इलाहाबाद, शहर के मेयो हाॅल स्थिति अंजुमन ए रूहे अदब के सभागार में किताब पर बातचीत के अंतर्गत ‘पहाड़गाथा’ उपन्यास पर बातचीत आयोजित की गयी। शुरुआत में उपन्यासकार जनार्दन ने इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया तथा उसमें आने वाली मुश्किलों का जिक्र किया।
बातचीत के क्रम में कवयित्री रूपम मिश्र ने कहा- उपन्यास जंगल गाथा जहाँ से शुरू होता है वहाँ प्रकृति सौन्दर्य, दृश्यों के साथ मृत्यु का संगीत भी शुरू होता है यही मृत्यु का गीत उपन्यास के पार्श्व में लगातार चलता है।
उपन्यास जैसे शुरुआत में ही संकेत दे देता है कि प्रकृति के सौन्दर्य के साथ दुख का यह गीत उपन्यास में जीवन राग की तरह चलता रहेगा
उपन्यास में नायिका नैना का दाखिल होना पर्व, उत्साह, गीत, संगीत, उमंग और प्रेम का दाखिल होना है वहीं जीवन में शिक्षा की अनिवार्यता और साथ में संघर्ष की नाद भी सुनाई पड़ता है.मैं उपन्यास पढ़ते हुए बार-बार उपन्यास के भाषा-सौंदर्य पर ठमकती रही।
यह भाषा का सौंदर्य प्रकृति के आदिरूप का सौंदर्य वर्णन है जहाँ प्रकृति और मनुष्य दोनों एक होते हैं उनका प्रेम, मिलन, आकांक्षा, स्वप्न सब प्रकृति के साथ सजते हैं।
उपन्यास के माध्यम से ही रुपम जी कहती हैं कि आज स्टेट और कॉरपोरेट मिलकर जंगल निगल लेना चाहते हैं।
यहाँ की खनिज संपदा हासिल करने के लिए अब वह लोकतंत्र और संविधान का गैरवाजिब इस्तेमाल कर रहे हैं।
हाशिये का मनुष्य जब शिक्षा की ओर अग्रसर हो जाता है तो बहुत जल्दी समझ लेता है कि व्यवस्था में क्या चल रहा है. नैना विश्वविद्यालय में अपने साथियों से कहती है कि
“अब तो संविधान तक में दाग लगाने की कोशिश होने लगी है नागरिकता तक से निकल जाने का व्यूह रचा जा रहा है हमारा इतिहास हथियाया जा रहा है। हमारे पुरखों की लड़ाइयां और विद्रोह को चुराया जा रहा है।”
उपन्यास में बार- बार जब संगठित होकर शक्ति बनने की बात आती है तो बरबस ध्यान चला ही जाता है इस बात पर कि सत्ता की तरफ मुंह होते ही हर उत्पीड़ित, उत्पीड़क बन जाता है |ऐसा नहीं कि संगठन या पार्टियां नहीं बनी लेकिन उनका हश्र भी सामने है। आख़िर कौन लड़ेगा ये लड़ाई, पूंजी और सभ्यता के पाखंड में ढले लोग तो कत्तई नहीं लेकिन सवाल फिर वहीं है कि कौन बच पा रहा है इनसे. जंगल, पहाड़ से आया हुआ मनुष्य भी कहाँ अछूता रह पाया इस मुनाफाखोरी व लूट की भागीदारी से. आज तो पूरी मनुष्यता और धरती ही दाॅंव पर है तो दरकार है लड़ाई की उस चेतना का जो वर्चस्व, स्वार्थ और सत्ता का पर्याय न होकर वहाँ मनुष्यता, न्याय और धरती सहेजने की साध व जिम्मेदारी हो।
बातचीत के इसी क्रम में शोध छात्रा पूजा ने कहा इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे सबसे विशिष्ट बात लगी गोण्डवाना प्रदेश की लोककथाओं को सहेजने का अनूठा प्रयास, यह आदिवासी समाज के सामने बड़ा सवाल है कि पुरखौती को कैसे सहेजा जाए, जिस ढंग से समाज बदल रहा है, सभ्यता बदल रही है ऐसे में उपन्यासकार ने इसे लीपिबध्द करके लोक सौन्दर्य, लोक स्मृति को संरक्षित कर दिया है
