयार करती है. यह ‘कविता के वर्जित क्षेत्र में करोड़ों आदमियों के साथ घुस’ जाने की कोशिश है.
मेहनतकश जनता से अलग काट कर रचे गये कविता के स्वराज में पलीता लगाते हुए धन्वा चाहते हैं कि उनकी कविता जलायी गई स्त्री के पास सबसे पहले पहुंचे. नौजवान खान मज़दूर के मन में नयी बंदूक की तरह कविता का याद आना कविता को बौद्धिक ऐशगाह से निकालकर जन संघर्षों के बीच खड़ा कर देना है- लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ, / जिसकी साँस लू की तरह गर्म है / उस नौजवान खान मज़दूर के मन में / एक बिल्कुल नयी बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता.
कविता के बारे में ऐसी ढेरों टिप्पणियां उस दौर की कविताओं में देखने को मिलती है. गोरख पाण्डेय ‘कविता’ का कार्यभार रेखांकित करते हुए लिखते हैं – ‘उल्टे अर्थ विधान तोड़ दो / शब्दों से बारूद जोड़ दो/ अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को / छापामार करो’.
यदि हम इन कविताओं के सहारे कविता के बारे में तत्कालीन बहसों के पूरे दायरे में उतरें तो पायेंगे कि अकविता के आंदोलन ने अराजकता, व्यक्तिगतपीड़ा के लिए समाज को जिम्मेदार ठहराने, कुंठा आदि को मूल्य के रूप में स्थापित करने की कोशिश की थी. यद्यपि इन कवियों में आक्रोश है, व्यवस्था से विरोध भी है, लेकिन किसी वैकल्पिक विश्व-दृष्टि का अभाव है. वे अपने ही त्रास और घुटन के बंदी हो जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ कविता में ‘राग भोपाली’ को साधने और उसे किसी भी प्रकार के सामाजिक सरोकारों से मुक्त करने की मुहिम भी चल रही थी. ऐसे में उस दौर के बहुत से जन पक्षधर कवियों के लिए मुक्तिबोध बड़े काम आये होंगे. क्योंकि अलग-अलग समयों में कुछ एक जैसी बहसें चलती रही हैं और कवि उनसे दो चार होते रहे हैं.
1946-47 के आस-पास की मुक्तिबोध की एक कविता का शीर्षक है ‘यदि नहीं लिख पा रहा’ – ‘यदि नहीं लिख पा रहा हूं गीत आशा के अभी / शीत रोमांचों भरे यदि गीत भाषा के अभी … . कौन कहता है कि मेरे शब्द में है कालिमा / जब तारकोली स्याह खूनी खून की बहती हुई / चट्टान से दिल से नसों की नालियों गाती हुई / शैतान के मुंह पर कि थूहर फूल की-सी लालिमा / जो सदा फैलाती गई: उससे उदासी बढ़ गई / तो तुम्हारा दोष है?’ (मुक्तिबोध रचनावली – 1, पृ. 201)
ऐसा नहीं कि सौन्दर्य और कोमलता, आशा और उल्लास के गीतों की जरूरत कवि को महसूस नहीं होती, लेकिन यथार्थ के स्याह अंधेरे से मुंह चुराना संभव नहीं. इस यथार्थ के अंधकार को भेदकर ही प्रेम और सौन्दर्य की कविताओं का सृजन होना है, इन्हें पीठ देने से नहीं. आलोकधन्वा इसी सवाल से दरपेश होते हैं तो उसे कुछ यो व्यक्त करते हैं – ”बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है? / मैं क्यों नहीं लिख पाता हूँ वैसी कविता / जैसी बच्चों की नींद होती है / खान होती है / पके हुए जामुन का रंग होता है / मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता / जैसी माँ के शरीर में नये पुआल की महक होती है / जैसी बाँस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है / जैसे ख़रगोश के कान होते हैं / जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में / नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है / जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है / मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता / जैसे हज़ारो फ़ीट की ऊँचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है? ‘‘ (जनता का आदमी) खान मजदूर को एकदम नयी बंदूक की तरह याद आने वाली कविता की आकांक्षा खरगोश के कान जैसी होने की है.
