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वीरेनियत 4 के कवि चंदन सिंह के साथ अदनान कफ़ील दरवेश
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वीरेनियत 4: अनसुनी पर ज़रूरी आवाज़ों का मंच

अदनान कफ़ील ‘दरवेश’


कल ‘वीरेनियत’ के चौथे संस्करण में जाने का मौक़ा मिला। दिल्ली की आब-ओ-हवा में इस वक़्त ज़हर की तासीर घुली हुई है।कुहेलिका में डूबा बूढ़ा शहर।

हैबिटैट सेंटर का माहौल गुलज़ार था। बहुत से लोगों ने शिरकत की। चंदन सिंह को पहली बार सुन रहा था।

शायद उनसे सबसे ज़्यादा प्रभावित होने की एक वजह ये भी थी। वे जितने अच्छे कवि हैं उतना ही अच्छा पढ़ते भी हैं। ये चंदन जी का पहला काव्यपाठ था।

ये बात जब उन्होंने कही मुझे बहुत पीड़ा हुई। काव्यपाठ के बाद कुछ सोचते हुए मेरी आत्मा की चूलें हिल गईं और अजीब स्याही सी चेहरे पर मढ़ गयी।

एक बेहतर कवि इतने समय तक हिंदी में उपेक्षित पड़ा रहा ये हमसब के लिए सामूहिक शर्म का विषय होना चाहिए। सबसे ज़्यादा शर्म तो उनके उस शहर के लोगों को आनी चाहिए जो उनकी कविता से अब तक अपरिचित रहे, या हैं भी।

‘वीरेनियत’ ने एक अच्छा काम किया कि उन्हें इतने श्रोताओं के बीच परिचित करवाया। अच्छा लगा जब लोग पाठ के बाद उनसे उनकी किताब के बारे में पूछ रहे थे। जो अब शायद आउट ऑफ़ प्रिंट हो गयी है।

बहरहाल, कविता के क़ब्रिस्तान से बहुत सी अनसुनी आवाज़ें देर सबेर पहुँच ही जाती हैं जिनपर मंडराती है ‘पीली मस्जिद’ की गीली छाया। उनकी एक कविता जो उन्होंने वहाँ सबसे पहले पढ़ी आप सब के लिए :

 

जलकुमारी/ चंदन सिंह

शहर के घाट पर आकर लगी है एक नाव
मल्लाह की बिटिया आई है घूमने शहर

जी करता है जाकर खोलूँ
उसकी नाव का फाटक जो नहीं है
पृथ्वी के पूरे थल का द्वारपाल बनूँ
अदब से झुकूँ
गिरने-गिरने को हो आए
मेरे सिर की पगड़ी जो नहीं है
कहूँ,
पधारो, जलकुमारी !
अपने चेहरे पर नदी और मुहावरे के पानी के साथ।

 

 

(वीरेनियत 4 में शामिल होने पहुँचें कई रचनाकारों और श्रोताओं ने सोशल मीडिया पर अपने अनुभव साझा किए हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए उन्हें सिलसिलेवार ढंग से यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं)

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