भाषा की बात करें तो, भाषा के मामले में रचनाकार ने कोई परिपाटी नहीं निभाई है।
अपने क्षेत्र की स्थानीय भाषा के प्रति आग्रही है,बहुतेरा दलित, आदिवासी उपन्यास अध्यापकीय, अकादमिक भाषा में लिखा गया है लेकिन इस उपन्यास को पढ़कर लगेगा नहीं कि यह प्रोफेसर की भाषा है गद्य को बरतने का गाढ़ापन, यह सलीका इसकी उपलब्धि है|
इसके साथ ही ध्वनियों को शब्द देना, ध्वनियों का जिक्र जिस आरोह, अवरोह के साथ हुआ है उसे पढ़कर लगता है जैसे कानों में गूंज रही है यह गद्य की सुन्दरता है।
संक्षेप में पहाड़गाथा समकालीन हलचलों, चुनौतियों, बिडम्बनाओं का लिखित दस्तावेज है।
मुख्य वक्ता प्रसिद्ध कथाकार रणेंन्द्र जी ने आदिवासी कथा लेखन का ज़िक्र करते हुए कहा यदि हम सूचीबद्ध करें तो पीटर पाॅल एक्का ने बहुत सारी कहानियाँ एवं उपन्यास लिखे, वाल्टर भेंगरा तरूण ने भी उपन्यास लिखे लेकिन हिन्दी साहित्य में जो रेखांकित हो सका है।
हरिराम मीणा जी के धूणी तपे तीर और डांग से शुरू होकर यह यात्रा जनार्दन जी तक पहुंचती है।
इसी क्रम में वो कहते हैं कि जो शिकार होता रहा है वो अपनी बात खुद कहे तभी वो अपना इतिहास खुद बदलेगा और ये उपन्यास उनकी अपनी बात कहने की, एक मुकाम पर पहुचाने का ही नाम है ‘पहाड़गाथा’। बहुत विपुल सामग्री है शोधकर्ताओं के लिए। उन्हें शून्य का सामना नही करना पड़ेगा। बहुत ही खूबसूरत समय की आहट है ये उपन्यास।
संघर्षगाथा है ये उपन्यास जो एक साथ दो जगह चल रही है, वर्तमान से अतीत, अतीत से वर्तमान की आवाजाही है, एक निरन्तर विस्थापन की कथा है जो चलती रहती है।
सबसे बेहतरीन बात इसमें लोककथाओं का संग्रह है. उनमें ही एक मानकी माई और लोहार लोपन की प्रेम कथा है जिसमें समाजशास्त्रीय दृष्टि दिखती है कि विवाह संस्था का जन्म पवित्र एवं बराबरी के भाव से हुआ था लेकिन बाद में पूंजी के आग्रह ने इस आधार को ही खत्म कर दिया, रणेंद्र जी उपन्यास में इस दृष्टि की कमी को ही और गहराई से रखने का संकेत देते हैं।
नैना नैताम कहानी की मुख्य नायिका है। इन्हीं के माध्यम से पूरी कथा बुनी गयी है। और खूबसूरत बात यह है कि हर जगह स्त्रियाँ नेतृत्व करती हैं और अन्त में उन्होंने कलात्मक संतुलन की बात की और कहा कि वो अभ्यास से आते- आते आती है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रियदर्शन मालवीय जी संविधान सभा में जयपाल सिंह मुण्डा के वकतव्य को कोट करते हुए कहा आज भी आदिवासियों को उनके अधिकार नहीं मिलें हैं वे बेदखली का शिकार हो रहे हैं
उपन्यास के संदर्भ में उन्होंने कहा कि बहुतायत गोंडी शब्दावलियों का प्रयोग के कारण पठनीयता बाधित होती है बावजूद इसके कि खड़ी बोली के शब्दों को दिया गया है।
कार्यक्रम के अंत मे आभार ज्ञापन के. के. पांडे जी ने किया।
कार्यक्रम का संचालन शोध छात्रा किरन ने किया।
कार्यक्रम के दौरान सैकड़ों की संख्या में विश्वविद्यालय के छात्र, अध्यापक, साहित्यकर्मी, राजनीतिक कार्यकर्ता समेत शहर के बुद्धिजीवी शामिल रहे।
आयोजक- जन संस्कृति मंच, इलाहाबाद