पंकज चतुर्वेदी
‘वीरेनियत-4’ के अन्तर्गत इंडिया हैबिटेट सेण्टर, नयी दिल्ली में शुभा जी का कविता-पाठ सुना। उनकी कविताएँ समकालीन परिस्थितियों से उपजे इतने गहन तनाव और शोक को व्यक्त कर रही थीं कि सभागार स्तब्ध हो गया था।
मैंने महसूस किया कि कविता जब मार्मिकता के चरम बिंदु पर पहुँचती है, तो वाह-वाह करना या ताली बजाना भी उसका अपमान है।
बरसों पहले ऐसा तब लगा था, जब मंगलेश डबराल जी की कविता ‘गुजरात के एक मृतक का बयान’ का पाठ ‘पहल सम्मान समारोह’ में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली में सुना था।
ऐसी कविताएँ कभी-कभी ही लिखी जाती हैं, जब रघुवीर सहाय की इन काव्य-पंक्तियों का वास्तविक अर्थ समझ में आता है : “सन्नाटा छा जाए जब मैं कविता सुनाकर उठूँ / वाह वाह वाले निराश हो घर जाएँ।”
प्रस्तुत है, इस अवसर पर सुनायी गयी शुभा जी की एक कविता :
। दिलरुबा के सुर।
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–शुभा
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हमारे कन्धे इस तरह बच्चों को उठाने के लिए नहीं बने हैं
क्या यह बच्चा इसलिए पैदा हुआ था
तेरह साल की उम्र में
गोली खाने के लिए
क्या बच्चे अस्पताल, जेल और क़ब्र के लिए बने हैं
क्या वे अन्धे होने के लिए बने हैं
अपने दरिया का पानी उनके लिए बहुत था
अपने पेड़ घास पत्तियाँ और साथ के बच्चे उनके लिए बहुत थे
छोटा-मोटा स्कूल उनके लिए
बहुत था
ज़रा सा सालन और चावल उनके लिए बहुत था
आस-पास के बुज़ुर्ग और मामूली लोग उनके लिए बहुत थे
वे अपनी माँ के साथ फूल पत्ते लकड़ियाँ चुनते
अपना जीवन बिता देते
मेमनों के साथ हँसते-खेलते
वे अपनी ज़मीन पर थे
अपनों के दुख-सुख में थे
तुम बीच में कौन हो
सारे क़रार तोड़ने वाले
शेख़ को जेल में डालने वाले
गोलियाँ चलाने वाले
तुम बीच में कौन हो
हमारे बच्चे बाग़ी हो गए
न कोई ट्रेनिंग
न हथियार
वे ख़ाली हाथ तुम्हारी ओर आए
तुमने उन पर छर्रे बरसाए
अन्धे होते हुए
उन्होंने पत्थर उठाए जो
उनके ही ख़ून और आँसुओं से तर थे
सारे क़रार तोड़ने वालो
गोलियों और छर्रों की बरसात करने वालो
दरिया बच्चों की ओर है
चिनार और चीड़ बच्चों की ओर है
हिमाले की बर्फ़ बच्चों की ओर है
उगना और बढ़ना
हवाएँ और पतझड़
जाड़ा और बारिश
सब बच्चों की ओर है
बच्चे अपनी काँगड़ी नहीं छोड़ेंगे
माँ का दामन नहीं छोड़ेंगे
बच्चे सब इधर हैं
क़रार तोड़ने वालो
सारे क़रार बीच में रखे जायेंगे
बच्चों के नाम उनके खिलौने
बीच में रखे जायेंगे
औरतों के फटे दामन
बीच में रखे जायेंगे
मारे गये लोगों की बेगुनाही
बीच में रखी जायेगी
हमें वजूद में लाने वाली
धरती बीच में रखी जायेगी
मुक़द्मा तो चलेगा
शिनाख़्त तो होगी
हश्र तो यहाँ पर उठेगा
स्कूल बंद हैं
शादियों के शामियाने उखड़े पड़े हैं
ईद पर मातम है
बच्चों को क़ब्रिस्तान ले जाते लोग
गर्दन झुकाए हैं
उन पर छर्रों और गोलियों की बरसात है.
(वीरेनियत 4 में शामिल होने पहुँचें कई रचनाकारों और श्रोताओं ने सोशल मीडिया पर अपने अनुभव साझा किए हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए उन्हें सिलसिलेवार ढंग से यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं)
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