समकालीन जनमत
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स्त्री : देह पर नाचती वैश्विकता

प्रिया वर्मा

पांव की दसों उंगलियों में ब्याह में बिछिया दबवाई का नेग भाभी का है, ससुरालिए देते हैं। गाली, रार, तानेबाजी के बीच सब मुस्कुरा रहे होते हैं। मंडप के नीचे है जिसके पांव की दसों उंगलियों को अभी-अभी चांदी के कड़े छालों में कसा गया है, उसकी आँखें भीगी हुईं हैं जाने बिछिए के दर्द से कि इतने सारे गहनों कपड़ों के बोझ की थकान से। उसकी नाक की नाथ मामा घर की है , मांग टीका ससुराल का, हाथ के कंगन मां नानी दादी की विरासत के और कमर की करधनी मुंह दिखाई में मिली है। जितने अंग, उतने अंगों को ढकने का व्यापार और व्यापार में देह के अंगों की हाइलाइटिंग में पूरे होशोहवास से जुटा हुआ बाज़ार।

बाज़ार जहाँ पुरुषों ने अपनी सरलता, इच्छा और सुविधा का ध्यान कुछ इस तरह रखा है कि लगता ही नहीं यह स्त्रियों के भले के लिए नहीं है। काम के बोझ में दबाने के पहले गहनों और चमचम कपड़ों के वज़न, छमछम के शोर से घेरने की पूरी तैयारी। परंपरागत ब्याह शादी में इन परम्परागत सामंतवादी ढकोसलों को निभाने का भरसक बीड़ा मध्य वर्ग उठा लेता है, रहा सहा बोझ निचले तबके को भी कुचलता रौंद देता है। किशोर होती बेटी की शादी में गहना, कपड़ा दहेज  के लिए अधेड़ उम्र मज़दूर क्या क्या नहीं जुटाना चाहता, आखिर में कर्ज के अतिरिक्त उसके सामने रास्ता भी क्या बचता है। बेटी को पढ़ाने के लिए आज भी कोई मज़दूर वर्ग का दंपति कर्ज लेता नहीं सुनाई देता। क्या कारण है ? जागरूकता का अभाव अथवा अशिक्षा! । भारतीय समाज में विवाह को संस्कार कहा ज़रूर गया है। और इस एक भावुक शब्द की आड़ में ब्याह को एक कारोबार के छद्म भेस में देखा नहीं जा सकता। इस कारोबार में वेणी से लेकर ओढ़नी तक पर बाजारवादी व्यवस्था की कितनी गलियां छन जाती हैं!

यह सब चलन पीढ़ियों पुराना है, दादा -परदादा के ज़माने से चला आ रहा है, पर क्या इसी तरह ? इतना अश्लील, भोंडा और कुरूप कि जहाँ स्त्री को न इस पार सुख शांति सम्मान मिलता है, न उस पार। दुःख तब और बढ़ जाता है जब स्त्रियाँ खुद इस छद्म के आकर्षण में खुद को बहलाए जाती हैं और भूल जाती हैं कि एक इंसान होने के नाते उसके अपने मौलिक हक क्या – क्या हैं ?

हालात बदल गए हैं, ऐसा कहने वालों के कूढ़मगज दिमाग़ को कुएं का मेंढक समझा जाना चाहिए। स्त्रियां पहले से कहीं अधिक गुलामी के दलदल में धंसती दिखाई देती हैं। नए ज़माने की औरत के जिस्म पर आज के दौर के बहुसंख्यक व्यापार के माध्यम चेहरे बदल- बदल कर सज गए हैं। इन कारोबारियों के दफ़्तर गगनचुंबी इमारतों में हैं और इनके बनाए एप्लिकेशन्स मोबाइल के स्क्रीन पर। सब्सक्रिप्शन के रुपए – पैसे और तमाम सारे समय का निवेश करती हुई स्त्रियां अपनी मेहनत मशक्कत से बचत की कुछ राशियों को अपनी चंद खुशियों को पाने के लोभ में अंत में खाली हाथ रह जाती हैं। क्या वे जानती नहीं कि सशक्त होना दरअसल क्या होना होता है ?

