शरद जायसवाल
वीरेन्द्र प्रताप यादव का पहला उपन्यास ‘नीला कॉर्नफ्लावर’ प्रकाशित होते ही चर्चा में आ गया है।
उपन्यास की पहली खूबसूरती उसका शीर्षक ‘नीला कॉर्नफ्लावर’ साथ ही उसे ‘कटे हुए अनगिन पेड़ों, रोक दी गईं अनाम नदियों और निर्वसन कर दिये गए पहाड़ों को’ को समर्पित करना है।
उपन्यास के अंतर्गत पाठ के नाम नारोवा, गौजा, पुटूमायो, फीवेल, एम्स, बेनी, मडिरा, नापो, ब्रांको, नेग्रो यूरोप एवं अमेज़न वर्षावन की सहायक नदियों के नाम पर हैं। अंतिम पाठ पाक्स है जिसका अर्थ शांति/सुकून है। इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि नीला कॉर्नफ्लावर के केंद्र में प्रकृति है। साथ ही नीला कॉर्नफ्लावर साहित्य और मानवविज्ञान को न केवल एक दूसरे के समक्ष लाता है बल्कि दोनों विधाओं को एक दूसरे से जोड़ने का भी प्रयास करता है। लेखक मानवविज्ञान एवं साहित्य को एक साथ एक पटल पर लाने में कामयाब हुआ है। उपन्यास के नायक मार्टिन के जीवन तजुर्बे के माध्यम से लेखक ने पूर्वी यूरोप की सामाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति के साथ ही विस्थापन के मर्म एवं लैटिन अमेरिकी वर्षावन के ‘हीहो’ एवं ‘नुआ’ आदिवासी समुदायों के जीवन एवं उनके संघर्ष को सफलतापूर्वक चित्रित किया है।
उपन्यास के आरंभ में पूर्वी यूरोप के एक काल्पनिक राष्ट्र ‘सोमेट्र’ एवं उसके गाँव ‘बोलोवा’ को इस प्रकार चित्रित किया गया है कि पाठक को यह दोनों स्थान वास्तविक दिखते हैं।
बोलोवा की उत्पत्ति को दंतकथाओं के साथ बहुत खूबसूरती के साथ स्थापित किया गया है। आरंभिक पाठों में सोमेट्र की अस्थिर आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति के संघर्ष को लेखक ने सटीक दिखाया है कि पाठक के मन में पूर्वी यूरोप का वास्तविक राष्ट्र परिलक्षित होता है।
यहाँ लेखक राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद की अवधारणा को बहुत सरल तरीके से पाठकों के आगे लाता है। उपन्यास के अंतर्गत आया वाक्य ‘नक्शा एक पिंजरा होता है, जिसमें सभी राष्ट्र कैद हैं’ एवं ‘मेरे लिए वही मेरा देश है, जिससे मेरा जीवन चले, जिससे मुझे पहचान मिले। मैं वहीं की नागरिक हूँ, जहां मेरा जीवन और उससे जुड़ी सभी आम से आम बातें सुरक्षित हों’ बहुत सरलता से राष्ट्र की अवधारणा को पाठकों के आगे पुनः विचार करने के लिए मजबूर करता है।
‘मानो तो पूरी दुनिया ही मेरा देश है और न मानो तो इस पृथ्वी पर ज़मीन का कोई भी ऐसा टुकड़ा नहीं, जिसे मैं देश कह सकूँ’ न केवल राष्ट्र-राज्य बल्कि विस्थापन के मर्म को समानांतर प्रस्तुत करता है।
इस खंड में राष्ट्र-राज्य के साथ ही विस्थापन की पीड़ा को समान रूप से दिखाया गया है।
‘दुनिया में सबसे सुरक्षित जगह घर होता है। भले ही वह घास-फूस से बनी झोपड़ी ही क्यों न हो, वह मजबूत से मजबूत कंक्रीट के बंकर से ज्यादा सुरक्षित लगता है’ विस्थापन के दंश को बखूबी प्रस्तुत करता है।
नीला कॉर्नफ्लावर साहित्य एवं मानवविज्ञान से अंतरसंबंध का खूबसूरत उदाहरण है। लेखक बहुत बारीकी से लैटिन अमेरिका के अमेज़न वर्षावन के काल्पनिक आदिवासी समुदायों ‘हीहो’ एवं ‘नुआ’ का चित्रण करता है।