धन्वा की कविताओं का मूल स्वर अत्यंत करुण है. कुछ वक्तव्यों और चमकती हुई पंक्तियों के बीच करुणा के दृश्य विराजमान हैं. हर बार कविता लिखते हुए कवि का ”विस्फोटक शोक” के सामने खड़े हो जाना उसकी काव्य संवेदना का आधार है. जिन्हें साहित्य में सबसे हिंसक कहकर प्रचारित किया गया था उनके यहां ‘पतंग’ जैसी कवितायें अपवाद की तरह नहीं हैं.
यहां भविष्य की हत्या के खिलाफ आततायी से मुठभेड़ और जीवन के सौन्दर्य का जैसा वर्णन है, वह बड़े ‘कला उपासकों’ के यहां नहीं मिलेगा- ”चिड़ियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं- / अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें / बच्चे बहुत दिनों तक जीवित रह सकते हैं / अगर आप उन्हें मारना बंद कर दें / भूख से / महामारी से / बाढ़ से और गोलियों से मारते हैं आप उन्हें / बच्चों को मारने वाले आप लोग ! / एक दिन पूरे संसार से बाहर निकाल दिये जायेंगे” (पतंग) यह 1976 की कविता है. क्या हमने बच्चों को भूख, बाढ़, महामारी और गोलियों से मारना बंद कर दिया है? क्या हमने गिद्ध और गौरैये को लगभग हमेशा के लिए समाप्त नहीं कर दिया है?
हाल ही में हुई उत्तराखंड में भीषण तबाही में मारे गये और लापता हो गये हजारों बच्चों के बारे में सोचते हुए लगता है कि यह कविता नयी अर्थ संभावनाओं से भर गई है. अंधाधुंध मुनाफ कमाने के लिए वर्षों से प्रकृति के खिलाफ किये गये अपराधों का ही परिणाम है, यह त्रासदी. ‘पतंग’ कविता में पतंग उड़ाने में मशगूल नन्हें बच्चों का जैसा जीवंत और ममतालु बिंब है क्या वह पत्थरों की केलि के अंकन में संलग्न लोगों के यहां दिखाई पड़ सकता है – ”जब वे दौड़ते हैं बेसुध / छतों को भी नरम बनाते हुए / दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए / जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं / डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर / छतों के खतरनाक किनारों तक- / उस समय गिरने से बचाता है उन्हें / सिर्फ़ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत / पतंगों की धड़कती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे / पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं / अपने रंध्रों के सहारे’‘ (पतंग)
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आलोकधन्वा की कविताओं में स्त्रियों के जीवन का वैभव, उनका संघर्ष, उनके बारे में पक्षधरता बहुत साफ है. ‘भागी हुई लड़कियां’, ‘ब्रूनो की बेटियां’, ‘चौक’, ‘शरीर’, ‘एक जमाने की कविता’, ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘शंख के बाहर’, ‘छतों पर लड़कियां’, ‘मैटिनी शो’, ‘सात सौ साल पुराना छंद’, ‘कारवां’ आदि कविताओं में स्त्री जीवन के बहुविध प्रसंग और अनेक बिंब अंके हुए हैं.
‘भागी हुई लड़कियां’ लड़कियों के घर से भागने के बारे में प्रचलित धारणाओं पर भी सवाल उठाती है. लड़कियों का ‘ टैंक जैसे मजबूत ‘ घरों से भाग निकलना पलायनवाद नहीं प्रतिवाद है और ‘कुलीनता की हिंसा’ अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों से अब बहुत अधिक बढ़ चकी है. झूठे सम्मान के नाम पर लगातार होती हत्याओं के बीच ये पंक्तियां एकदम ठोस अर्थ ग्रहण करती है- ”एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे / उसके ही घर की हवा से / उसे वहाँ से भी मिटाओगे / उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर / वहाँ से भी / मैं जानता हूँ / कुलीनता की हिंसा ! / लेकिन उसके भागने की बात / याद से नहीं जायेगी / पुरानी पवन चक्कियों की तरह” (भागी हुई लड़कियां).
