देवराज त्रिपाठी
‘आया है सो जाएगा ’…..सूरज उगा है तो अस्त होगा ही. लेकिन ढलते सूरज की रोशनी में कुछ पल ठहरकर ये सोचना वाजिब कि आज इस सूरज ने कितनी फ़सलों को जीवन दिया होगा ? कितने ग्लेशियर पिघलाए होंगे, कहाँ कहाँ बारिश कराई होगी और कितनो को नीरोग बनाया होगा? कुछ ऐसे ही सवाल भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक नायाब हीरे और मेवती घराने के सूर्य के अस्त होने पर उठने लाज़मी हैं.
पहला सवाल ये कि भारतीय शास्त्रीय संगीत जो सदियों से आम श्रोताओं से एक दूरी रखता आया है, क्या पिछले कुछ समय में इस दूरी में कोई कमी आयी है ? क्या आज एक आम श्रोता भी क्लासिकल म्यूज़िक में थोड़ी बहुत जिज्ञासा नहीं रखने लगा है ? बॉलीवुड की चमक-दमक के बहाने ही सही, क्या रियालिटी शोज़ के बच्चे लम्बी रेस का घोड़ा बनाने के लिए राग-रागिनियों को अपने सेलेबस का हिस्सा नहीं बना रहे हैं ? कम से कम उपशास्त्रीय (ठुमरी, दादरा, ग़ज़ल, लोक गीत आदि ) गायन की अहमियत और चार्म तो बख़ूबी नज़र आता है.
एक और अहम सवाल ये कि क्या आज शास्त्रीय संगीत के गायक-गायिकाओं, वादकों, फ़नकारों के सामाजिक स्तर में सुधार नहीं आया है ? बेशक आया है. और इस बेहतरी की शुरुआत का सिलसिला हम वहाँ से मान सकते हैं जब पंडित रविशंकर, उस्ताद अलाउद्दीन खान, उस्ताद अल्ला रक्खा खान, उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खान, उस्ताद अली अकबर खान, बिस्मिल्ला खान, पंडित कुमार गंधर्व, पंडित भीमसेन जोशी या पंडित जस्राज जैसे दिग्गज कलाकारों ने न सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में भी अपनी प्रतिभा के ज़रिए श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया. शायद यही वो दौर था जब पश्चिम ने हमारे संगीत को समझना और सराहना शुरू किया.
ये कहना शायद ग़लत नहीं होगा की पंडित जसराज उस शृंखला की अंतिम कड़ी थे. उनका जाना एक परम्परा का अवसान है. ये परम्परा पंडित जसराज ने अपने बल बूते पर गढ़ी थी. इसमें जहाँ गूढ़ रागदारी थी तो वहीं सरलता और जीवंतता भी थी. तानों, खटकों, मुरकियों और गमकों का रौब था तो रस और शृंगार से सराबोर ललित्य भी था.
एक बात बड़ी शिद्दत से कही जा सकती है कि जब सुरों की सच्चाई का इतिहास लिखा जाएगा तो पंडित जसराज वहाँ सुनहरे अक्षरों में दिखाई देंगे.
कहते हैं जब पाकिस्तान में पंडित जसराज ने अपने गायन का समापन अपने पसंदीदा राग अहीर भैरव की ‘मेरो अल्ला मेहरबान’ बंदिश से किया तो कार्यक्रम के अंत में किसी ने पंडित जी से कहा कि वो बुतपरस्त तो नहीं है पर पंडित जी के गायन ने उन्हें अल्लाह के दर्शन करा दिए.
पंडित जसराज ख़याल को भक्ति रस में डुबोने की सामर्थ्य रखते थे. समर्पण उनकी गायकी का प्रमुख अंग था.
साढ़े चार सप्तक तक सहज रूप से गाने का रेंज रखने वाले पंडित जसराज स्वर और श्रुतियों के बारीक फ़र्क़ को दिखाने का हुनर जानते थे. आठ दशकों के लम्बे और संगीतमय सफ़र में पंडित जसराज समय की रिदम पकड़कर चले और हमेशा सम आए. ताज़गी और ऊर्जा से भरे इस महान कलाकार ने संगीत ही ओढ़ा और बिछाया.
पंडित जसराज अपने पीछे शास्त्रीय संगीत की एक मज़बूत धरोहर छोड़कर गए हैं जिसमें संजीव अभ्यंकर, कला रामनाथ, सुमन घोष, और गिरीश वज़लवार जैसे योग्य शिष्य हैं. साथ ही एक परम्परा और सोच भी दे गए हैं कि शस्त्रीयता का मतलब बोझिल और बोरिंग होना नहीं है, कि ‘वो ज़माना अच्छा था’ कहने की जगह इस ज़माने की ‘जय हो’ बेहतर है, कि एक गुरु ज़बरदस्त दोस्त भी हो सकता है, कि कला की गहराई से भी आध्यात्म की ऊँचाइयाँ पायी जा सकती हैं.
पंडित जसराज का न होना एक शून्य का अहसास तो देता ही रहेगा. और इस शून्य को हम कभी दरबारी के ‘माता काली काली’ से, कभी भरियार के ’कोई नहीं हैं अपना’ तो कभी नट भैरव के ‘ओम् नमो भगवते वसुदेवाय’ से भरते रहेंगे.
मुझको मालूम था एक रोज़ चला जाएगा,
वो मेरी उम्र को यादों के हवाले करके.
( देवराज त्रिपाठी युवा संगीतकार हैं )