क्या देह की सुंदरता से आज़ादी पाई जा सकती है ? अगर पाई जा सकती होती तो क्यों एक्वेरियम में चमकीली मछलियां पाली जातीं या कि जवान, तेज़ दिमाग़ लड़कियां एयरक्राफ्ट में पानी, चाय, कॉफी सर्व कर रही होतीं ! क्या अगर वे अपनी देह से अनाकर्षक होतींं तब भी क्या होटल के रिसेप्शन पर स्वागत करने की नौकरी पर रखी गई होतीं ! पर शायद कुछ स्त्रियों को एयर होस्टेस या रिसेप्शनिस्ट की नौकरी आज़ादी का दरवाज़ा लगती हो। हो सकता है आर्थिक आज़ादी से स्त्रियों को बौद्धिक आज़ादी पाने का कोई रास्ता नज़र आ भी जाता हो। मगर पीछे छूटी उन तमाम लड़कियों, औरतों का क्या जो उन दैहिक मानदंडों पर फिट नहीं होतीं, जिन पर चलने से कोई होटल या हवाई जहाज के कूचे गलियारे तक पहुंच सकने लायक हो सके।

स्त्री जो अपनी देह से गहरे धूसर रंग और कमर या छाती से छत्तीस इंच के नाप में न समाती हो तब क्या वह ऐसा कोई अवसर पाने लायक हो भी पाती है ? नहीं। उसके ब्याह के भी लाले पड़े रहते हैं तब तक जब तक कि उसके ब्याह में देने लायक माल न जमा किया गया हो।

देह के आयाम पर जाने कब से फैशन, ब्यूटी और फिटनेस इंडस्ट्री खड़ी हुई है, जो कि अच्छे खासे खर्चे के बाद भी किसी किस्म की आज़ादी हासिल करने का दावा नहीं कर सकती। फिर भी इन पर दिन दूनी और रात चौगुनी मेहनत और शानदार आउटपुट मिल रहा है। किसी ज़माने में सिर्फ़ एक फेयर एंड लवली ही ब्रांड थी, जोकि अब लोगों के होहल्ले के बाद नाम बदलकर ग्लो एंड लवली हो गई है। जिसे आज भी फेयर एंड लवली ही कहा जाता है ठीक तमाम सारे लोगों का प्रयागराज को इलाहाबाद कहने की तरह ही।

चलिए माना फेयर न सही ग्लो सही, तब ये ग्लो क्या है? ग्लो यानी चमक। औरत की देह क्या ब्यूटी प्रॉडक्ट्स से ही चमकदार होती है। उस मज़दूर औरत का क्या जो सुबह होते संग रसोई में घुसती है, और थोड़े थोड़े अंतरालों में उसका शरीर रह रहकर श्रम के कारण पसीने में बार बार भीगता और सीझता रहता है। गंधाता है, कहीं कहीं तो घर में रहती स्त्रियों की स्थिति में दिन भर उन्हें आईना तक देखना नसीब नहीं होता। हम कितने बड़े विभेद में कभी इस पार से स्त्रियों की आभा देखते हैं तो कभी उस ओर से ब्यूटी प्रॉडक्ट्स की चमक और महक।

दोनों ही तरफ़ की स्त्रियां बुद्धि के प्रयोग से लगभग वंचित रह जाने के छल प्रपंच की शिकार हैं। वे किताबें पढ़ने के लिए वक्त नहीं निकाल पातीं, न ही अपने पसंदीदा गीत को गुनगुनाती हैं, न प्रेम कर पाती हैं और न ही सपने देख पातीं हैं।

इस ओर से उस ओर देखें तो दिखाई पड़ता है कि इस ओर तो तंगहाली है, लेकिन उस ओर फिटनेस, ब्यूटी और पर्सनल ग्रूमिंग जैसे जाले लटक रहे हैं और इनमें शिकार बनी स्त्री, अपने आप को कमोडिटी की तरह डील किए जाने का खेल पूरी मासूमियत और सादादिली से खेला जाना देख नहीं पाती। उसे लगता है कि बस एक इंच और घटा लूं, एक शेड और पा लूं, तो खुश हो जाऊं, सुखी हो पाऊं, आज़ादी पाऊं।

आज़ादी का मतलब समझना आज के आदमी से ज़्यादा औरत के लिए ज़रूरी है। लेकिन औरतें दिनोंदिन मानसिक गुलामी की दुनिया में धकेली जा रही हैं। इस मानसिक गुलामी से बाहर आने का रास्ता किसी ब्यूटी सैलून, स्लिमिंग सेंटर, जिम, शोरूम, होटल, बुटीक या हवाई जहाज के दरवाज़े से होकर नज़र नहीं आ सकता। तो स्त्री किताबों की उसकी एक दुनिया कहीं है, यह कब जान सकेगी?

