सरिता भारत
भारतीय समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जा सकता है कि भारत में महिलाओं की स्थिति कैसी है ? देश में महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थिति को देखें तो उसकी तह में पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था प्रभावी भूमिका में है। देश में महिलाओं के बदलाव विकास के तमाम दावों के बीच हाल ही में विश्व आर्थिक मंच की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 में जेंडर संवेदनशीलता के मामले में भारत 135वें पायदान पर आ गया है। नेपाल, भूटान, श्रीलंका जैसे देशों ने भी जेंडर के मामलों में भारत को निचले पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया है।
सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक लैंगिक असमानता बढ़ती चली गई। साफ है कि महिलाओं को सामाजिक जीवन में बराबरी का हक पाने में भारत नीचे खिसक गया है। समाज की ज्यादातर महिलाएं, जो हाशिए पर ढकेल दी जाती हैं। उनमें मुख्यधारा में नहीं जुड़ने वाले समुदायों के महिलाओं की चिंताजनक आर्थिक -सामाजिक स्थिति के साथ- साथ राजनीतिक व्यवस्थाओं के लाभ से वंचित रही है।
हम यहां प्रसिद्ध सामाजिक क्रांतिकारी पेरियार ई वी रामासामी की बात पर गौर करें तो उन्होंने कहा था कि स्त्रियों को गुलाम क्यों बनाया गया था ? इसका जवाब देते हुए वे कहते हैं कि लिंग के आधार पर स्त्रियों और पुरुषों के बीच यानी स्त्रियों की पराधीनता तथा जन्म, जाति, वर्ण व्यवस्था के आधार पर होने वाली बीमारियां व्याप्त है। उन्होंने कहा कि क्यों हमारी आधी आबादी का जीवन गुलामों जैसा होना चाहिए, वैसे ही वह गुड़िया बनी रहे, बच्चे पैदा करने की मशीन से लेकर, चूल्हा संभालने तक की उनकी जिम्मेदारियां मूक पशुओं की तरह है। यह कह सकते हैं कि जातिवादी धर्म की खाई के द्वारा पीछे के समुदायों की स्त्रियों को और पीछे धकेला गया। और इन्हीं वर्ग की महिलाओं की स्थिति ज्यादा बदतर देखी गई। उन्होंने पुरुष और स्त्री अस्मिताओं को बचाए रखने की व्यवस्था की थी। इसलिए उन्होंने महाकाव्यों में औरत की आदर्श स्थिति कहे जाने वाले प्रतीकों पर जमकर कटाक्ष किया था। वे हमेशा इस बात पर विश्वास करते थे कि लिंग में महिलाओं पर जो बात लागू हो वह दूसरे लिंग पर भी होनी चाहिए। चाहे फिर वह वेश्यावृत्ति, पुनर्विवाह, नागरिक अधिकार क्यों न हो।
लैंगिक असमानता में स्त्री पुरुष में विभेद पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाता है। इस मामले में समानता ज्योतिबा सावित्री फुले के सत्यशोधक विवाह पद्धति से मिलती-जुलती है। परंपरागत विपत्तियां जो किसी भी जाति विशेष में, खासकर हिंदू विवाह में ब्राह्मणों की भूमिका होती थी जबकि इस पुरोहितों की भूमिका को समाप्त किया सावित्रीबाई ज्योतिबा फुले ने। समाजवादी चिंतकों ने भी वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवादी विचारधारा को स्त्रियों के लिए भेदभावकारी माना। उन्होंने स्त्रियों के प्रति हिंदू धर्म नीति में परंपरागत रूढ़िवादी विचारधारा के विरुद्ध आंदोलन चलाया। बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा, जाति व्यवस्था का खात्मा करके धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास के खिलाफ, मूल्यों की लैंगिक भेदभाव पूर्ण नीति, पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट करते हुए उसकी समाप्ति के लिए अभियान चलाया। धार्मिक आवरण में स्त्री का शोषण, विषमता, अज्ञानता, ब्राह्मणवादी संस्कृति वर्चस्व के स्थान पर समाज में लैंगिक समानता व वैज्ञानिक तार्किकता की स्थापना के लिए प्रयास किया।