उपन्यास का नायक मानवविज्ञान का विद्यार्थी है और वह क्षेत्र कार्य करने के लिए घने अमेज़न वर्षावन में दाखिल हो ‘हीहो’ और ‘नुआ’ आदिवासियों का अध्ययन करने जाता है। इस दौरान लेखक ने अमेज़न वर्षावन के जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों को विस्तार से उपन्यास में स्थान दिया है। साथ ही वर्षावन की विविध वनस्पतियों के उपयोग संबंधी देशज ज्ञान को सटीक तरीके से यथास्थान प्रस्तुत किया है। दोनों आदिवासी समुदायों की संस्कृति को पूरी गहनता से प्रस्तुत किया गया है। चाहे मौन वस्तु विनिमय हो अथवा मानव-प्रकृति अंतरसंबंध या सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका को एवं दूसरे सांस्कृतिक तत्वों को मानवशास्त्रीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
संस्कृति एवं क्षेत्रकार्य को नायक मार्टिन के जीवन एवं दृष्टि से पाठकों के समक्ष आसान तरीके से सफलतापूर्वक रखा गया है। मानव-प्रकृति अंतरसंबंध इस उपन्यास के महत्वपूर्ण बिन्दुओं में एक है।
‘नुआ मान्यता है कि इस पृथ्वी पर कोई भी वस्तु किसी एक की नहीं है। जंगल का कोई भी पेड़ किसी एक के लिए फल नहीं देता। सूरज का प्रकाश किसी एक के लिए नहीं होता। बारिश की बूंदें किसी एक के लिए नहीं गिरतीं। इस पृथ्वी पर जो कुछ है, वह सबका साझा है’, ‘नुआ और उसकी जैसी संस्कृतियाँ, जिन्हें हम जंगली और असभ्य मानते हैं, वह समाप्त हो जाएंगी, उसी दिन से पृथ्वी नष्ट होना शुरू हो जाएगी’, ‘नुआ में सबसे कीमती चीज यहाँ के वर्षावन हैं, यह हमारे देवता का प्रसाद है। हम सभी इसी के कारण जीवित हैं’, ‘हमारा आक्रामक होना हमारी मजबूरी है। वर्षावन का हर पेड़, हर पौधा, और हर जीव इसे बनाए रखने में अपना सहयोग देता है। यदि किसी को भी खत्म कर दिया जाएगा, पूरा वर्षावन समाप्त हो जाएगा’, ‘यहाँ का हर पेड़ और जीव हमारे पूर्वजों की आत्मा है। हम वर्षावन से ही बने हैं और मरने के बाद पुनः वर्षावन ही बन जाएंगे’ उपन्यास के अंदर के कुछ उदाहरण हैं, जो मानव-प्रकृति अंतरसंबंधों को परिलक्षित करते हैं।
‘तुम ज्ञान के पीछे पागल हो भाग रहे थे, तुम समझ नहीं पाए कि कई बार ज्ञान से अधिक ज़रूरी अज्ञानता होती है’ वाक्य पाठक को उपन्यास के विमर्श के केंद्र तक ले जाता है। मार्टिन पूर्वी यूरोप के एक अस्थिर राष्ट्र से निकलकर नीदरलैंड के ग्रोनिंगन विश्वविद्यालय से मानवविज्ञान की डिग्री लेकर अमेज़न वर्षावन के ‘हीहो’ एवं ‘नुआ’ आदिवासी समुदायों का अध्ययन करता है।
अनछुआ वर्षावन प्रकृतिक सम्पदा से भरपूर होने के कारण नव-उपनिवेशवादी शक्तियों के ध्यान में था, किन्तु दुर्गम स्थान होने के कारण वह अभी तक सुरक्षित था। मान्यता थी कि वहाँ के आदिवासी समुदाय नरभक्षी हैं, जिसके डर से बाहरी दुनिया के लोग वहाँ पहुँचने में झिझक रहे थे। किन्तु मार्टिन ने वहाँ चार साल रहकर अध्ययन किया। उसने वहाँ की प्रकृति, वहाँ की मिट्टी में स्वर्ण होने एवं वहाँ के आदिवासी समुदायों की संस्कृति एवं मान्यताओं की जानकारी विस्तारपूर्वक मोनोग्राफ के माध्यम से पूरी दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया। जिसके कारण अपने लालच को पूरा करने के लिए पूंजीवादी कथित सभ्य समाज ने वहाँ के प्रकृति प्रेमी आदिवासियों का कत्लेआम कर पूरे वर्षावन को तबाह कर डाला।
उपन्यास का अंतिम पाठ ‘पाक्स’ जिसका अर्थ शांति/सुकून है, ने उपन्यास का खूबसूरत एवं प्रभावशाली समापन किया है।