केवल स्त्री ही तो प्रेम नहीं चाहती। प्रेम की तलब सभी को होती हैं। जानवरों, परिंदों, ज़मीन के टुकड़े को भी और पेड़ पौधे भी प्यार की दरकार रखते हैं। लेकिन प्यार किए जाने की काबिलियत हासिल करने की कवायद करती औरतें न केवल दयनीय लगती हैं बल्कि मानसिक रूप से कमज़ोर भी। स्त्रियों को चाहिए था कि वे मदर टेरेसा, ऐनी बेसेंट, सावित्री बाई फुले, इंदिरा गांधी, सरोजिनी नायडू, महादेवी वर्मा जैसी तमाम मिसालों के आगे निकलतीं, आसमान में अपना मुकाम हासिल करने के लिए अपने चेहरे मोहरे को अपनी पहचान मान अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए, समाज के उत्थान के लिए और अपने नाम के लिए ढेर सारा काम करतीं।
यह अंधकार भरा समय ही तो सबसे ज़्यादा चमकने की आशा से भरा हुआ है लेकिन स्त्रियां वर्तमान संसार में धर्म और आस्था को अपने पूजा पाठ, व्रत, त्योहार और गहनों, कपड़ों के सहारे बचाए जा रही हैं।

देह के सौंदर्य को बरकरार रखने में जो खप गया है वह है स्त्री के अपने हिस्से का मर – मरकर बचाया जुड़ाया समय, अपना एकांत, अपनी अस्मिता पर खेले जा रहे खेल के विरुद्ध उसका मौलिक विचार।

स्त्री को उसकी देह में उतरकर फिर बाज़ार में उतरते देखने का कोई सेल्फी कैमरा अगर कहीं मिल भी जाए तो स्त्री उसमें अपनी तस्वीर उतारना नहीं चाहती। यह बड़ी त्रासदी है। स्त्रियों को गुलाम बनाए रखने का कुचक्र है। इसी तरह तो हमेशा स्त्री के ही द्वारा पुरुषवाद की नींव भरी जाती रही है।

यह तीसरी दुनिया है जहाँ आज भी निम्न मध्यवर्ग की चौका चूल्हा करती या छुटपुट नौकरी कर घर का खर्च उठाती हुई स्त्री को नाक और कान में छेदे जाने और उनमें आभूषण पहनने का कोई न कोई ढपोलशंखी तथाकथित वैज्ञानिक कारण पता है। मसलन कि सुरक्षित प्रसव, मासिक धर्म में कम कष्ट अथवा सरल गर्भाधान ही। कोई न कोई लालच देकर ही तो जंगल के आज़ाद पशु को लाकर चिड़ियाघर में बाड़े में बंद कर, सर्कस में घेरे के अंदर टिकट पर दिखाया जाता है। औरत कहीं से भी जंगली या पालतू जानवर का उदाहरण देकर समझाए जाने योग्य नहीं किंतु उसकी दिशाहीनता को आखिर किस नज़ीर के ज़रिए कहा जा सकता है ? कितने ही वर्षों तक हमारी दादियां, माएं और भाभियां तक घूंघट में अपनी पहचान छुपाए रहीं। क्या इनमें से किसी को अपने सपनों अपनी इच्छाओं को पूरा करने का खयाल नहीं आया होगा ? इन्हें किसने घर और बाहर की चक्की में पीस कर बराबर कर दिया। सभ्यताओं के इस प्रकरण में कितनी औरतों की हड्डियों का चूरा गारे और सीमेंट की तरह लगा और उनका कहीं नामोनिशान तक आज की तारीख में नहीं आया।

स्त्रियों ने अपने उन आलाओं से आलता, महावर, मेंहदी रचे पांवों में स्पोर्ट्स शूज नहीं चाहे और तराशे हुए नेलपेंट रंगे नाखूनों वाली हथेलियों में दर्शन, विज्ञान, सामाजिक विमर्श की किताबें नहीं मांगीं। न उन्होंने दीं।

और जब उन्होंने अपने हिस्से की ज़मीनें मांगीं तो न न्याय मिला, न संबंध। जब उन्होंने अपने हिस्से का समय मांगा तब उन्हें मिला बंबइया मसाला फ़िल्मों की हीरोइनों की देह का आदर्श रंग और नाप। त्वचा और बालों का रंग भी। बालों को भूरा स्याह रंगना, धोना, सुखाना और उनके रंग को बचाना, फिर टचअप लगाना।

इतना बड़ा बाड़ा बनाया है तुम्हारे लिए उन्होंने कि तुम्हें अब यह घेरा ही सारी दुनिया लगने लगा है। दुनिया लगता है, कैद नहीं।

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