डॉ भीम राव अंबेडकर महिलाओं को समानता, शिक्षा और सम्मान अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहे। वे मानते थे कि किसी भी समाज की प्रगति को महिलाओं की प्रगति से मापा जा सकता है। उन्होंने महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश, आत्मनिर्भरता, नौकरी में आरक्षण के साथ साथ संविधान में प्रावधान किया कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। उन्होंने हिंदू कोड बिल संसद में पेश करते हुए कहा कि महिलाओं की सामाजिक शैक्षणिक और राजनीतिक स्तर पर समानता का अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने कहा था कि नारी राष्ट्र की निर्माता है। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा और आजादी को मानते हुए स्त्रियों को समग्र विकास का साधन माना।
यहां हम हाशिए पर ढकेल दी गई उन महिलाओं के समाज का दर्द आपसे साझा करेंगे जिनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया गया। हाशिए के समुदाय वर्ग से तात्पर्य ऐसे समूह से है जो सामाजिक रुप से बहिष्कृत है। जिसे समाज की मुख्यधारा से हाशिए पर ढकेल दिया जाता है। ऐसे समूह के हितों की अनदेखी की जाती है, हम उसे उपेक्षित वर्ग के अंतर्गत देख सकते हैं। जिनको अधिकार प्राप्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं होती। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दशा में उनकी पहुंच नहीं होती, और न ही सरकारें व संपन्न वर्ग के लोग इनको कोई लाभ दिलाने में कोई भूमिका निभाते हैं। इन्हें लिंग, जाति, धर्म, जन्म, समुदाय के आधार पर पक्षपात का सामना करना पड़ता है। यहां यह कहना होगा कि उपेक्षित वर्ग समूह के साथ होने वाला भेदभावपूर्ण व्यवहार उन्हें उत्पीड़न और अपमान की तरफ धकेलता है। यहां हम उन्हीं हाशिए के समुदाय की स्त्रियों की स्थिति पर बात करेंगे और दूसरी ओर घरेलू हिंसा की वैश्विक स्थिति के कारण आर्थिक, सामाजिक, चुनौतियों पर पाबंदी लगने से सभी महिलाएं एवम बच्चियों की चुनौती को समझने का प्रयास करेंगे।
दुनिया भर में करीब एक तिहाई महिलाएं अपने जीवन में किसी न किसी रूप में हिंसा का शिकार होती है। यह विकसित देशों में और अल्प विकसित देशों, दोनों प्रकार के स्त्रियों के जीवन में अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। खासकर, तब जब हम देखते हैं कि कोई देश किसी बड़ी महामारी से गुजर रहा हो। बिहार, झारखंड, राजस्थान और उड़ीसा में देखें तो वहां पर डायन प्रथा प्रचलित है। इसका शिकार कमजोर, दलित, गरीब और हाशिए के समुदाय की महिलाओं को बनाया जाता है। चाहे वह संपत्ति हड़पने का अधिकार हो या स्त्रियों पर यौनाचार या चारित्रिक जैसी हिंसा ही क्यों न हो।
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में बिहार के मुजफ्फरपुर में डकरामा गांव में कुछ महिलाओं को मैला पिलाया गया। खाने को नहीं दिया गया और उनसे लगभग 25 पुरुषों ने मिलकर छेड़छाड़ की। बीच गांव में उनके बाल काटे। इस प्रकार की जो प्रथाएं उनके अस्मिता के साथ- खिलवाड़ है, उन्हें आर्थिक, सामाजिक तंगी से भी होकर गुजरना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर हाशिए के समुदायों पर हम ट्रांसजेंडर वर्ग की बात करें तो हम देखते हैं कि गुजरात हो पश्चिम बंगाल या फिर महाराष्ट्र, ट्रांसजेंडर महिलाओं के बीच में एक तरफ तो गुरु चेला परंपरा के अंतर्गत घरेलू हिंसा है तो दूसरी ओर समाज के भीतर छुआछूत जैसी घटनाएं और भेदभाव हैं जिससे उन्हें गुजरना पड़ता है। उनका बैंक में खाता नहीं खुलता, उनका राशन कार्ड नहीं बनता, उनकी किसी भी प्रकार की जिले और राज्य में सुनवाई नहीं होती। वह पूरी तरीके से मुख्यधारा से कटी हुई हैं।