उपन्यास की कथा के अलावा भी इसमें कई महत्वपूर्ण बिन्दु हैं जो इसे खास बनाते हैं। उपन्यास में देशज वनस्पतियों, वस्तुओं आदि को उसी संस्कृति की भाषा में प्रयुक्त किया गया है, जिसे फुटनोट द्वारा विस्तार से समझाया भी गया है।
उपन्यास में ऐसे कुल 45 फुटनोट हैं, जिनसे पाठकों बहुत सहूलियत होती है। लेखक ने लोक-कथाओं को उपन्यास में स्थान देकर समाज विशेष को जीवंत कर दिया है। लोक-कथाएँ अपने चरित्र के अनुसार प्रकृति केन्द्रित हैं।
उपन्यास में रंगों का प्रयोग बहुत खूबसूरती से किया गया है। लेखक उपन्यास को पेंटिंग की तरह प्रस्तुत करने में पूरी तरह कामयाब हुआ है। लेखक द्वारा बनाए गए बिम्ब ठीक किसी फीचर फिल्म की तरह पाठकों को दिखते हैं। उपन्यास के शीर्षक का नीला रंग पूरे उपन्यास में अपने तमाम अर्थों के साथ प्रस्तुत होता है। कहीं वह ज्ञान को प्रस्तुत करता है तो कहीं उदासी, तो कहीं एकाकीपन के अपने अर्थ के साथ आता है।
पूरे उपन्यास में कहीं भी कोई अनावश्यक वाक्य नहीं है। उपन्यास पूरी सफलता के साथ पाठक को बांधता है। लेखक ने उपन्यास में संपनों का खूब प्रयोग किया है। सपनों के माध्यम से अमूर्त यथार्थ को प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
बहुत सावधानी से तमाम अमूर्त संवेदनाओं को सपनों में ले जाकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। न केवल सपनों बल्कि आदिवासी अनुष्ठानों का भी विवरण दिया गया है।
कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह कोई एथनोग्राफी है या फिक्शन। उपन्यास में वर्णित राष्ट्र ‘सोमेट्र’ एवं अमेज़न वर्षावन के आदिवासी समूह ‘हीहो’ एवं ‘नुआ’ पूरी तरह काल्पनिक हैं किन्तु पाठक को एक बार भी इन पर संदेह नहीं होता।
यह खूबी इस उपन्यास को तमाम दूसरे आदिवासी केन्द्रित उपन्यासों से पृथक करती है।
यह इस उपन्यास को रिपोर्ट राइटिंग से इतर और अधिक साहित्यिक बनाता है। लेखक ने मानवविज्ञान के बदलते स्वरूप खासतौर पर उसे एक औपनिवेशिक उपकरण से ज्ञान की स्वतंत्र एवं जिम्मेदार विधा के तौर पर स्थापित किया है।
उपन्यास की पृष्ठभूमि एवं उसकी विविधतापूर्ण सामग्री को वीरेन्द्र प्रताप यादव ने सफलतापूर्वक हिंदी में रचा एवं प्रस्तुत किया है। उपन्यास पढ़ते हुए कई बार लगता है कि यह किसी विदेशी भाषा के उपन्यास का बहुत अच्छा हिंदी अनुवाद है। ऐसा हिंदी साहित्य में कम ही देखने को मिलता है। इसके लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।
नीला कॉर्नफ्लावर पूंजीवाद एवं नव-उपनिवेशवाद द्वारा एक राष्ट्र एवं वर्षावन तथा वहाँ के आदिवासी समुदायों के शोषण, विस्थापन के मर्म, राष्ट्र-राज्य एवं संस्कृति की अवधारणा, प्रकृति-मानव अंतरसंबंध, आदिवासी जीवन एवं उनकी संस्कृति, प्रकृति के संरक्षण में आदिवासियों की भूमिका, वनों का दोहन, देशज ज्ञान, ज्ञान एवं अज्ञानता के द्वंद, साहित्य एवं समाज विज्ञान खासतौर पर मानवविज्ञान आदि पर प्रभावशाली विमर्श करता है। इन क्षेत्रों में दिलचस्पी रखने वाले पाठकों को यह उपन्यास निराश नहीं करेगा।
पुस्तक- नीला कॉर्नफ्लावर
लेखक – वीरेन्द्र प्रताप यादव
पृष्ठ संख्या: 112, मूल्य: 195, आधार प्रकाशन
(शरद जायसवाल, महात्मा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के क्षेत्रीय केन्द्र, इलाहाबाद में अध्यापक हैं)