लगातार होती हत्याओं के बावजूद अपनी आजादी का वरण करने लड़कियों के लिए ‘भागी हुई लड़कियां’ अपना घोषणापत्र जैसा भी लग सकता है. लड़कियों के घर से ‘भाग जाने’ का वही मतलब नहीं होता जो लड़कों के भाग जाने का होता है. लड़के तो रुष्ट होकर, कमाने के लिए या अन्य कारणों से भागते ही आये हैं और फिर उनका भागना इसलिए भी महत्वपूर्ण नहीं कि वे उसी तरह घरों में बंद नहीं होते जैसे कि लडकियां. इसलिए उन्हें भागने की उतनी जरूरत भी नहीं होती. लेकिन लड़कियों का भागना पितृसत्ता के वज्र किवाड़ों को तोड़कर बाहर निकलना है. जिस देश में महाभारत काल से लड़कियों को भगा लाने के उदाहरण हों, वहां लड़कियों का खुद भागना उनका अपने आप में एजेंसी होना है.
धन्वा लड़कियों के इस कर्तापन को सेलिब्रेट करते हैं – ‘‘अगर एक लड़की भागती है / तो यह हमेशा जरूरी नहीं है / कि कोई लड़का भी भागा होगा / कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं / जिनके साथ वह जा सकती है / कुछ भी कर सकती है / सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है” (भागी हुई लड़कियां)
‘चौक’ कविता उन स्त्रियों प्रति आभार है, जो कवि के बचपन की स्मृतियों में बसी हुई हैं. मेहनतकश स्त्रियों को इतने सम्मान के साथ याद करना और व्यक्तित्व गढ़ने में उनकी अनायास भूमिका को रेखांकित करना धन्वा की विशिष्टता है. ”उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा / जिन्होंने मुझे चौक पार करना सिखाया। / मेरे मोहल्ले की थीं वे / हर सुबह काम पर जाती थीं / मेरा स्कूाल उनके रास्ते में पड़ता था / माँ मुझे उनके हवाले कर देती थीं / छुटटी होने पर मैं उनका इन्तज़ार करता था / उन्होंने मुझे इन्तज़ार करना सिखाया” (चौक)
‘ब्रूनो की बेटियां’ में स्त्रियों के प्रति कवि का आर्तनाद दर्ज है. यह मजदूर स्त्रियों की हत्या की पृष्ठभूमि में लिखी गई है. इसे पढ़ते हुए बरबस ही बाबा नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ याद आती रहती है. जहां ‘हरिजन गाथा’ जन संहार के बाद दलित बस्ती में पैदा हुए लड़के में भविष्य की संभावनाओं को देखती है, वहीं ‘ब्रूनो की बेटियां’ जन संहार में जिंदा जला दी गई स्त्रियों के बारे में करुण विलाप की तरह है- ”वह क्या था उनके होने में / जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया? / बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में / एक ऐसे देश के सामने / जहाँ संसद लगती है? / वह क्या था उनके होने में / जिसे ख़रीदा नहीं जा सका / जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका / जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा / वह भी आधी रात में कायरों की तरह / बंदूकों के घेरे में?” (ब्रूनो की बेटियां). ‘ब्रूनो की बेटियां’ का कवि उनके होने के महत्व और उत्सव को कविता में कम नहीं होने देना चाहता – ”उनकी हत्या की गयी / उन्होंने आत्महत्या नहीं की / इस बात का महत्त्व और उत्सव / कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !” (ब्रूनो की बेटियां).
बिहार में रणवीर सेना द्वारा किये गये ग्रामीण गरीबों के जनसंहारों के बीच ‘ब्रूनों की बेटियां’ का महत्व और भी बढ़ जाता है. आज एक तरफ जनसंहारों के दोषियों को लगातार बरी किया जा रहा है तो दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है कि ग्रामीण गरीबों के संघर्ष ने सामंती सेनाओं को लगभग नेस्तनाबूत कर दिया है. आज जब हत्यारी रणवीर सेना इतिहास के कूड़ेदान में फेंकी जा चुकी है ‘ब्रूनो की बेटियां’ की आखिरी पंक्तियां लगभग भविष्यवाणी सी लगती है – ”पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक / जीते जी फ़ॉसिल बन गये / लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले / चल रहे हैं / रानियाँ मिट गयीं / जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं / रह गयी उनकी याद की / रानियाँ मिट गयीं / लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही / औरतें / फ़सल काट रहीं हैं.” (ब्रूनो की बेटियां).
20वीं शताब्दी के आखिरी दशक में जितने भी कविता संग्रह आये उनमें एक साथ इतनी मजबूत कविताओं वाले संग्रह बिरले ही होंगे.