दूसरी ओर वेश्यावृत्ति करने वाले समूह के साथ साथ जानबूझकर उस धंधे में महिलाओं बच्चियों को धकेल दिया जाता है, उनको रोजगार के अवसर नहीं दिया जाता। सम्मान के साथ अधिकार पूर्ण तरीके से जीने में अभी कितने वर्ष लग जाए कुछ पता नहीं। सामाजिक, भेदभाव का दंश झेलने के साथ साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से सरकार इन्हें वंचित करके रखना चाहती है। अपहरण, रेप और अपराध बोध से भरे इनके बच्चे बाल मजदूरी करने के लिए दर-दर भटकते हैं। 2011 की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि 14 साल तक के बच्चे मजदूरी करते हैं और उनकी जनसंख्या 1 करोड़ पहुंच गई है। वहीं 5 से 18 साल के बच्चे मजदूरी करते पाए गए हैं। राजस्थान में 2011 की जनगणना के अनुसार 52 घुमंतु समुदाय हैं जिनकी आबादी 60 लाख से ज्यादा है। दस लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। नट, भांड, भोपा, बंजारा, कालबेलिया, गडरिया, लोहार, कंजड़, कूड़ा बीनने वाले समुदाय में बाल मजदूरी, भीख मांगने वालों की संख्या अधिक पाई जाती है। बाजीगर, बहरूपिया, बावरिया, साठिया, रेबारी समुदाय के लोगों को तो 5 किलो राशन तक मुहैया नहीं हो पाता। 93 फ़ीसदी महिलाओं को आईसीडीएस का कोई लाभ नहीं। तीन फ़ीसदी में शिक्षा का कोई कार्यक्रम नहीं है। दो लाख बच्चे स्कूल से बाहर पलायन के कारण शिक्षा से वंचित और आर्थिक कमी का दंश झेल रहे।
हाशिए के समुदायों के परिवार में जाति प्रमाण पत्र, विधवा पेंशन, बीपीएल, किसी भी प्रकार का कोई लाभ उन तक नहीं पहुंच पाता है। पूरे देश में हाशिए के समुदाय की महिलाओं पर लिंग, जाति, धर्म आधारित विषमताओं का खासा असर दिखाई पड़ता है। इस स्थिति में इनको शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति के क्षेत्र में सशक्त करने और जेंडर इक्वलिटी में 132 साल लग जाएंगे।
मर्द और औरत के बीच का सामाजिक विभाजन तब तक नहीं मिट सकता जब तक हम मानव निर्मित सिद्धांत और प्राकृतिक जैविकता के अंतर को समझते हुए लिंग की परिभाषा को ठीक से समझ कर समाज में बारीकी से इस विषय पर काम न करें। वंचित, दलित, आदिवासी, घुमंतु समुदायों में संपूर्ण शिक्षा के अवसर को दे पाने हेतु सफल कार्यक्रम चलाने होंगे। यदि वह नहीं दे पाते हैं तो आने वाली पीढ़ी की दुर्दशा क्या होगी इसको हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2007 से लगातार भारत में महिलाओं एवं बेटियों के साथ अपराध, मानव तस्करी, यौन उत्पीड़न, सेक्स स्लेवरी, घरेलू हिंसा, बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, मोबलिचिंग, एसिड अटैक, बॉडी शेमिंग जैसी घटनाएं निरंतर बढ़ रही है। महिला यौन हिंसा के मामले में भारत 193 देशों की सूची में विश्व में 5वें नंबर से खिसक कर प्रथम पर आ गया है। ऐसे में पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था की जड़ों पर कठोर प्रहार करना होगा और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक स्तर पर वैज्ञानिक सोच रखते हुए स्त्रियों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध होकर कार्य करना होगा।