समकालीन जनमत
कविता

तुलसीदास और उनकी रचनाएँ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं : प्रो. इरफ़ान हबीब

 

प्रो.कमलानंद झा की पुस्तक ‘ तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध ’ का लोकार्पण और परिचर्चा

 

अलीगढ (उत्तर प्रदेश).  प्रख्यात इतिहासकार प्रो. इरफ़ान हबीब ने कहा है कि  तुलसीदास और उनकी रचनाएँ भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं.

प्रो. इरफ़ान हबीब ने यह बातें 15 फरवरी को प्रो.कमलानंद झा की हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘ तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध ’ के लोकार्पण और परिचर्चा कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कही. यह कार्यक्रम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के आर्ट्स फैकल्टी लाउंज में आयोजित किया गया था .

उन्होंने अपने संबोधन में उर्दू परम्परा में तुलसी, जायसी और रहीम के अध्ययन की दिशाओं की ओर संकेत किया। साथ ही मध्यकालीन भारतीय साहित्य में दीन-धर्म की अधिकता को रेखांकित करते हुए साहित्य की अर्थवत्ता के लिहाज से इसके नकारात्मक पहलुओं की भी चर्चा की।

प्रो. हबीब ने कहा कि तुलसी व अन्य भक्त कवियों के साथ ही 16 वीं शताब्दी शेक्सपियर जैसे रचनाकार का भी समय है, लेकिन उनके साहित्य में दीन-धर्म उस तरह से मौजूद नहीं है।

देशबंधु कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)के प्राध्यापक और भक्ति-साहित्य के महत्त्वपूर्ण आलोचक डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी ने इस पुस्तक को तुलसी साहित्य के अध्ययन की दिशा में एक सार्थक हस्तक्षेप कहा। डॉ. बजरंग जी ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की प्रगतिशील परम्परा को रेखांकित करते हुए जहाँ एक ओर पुस्तक की सार्थकता पर बात की, वहीं दूसरी ओर हिंदी एकेडमिक्स की आलोचकीय एकरेखीयता पर भी सवाल खड़े किए। साथ ही भक्ति-साहित्य से जुड़ी कुछ साहित्यिक-सामाजिक अवधारणाओं मसलन देशी आधुनिकता आदि को साहित्यिक पाठ और तत्कालीन समाज के परिप्रेक्ष्य में पुनर्मूल्यांकित करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए बाल्मीक रामायण में लंका विजय के पश्चात सीता की पवित्रता सम्बन्धी राम-सीता के वार्तालाप को उद्धृत किया।

हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो.रमेश रावत ने अत्यंत रोचक सवालों और बातों के साथ पुस्तक पर चर्चा करते हुए भक्ति-साहित्य सम्बन्धी प्रगतिशील हिंदी आलोचना की सीमाओं और संभावनाओं की पड़ताल की। प्रो. रावत ने भक्ति-साहित्य की आलोचना परम्परा पर बात करते हुए ही भक्ति-साहित्य की व्यापकता और प्रासंगिकता पर भी अपने महत्त्वपूर्ण विचारों को व्यक्त किया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भक्ति-आन्दोलनम एवं भक्ति-साहित्य के महत्त्वपूर्ण अध्येता प्रो. गोपेश्वर सिंह ने हिंदी आलोचना की वर्तमान स्थिति के लिहाज से इस पुस्तक को साहसपूर्ण अध्ययन के तौर पर रेखांकित किया। प्रो.सिंह ने कहा कि सामान्यत: तुलसीदास के संदर्भ में पूर्वाग्रह का खतरा बना रहता है, लेकिन इस पुस्तक की मूल विशेषता इसका पूर्वाग्रहमुक्त होना है।

प्रो सिंह ने कहा कि इस पुस्तक में जिस बेबाकी से तुलसी पर बातचीत की गई है वह सराहनीय है। भक्ति-साहित्य की आधुनिक सामाजिक प्रासंगिकता को प्रो.सिंह ने टैगोर, गाँधी, लोहिया और अवध किसान आन्दोलन के नेतृत्वकर्त्ता बाबा रामचंद्र के हवाले से स्पष्ट किया। उन्होंने इस क्रम में भक्ति साहित्य की सामाजिक-राजनीतिक सीमाओं का भी उल्लेख किया और आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में उसके प्रेरक पक्षों को भी सामने रखा।

लेखकीय वक्तव्य में लेखक कमलानंद झा ने पुस्तक की लेखन-प्रक्रिया पर अपनी बातें रखीं।

कार्यक्रम का संचालन डॉ.दीपशिखा सिंह ने किया और धन्यवाद-ज्ञापन  वाणी प्रकाशन की  सह निदेशक अदिति महेश्वरी ने किया.

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